Friday, 14 February 2020

हमारी जननी को बेसहारा बेघर न होने दें - दिल को छू जाने वाली कहानी


एक *जज अपनी पत्नी को क्यों दे रहे हैं तलाक???*।
* रोंगटे खड़े कर देने वाली स्टोरी*  को जरूर पढ़े और लोगों को शेयर करें।

⚡कल रात एक ऐसा वाकया हुआ जिसने मेरी *ज़िन्दगी के कई पहलुओं को छू लिया*.


करीब 7 बजे होंगे, शाम को मोबाइल बजा ।

उठाया तो *उधर से रोने की आवाज*...
मैंने शांत कराया और पूछा कि *भाभीजी आखिर हुआ क्या*?

उधर से आवाज़ आई..
*आप कहाँ हैं??? और कितनी देर में आ सकते हैं*?

मैंने कहा:- *"आप परेशानी बताइये"*।
और "भाई साहब कहाँ हैं...?माताजी किधर हैं..?" "आखिर हुआ क्या...?"
लेकिन
*उधर से केवल एक रट कि "आप आ जाइए"*,

मैंने आश्वाशन दिया कि *कम से कम एक घंटा पहुंचने में लगेगा*. जैसे तैसे पूरी घबड़ाहट में पहुँचा;


देखा तो भाई साहब [हमारे मित्र जो जज हैं] सामने बैठे हुए हैं;


*भाभीजी रोना चीखना कर रही हैं* 12 साल का बेटा भी परेशान है; 9 साल की बेटी भी कुछ नहीं कह पा रही है।

मैंने भाई साहब से पूछा कि *""आखिर क्या बात है""*???

*""भाई साहब कोई जवाब नहीं दे रहे थे ""*.

फिर भाभी जी ने कहा ये देखिये *तलाक के पेपर, ये कोर्ट से तैयार करा के लाये हैं*, मुझे तलाक देना चाहते हैं,

मैंने पूछा - *ये कैसे हो सकता है???. इतनी अच्छी फैमिली है. 2 बच्चे हैं. सब कुछ सेटल्ड है. ""प्रथम दृष्टि में मुझे लगा ये मजाक है""*.

लेकिन मैंने बच्चों से पूछा  *दादी किधर है*,
बच्चों ने बताया पापा ने उन्हें 3 दिन पहले *नोएडा के वृद्धाश्रम में शिफ्ट* कर दिया है.

मैंने घर के नौकर से कहा।

मुझे और भाई साहब को चाय पिलाओ;

कुछ देर में चाय आई. भाई साहब को *बहुत कोशिशें कीं चाय पिलाने की*.लेकिन उन्होंने नहीं पी और कुछ ही देर में वो एक *"मासूम बच्चे की तरह फूटफूट कर रोने लगे "*

बोले मैंने 3 दिन से कुछ भी नहीं खाया है. मैं अपनी 61 साल की माँ को कुछ लोगों के हवाले करके आया हूँ.
*पिछले साल से मेरे घर में उनके लिए इतनी मुसीबतें हो गईं कि पत्नी (भाभीजी) ने कसम खा ली*. कि *""मैं माँ जी का ध्यान नहीं रख सकती""*

ना तो ये उनसे बात करती थी और ना ही मेरे बच्चे बात करते थे. *रोज़ मेरे कोर्ट से आने के बाद माँ खूब रोती थी*. नौकर तक भी *अपनी मनमानी से व्यवहार करते थे*

माँ ने 10 दिन पहले बोल दिया.. बेटा तू मुझे *ओल्ड ऐज होम* में शिफ्ट कर दे.


मैंने बहुत *कोशिशें कीं पूरी फैमिली को समझाने की*, लेकिन *किसी ने माँ से सीधे मुँह बात नहीं की*.

*जब मैं 2 साल का था तब पापा की मृत्यु हो गई थी दूसरों के घरों में काम करके *""मुझे पढ़ाया. मुझे इस काबिल बनाया कि आज मैं जज हूँ""*.

लोग बताते हैं माँ कभी दूसरों के घरों में काम करते वक़्त भी मुझे अकेला नहीं छोड़ती थीं.
*उस माँ को मैं ओल्ड ऐज होम में शिफ्ट करके आया हूँ*.

पिछले 3 दिनों से मैं *अपनी माँ के एक-एक दुःख को याद करके तड़प रहा हूँ,*जो उसने केवल मेरे लिए उठाये।

मुझे आज भी याद है जब..
*""मैं 10th की परीक्षा में अपीयर होने वाला था. माँ मेरे साथ रात रात भर बैठी रहती""*.

एक बार *माँ को बहुत फीवर हुआ मैं तभी स्कूल से आया था*. उसका *शरीर गर्म था, तप रहा था*. मैंने कहा *माँ तुझे फीवर है हँसते हुए बोली अभी खाना बना रही थी इसलिए गर्म है*.


लोगों से *उधार माँग कर मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय से एलएलबी तक पढ़ाया*. मुझे *ट्यूशन तक नहीं पढ़ाने देती थीं*कि कहीं मेरा टाइम ख़राब ना हो जाए.   

      *कहते-कहते रोने लगे..और बोले--""जब ऐसी माँ के हम नहीं हो सके तो हम अपने बीबी और बच्चों के क्या होंगे""*.

हम जिनके *शरीर के टुकड़े हैं*,आज हम उनको *ऐसे लोगों के हवाले कर आये, ""जो उनकी आदत, उनकी बीमारी, उनके बारे में कुछ भी नहीं जानते""*,
जब मैं ऐसी माँ के लिए कुछ नहीं कर सकता तो *"मैं किसी और के लिए भला क्या कर सकता हूँ".*

आज़ादी अगर इतनी प्यारी है और *माँ इतनी बोझ लग रही हैं, तो मैं पूरी आज़ादी देना चाहता हूँ*
.
जब *मैं बिना बाप के पल गया तो ये बच्चे भी पल जाएंगे*. इसीलिए मैं तलाक देना चाहता हूँ।

*सारी प्रॉपर्टी इन लोगों के हवाले* करके उस *ओल्ड ऐज होम* में रहूँगा. कम से कम मैं माँ के साथ रह तो सकता हूँ।

और अगर *इतना सब कुछ कर के ""माँ आश्रम में रहने के लिए मजबूर है"", तो एक दिन मुझे भी आखिर जाना ही पड़ेगा*.

माँ के साथ रहते-रहते आदत भी हो जायेगी. *माँ की तरह तकलीफ* तो नहीं होगी.

*जितना बोलते उससे भी ज्यादा रो रहे थे*.

बातें करते करते रात के 12:30 हो गए।

मैंने भाभीजी के चेहरे को देखा.
उनके *भाव भी प्रायश्चित्त और ग्लानि* से भरे हुए थे; मैंने ड्राईवर से कहा अभी हम लोग नोएडा जाएंगे।

भाभीजी और बच्चे हम सारे लोग नोएडा पहुँचे.
*बहुत ज़्यादा रिक्वेस्ट करने पर गेट खुला*.

भाई साहब ने उस *गेटकीपर के पैर पकड़ लिए*, बोले मेरी माँ है, मैं उसको लेने आया हूँ,
चौकीदार ने कहा क्या करते हो साहब,
भाई साहब ने कहा *मैं जज हूँ,*

उस चौकीदार ने कहा:-

*""जहाँ सारे सबूत सामने हैं तब तो आप अपनी माँ के साथ न्याय नहीं कर पाये,
औरों के साथ क्या न्याय करते होंगे साहब"*।

इतना कहकर हम लोगों को वहीं रोककर वह अन्दर चला गया.

अन्दर से एक महिला आई जो *वार्डन* थी.
उसने *बड़े कातर शब्दों में कहा*:-
"2 बजे रात को आप लोग ले जाके कहीं मार दें, तो
*मैं अपने ईश्वर को क्या जबाब दूंगी..*?"

मैंने सिस्टर से कहा  *आप विश्वास करिये*. ये लोग *बहुत बड़े पश्चाताप में जी रहे हैं*.

अंत में किसी तरह उनके कमरे में ले गईं. *कमरे में जो दृश्य था, उसको कहने की स्थिति में मैं नहीं हूँ.*

केवल एक फ़ोटो जिसमें *पूरी फैमिली* है और वो भी माँ जी के बगल में, जैसे किसी बच्चे को सुला रखा है.
मुझे देखीं तो उनको लगा कि बात न खुल जाए
लेकिन जब मैंने कहा *हम लोग आप को लेने आये हैं, तो पूरी फैमिली एक दूसरे को पकड़ कर रोने लगी*

आसपास के कमरों में और भी बुजुर्ग थे सब लोग जाग कर बाहर तक ही आ गए.

*उनकी भी आँखें नम थीं*
कुछ समय के बाद चलने की तैयारी हुई. पूरे आश्रम के लोग बाहर तक आये. किसी तरह हम लोग आश्रम के लोगों को छोड़ पाये.


सब लोग इस आशा से देख रहे थे कि *शायद उनको भी कोई लेने आए, रास्ते भर बच्चे और भाभी जी तो शान्त रहे*.......

लेकिन भाई साहब और माताजी एक दूसरे की *भावनाओं को अपने पुराने रिश्ते पर बिठा रहे थे*.घर आते-आते करीब 3:45 हो गया.

👩 💐 *भाभीजी भी अपनी ख़ुशी की चाबी कहाँ है; ये समझ गई थी* 💐

मैं भी चल दिया. लेकिन *रास्ते भर वो सारी बातें और दृश्य घूमते रहे*.

👵 💐*""माँ केवल माँ है""* 💐👵

*उसको मरने से पहले ना मारें.*

*माँ हमारी ताकत है उसे बेसहारा न होने दें , अगर वह कमज़ोर हो गई तो हमारी संस्कृति की ""रीढ़ कमज़ोर"" हो जाएगी* , बिना रीढ़ का समाज कैसा होता है किसी से छुपा नहीं

अगर आपकी परिचित परिवार में ऐसी कोई समस्या हो तो उसको ये जरूर पढ़ायें, *बात को प्रभावी ढंग से समझायें , कुछ भी करें लेकिन हमारी जननी को बेसहारा बेघर न होने दें*, अगर *माँ की आँख से आँसू गिर गए तो *"ये क़र्ज़ कई जन्मों तक रहेगा"*, यकीन मानना सब होगा तुम्हारे पास पर *""सुकून नहीं होगा""* , सुकून सिर्फ *माँ के आँचल* में होता है उस *आँचल को बिखरने मत देना*।
✍👏👏💐💐👏👏
इस *मार्मिक दास्तान को खुद भी पढ़िये और अपने बच्चों को भी पढ़ाइये ताकि पश्चाताप न करना पड़े


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Tuesday, 4 February 2020

वादा वही करो जो निभा सको - short inspiration , motivation, bedtime story

Motivational Story


एक ठंडी रात में, एक अरबपति बाहर एक बूढ़े गरीब आदमी से मिला। उसने उससे पूछा, "क्या तुम्हें बाहर ठंड महसूस नहीं हो रही है, और तुमने कोई कोट भी नहीं पहना है?"

बूढ़े ने जवाब दिया, "मेरे पास कोट नहीं है लेकिन मुझे इसकी आदत है।" अरबपति ने जवाब दिया, "मेरे लिए रुको। मैं अभी अपने घर में प्रवेश करूंगा और तुम्हारे लिए एक कोट ले लाऊंगा।"

वह बेचारा बहुत खुश हुआ और कहा कि वह उसका इंतजार करेगा। अरबपति अपने घर में घुस गया और वहां व्यस्त हो गया और गरीब आदमी को भूल गया।

सुबह उसे उस गरीब बूढ़े व्यक्ति की याद आई और वह उसे खोजने निकला लेकिन ठंड के कारण उसे मृत पाया, लेकिन उसने एक चिट्ठी छोड़ी थी, जिसमे लिखा था कि, "जब मेरे पास कोई गर्म कपड़े नहीं थे, तो मेरे पास ठंड से लड़ने की मानसिक शक्ति थी। लेकिन जब आपने मुझे मेरी मदद करने का वादा किया, तो मैं आपके वादे से जुड़ गया और इसने मेरी मानसिक शक्ति को खत्म कर दिया। "

अगर आप अपना वादा नहीं निभा सकते तो कुछ भी वादा न करें। यह आप के लिये जरूरी नहीं भी हो सकता है, लेकिन यह किसी और के लिए सब कुछ हो सकता है। 🙏🙏


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Wednesday, 15 January 2020

अपने मन को शांत और फोकस करने के लिए अपने भीतर देखें - A Short Inspiring Story

अपने मन को शांत और फोकस करने के लिए अपने भीतर देखें - A Short Inspiring Story



कथा है कि चीन के सम्राट ने बोधिधर्म से पूछा : ‘मेरा चित्त अशांत है, बेचैन है। मेरे भीतर निरंतर अशांति मची रहती है। मुझे थोड़ी शांति दें या मुझे कोई गुप्त मंत्र बताएं कि कैसे मैं आंतरिक मौन को उपलब्ध होऊं।’’

बोधिधर्म ने सम्राट से कहा : ‘आप सुबह ब्रह्यमुहुर्त में यहां आ जाएं, चार बजे सुबह आ जाएं। जब यहां कोई भी न हो, जब मैं यहां अपने झोपड़े में अकेला होऊं, तब आ जाएं। और याद रहे, अपने अशांत चित्त को अपने साथ ले आएं; उसे घर पर ही न छोड़ आएं।’

सम्राट घबरा गया; उसने सोचा कि यह आदमी पागल है। यह कहता है : ‘अपने अशांत चित्त को साथ लिए आना; उसे घर पर मत छोड़ आना। अन्यथा मैं शांत किसे करूंगा? मैं उसे जरूर शांत कर दूंगा, लेकिन उसे ले आना। यह बात स्मरण रहे।’

सम्राट घर गया, लेकिन पहले से भी ज्यादा अशांत होकर गया। उसने सोचा था कि यह आदमी संत है, ऋषि है, कोई मंत्र-तंत्र बता देगा। लेकिन यह जो कह रहा है वह तो बिलकुल बेकार की बात है, कोई अपने चित्त को घर पर कैसे छोड़ आ सकता है?

सम्राट रात भर सो न सका।
बोधिधर्म की आंखें और जिस ढंग से उसने देखा था, वह सम्मोहित हो गया था। मानो कोई चुंबकीय शक्ति उसे अपनी और खींच रही हो। सारी रात उसे नींद नहीं आई। और चार बजे सुबह वह तैयार था। वह वस्तुतः नहीं जाना चाहता था, क्योंकि यह आदमी पागल मालूम पड़ता था। और इतने सबेरे जाना, अंधेरे में जाना, जब वहां कोई न होगा, खतरनाक था।

यह आदमी कुछ भी कर सकता है। लेकिन फिर भी वह गया, क्योंकि वह बहुत प्रभावित भी था।
और बोधिधर्म ने पहली चीज क्या पूछी? वह अपने झोपड़े में डंडा लिए बैठा था। उसने कहा : ‘अच्छा तो आ गए, तुम्हारा अशांत मन कहां है? उसे साथ लाए हो न? मैं उसे शांत करने को तैयार बैठा हूं।’
सम्राट ने कहा : ‘लेकिन यह कोई वस्तु नहीं है; मैं आपको दिखा नहीं सकता हूं। मैं इसे अपने हाथ में नहीं ले सकता; यह मेरे भीतर है।’

बोधिधर्म ने कहा :बहुत अच्छा, अपनी आंखें बंद करो, और खोजने की चेष्टा करो कि चित्त कहां है। और जैसे ही तुम उसे पकड़ लो, आंखें खोलना और मुझे बताना मैं उसे शांत कर दूंगा।’

उस एकांत में और इस पागल व्यक्ति के साथ-सम्राट ने आंखें बंद कर लीं। उसने चेष्टा की, बहुत चेष्टा की। और वह बहुत भयभीत भी था, क्योंकि बोधिधर्म अपना डंडा लिए बैठा था, किसी भी क्षण चोट कर सकता था। सम्राट भीतर खोजने की कोशिश रहा।

उसने सब जगह खोजा, प्राणों के कोने-कातर में झांका, खूब खोजा कि कहां है वह मन जो कि इतना अशांत है। और जितना ही उसने देखा उतना ही उसे बोध हुआ कि अशांति तो विलीन हो गई। उसने जितना ही खोजा उतना ही मन नहीं था, छाया की तरह मन खो गया था।

दो घंटे गुजर गए और उसे इसका पता भी नहीं था कि क्या हो रहा है। उसका चेहरा शांत हो गया; वह बुद्ध की प्रतिमा जैसा हो गया। और जब सूर्योदय होने लगा तो बोधिधर्म ने कहा  : ‘अब आंखें खोलो। इतना पर्याप्त है। दो घंटे पर्याप्त से ज्यादा हैं। अब क्या तुम बता सकते हो कि चित्त कहा है?’


सम्राट ने आंख खोलीं। वह इतना शांत था जितना कि कोई मनुष्य हो सकता है। उसने बोधिधर्म के चरणों पर अपना सिर रख दिया और कहा :आपने उसे शांत कर दिया।’

सम्राट वू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है :यह व्यक्ति अदभुत है, चमत्कार है। इसने कुछ किए बिना ही मेरे मन को शांत कर दिया। और मुझे भी कुछ न करना पड़ा। सिर्फ मैं अपने भीतर गया और मैंने यह खोजने की कोशिश की कि मन कहां है।

निश्चित ही बोधिधर्म ने सही कहा कि पहले उसे खोजो कि वह कहां है। और उसे खोजने की प्रयत्न ही काफी था--वह कहीं नहीं पाया गया।’



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Sunday, 12 January 2020

जो हम देते हैं वही हमें मिलता है - A true story on vivekanad , inspiring story

जो हम देते हैं वही हमें मिलता है  - A true story on vivekanad , inspiring story.


विवेकानन्द के जीवन में एक छोटा--सा संस्मरण ।

विवेकानन्द के पिता चल बसे तो घर में बहुत गरीबी थी और घर में भोजन इतना नहीं था कि माँ और बेटा दोनों भोजन कर पायें।
तो विवेकानन्द अपनी माँ को यह कहकर कि आज किसी मित्र के घर निमंत्रण है, मैं वहाँ जाता हूँ--कोई निमंत्रण नहीं होता था कोई मित्र भी नहीं होते थे--सड़कों पर चक्कर लगाकर घर वापस लौट आते थे, अन्यथा भोजन इतना कम है कि माँ उन्हीं को खिला देगी और खुद भूखी रहेगी।

तो भूखे घर लौट आते। हँसते हुए आते थे कि आज तो बहुत गजब का खाना मिला। क्या चीजें बनी थीं। बस उन्हीं चीजों की चर्चा करते आते थे, जो कहीं बनी ही नहीं थीं, जो कहीं खायी भी नहीं थीं।

भूखे, चक्कर लगाकर लौट आते थे, ताकि माँ खाना खा ले।


रामकृष्ण को पता चला तो उन्होंने कहा--तू कैसा पागल है, भगवान से क्यों नहीं कह देता, सब पूरा हो जायेगा तो विवेकानन्द ने कहा कि खाने-पीने की बात भगवान से चलाऊँ तो जरा बहुत साधारण बात हो जायेगी।

फिर भी रामकृष्ण ने कहा कि तू एक दफा कहकर देख तो। विवेकानन्द को भीतर भेजा - घण्टा बीता, डेढ़ घण्टा बीता, वह मन्दिर से बाहर आये, बड़े आनन्दित थे। नाचते हुए बाहर निकले।

रामकृष्ण ने कहा--मिल गया न? माँग लिया न? विवेकानन्द ने कहा--क्या?

रामकृष्ण ने कहा-तुझे मैंने कहा था कि माँग अपनी रख देना। तू इतना आनन्दित क्यों आ रहा है?

विवेकानन्द ने कहा-वह तो भूल गया।

ऐसा कई बार हुआ। रामकृष्ण भेजते और विवेकानन्द वहाँ से बाहर आते और वे पूछते तो वे कहते--क्या?

तो रामकृष्ण ने कहा-तू पागल तो नहीं है, क्योंकि भीतर जाता हैं तो पक्का वचन देकर जाता है।

विवेकानन्द कहते हैं कि भीतर जाता हूँ तो परमात्मा से भी मांगू, यह तो ख्याल ही नहीं रह जाता। देने का मन हो जाता है कि अपने को दे दूं। और जब अपने को देता हूँ तो इतना आनन्द, इतना आनन्द कि फिर कैसी भूख, कैसी प्यास, कौन माँगने वाला, कौन याचक, नहीं माँग सके। यह सम्भव नहीं हो सका।

आज तक किसी धार्मिक आदमी ने परमात्मा से कुछ भी नहीं माँगा है। और जिन्होंने माँगा हो, उन्हें ठीक से समझ लेना चाहिए। कि धर्म से उनका कोई नाता नहीं है। धार्मिक आदमी ने दिया है। और जो दिया जायेगा, वही मिलता है। अगर जीवन दे देंगे तो जीवन मिलेगा, अगर स्वयं को दे देंगे तो स्वयं का होना परिपूर्ण रूप से मिलेगा। अगर अहंकार दे देंगे तो आत्मा मिलेगी। अगर यह न कुछ व्यक्तित्व दे देंगे तो परम व्यक्तित्व मिलेगा जो भी दिया जायेगा वह मिलेगा। और हमारे पास क्या हो सकता है देने योग्य? हमारे पास मरणधर्मा देह है, एक झूठा अहंकार है, ख्याल है कि मैं कुछ हूँ। बस, यही चीज है, वापस आ जाता है, सच में जो मेरी देह है--अमृतवत्‌ वह मुझे मिल जाती है।


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Saturday, 11 January 2020

बुद्धि से हर परेशानियों का हल ढूंढो - eye opening story - short story , motivation story

बुद्धि से हर परेशानियों का हल ढूंढो -  eye opening story . to use brain.






एक किसान ने एक बार भगवान बुद्ध से शिकायत की कि

मैं खेत में श्रम करता, हल चलाता, बीज बोता हूं और तब मुझे खाने को मिल पाता है।
क्या यह बेहतर न होता कि आप भी बीज बोते हलचलाते और तब खाते?


बड़ी अनूठी बात किसान ने पूछी बुद्ध से।

बुद्ध ने कहा ओ किसान,
मैं भी हल चलाता हूं? बीज बोता हूं फसल कांटता हूं तभी खाता हूं!
किसान ने हैरान होकर कहा, अगर तुम किसान हो तो तुम्हारे खेती के उपकरण कहां हैं? कहां है तुम्हारे बैल? बीज कहां है? कहां है हल?



 बुद्ध ने कहा विश्वास मेरी बीज है जिसे मैं बोता हूं। भक्ति है वर्षा जो उसे अंकुरित करती है। विनय है मेरा बक्सर। मन है बैलों को बांधने की रस्सी और स्मृति है मेरा हल और हंकनी। सत्य है बांधने का साधन; कोमलता खोलने का साधन। शक्ति हैं बैल मेरे।

इस तरह मैं हल चलाकर भ्रम की कांस उखाड़ देता हूं। और जो फसल कांटता हूं, वह है निर्वाण की। इस तरह दुख विनष्ट होता है, निर्वाण प्रकट होता है;

हे किसान, तू भी ऐसा ही कर। मनुष्य को बुद्धि ने बड़ा वैज्ञानिक विचार दिया है। उसे तुम समझो तो दुख से मुक्त हो सकते हो।



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Friday, 10 January 2020

किसी भी किनारे पर मत रुको - बस बढ़ते चलो - short inspitation story

किसी भी किनारे पर मत रुको - बस बढ़ते चलो - short inspitation story


महावीर की मृत्यु का दिन आया।

महावीर का सबसे प्रमुख शिष्य गौतम पास के ही गांव में उपदेश देने गया था।

महावीर ने जान कर ही भेजा था। महावीर अस्वस्थ थे--छह महीने से अस्वस्थ थे। दीया टिमटिमाता-टिमटिमाता सा था। कब ज्योति उड़ जाएगी, कोई कह नहीं सकता था।


सारे शिष्य इकट्ठे हो गए थे, दूर-दूर से आ गए थे, सैकड़ों मील की यात्रा करके महावीर के अंतिम दर्शन को उपस्थित हो गए थे। और गौतम, जो कि जीवन भर साथ रहा; जो छाया की तरह साथ रहा; जिसने महावीर की वैसी अथक सेवा की, जैसी शायद ही कभी किसी ने किसी की होगी--



एक ही दिन पहले महावीर ने उससे कहा गौतम, तू पास के गांव में जा। भिक्षा भी मांग लाना और गांव के लोगों को उपदेश भी दे आना।


महावीर ने जान कर ही गौतम को भेजा। सोच-समझ कर भेजा। एक उपाय की भांति भेजा।


गौतम तो दूसरे गांव गया और महावीर ने देह छोड़ दी।


जब गौतम वापस आ रहा था तो रास्ते पर राहगीरों ने गौतम से कहा कि अब कहां जा रहे हो, अब किसके लिए जा रहे हो? दीया तो बुझ गया! पिंजड़ा पड़ा है, पक्षी तो उड़ गया। फूल तो धूल में गिर गया, सुवास आकाश में समा गई। अब कहां जा रहे हो?

गौतम तेजी से चला जा रहा था। महावीर बीमार हैं। भेजा था तो आज्ञा पूरी करनी थी, लेकिन जल्दी भिक्षा मांग, जल्दी उपदेश दे, भाग रहा था कि वापस पहुंच जाए। वहीं बैठ कर रोने लगा। और उसने उन यात्रियों से पूछा कि एक बात भर मुझे पूछनी है अंतिम समय में उन्होंने मुझे स्मरण किया था या नहीं? और यदि स्मरण किया था तो मेरे लिए कोई संदेश छोड़ गए हैं या नहीं?और वह संदेश बहुत महत्वपूर्ण है।

उन यात्रियों ने कहा हां, अंतिम संदेश तुम्हारे लिए ही छोड़ गए हैं। कहा कि गौतम को मैंने दूर भेजा है, क्योंकि पास रहते-रहते वह भूल ही गया था कि एक दिन दूर होना है। इतने पास था कि उसे विस्मरण हो गया था कि एक होना है।

उसे दूरी की याद दिलाने के लिए, कि पास भी एक दूरी है, मैंने दूर भेजा है। और यह मेरा सूत्र है, गौतम को कह देना, कि हे गौतम, तू पूरी नदी तो तैर गया, अब किनारे पर आकर क्यों रुक गया है? पूरी नदी तो तैर चुका, अब किनारे को भी छोड़! अब किनारे से भी उठ आ!

जैसे कोई आदमी नदी पार कर जाए और फिर किनारे को पकड़ कर भी नदी में ही बना रहे--इस आशा में कि अब तो किनारा मिल गया, अब क्या करना है! मगर है वह नदी में ही, किनारे को पकड़े है।

महावीर के संदेश का अर्थ था गौतम, तूने सब छोड़ दिया--घर-द्वार, परिवार--सब छोड़ कर तू मेरे साथ हो लिया। लेकिन अब तूने मुझे पकड़ लिया है। अब तू सोचता है कि अब मुझे क्या करना है!

अब सदगुरु मिल गए, अब उनकी सेवा करता हूं। मेरा काम पूरा हो गया। अब तू किनारे को पकड़ कर रुक गया है। मुझे भी छोड़ दे! क्योंकि बाहर कुछ भी पकड़ो तो बंधन है। अंतत: सदगुरु भी बंधन बन जाता है। सदगुरु और सारे बंधनों से छुड़ा देता है और अंत में स्वयं से भी छुड़ा देता है। वही सदगुरु है।

इस वचन को सुनते ही गौतम समाधि को उपलब्ध हो गया। जो समाधि जीवन भर छलती रही, वह एक क्षण में उपलब्ध हो गई। चोट गहरी थी। आघात ऐसा था कि पहुंच गया होगा प्राणों के अंतरतम तक।



मझधार में तो बहुत कम नावें डूबती हैं।



नावें डूबती हैं साहिल से टकरा कर, किनारे से टकरा कर डूब जाती हैं। किसी तरह मझधार से तो बचा लाते हैं लोग, क्योंकि मझधार में लोग बहुत सावचेत होते हैं, बहुत सावधान होते हैं। जब तूफान उठा हो और सागर की लहरें चांद-तारों को छूने की कोशिश करती हों, सागर विक्षिप्त हो, विक्षुब्ध हो--तब तो तुम पूरी सावधानी बरतोगे। तब तो तुम्हारा रोआ-रोआ जागा हुआ होगा। तब तो तुम पहरे पर रहोगे। तब तो पतवार तुम्हारे हाथ में होगी। लेकिन तूफान जा चुका, मझधार भी पीछे छूट गई, डूबने का खतरा भी न रहा, उथला किनारा करीब आने लगा--यह रहा, यह रहा! अब किनारे पर पहुंचे ही पहुंचे! हाथ से पतवार भी धीमी पड़ जाती है, छूट जाती है। वह पुराना होश भी खो जाता है, वह पुरानी जागरूकता भी बंद हो जाती है, सो जाती है। फिर तुम नींद में पड़ने लगे। अब खतरा है। अब किनारे से नाव टकरा सकती है। ऐसी बेबूझ घटना बहुत बार घटी है। लोग मझधार से बच आए और किनारों पर टकरा गए और डूब गए।

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