Friday 10 January 2020

किसी भी किनारे पर मत रुको - बस बढ़ते चलो - short inspitation story

किसी भी किनारे पर मत रुको - बस बढ़ते चलो - short inspitation story


महावीर की मृत्यु का दिन आया।

महावीर का सबसे प्रमुख शिष्य गौतम पास के ही गांव में उपदेश देने गया था।

महावीर ने जान कर ही भेजा था। महावीर अस्वस्थ थे--छह महीने से अस्वस्थ थे। दीया टिमटिमाता-टिमटिमाता सा था। कब ज्योति उड़ जाएगी, कोई कह नहीं सकता था।


सारे शिष्य इकट्ठे हो गए थे, दूर-दूर से आ गए थे, सैकड़ों मील की यात्रा करके महावीर के अंतिम दर्शन को उपस्थित हो गए थे। और गौतम, जो कि जीवन भर साथ रहा; जो छाया की तरह साथ रहा; जिसने महावीर की वैसी अथक सेवा की, जैसी शायद ही कभी किसी ने किसी की होगी--



एक ही दिन पहले महावीर ने उससे कहा गौतम, तू पास के गांव में जा। भिक्षा भी मांग लाना और गांव के लोगों को उपदेश भी दे आना।


महावीर ने जान कर ही गौतम को भेजा। सोच-समझ कर भेजा। एक उपाय की भांति भेजा।


गौतम तो दूसरे गांव गया और महावीर ने देह छोड़ दी।


जब गौतम वापस आ रहा था तो रास्ते पर राहगीरों ने गौतम से कहा कि अब कहां जा रहे हो, अब किसके लिए जा रहे हो? दीया तो बुझ गया! पिंजड़ा पड़ा है, पक्षी तो उड़ गया। फूल तो धूल में गिर गया, सुवास आकाश में समा गई। अब कहां जा रहे हो?

गौतम तेजी से चला जा रहा था। महावीर बीमार हैं। भेजा था तो आज्ञा पूरी करनी थी, लेकिन जल्दी भिक्षा मांग, जल्दी उपदेश दे, भाग रहा था कि वापस पहुंच जाए। वहीं बैठ कर रोने लगा। और उसने उन यात्रियों से पूछा कि एक बात भर मुझे पूछनी है अंतिम समय में उन्होंने मुझे स्मरण किया था या नहीं? और यदि स्मरण किया था तो मेरे लिए कोई संदेश छोड़ गए हैं या नहीं?और वह संदेश बहुत महत्वपूर्ण है।

उन यात्रियों ने कहा हां, अंतिम संदेश तुम्हारे लिए ही छोड़ गए हैं। कहा कि गौतम को मैंने दूर भेजा है, क्योंकि पास रहते-रहते वह भूल ही गया था कि एक दिन दूर होना है। इतने पास था कि उसे विस्मरण हो गया था कि एक होना है।

उसे दूरी की याद दिलाने के लिए, कि पास भी एक दूरी है, मैंने दूर भेजा है। और यह मेरा सूत्र है, गौतम को कह देना, कि हे गौतम, तू पूरी नदी तो तैर गया, अब किनारे पर आकर क्यों रुक गया है? पूरी नदी तो तैर चुका, अब किनारे को भी छोड़! अब किनारे से भी उठ आ!

जैसे कोई आदमी नदी पार कर जाए और फिर किनारे को पकड़ कर भी नदी में ही बना रहे--इस आशा में कि अब तो किनारा मिल गया, अब क्या करना है! मगर है वह नदी में ही, किनारे को पकड़े है।

महावीर के संदेश का अर्थ था गौतम, तूने सब छोड़ दिया--घर-द्वार, परिवार--सब छोड़ कर तू मेरे साथ हो लिया। लेकिन अब तूने मुझे पकड़ लिया है। अब तू सोचता है कि अब मुझे क्या करना है!

अब सदगुरु मिल गए, अब उनकी सेवा करता हूं। मेरा काम पूरा हो गया। अब तू किनारे को पकड़ कर रुक गया है। मुझे भी छोड़ दे! क्योंकि बाहर कुछ भी पकड़ो तो बंधन है। अंतत: सदगुरु भी बंधन बन जाता है। सदगुरु और सारे बंधनों से छुड़ा देता है और अंत में स्वयं से भी छुड़ा देता है। वही सदगुरु है।

इस वचन को सुनते ही गौतम समाधि को उपलब्ध हो गया। जो समाधि जीवन भर छलती रही, वह एक क्षण में उपलब्ध हो गई। चोट गहरी थी। आघात ऐसा था कि पहुंच गया होगा प्राणों के अंतरतम तक।



मझधार में तो बहुत कम नावें डूबती हैं।



नावें डूबती हैं साहिल से टकरा कर, किनारे से टकरा कर डूब जाती हैं। किसी तरह मझधार से तो बचा लाते हैं लोग, क्योंकि मझधार में लोग बहुत सावचेत होते हैं, बहुत सावधान होते हैं। जब तूफान उठा हो और सागर की लहरें चांद-तारों को छूने की कोशिश करती हों, सागर विक्षिप्त हो, विक्षुब्ध हो--तब तो तुम पूरी सावधानी बरतोगे। तब तो तुम्हारा रोआ-रोआ जागा हुआ होगा। तब तो तुम पहरे पर रहोगे। तब तो पतवार तुम्हारे हाथ में होगी। लेकिन तूफान जा चुका, मझधार भी पीछे छूट गई, डूबने का खतरा भी न रहा, उथला किनारा करीब आने लगा--यह रहा, यह रहा! अब किनारे पर पहुंचे ही पहुंचे! हाथ से पतवार भी धीमी पड़ जाती है, छूट जाती है। वह पुराना होश भी खो जाता है, वह पुरानी जागरूकता भी बंद हो जाती है, सो जाती है। फिर तुम नींद में पड़ने लगे। अब खतरा है। अब किनारे से नाव टकरा सकती है। ऐसी बेबूझ घटना बहुत बार घटी है। लोग मझधार से बच आए और किनारों पर टकरा गए और डूब गए।

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