Monday, 8 February 2021

जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय और उनकी की रचनाएँ

 







जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय और उनकी की रचनाएँ





Hindi Kavita

हिंदी कविता

Jaishankar Prasad

जयशंकर प्रसाद




जयशंकर प्रसाद (३० जनवरी १८८९ - १४ जनवरी १९३७) कवि, नाटकार, कथाकार, उपन्यासकार तथा निबन्धकार थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं । उन्होंने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई और वह काव्य की सिद्ध भाषा बन गई। उन्होंने कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएं की। उनकी काव्य रचनाएँ हैं: कानन-कुसुम, महाराणा का महत्व, झरना, आंसू, लहर, कामायनी और प्रेम पथिक । इसके इलावा उनके नाटकों में बहुत से मीठे गीत मिलते हैं ।




जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ


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Jaishankar Prasad

जयशंकर प्रसाद



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Hindi Kavita

हिंदी कविता

Lehar Jaishankar Prasad

लहर जयशंकर प्रसाद





1. लहर

वे कुछ दिन कितने सुंदर थे ?

जब सावन घन सघन बरसते

इन आँखों की छाया भर थे


सुरधनु रंजित नवजलधर से-

भरे क्षितिज व्यापी अंबर से

मिले चूमते जब सरिता के

हरित कूल युग मधुर अधर थे


प्राण पपीहे के स्वर वाली

बरस रही थी जब हरियाली

रस जलकन मालती मुकुल से

जो मदमाते गंध विधुर थे


चित्र खींचती थी जब चपला

नील मेघ पट पर वह विरला

मेरी जीवन स्मृति के जिसमें

खिल उठते वे रूप मधुर थे

2. लहर

उठ उठ री लघु लोल लहर!

करुणा की नव अंगड़ाई-सी,

मलयानिल की परछाई-सी

इस सूखे तट पर छिटक छहर!


शीतल कोमल चिर कम्पन-सी,

दुर्ललित हठीले बचपन-सी,

तू लौट कहाँ जाती है री

यह खेल खेल ले ठहर-ठहर!


उठ-उठ गिर-गिर फिर-फिर आती,

नर्तित पद-चिह्न बना जाती,

सिकता की रेखायें उभार

भर जाती अपनी तरल-सिहर!


तू भूल न री, पंकज वन में,

जीवन के इस सूनेपन में,

ओ प्यार-पुलक से भरी ढुलक!

आ चूम पुलिन के बिरस अधर!

3. अशोक की चिन्ता

जलता है यह जीवन पतंग


जीवन कितना? अति लघु क्षण,

ये शलभ पुंज-से कण-कण,

तृष्णा वह अनलशिखा बन

दिखलाती रक्तिम यौवन।

जलने की क्यों न उठे उमंग?


हैं ऊँचा आज मगध शिर

पदतल में विजित पड़ा,

दूरागत क्रन्दन ध्वनि फिर,

क्यों गूँज रही हैं अस्थिर


कर विजयी का अभिमान भंग?


इन प्यासी तलवारों से,

इन पैनी धारों से,

निर्दयता की मारो से,

उन हिंसक हुंकारों से,


नत मस्तक आज हुआ कलिंग।


यह सुख कैसा शासन का?

शासन रे मानव मन का!

गिरि भार बना-सा तिनका,

यह घटाटोप दो दिन का


फिर रवि शशि किरणों का प्रसंग!


यह महादम्भ का दानव

पीकर अनंग का आसव

कर चुका महा भीषण रव,

सुख दे प्राणी को मानव

तज विजय पराजय का कुढंग।


संकेत कौन दिखलाती,

मुकुटों को सहज गिराती,

जयमाला सूखी जाती,

नश्वरता गीत सुनाती,


तब नही थिरकते हैं तुरंग।


बैभव की यह मधुशाला,

जग पागल होनेवाला,

अब गिरा-उठा मतवाला

प्याले में फिर भी हाला,


यह क्षणिक चल रहा राग-रंग।


काली-काली अलकों में,

आलस, मद नत पलकों में,

मणि मुक्ता की झलकों में,

सुख की प्यासी ललकों में,


देखा क्षण भंगुर हैं तरंग।


फिर निर्जन उत्सव शाला,

नीरव नूपुर श्लथ माला,

सो जाती हैं मधु बाला,

सूखा लुढ़का हैं प्याला,


बजती वीणा न यहाँ मृदंग।


इस नील विषाद गगन में

सुख चपला-सा दुख घन मे,

चिर विरह नवीन मिलन में,

इस मरु-मरीचिका-वन में


उलझा हैं चंचल मन कुरंग।


आँसु कन-कन ले छल-छल

सरिता भर रही दृगंचल;

सब अपने में हैं चंचल;

छूटे जाते सूने पल,


खाली न काल का हैं निषंग।


वेदना विकल यह चेतन,

जड़ का पीड़ा से नर्तन,

लय सीमा में यह कम्पन,

अभिनयमय हैं परिवर्तन,


चल रही यही कब से कुढंग।


करुणा गाथा गाती हैं,

यह वायु बही जाती है,

ऊषा उदास आती हैं,

मुख पीला ले जाती है,


वन मधु पिंगल सन्ध्या सुरंग।


आलोक किरन हैं आती,

रेश्मी डोर खिंच जाती,

दृग पुतली कुछ नच पाती,

फिर तम पट में छिप जाती,


कलरव कर सो जाते विहंग।


जब पल भर का हैं मिलना,

फिर चिर वियोग में झिलना,

एक ही प्राप्त हैं खिलना,

फिर सूख धूल में मिलना,


तब क्यों चटकीला सुमन रंग?


संसृति के विक्षत पर रे!

यह चलती हैं डगमग रे!

अनुलेप सदृश तू लग रे!

मृदु दल बिखेर इस मग रे!


कर चुके मधुर मधुपान भृंग।


भुनती वसुधा, तपते नग,

दुखिया है सारा अग जग,

कंटक मिलते हैं प्रति पग,

जलती सिकता का यह मग,


बह जा बन करुणा की तरंग,

जलता हैं यह जीवन पतंग।

4. प्रलय की छाया

थके हुए दिन के निराशा भरे जीवन की

सन्ध्या हैं आज भी तो धूसर क्षितिज में!

और उस दिन तो;

निर्जन जलधि-वेला रागमयी सन्ध्या से

सीखती थी सौरभ से भरी रंग-रलियाँ।

दूरागत वंशी रव

गूँजता था धीवरों की छोटी-छोटी नावों से।

मेरे उस यौवन के मालती-मुकुल में

रंध्र खोजती थी, रजनी की नीली किरणें

उसे उकसाने को-हँसाने को।

पागल हुई मैं अपनी ही मृदुगन्ध से

कस्तरी मृग जैसी।


पश्चिम जलधि में,

मेरी लहरीली नीली अलकावली समान

लहरें उठती थी मानों चूमने को मुझको,

और साँस लेता था संसार मुझे छुकर।

नृत्यशीला शैशव की स्फूर्तियाँ

दौड़कर दूर जा खड़ी हो हँसने लगी।

मेरे तो,

चरण हुए थे विजड़ित मधु भार से।

हँसती अनंग-बालिकाएँ अन्तरिक्ष में

मेरी उस क्रीड़ा के मधु अभिषेक में

नत शिर देख मुझे।


कमनीयता थी जो समस्त गुजरात की

हुई एकत्र इस मेरी अंगलतिका में,

पलकें मदिर भार से थीं झुकी पड़ती।

नन्दन की शत-शत दिव्य कुसुम-कुन्तला

अप्सराएँ मानो वे सुगन्ध की पुतलियाँ

आ आकर चूम रहीं अरुण अधर मेरा

जिसमें स्वयं ही मुस्कान खिल पड़ती।

नूपुरों की झनकार घुली-मिली जाती थी

चरण अलक्तक की लाली से

जैसे अन्तरिक्ष की अरुणिमा

पी रही दिगन्त व्यापी सन्ध्या संगीत को।


कितनी मादकता थी?

लेने लगी झपकी मैं

सुख रजनी की विश्रम्भ-कथा सुनती;

जिसमें थी आशा

अभिलाषा से भरी थी जो

कामना के कमनीय मृदुल प्रमोद में

जीवन सुरा की वह पहली ही प्याली थी।

"आँखे खुली;

देखा मैने चरणों में लोटती थी

विश्व की विभव-राशि,

और थे प्रणत वहीं गुर्ज्जर-महीप भी।

वह एक सन्ध्या था।"


"श्यामा सृष्टि युवती थी

तारक-खचिक नीलपट परिधान था

अखिल अनन्त में

चमक रही थी लालसा की दीप्त मणियाँ

ज्योतिमयी, हासमयी, विकल विलासमयी

बहती थी धीरे-धीरे सरिता

उस मधु यामिनी में

मदकल मलय पवन ले ले फूलों से

मधुर मरन्द-बिन्दु उसमें मिलाता था।

चाँदनी के अंचल में।

हरा भरा पुलिन अलस नींद ले रहा।


सृष्टि के रहस्य भी परखने को मुझको

तारिकाएँ झाँकती थी।

शत शतदलों की

मुद्रित मधुर गन्ध भीनी-भीनी रोम में

बहाती लावण्य धारा।

स्मर शशि किरणें

स्पर्श करती थी इस चन्द्रकान्त मणि को

स्निग्धता बिछलाती थी जिस मेरे अंग पर।


अनुराग पूर्ण था हृदय उपहार में

गुर्ज्जरेश पाँवड़े बिछाते रहे पलकों के,

तिरते थे

मेरी अँगड़ाइयों की लहरों में।

पीते मकरन्द थे

मेरे इस अधखिले आनन सरोज का

कितना सोहाग था, कैसा अनुराग था?

खिली स्वर्ण मल्लिका की सुरभित वल्लरी-सी

गुर्ज्जर के थाले में मरन्द वर्षा करती मैं।"


"और परिवर्तन वह!

क्षितिज पटी को आन्दोलित करती हुई

नीले मेघ माला-सी

नियति-नटी थी आई सहसा गगन में

तड़ित विलास-सी नचाती भौहें अपनी।"

"पावक-सरोवर में अवभृथ स्नान था

आत्म-सम्मान-यज्ञ की वह पूर्णाहुति

सुना-जिस दिन पद्मिनी का जल मरना

सती के पवित्र आत्म गौरव की पुण्य-गाथा

गूँज उठी भारत के कोने-कोने जिस दिन;

उन्नत हुआ था भाल

महिला-महत्त्व का।


दृप्त मेवाड़ के पवित्र बलिदान का

ऊर्जित आलोक

आँख खोलता था सबकी।

सोचने लगी थी कुल-वधुएं, कुमारिकाएँ

जीवन का अपने भविष्य नये सिर से;

उसी दिन

बींधने लगी थी विषमय परतंत्रता।

देव-मन्दिरों की मूक घंटा-ध्वनि

व्यंग्य करती थी जब दीन संकेत से

जाग उठी जीवन की लाज भरी निद्रा से।


मै भी थी कमला,

रूप-रानी गुजरात की।

सोचती थी

पद्मिनी जली थी स्वयं किन्तु मैं जलाऊँगी

वह दवानल ज्वाला

जिसमें सुलतान जले।

देखे तो प्रचंड रूप-ज्वाला की धधकती

मुझको सजीव वह अपने विरुद्ध।

आह! कैसी वह स्पर्द्धा थी?

स्पर्द्धा थी रूप की

पद्मिनी की वाह्य रूप-रेखा चाहे तुच्छ थी,

मेरे इस साँचे मे ढले हुए शरीर के

सन्मुख नगण्य थी।


देखकर मुकुर, पवित्र चित्र पद्मिनी का

तुलना कर उससे,

मैने समझा था यही।

वह अतिरंजित-सी तूलिका चितेरी की

फिर भी कुछ कम थी।

किन्तु था हृदय कहाँ?

वैसा दिव्य

अपनी कमी थी इतरा चली हृदय की

लधुता चली थी माप करने महत्त्व की।


"अभिनय आरम्भ हुआ

अन-हलवाड़ा में अनल चक्र घूमा फिर

चिर अनुगत सौन्दर्य के समादर में

गुर्ज्जरेश मेरी उन इंगितों में नाच उठे।

नारी के चयन! त्रिगुणात्मक ये सन्निपात

किसको प्रमत्त नहीं करते

धैर्य किसका नहीं हरते ये?

वही अस्त्र मेरा था।

एक झटके में आज

गुर्जर स्वतंत्र साँस लेता था सजीव हो।


क्रोध सुलतान का दग्ध करने लगा

दावानल बनकर

हरा भरा कानन प्रफुल्ल गुजरात का।

बालको की करुण पुकारें, और वृद्धों की

आर्तवाणी,

क्रन्दन रमणियों का,

भैरव संगीत बना, तांडव-नृत्य-सा

होने लगा गुर्जर में।

अट्टहास करती सजीव उल्लास से

फाँद पड़ी मैं भी उस देश की विपत्ति में।


वही कमला हूँ मैं!

देख चिरसंगिनी रणांगण में, रंग में,

मेरे वीर पति आह कितने प्रसन्न थे

बाधा, विध्न, आपदाएँ,

अपनी ही क्षुद्रता में टलती-बिचलती

हँसते वे देख मुझे

मै भी स्मित करती।

किन्तु शक्ति कितनी थी उस कृत्रिमता में?

संबल बचा न जब कुछ भी स्वदेश में

छोड़ना पड़ा ही उसे।

निर्वासित हम दोनों खोजते शरण थे,

किन्तु दुर्भाग्य पीछा करने में आगे था।


"वह दुपहरी थी,

लू से झुलसानेवाली; प्यास से जलानेवाली।

थके सो रहे थे तरुछाया में हम दोनों

तुर्कों का एक दल आया झंझावात-सा।

मेरे गुर्ज्जरेश !

आज किस मुख से कहूँ?

सच्चे राजपूत थे,

वह खंग लीला खड़ी देखती रही मैं वही

गत-प्रत्यागत में और प्रत्यावर्तन में

दूर वे चले गये,

और हुई बन्दी मै।


वाह री नियति!

उस उज्जवल आकाश में

पद्मिनी की प्रतिकृति-सी किरणों में बनकर

व्यंग्य-हास करती थी।

एक क्षण भ्रम के भुलावे में डालकर

आज भी नचाता वही,

आज सोचती हूँ जैसे पद्मिनी थी कहती-

"अनुकरण कर मेरा"

समझ सकी न मैं।

पद्मिनी की भूल जो थी समझने को

सिंहिनी की दृप्त मूर्ति धारण कर

सन्मुख सुलतान के

मारने की, मरने की अटल प्रतिज्ञा हुई।


उस अभिमान में

मैने ही कहा था - छाती ऊँची कर उनसे -

"ले चलो मैं गुर्जर की रानी हूँ, कमला हूँ"

वाह री! विचित्र मनोवृत्ति मेरी!

कैसा वह तेरा व्यंग्य परिहास-शील था?

उस आपदा में आया ध्यान निज रूप का।

रूप यह!

देखे तो तुरुष्कपति मेरा भी

कितनी महीन और कितनी अभूतपूर्व ?


बन्दिनी मैं बैठी रही

देखती थी दिल्ली कैसी विभव विलासिनी।

यह ऐश्वर्य की दुलारी, प्यारी क्रूरता की

एक छलना-सी, सजने लगी थी सन्ध्या में।

कृष्णा वह आई फिर रजनी भी।

खोलकर ताराओं की विरल दशन पंक्ति

अट्टहास करती थी दूर मानो व्योम में ।

जो न सुन पड़ा अपने ही कोलाहल में!


कभी सोचती थी प्रतिशोध लेना पति का

कभी निज रूप सुन्दरता की अनुभूति

क्षणभर चाहती जगाना मैं

सुलतान ही के उस निर्मम हृदय में,

नारी मैं!

कितनी अबला थी और प्रमदा थी रूप की!


साहस उमड़ता था वेग-पूर्-ओघ-सा

किन्तु हलकी थी मैं,

तृण बह जाता जैसे

वैसे मैं विचारों में ही तिरती-सी फिरती।

कैसी अवहेलना थी यह मेरी शत्रुता की

इस मेरे रूप की।


आज साक्षात होगा कितने महीनों पर

लहरी-सदृश उठती-सी गिरती-सी मैं

अदूभूत! चमत्कार!! दृप्त निज गरिमा में

एक सौंदर्यमयी वासना की आँधी-सी

पहुँची समीप सुलतान के।

तातारी दासियों मे मुझको झुकाना चाहा

मेरे ही घुटनों पर,

किन्तु अविचल रही।

मणि-मेखला में रही कठिन कृपानी जो

चमकी वह सहसा

मेरे ही वक्ष का रुधिर पान करने को।

किन्तु छिन गई वह

और निरुपाय मैं तो ऐंठ उठी डोरी-सी,

अपमान-ज्वाला में अधीर होके जलती।


अन्त करने का और वहीं मर जाने का

मेरा उत्साह मन्द हो चला।

उसी क्षण बचकर मृत्यु महागर्त से सोचने लगी थी मैं-


"जीवन सौभाग्य हैं; जीवन अलभ्य हैं।"

चारों और लालसा भिखरिणी-सी माँगती थी

प्राणों के कण-कण दयनीय स्पृहणीय

अपने विश्लेषण रो उठे अकिंचन जो

"जीवन अनन्त हैं,

इसे छिन्न करने का किसे अधिकार हैं?"

जीवन की सीमामयी प्रतिमा

कितनी मधुर हैं?

विश्व-भर से मैं जिसे छाती मे छिपाये रही।


कितनी मधुर भीख माँगते हैं सब ही:-

अपना दल-अंचल पसारकर बन-राजी,

माँगती हैं जीवन का बिन्दु-बिन्दु ओस-सा

क्रन्दन करता-सा जलनिधि भी

माँगता हैं नित्य मानो जरठ भिखारी-सा

जीवन की धारा मीठी-मीठी सरिताओं से।

व्याकुल हो विश्व, अन्ध तम से

भोर में ही माँगता हैं

"जीवन की स्वर्णमयी किरणें प्रभा भरी।

जीवन ही प्यारा हैं जीवन सौभाग्य है।"


रो उठी मैं रोष भरी बात कहती हुई

"मारकर भी क्या मुझे मरने न दोगे तुम?

मानती हूँ शक्तिशाली तुम सुलतान हो

और मैं हूँ बन्दिनी।

राज्य हैं बचा नहीं,

किन्तु क्या मनुष्यता भी मुझमें रही नहीं

इतनी मैं रिक्त हूँ ?"

क्षोभ से भरा कंठ फिर चुप हो रही।


शक्ति प्रतिनिधि उस दृप्त सुलतान की

अनुनय भरी वाणी गूँज उठा कान में।

"देखता हूँ मरना ही भारत की नारियों का

एक गीत-भार हैं!

रानी तुम बन्दिनी हो मेरी प्रार्थनाओं में

पद्मिमी को खो दिया हैं

किन्तु तुमको नहीं!

शासन करोगी इन मेरी क्रुरताओं पर

निज कोमलता से-मानस की माधुरी से!

आज इस तीव्र उत्तेजना की आँधी में

सुन न सकोगी, न विचार ही करोगी तुम

ठहरो विश्राम करों।"

अति द्रुत गति से

कब सुलतान गये

जान सकी मैं न, और तब से

यह रंगमहल बना सुवर्ण पींजरा।


"एक दिन, संध्या थी;

मलिन उदास मेरे हृदय पटल-सा

लाल पीला होता था दिगन्त निज क्षोभ से।

यमुना प्रशान्त मन्द-मन्द निज धारा में,

करुण विषाद मयी

बहती थी धरा के तरल अवसाद-सी।

बैठी हुई कालिमा की चित्र-पटी देखती

सहसा मैं चौंक उठी द्रुत पद-शब्द से।


सामने था

शैशव से अनुचर

मानिक युवक अब

खिंच गया सहसा

पश्चिम-जलधि-कूल का वह सुरम्य चित्र

मेरी इन दुखिया अँखड़ियों के सामने।

जिसको बना चुका था मेरा यह बालपन

अद्भुत कुतूहल औ' हँसी की कहानी से।


मैने कहा:-

"कैसे तू अभागा यहाँ पहुँचा हैं मरने?"

"मरने तो नहीं यहाँ जीवन की आशा में

आ गया हूँ रानी! -भला

कैसे मैं न आता यहाँ?"

कह, वह चुप था।

छूरे एक हाथ में

दूसरे सो दोनों हाथ पकड़े हुए वहीं

प्रस्तुत थीं तातारी दासियाँ।

सहसा सुलतान भी दिखाई पड़े,

और मैं थी मूक गरिमा के इन्द्रजाल में ।


"मृत्युदंड!"

वज्र-निर्घोष-सा सुनाई पड़ा भीषणतम

मरता है मानिक!

गूँज उठा कानों में-

"जीवन अलभ्य हैं; जीवन सौभाग्य हैं।"

उठी एक गर्व-सी

किन्तु झुक गई अनुनय की पुकार में

"उसे छोड़ दीजिए" - निकल पडा मुँह से।


हँसे सुलतान,और अप्रतिम होती मैं

जकड़ी हुई थी अपनी ही लाज-शृंखला में।

प्रार्थना लौटाने का उपाय अब कौन था?

अपने अनुग्रह के भार से दबाते हुए

कहा सुलतान ने-

"जाने दो रानी की पहली यह आज्ञा हैं।"

हाय रे हृदय! तूने

कौड़ी के मोल बेचा जीवन का मणि-कोष

और आकाश को पकड़ने की आशा में

हाथ ऊँचा किये सिर दे दिया अतल में।


"अन्तर्निहित था

लालसाएँ, वासनाएँ जितनी अभाव में

जीवन की दीनता में और पराधीनता में

पलने लगीं वे चेतना के अनजान में।

धीरे-धीरे आती हैं जैसे मादकता

आँखों के अजान में, ललाई में ही छिपती;

चेतना थी जीवन की फिर प्रतिशोध की।

किन्तु किस युग से वासना के बिन्दु रहे सींचते

मेरे संवेदनो को।

यामिनी के गूढ़ अन्धकार में

सहसा जो जाग उठे तारा से

दुर्बलता को मानती-सी अवलम्ब मैं

खडी हुई जीवन की पिच्छिल-सी भूमि पर।

बिखरे प्रलोभनों को मानती-सी सत्य मैं

शासन की कामना में झूमी मतवाली हो।


एक क्षण, भावना के उस परिवर्तन का

कितना अर्जित था?

जीवित हैं गुर्ज्जरेश! कर्णदेव!

भेजा संदेश मुझे "शीध्र अन्त कर दो

जीवन की लीला।"

लालसा की अर्द्ध कृति-सी!

उस प्रत्यावर्तन मे प्राण जो न दे सके, हाँ

जीवित स्वयं हैं।


जियें फिर क्यों न सब अपनी ही आशा में?

बन्दिनी हुई मैं अबला थी;

प्राणों का लोभ उन्हें फिर क्यों न बचा सका?

प्रेम कहाँ मेरा था?

और मुझमे भी कैसे कहूँ शुद्ध प्रेम था।

मानिक कहता हैं, आह, मुझे मर जाने को।

रूप न बनाया रानी मुझे गुजरात की,

वही रूप आज मुझे प्रेरित था करता

भारतेश्वरी का पद लेने को।


लोभ मेरा मूर्तिमान, प्रतिशोध था बना

और सोचती थी मैं, आज हूँ विजयिनी

चिर पराजित सुलतान पद तल में।

कृष्णागुरुवर्तिका

जल चुकी स्वर्ण पात्र के ही अभिमान में

एक धूम-रेखा मात्र शेष थी,

उस निस्पन्द रंग मन्दिर के व्योम में

क्षीणगन्ध निरवलम्ब।

किन्तु मैं समझती थी, यही मेरी जीवन हैं!

यह उपहार हैं, शृंगार हैं।

मेरा रूप माधुरी का।


मणि नूपुरों की बीन बजी, झनकार से

गूँज उठी रंगशाला इस सौन्दर्य की

विश्व था मनाता महोत्सव अभिमान का

आज विजयी था रूप

और साम्राज्य था नृशंस क्रूरताओं का

रूप माधुरी की कृपा-कोर को निरखता

जिसमें मदोद्धत कटाक्ष की अरुणिमा

व्यंग्य करती थी विश्व भर के अनुराग पर।

अवहेलना से अनुग्रह थे बिखरते ।

जीवन के स्वप्न सब बनते-बिगड़ते थे

भवें बल खाती जब;

लोगों की अदृष्ट लिपि लिखी-पढ़ी जाती थी

इस मुसक्यान के, पद्मराग-उद्गम से

बहता सुगन्ध की सुधा का सोता मन्द-मन्द।


रतन राजि, सींची जाती सुमन-मरन्द से

कितनी ही आँखों की प्रसन्न नील ताराएँ

बनने को मुकुर-अचंचल, निस्पन्द थी।

इन्हीं मीन दृगों को चपल संकेत बन

शासन, कुमारिका से हिमालय-शृंग तक

अथक अबाध और तीव्र मेध-ज्योति-सा

चलता था-

हुआ होगा बनना सफल जिसे देखकर

मंजु मीन-केतन अनंग का।

मुकुट पहनते थे सिर, कभी लोटते थे

रक्त दग्ध धरणी मे रूप की विजय में।

हर में सुलतान की

देखती सशंक दृग कोरों से

निज अपमान को।"


"बेच दिया

विश्व इन्द्रजाल में सत्य कहते हैं जिसे;

उसी मानवता के आत्म सम्मान को।"

जीवन में आता हैं परखने का

जिसे कोई एक क्षण,

लोभ, लालसा या भय, क्रोध, प्रतिशोध के

उग्र कोलाहल में,

जिसकी पुकार सुनाई ही नही पड़ती।

सोचा था उस दिन:

जिस दिन अधिकार-क्षुब्ध उस दास ने,

अन्त किया छल से काफूर ने

अलाउद्दीन का, मुमूर्षु सुलतान का।


आँधी में नृशंसता की रक्त-वर्षा होने लगी

रूप वाले, शीश वाले, प्यार से फले हुए

प्राणी राज-वंश के

मारे गये।

वह एक रक्तमयी सन्ध्या थी।

शक्तिशाली होना अहोभाग्य हैं

और फिर

बाधा-विध्न-आपदा के तीव्र प्रतिघात का

सबल विरोध करने में कैसा सुख हैं?

इसका भी अनुभव हुआ था भली-भाँति मुझे

किन्तु वह छलना थी मिथ्या अधिकार की।


जिस दिन सुना अकिंचन परिवारी ने;

आजीवन दास ने, रक्त से रँगे हुए;

अपने ही हाथों पहना है राज मुकुट।


अन्त कर दास राजवंश का,

लेकर प्रचंड़ प्रतिशोध निज स्वामी का

मानिक ने, खुसरु के नाम से

शासन का दंड किया ग्रहण सदर्प हैं।

उसी दिन जान सकी अपनी मैं सच्ची स्थिति

मैं हूँ किस तल पर?

सैकड़ों ही वृश्चिकों का डंक लगा एक साथ

मैं जो करने थी आई

उसे किया मानिक ने।

खुसरु ने!!


उद्धत प्रभुत्व का

वात्याचक्र! उठा प्रतिशोध-दावानल में

कह गया अभी-अभी नीच परिवारी वह!

"नारी यह रूप तेरा जीवित अभिशाप हैं

जिसमें पवित्रता की छाया भी पड़ी नहीं।

जितने उत्पीड़न थे चूर हो दबे हुए,

अपना अस्तित्व हैं पुकारते,

नश्वर संसार में

ठोस प्रतिहिंसा की प्रतिध्वनि है चाहते।"

"लूटा था दृप्त अधिकार में

जितना विभव, रूप, शील और गौरव को

आज वे स्वतंत्र हो बिखरते है!

एक माया-स्पूत-सा

हो रहा है लोप इन आँखों के सामने।"


देख कमलावती।

ढुलक रही हैं हिम-बिन्दु-सी

सत्ता सौन्दर्य के चपल आवरण की।

हँसती है वासना की छलना पिशाची-सी

छिपकर चारों और व्रीड़ा की अँगुलियाँ

करती संकेत हैं व्यंग्य उपहास में ।

ले चली बहाती हुई अन्ध के अतल में

वेग भरी वासना

अन्तक शरभ के

काले-काले पंख ढकते हैं अन्ध तम से।

पुण्य ज्योति हीन कलुषित सौन्दर्य का-

गिरता नक्षत्र नीचे कालिमा की धारा-सा

असफल सृष्टि सोती-

प्रलय की छाया में।


5. ले चल वहाँ भुलावा देकर

ले चल वहाँ भुलावा देकर

मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ।

जिस निर्जन में सागर लहरी,

अम्बर के कानों में गहरी,

निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-

तज कोलाहल की अवनी रे ।


जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया,

ढीली अपनी कोमल काया,

नील नयन से ढुलकाती हो-

ताराओं की पाँति घनी रे ।


जिस गम्भीर मधुर छाया में,

विश्व चित्र-पट चल माया में,

विभुता विभु-सी पड़े दिखाई-

दुख-सुख बाली सत्य बनी रे ।


श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से

जहाँ सृजन करते मेला से,

अमर जागरण उषा नयन से-

बिखराती हो ज्योति घनी रे !

6. निज अलकों के अंधकार में

निज अलकों के अन्धकार मे

तुम कैसे छिप आओगे?

इतना सजग कुतूहल! ठहरो,

यह न कभी बन पाओगे!


आह, चूम लूँ जिन चरणों को

चाँप-चाँपकर उन्हें नहीं

दुख दो इतना, अरे अरुणिमा

ऊषा-सी वह उधर बही।


वसुधा चरण-चिह्न-सी बनकर

यहीं पड़ी रह जावेगी ।

प्राची रज कुंकुम ले चाहे

अपना भाल सजावेगी ।


देख मैं लूँ, इतनी ही तो है इच्छा?

लो सिर झुका हुआ।

कोमल किरन-उँगलियो से ढँक दोगे

यह दृग खुला हुआ ।


फिर कह दोगे;पहचानो तो

मैं हूँ कौन बताओ तो ।

किन्तु उन्हीं अधरों से, पहले

उनकी हँसी दबाओ तो।


सिहर रेत निज शिथिल मृदुल

अंचल को अधरों से पकड़ो ।

बेला बीत चली हैं चंचल

बाहु-लता से आ जकड़ो।


तुम हो कौन और मैं क्या हूँ?

इसमें क्या है धरा, सुनो,

मानस जलधि रहे चिर चुम्बित

मेरे क्षितिज! उदार बनो।

7. मधुप गुनगुनाकर कह जाता

मधुप गुनगुना कर कह जाता कौन कहानी अपनी,

मुरझा कर गिर रही पत्तियां देखो कितनी आज घनी


इस गंभीर अनंत नीलिमा में अस्संख्य जीवन-इतिहास-

यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास


तब बही कहते हो-काह डालूं दुर्बलता अपनी बीती !

तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे – यह गागर रीती


किन्तु कहीं ऐसा ना हो की तुम खली करने वाले-

अपने को समझो-मेरा रस ले अपनी भरने वाले


यह विडम्बना! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं

भूलें अपनी, या प्रवंचना औरों की दिखलाऊं मैं


उज्जवल गाथा कैसे गाऊं मधुर चाँदनी रातों की

अरे खिलखिला कार हसते होने वाली उन बातों की


मिला कहाँ वो सुख जिसका मैं स्वप्न देख कार जाग गया?

आलिंगन में आते-आते मुसक्या कर जो भाग गया


जिसके अरुण-कपोलों की मतवाली सुंदर छाया में

अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में


उसकी स्मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पन्था की

सीवन को उधेड कर देखोगे क्यों मेरी कन्था की?


छोटे-से जीवन की कैसे बड़ी कथाएं आज कहूँ?

क्या ये अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?


सुनकर क्या तुम भला करोगे-मेरी भोली आत्म-कथा?

अभी समय बही नहीं- थकी सोई है मेरी मौन व्यथा

8. अरी वरुणा की शांत कछार

अरी वरुणा की शांत कछार !

तपस्वी के वीराग की प्यार !


सतत व्याकुलता के विश्राम, अरे ऋषियों के कानन कुञ्ज!

जगत नश्वरता के लघु त्राण, लता, पादप,सुमनों के पुञ्ज!

तुम्हारी कुटियों में चुपचाप, चल रहा था उज्ज्वल व्यापार

स्वर्ग की वसुधा से शुचि संधि, गूंजता था जिससे संसार


अरी वरुणा की शांत कछार !

तपस्वी के वीराग की प्यार !


तुम्हारे कुंजो में तल्लीन, दर्शनों के होते थे वाद

देवताओं के प्रादुर्भाव, स्वर्ग के सपनों के संवाद

स्निग्ध तरु की छाया में बैठ, परिषदें करती थी सुविचार-

भाग कितना लेगा मस्तिष्क,हृदय का कितना है अधिकार?


अरी वरुणा की शांत कछार !

तपस्वी के वीराग की प्यार !


छोड़कर पार्थिव भोग विभूति, प्रेयसी का दुर्लभ वह प्यार

पिता का वक्ष भरा वात्सल्य, पुत्र का शैशव सुलभ दुलार

दुःख का करके सत्य निदान, प्राणियों का करने उद्धार

सुनाने आरण्यक संवाद, तथागत आया तेरे द्वार


अरी वरुणा की शांत कछार !

तपस्वी के वीराग की प्यार !


मुक्ति जल की वह शीतल बाढ़,जगत की ज्वाला करती शांत

तिमिर का हरने को दुख भार, तेज अमिताभ अलौकिक कांत

देव कर से पीड़ित विक्षुब्ध, प्राणियों से कह उठा पुकार–

तोड़ सकते हो तुम भव-बंध, तुम्हें है यह पूरा अधिकार


अरी वरुणा की शांत कछार !

तपस्वी के वीराग की प्यार !


छोड़कर जीवन के अतिवाद, मध्य पथ से लो सुगति सुधार.

दुःख का समुदय उसका नाश, तुम्हारे कर्मो का व्यापार

विश्व-मानवता का जयघोष, यहीं पर हुआ जलद-स्वर-मंद्र

मिला था वह पावन आदेश, आज भी साक्षी है रवि-चंद्र


अरी वरुणा की शांत कछार !

तपस्वी के वीराग की प्यार !


तुम्हारा वह अभिनंदन दिव्य और उस यश का विमल प्रचार

सकल वसुधा को दे संदेश, धन्य होता है बारम्बार

आज कितनी शताब्दियों बाद, उठी ध्वंसों में वह झंकार

प्रतिध्वनि जिसकी सुने दिगन्त, विश्व वाणी का बने विहार

9. हे सागर संगम अरुण नील

हे सागर संगम अरुण नील!


अतलान्त महा गंभीर जलधि

तज कर अपनी यह नियत अवधि,

लहरों के भीषण हासों में

आकर खारे उच्छ्वासों में


युग युग की मधुर कामना के

बन्धन को देता ढील।

हे सागर संगम अरुण नील।


पिंगल किरनों-सी मधु-लेखा,

हिमशैल बालिका को तूने कब देखा!


कवरल संगीत सुनाती,

किस अतीत युग की गाथा गाती आती।


आगमन अनन्त मिलन बनकर

बिखराता फेनिल तरल खील।

हे सागर संगम अरुण नील!


आकुल अकूल बनने आती,

अब तक तो है वह आती,


देवलोक की अमृत कथा की माया

छोड़ हरित कानन की आलस छाया


विश्राम माँगती अपना।

जिसका देखा था सपना


निस्सीम व्योम तल नील अंक में

अरुण ज्योति की झील बनेगी कब सलील?

हे सागर संगम अरुण नील!

10. उस दिन जब जीवन के पथ में

उस दिन जब जीवन के पथ में,

छिन्न पात्र ले कम्पित कर में,

मधु-भिक्षा की रटन अधर में,

इस अनजाने निकट नगर में,

आ पहुँचा था एक अकिंचन।


उस दिन जब जीवन के पथ में,

लोगों की आखें ललचाईं,

स्वयं माँगने को कुछ आईं,

मधु सरिता उफनी अकुलाईं,

देने को अपना संचित धन।


उस दिन जब जीवन के पथ में,

फूलों ने पंखुरियाँ खोलीं,

आँखें करने लगी ठिठोली;

हृदय ने न सम्हाली झोली,

लुटने लगे विकल पागल मन।


उस दिन जब जीवन के पथ में,

छिन्न पात्र में था भर आता

वह रस बरबस था न समाता;

स्वयं चकित-सा समझ न पाता

कहाँ छिपा था, ऐसा मधुवन!


उस दिन जब जीवन के पथ में,

मधु-मंगल की वर्षा होती,

काँटों ने भी पहना मोती,

जिसे बटोर रही थी रोती

आशा, समझ मिला अपना धन।


11. आँखों से अलख जगाने को

आँखों से अलख जगाने को,

यह आज भैरवी आई है

उषा-सी आँखों में कितनी,

मादकता भरी ललाई है


कहता दिगन्त से मलय पवन

प्राची की लाज भरी चितवन-

है रात घूम आई मधुबन,

यह आलस की अंगराई है


लहरों में यह क्रीड़ा-चंचल,

सागर का उद्वेलित अंचल

है पोंछ रहा आँखें छलछल,

किसने यह चोट लगाई है ?

12. आह रे, वह अधीर यौवन

आह रे, वह अधीर यौवन !


मत्त-मारुत पर चढ़ उद्भ्रांत,

बरसने ज्यों मदिरा अश्रांत-

सिंधु वेला-सी घन मंडली,

अखिल किरणों को ढँककर चली,

भावना के निस्सीम गगन,

बुद्धि-चपला का क्षण–नर्तन-

चूमने को अपना जीवन,

चला था वह अधीर यौवन!

आह रे, वह अधीर यौवन !


अधर में वह अधरों की प्यास,

नयन में दर्शन का विश्वास,

धमनियों में आलिन्गनमयी–

वेदना लिये व्यथाएँ नयी,

टूटते जिससे सब बंधन,

सरस सीकर से जीवन-कन,

बिखर भर देते अखिल भुवन,

वही पागल अधीर यौवन !

आह रे, वह अधीर यौवन !


मधुर जीवन के पूर्ण विकास,

विश्व-मधु-ऋतु के कुसुम-विकास,

ठहर, भर आँखों देख नयी-

भूमिका अपनी रंगमयी,

अखिल की लघुता आई बन–

समय का सुन्दर वातायन,

देखने को अदृष्ट नर्तन

अरे अभिलाषा के यौवन !

आह रे, वह अधीर यौवन !!

13. तुम्हारी आँखों का बचपन

तुम्हारी आँखों का बचपन!


खेलता था जब अल्हड़ खेल,

अजिर के उर में भरा कुलेल,

हारता था हँस-हँस कर मन,

आह रे, व्यतीत जीवन!


साथ ले सहचर सरस वसन्त,

चंक्रमण करता मधुर दिगन्त,

गूँजता किलकारी निस्वन,

पुलक उठता तब मलय-पवन।


स्निग्ध संकेतों में सुकुमार,

बिछल,चल थक जाता जब हार,

छिड़कता अपना गीलापन,

उसी रस में तिरता जीवन।


आज भी हैं क्या नित्य किशोर

उसी क्रीड़ा में भाव विभोर

सरलता का वह अपनापन

आज भी हैं क्या मेरा धन!


तुम्हारी आँखों का बचपन!

14. अब जागो जीवन के प्रभात

अब जागो जीवन के प्रभात!


वसुधा पर ओस बने बिखरे

हिमकन आँसू जो क्षोम भरे

ऊषा बटोरती अरुण गात!


तम-नयनो की ताराएँ सब

मुँद रही किरण दल में हैं अब,

चल रहा सुखद यह मलय वात!


रजनी की लाज समेटी तो,

कलरव से उठ कर भेंटो तो,

अरुणांचल में चल रही वात।

15. कोमल कुसुमों की मधुर रात

कोमल कुसुमों की मधुर रात !


शशि-शतदल का यह सुख विकास,

जिसमें निर्मल हो रहा हास,

उसकी सांसो का मलय वात !

कोमल कुसुमों की मधुर रात !


वह लाज भरी कलियाँ अनंत,

परिमल-घूँघट ढँक रहा दन्त,

कंप-कंप चुप-चुप कर रही बात.

कोमल कुसुमों की मधुर रात !


नक्षत्र-कुमुद की अलस माल,

वह शिथिल हँसी का सजल जाल-

जिसमें खिल खुलते किरण पात

कोमल कुसुमों की मधुर रात !


कितने लघु-लघु कुडलम अधीर,

गिरते बन शिशिर-सुगंध-नीर,

हों रहा विश्व सुख-पुलक गात

16. कितने दिन जीवन जल-निधि में

कितने दिन जीवन जल-निधि में


विकल अनिल से प्रेरित होकर

लहरी, कूल चूमने चलकर

उठती गिरती-सी रुक-रुककर

सृजन करेगी छवि गति-विधि में !


कितनी मधु-संगीत-निनादित

गाथाएँ निज ले चिर-संचित

तरल तान गावेगी वंचित!

पागल-सी इस पथ निरवधि में!


दिनकर हिमकर तारा के दल

इसके मुकुर वक्ष में निर्मल

चित्र बनायेंगे निज चंचल!

आशा की माधुरी अवधि में !

17. मेरी आँखों की पुतली में

मेरी आँखों की पुतली में

तू बनकर प्रान समा जा रे!


जिसके कन-कन में स्पन्दन हो,

मन में मलयानिल चन्दन हो,

करुणा का नव-अभिनन्दन हो

वह जीवन गीत सुना जा रे!


खिंच जाये अधर पर वह रेखा

जिसमें अंकित हो मधु लेखा,

जिसको वह विश्व करे देखा,

वह स्मिति का चित्र बना जा रे !

18. जग की सजल कालिमा रजनी

जग की सजल कालिमा रजनी में मुखचन्द्र दिखा जाओ

ह्रदय अँधेरी झोली इनमे ज्योति भीख देने आओ

प्राणों की व्याकुल पुकार पर एक मींड़ ठहरा जाओ

प्रेम वेणु की स्वर- लहरी में जीवन - गीत सुना जाओ


स्नेहालिंगन की लतिकाओं की झुरमुट छा जाने दो

जीवन-धन ! इस जले जगत को वृन्दावन बन जाने दो

19. वसुधा के अंचल पर

वसुधा के अंचल पर

यह क्या कन-कन-सा गया बिखर?

जल शिशु की चंचल कीड़ा-सा,

जैसे सरसिज दल पर।


लालसा निराशा में ढलमल

वेदना और सुख में विह्वल

यह क्या है रे मानव जीवन?

कितना है रहा निखर।


मिलने चलने जब दो कन,

आकर्षण-मय चुम्बन बन,

दल के नस-नस मे बह जाती

लघु-लघु धारा सुन्दर।


हिलता-ढुलता चंचल दल,

ये सब कितने हैं रहे मचल

कन-कन अनन्त अम्बुधि बनते।

कब रुकती लीला निष्ठुर।


तब क्यों रे फिर यह सब क्यों?

यह रोष भरी लाली क्यों?

गिरने दे नयनों से उज्जवल

आँसू के कन मनहर।


वसुधा के अंचल पर।

20. अपलक जगती हो एक रात

अपलक जगती हो एक रात!


सब सोये हों इस भूतल में,

अपनी निरीहता सम्बल में

चलती हो कोई भी न बात!


पथ सोये हों हरियाली में,

हों सुमन सो रहे डाली में,

हो अलस उनींदी नखत पाँत!


नीरव प्रशान्ति का मौन बना,

चुपके किसलय से बिछल छता;

थकता हो पंथी मलय-बात।


वक्षस्थल में जो छिपे हुए

सोते हों हृदय अभाव लिए

उनके स्वप्नों का हो न प्रात।

21. जगती की मंगलमयी उषा बन

जगती की मंगलमयी उषा बन,

करुणा उस दिन आई थी,

जिसके नव गैरिक अंचल की प्राची में भरी ललाई थी


भय- संकुल रजनी बीत गई,

भव की व्याकुलता दूर गई,

घन-तिमिर-भार के लिए तड़ित स्वर्गीय किरण बन आई थी


खिलती पंखुरी पंकज- वन की,

खुल रही आँख रिषी पत्तन की,

दुख की निर्ममता निरख कुसुम -रस के मिस जो भार आई थी


कल-कल नादिनी बहती-बहती-

प्राणी दुख की गाथा कहती-

वरूणा द्रव होकर शांति-वारि शीतलता-सी भर लाई थी


पुलकित मलयानिल कूलो में,

भरता अंजलि था फूलों में ,

स्वागत था अभया वाणी का निष्ठुरता लिये बिदाई थी


उन शांत तपोवन कुंजो में,

कुटियों, त्रिन विरुध पुंजो में,

उटजों में था आलोक भरा कुसुमित लतिका झुक आई थी


मृग मधुर जुगाली करते से,

खग कलरव में स्वर भरते से,

विपदा से पूछ रहे किसकी पद्ध्वनी सुनने में आई थी


प्राची का पथिक चला आता ,

नभ पद- पराग से भर जाता,

वे थे पुनीत परमाणु दया ने जिसने सृष्टि बनाई थी.

तप की तारुन्यमयी प्रतिमा,

प्रज्ञा पारमिता की गरिमा,

इस व्यथित विश्व की चेतनता गौतम सजीव बन आई थी


उस पावन दिन की पुण्यमयी,

स्मृति लिये धारा है धैर्यमयी,

जब धर्म- चक्र के सतत-प्रवर्तन की प्रसन्न ध्वनि छाई थी


युग-युग की नव मानवता को,

विस्तृत वसुधा की विभुता को,

कल्याण संघ की जन्मभूमि आमंत्रित करती आई थी


स्मृति-चिन्हों की जर्जरता में,

निष्ठुर कर की बर्बरता में,

भूलें हम वह संदेश न जिसने फेरी धर्म दुहाई थी

22. चिर तृषित कंठ से तृप्त-विधुर

चिर संचित कंठ से तृप्त-विधुर

वह कौन अकिंचन अति आतुर

अत्यंत तिरस्कृत अर्थ सदृश

ध्वनि कम्पित करता बार-बार,

धीरे से वह उठता पुकार-

मुझको न मिला रे कभी प्यार


सागर लहरों सा आलिंगन

निष्फल उठकर गिरता प्रतिदिन

जल वैभव है सीमा-विहीन

वह रहा एक कन को निहार,

धीरे से वह उठता पुकार-

मुझको न मिला रे कभी प्यार


अकरुण वसुधा से एक झलक

वह स्मृत मिलने को रहा ललक

जिसके प्रकाश में सकल कर्म

बनते कोमल उज्जवल उदार,

धीरे से वह उठता पुकार-

मुझको न मिला रे कभी प्यार


फैलाती है जब उषा राग

जग जाता है उसका विराग

वंचकता, पीड़ा, घ्ह्रिना, मोह

मिलकर बिखेरते अंधकार,

धीरे से वह उठता पुकार-

मुझको न मिला रे कभी प्यार


ढल विरल डालियाँ भरी मुकुल

झुकती सौरभ रस लिये अतुल

अपने विषद -विष में मूर्छित

काँटों से बिंध कर बार बार,

धीरे से वह उठता पुकार-

मुझको न मिला रे कही प्यार


जीवन रजनी का अमल इंदु

न मिला स्वाति का एक बिंदु

जो ह्रदय सीप में मोती बन

पूरा कर देता लक्षहार,

धीरे से वह उठता पुकार-

मुझको न मिला रे कभी प्यार


पागल रे ! वह मिलता है कब

उसको तो देते ही हैं सब

आँसू के कन-कन से गिन कर

यह विश्व लिये है ऋण उधर,

तू क्यों फिर उठता है पुकार ?

मुझको न मिला रे कभी प्यार

23. काली आँखों का अंधकार

काली आँखों का अन्धकार

तब हो जाता है वार पार,

मद पिये अचेतन कलाकार

उन्मीलित करता क्षितिज पार


वह चित्र! रंग का ले बहार

जिसमें हैं केवल प्यार प्यार!


केवल स्मितिमय चाँदनी रात,

तारा किरनों से पुलक गात,

मधुपों मुकुलों के चले घात,

आता हैं चुपके मलय वात,


सपनों के बादल का दुलार।

तब दे जाता हैं बूँद चार!


तब लहरों-सा उठकर अधीर

तू मधुर व्यथा-सा शून्य चीर,

सूखे किसलय-सा भरा पीर

गिर जा पतझड़ का पा समीर।


पहने छाती पर तरल हार।

पागल पुकार फिर प्यार प्यार!

24. अरे कहीं देखा है तुमने

अरे कहीं देखा हैं तुमने

मुझे प्यार करनेवाले को?

मेरी आँखों में आकर फिर

आँसू बन ढरनेवाले को ?


सूने नभ में आग जलाकर

यह सुवर्ण-सा हृदय गलाकर

जीवन सन्ध्या को नहलाकर

रिक्त जलधि भरनेवाले को ?


रजनी के लघु-तम कन में

जगती की ऊष्मा के वन में

उस पर पड़ते तुहिन सघन में

छिप, मुझसे डरनेवाले को ?


निष्ठुर खेलों पर जो अपने

रहा देखता सुख के सपने

आज लगा है क्या वह कँपने

देख मौन मरनेवाले को ?

25. शशि-सी वह सुन्दर रूप विभा

शशि-सी वह सन्दुर रूप विभा

चाहे न मुझे दिखलाना।

उसकी निर्मल शीलत छाया

हिमकन को बिखरा जाना।


संसार स्वप्न बनकर दिन-सा

आया हैं नहीं जगाने,

मेरे जीवन के सुख निशीध!

जाते-जाते रूक जाना।


हाँ, इन जाने की घड़ियों

कुछ ठहर नहीं जाओगे?

छाया पथ में विश्राम नहीं,

है केवल चलते जाना।


मेरा अनुराग फैलने दो,

नभ के अभिनव कलरव में,

जाकर सूनेपन के तम में

बन किरन कभी आ जाना।

26. अरे ! आ गई है भूली-सी

अरे! आ गई है भूली-सी-

यह मधु ऋतु दो दिन को,

छोटी सी कुटिया मैं रच दूं,

नयी व्यथा-साथिन को!


वसुधा नीचे ऊपर नभ हो,

नीड़ अलग सबसे हो,

झारखण्ड के चिर पतझड में

भागो सूखे तिनको!


आशा से अंकुर झूलेंगे

पल्लव पुलकित होंगे,

मेरे किसलय का लघु भव यह,

आह, खलेगा किन को?


सिहर भरी कपती आवेंगी

मलयानिल की लहरें,

चुम्बन लेकर और जगाकर-

मानस नयन नलिन को


जवा- कुसुम -सी उषा खिलेगी

मेरी लघु प्राची में,

हँसी भरे उस अरुण अधर का

राग रंगेगा दिन को


अंधकार का जलधि लांघकर

आवेंगी शशि- किरणे,

अंतरिक्ष छिरकेगा कन-कन

निशि में मधुर तुहिन को


एक एकांत सृजन में कोई

कुछ बाधा मत डालो,

जो कुछ अपने सुंदर से हैं

दे देने दो इनको

27. निधरक तूने ठुकराया तब

निधरक तूने ठुकराया तब

मेरी टूटी मधु प्याली को,

उसके सूखे अधर माँगते

तेरे चरणों की लाली को।


जीवन-रस के बचे हुए कन,

बिखरे अम्बर में आँसू बन,

वही दे रहा था सावन घन

वसुधा की इस हरियाली को।


निदय हृदय में हूक उठी क्या,

सोकर पहली चूक उठी क्या,

अरे कसक वह कूक उठी क्या,

झंकृत कर सूखी डाली को?


प्राणों के प्यासे मतवाले

ओ झंझा से चलनेवाले।

ढलें और विस्मृति के प्याले,

सोच न कृति मिटनेवाली को।

28. ओ री मानस की गहराई

ओ री मानस की गहराई !


तू सुप्त, शान्त कितनी शीतल

निर्वात मेघ ज्यों पूरित जल

नव मुकुर नीलमणि फलक अमल,

ओ पारदर्शिका! चिर चंचल

यह विश्व बना हैं परछाई !


तेरा विषाद द्रव तरल-तरल

मूर्च्छित न रहे ज्यों पिये गरल

सुख-लहर उठा री सरल-सरल

लधु-लधु सुन्दर-सुन्दर अविरल,

तू हँस जीवन की सुधराई !


हँस, झिलमिल हो लें तारा गन,

हँस खिले कुंज में सकल सुमन,

हँस, बिखरें मधु मरन्द के कन,

बनकर संसृति के तव श्रम कन,

सब कहें दें 'वह राका आई !'


हँस ले भय शोक प्रेम या रण,

हँस ले काला पट ओढ़ मरण,

हँस ले जीवन के लघु-लघु क्षण,

देकर निज चुम्बन के मधुकण,

नाविक अतीत की उत्तराई !

29. मधुर माधवी संध्या में

मधुर माधवी संध्या मे जब रागारुण रवि होता अस्त,

विरल मृदल दलवाली डालों में उलझा समीर जब व्यस्त,


प्यार भरे श्मालम अम्बर में जब कोकिल की कूक अधीर

नृत्य शिथिल बिछली पड़ती है वहन कर रहा है उसे समीर


तब क्यों तू अपनी आँखों में जल भरकर उदास होता,

और चाहता इतना सूना-कोई भी न पास होता,


वंचित रे! यह किस अतीत की विकल कल्पना का परिणाम?

किसी नयन की नील दिशा में क्या कर चुका विश्राम?


क्या झंकृत हो जाते हैं उन स्मृति किरणों के टूटे तार?

सूने नभ में स्वर तरंग का फैलाकर मधु पारावार,


नक्षत्रों से जब प्रकाश की रश्मि खेलने आती हैं,

तब कमलों की-सी जब सन्ध्या क्यों उदास हो जाती है ?


30. अंतरिक्ष में अभी सो रही है

अंतरिक्ष में अभी सो रही है उषा मधुबाला,

अरे खुली भी अभी नहीं तो प्राची की मधुशाला


सोता तारक-किरन-पुलक रोमावली मलयज वात,

लेते अंगराई नीड़ों में अलस विहंग मृदु गात,

रजनि रानी की बिखरी है म्लान कुसुम की माला,

अरे भिखारी! तू चल पड़ता लेकर टुटा प्याला


गूंज उठी तेरी पुकार- 'कुछ मुझको भी दे देना-

कन-कन बिखरा विभव दान कर अपना यश ले लेना'


दुख-सुख के दोनों डग भरता वहन कर रहा गात,

जीवन का दिन पथ चलने में कर देगा तू रात,


तू बढ़ जाता अरे अकिंचन,छोड़ करुण स्वर अपना,

सोने वाले जग कर देंखें अपने सुख का सपना

31. शेरसिंह का शस्त्र समर्पण

"ले लो यह शस्त्र है

गौरव ग्रहण करने का रहा कर मैं--

अब तो ना लेश मात्र

लाल सिंह ! जीवित कलुष पंचनद का

देख दिये देता है

सिहों का समूह नख-दंत आज अपना"


"अरी, रण - रंगिनी !

कपिशा हुई थी लाल तेरा पानी पान कर


दुर्मद तुरंत धर्म दस्युओं की त्रासिनी--

निकल,चली जा त प्रतारणा के कर से"


"अरी वह तेरी रही अंतिम जलन क्या ?

तोपें मुँह खोले खड़ी देखती थी तरस से

चिलियानवाला में

आज के पराजित तो विजयी थे कल ही,

उनके स्मर वीर कल में तु नाचती

लप-लप करती थी --जीभ जैसे यम की

उठी तू न लूट त्रास भय से प्रचार को,

दारुण निराशा भरी आँखों से देखकर

दृप्त अत्याचार को

एक पुत्र-वत्सला दुराशामयी विधवा

प्रकट पुकार उठी प्राण भरी पीड़ा से--

और भी;


जन्मभूमि, दलित विकल अपमान से

त्रस्त हो कराहती थी

कैसे फिर रुकती ?"

"आज विजयी हों तुमऔर हैं पराजित हम

तुम तो कहोगे, इतिहास भी कहेगा यही,

किन्तु यह विजय प्रशंसा भरी मन की--एक छलना है.

वीर भूमि पंचनद वीरता से रिक्त नहीं.

काठ के हों गोले जहाँ

आटा बारूद हों;

और पीठ पर हों दुरंत दंशनो का तरस

छाती लडती हो भरी आग,बाहु बल से

उस युद्ध में तो बस मृत्यु ही विजय है.

सतलज के तटपर मृत्यु श्यामसिंह की--

देखी होगी तुमने भी वृद्ध वीर मूर्ति वह,

तोड़ा गया पुल प्रत्यावर्तन के पथ में

अपने प्रवंचको से

लिखता अदृष्ट था विधाता वाम कर से

छल में विलीन बल--बल में विषाद था --

विकल विलास का

यवनों के हाथों से स्वतंत्रता को छीन कर

खेलता था यौवन-विलासी मत्त पंचनद--

प्रणय-विहीन एक वासना की छाया में

फिर भी लड़े थे हम निज प्राण-पण से

कहेगी शतद्रु शत-संगरों की साक्षिणी,

सिक्ख थे सजीव--

स्वत्व-रक्षा में प्रबुद्ध थे

जीना जानते थे

मरने को मानते थे सिक्ख

किन्तु, आज उनका अतीत वीर-गाथा हुई--

जीत होती जिसकी

वही है आज हारा हुआ

"उर्जस्वित रक्त और उमंग भरा मन था

जिन युवकों के मणिबंधों में अबंध बल

इतना भरा था जो

उलटता शतध्वनियों को

गोले जिनके थे गेंद

अग्निमयी क्रीड़ा थी

रक्त की नदी में सिर ऊँचा छाती कर

तैरते थे

वीर पंचनद के सपूत मातृभूमि के

सो गए प्रतारना की थपकी लगी उन्हें

छल-बलिवेदी पर आज सब सो गए

पुतली प्रणयिनी का बाहुपाश खोलकर ,

दूध भरी दूध-सी दुलार भरी माँ गोद

सूनी कर सो गए

हुआ है सुना पंचनद

भिक्षा नहीं मांगता हूँ

आज इन प्राणों की

क्योंकि, प्राण जिसका आहार, वही इसकी

रखवाली आप करता है, महाकाल ही;

शेर पंचनद का प्रवीर रणजीतसिंह

आज मरता है देखो;

सो रहा पंचनद आज उसी शोक में.

यह तलवार लो

ले लो यह थाती है"

32. पेशोला की प्रतिध्वनि

अरुण करुण बिम्ब !

वह निर्धूम भस्म रहित ज्वलन पिंड !

विकल विवर्तनों से

विरल प्रवर्तनों में

श्रमित नमित सा-

पश्चिम के व्योम में है आज निरवलम्ब सा

आहुतियाँ विश्व की अजस्र से लुटाता रहा-

सतत सहस्त्र कर माला से-

तेज ओज बल जो व्दंयता कदम्ब-सा


पेशोला की उर्मियाँ हैं शांत,घनी छाया में-

तट तरु है चित्रित तरल चित्रसारी में

झोपड़े खड़े हैं बने शिल्प से विषाद के-

दग्ध अवसाद से

धूसर जलद खंड भटक पड़े हों-

जैसे विजन अनंत में

कालिमा बिखरती है संध्या के कलंक सी,

दुन्दुभि-मृदंग-तूर्य शांत स्तब्ध, मौन हैं


फिर भी पुकार सी है गूँज रही व्योम में-

"कौन लेगा भार यह ?

कौन विचलेगा नहीं ?

दुर्बलता इस अस्थिमांस की -

ठोंक कर लोहे से, परख कर वज्र से,

प्रलयोल्का खंड के निकष पर कस कर

चूर्ण अस्थि पुंज सा हँसेगा अट्टहास कौन ?

साधना पिशाचों की बिखर चूर-चूर होके

धूलि सी उड़ेगी किस दृप्त फूत्कार से ?


कौन लेगा भार यह ?

जीवित है कौन ?

साँस चलती है किसकी

कहता है कौन ऊँची छाती कर, मैं हूँ-

मैं हूँ- मेवाड़ में,


अरावली श्रृंग-सा समुन्नत सिर किसका ?

बोलो कोई बोलो-अरे क्या तुम सब मृत हों ?


आह, इस खेवा की!-

कौन थमता है पतवार ऐसे अंधर में

अंधकार-पारावार गहन नियति-सा-

उमड़ रहा है ज्योति-रेखा-हीन क्षुब्ध हो !

खींच ले चला है-

काल-धीवर अनंत में,

साँस सिफरि सी अटकी है किसी आशा में


आज भी पेशोला के-

तरल जल मंडलों में,

वही शब्द घूमता सा-

गूँजता विकल है

किन्तु वह ध्वनि कहाँ ?

गौरव की काया पड़ी माया है प्रताप की

वही मेवाड़ !

किन्तु आज प्रतिध्वनि कहाँ है ?"

33. बीती विभावरी जाग री

बीती विभावरी जाग री !


अम्बर पनघट में डूबो रही

तारा-घट उषा नागरी ।


खग-कुल कुल कुल-सा बोल रहा,

किसलय का अंचल डोल रहा,

लो यह लतिका भी भर लाई

मधु मुकुल नवल रस गागरी ।


अधरों में राग अमन्द पिये,

अलकों में मलयज बन्द किये

तू अब तक सोई है आली ।

आँखों मे भरे विहाग री !

 

 








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Hindi Kahani

हिंदी कहानी

Chanda Jaishankar Prasad

चंदा जयशंकर प्रसाद




1

चैत्र-कृष्णाष्टमी का चन्द्रमा अपना उज्ज्वल प्रकाश 'चन्द्रप्रभा' के निर्मल जल पर डाल रहा है। गिरि-श्रेणी के तरुवर अपने रंग को छोड़कर धवलित हो रहे हैं; कल-नादिनी समीर के संग धीरे-धीरे बह रही है। एक शिला-तल पर बैठी हुई कोलकुमारी सुरीले स्वर से-'दरद दिल काहि सुनाऊँ प्यारे! दरद' ...गा रही है।

गीत अधूरा ही है कि अकस्मात् एक कोलयुवक धीर-पद-संचालन करता हुआ उस रमणी के सम्मुख आकर खड़ा हो गया। उसे देखते ही रमणी की हृदय-तन्त्री बज उठी। रमणी बाह्य-स्वर भूलकर आन्तरिक स्वर से सुमधुर संगीत गाने लगी और उठकर खड़ी हो गई। प्रणय के वेग को सहन न करके वर्षा-वारिपूरिता स्रोतस्विनी के समान कोलकुमार के कंध-कूल से रमणी ने आलिंगन किया।

दोनों उसी शिला पर बैठ गये, और निर्निमेष सजल नेत्रों से परस्पर अवलोकन करने लगे। युवती ने कहा-तुम कैसे आये?

युवक-जैसे तुमने बुलाया।

युवती-(हँसकर) हमने तुम्हें कब बुलाया? और क्यों बुलाया?

युवक-गाकर बुलाया, और दरद सुनाने के लिये।

युवती-(दीर्घ नि:श्वास लेकर) कैसे क्या करूँ? पिता ने तो उसी से विवाह करना निश्चय किया है।

युवक-(उत्तेजना से खड़ा होकर) तो जो कहो, मैं करने के लिए प्रस्तुत हूँ।

युवती-(चन्द्रप्रभा की ओर दिखाकर) बस, यही शरण है।

युवक-तो हमारे लिए कौन दूसरा स्थान है?

युवती-मैं तो प्रस्तुत हूँ।

युवक-हम तुम्हारे पहले।

युवती ने कहा-तो चलो।

युवक ने मेघ-गर्जन-स्वर से कहा-चलो।

दोनों हाथ में हाथ मिलाकर पहाड़ी से उतरने लगे। दोनों उतरकर चन्द्रप्रभा के तट पर आये, और एक शिला पर खड़े हो गये। तब युवती ने कहा-अब विदा!

युवक ने कहा-किससे? मैं तो तुम्हारे साथ-जब तक सृष्टि रहेगी तब तक-रहूँगा।

इतने ही में शाल-वृक्ष के नीचे एक छाया दिखाई पड़ी और वह इन्हीं दोनों की ओर आती हुई दिखाई देने लगी। दोनों ने चकित होकर देखा कि एक कोल खड़ा है। उसने गम्भीर स्वर से युवती से पूछा-चंदा! तू यहाँ क्यों आई?

युवती-तुम पूछने वाले कौन हो?

आगन्तुक युवक-मैं तुम्हारा भावी पति 'रामू' हूँ।

युवती-मैं तुमसे ब्याह न करूँगी।

आगन्तुक युवक-फिर किससे तुम्हारा ब्याह होगा?

युवती ने पहले के आये हुए युवक की ओर इंगित करके कहा-इन्हीं से।

आगन्तुक युवक से अब न सहा गया। घूमकर पूछा-क्यों हीरा! तुम ब्याह करोगे?

हीरा-तो इसमें तुम्हारा क्या तात्पर्य है?

रामू-तुम्हें इससे अलग हो जाना चाहिये।

हीरा-क्यों, तुम कौन होते हो?

रामू-हमारा इससे संबंध पक्का हो चुका है।

हीरा-पर जिससे संबंध होने वाला है, वह सहमत न हो, तब?

रामू-क्यों चंदा! क्या कहती हो?

चंदा-मैं तुमसे ब्याह न करूँगी।

रामू-तो हीरा से भी तुम ब्याह नहीं कर सकतीं!

चंदा-क्यों?

रामू-(हीरा से) अब हमारा-तुम्हारा फैसला हो जाना चाहिये, क्योंकि एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं।

इतना कहकर हीरा के ऊपर झपटकर उसने अचानक छुरे का वार किया।

हीरा, यद्यपि सचेत हो रहा था; पर उसको सम्हलने में विलम्ब हुआ, इससे घाव लग गया, और वह वक्ष थामकर बैठ गया। इतने में चंदा जोर से क्रन्दन कर उठी-साथ ही एक वृद्ध भील आता हुआ दिखाई पड़ा।


2

युवती मुँह ढाँपकर रो रही है, और युवक रक्ताक्त छूरा लिये, घृणा की दृष्टि से खड़े हुए, हीरा की ओर देख रहा है। विमल चन्द्रिका में चित्र की तरह वे दिखाई दे रहे हैं। वृद्ध को जब चंदा ने देखा, तो और वेग से रोने लगी। उस दृश्य को देखते ही वृद्ध कोल-पति सब बात समझ गया, और रामू के समीप जाकर छूरा उसके हाथ से ले लिया, और आज्ञा के स्वर में कहा-तुम दोनों हीरा को उठाकर नदी के समीप ले चलो।

इतना कहकर वृद्ध उन सबों के साथ आकर नदी-तट पर जल के समीप खड़ा हो गया। रामू और चंदा दोनों ने मिलकर उसके घाव को धोया और हीरा के मुँह पर छींटा दिया, जिससे उसकी मूच्र्छा दूर हुई। तब वृद्ध ने सब बातें हीरा से पूछीं; पूछ लेने पर रामू से कहा-क्यों, यह सब ठीक है?

रामू ने कहा-सब सत्य है।

वृद्ध-तो तुम अब चंदा के योग्य नहीं हो, और यह छूरा भी-जिसे हमने तुम्हें दिया था। तुम्हारे योग्य नहीं है। तुम शीघ्र ही हमारे जंगल से चले जाओ, नहीं तो तुम्हारा हाल महाराज से कह देंगे, और उसका क्या परिणाम होगा सो तुम स्वयं समझ सकते हो। (हीरा की ओर देखकर) बेटा! तुम्हारा घाव शीघ्र अच्छा हो जायगा, घबड़ाना नहीं, चंदा तुम्हारी ही होगी।

यह सुनकर चंदा और हीरा का मुख प्रसन्नता से चमकने लगा, पर हीरा ने लेटे-ही-लेटे हाथ जोड़कर कहा-पिता! एक बात कहनी है, यदि आपकी आज्ञा हो।

वृद्ध-हम समझ गये, बेटा! रामू विश्वासघाती है।

हीरा-नहीं पिता! अब वह ऐसा कार्य नहीं करेगा। आप क्षमा करेंगे, मैं ऐसी आशा करता हूँ।

वृद्ध-जैसी तुम्हारी इच्छा।

कुछ दिन के बाद जब हीरा अच्छी प्रकार से आरोग्य हो गया, तब उसका ब्याह चंदा से हो गया। रामू भी उस उत्सव में सम्मिलित हुआ, पर उसका बदन मलीन और चिन्तापूर्ण था। वृद्ध कुछ ही काल में अपना पद हीरा को सौंप स्वर्ग को सिधारा। हीरा और चंदा सुख से विमल चाँदनी में बैठकर पहाड़ी झरनों का कल-नाद-मय आनन्द-संगीत सुनते थे।


3

अंशुमाली अपनी तीक्ष्ण किरणों से वन्य-देश को परितापित कर रहे हैं। मृग-सिंह एक स्थान पर बैठकर, छाया-सुख में अपने बैर-भाव को भूलकर, ऊँघ रहे हैं। चन्द्रप्रभा के तट पर पहाड़ी की एक गुहा में जहाँ कि छतनार पेड़ों की छाया उष्ण वायु को भी शीतल कर देती है, हीरा और चंदा बैठे हैं। हृदय के अनन्त विकास से उनका मुख प्रफुल्लित दिखाई पड़ता है। उन्हें वस्त्र के लिये वृक्षगण वल्कल देते हैं; भोजन के लिये प्याज, मेवा इत्यादि जंगली सुस्वादु फल, शीतल स्वछन्द पवन; निवास के लिये गिरि-गुहा; प्राकृतिक झरनों का शीतल जल उनके सब अभावों को दूर करता है, और सबल तथा स्वछन्द बनाने में ये सब सहायता देते हैं। उन्हें किसी की अपेक्षा नहीं पड़ती। अस्तु, उन्हीं सब सुखों से आनन्दित व्यक्तिद्वय 'चन्द्रप्रभा' के जल का कल-नाद सुनकर अपनी हृदय-वीणा को बजाते हैं।

चंदा-प्रिय! आज उदासीन क्यों हो?

हीरा-नहीं तो, मैं यह सोच रहा हूँ कि इस वन में राजा आने वाले हैं। हम लोग यद्यपि अधीन नहीं हैं तो भी उन्हें शिकार खेलाया जाता है, और इसमें हम लोगों की कुछ हानि भी नहीं है। उसके प्रतिकार में हम लोगों को कुछ मिलता है, पर आजकल इस वन में जानवर दिखाई नहीं पड़ते। इसलिये सोचता हूँ कि कोई शेर या छोटा चीता भी मिल जाता, तो कार्य हो जाता।

चंदा-खोज किया था?

हीरा-हाँ, आदमी तो गया है।

इतने में एक कोल दौड़ता हुआ आया, और कहा राजा आ गये हैं और तहखाने में बैठे हैं। एक तेंदुआ भी दिखाई दिया है।

हीरा का मुख प्रसन्नता से चमकने लगा, और वह अपना कुल्हाड़ा सम्हालकर उस आगन्तुक के साथ वहाँ पहुँचा, जहाँ शिकार का आयोजन हो चुका था।

राजा साहब झंझरी में बंदूक की नाल रखे हुए ताक रहे हैं। एक ओर से बाजा बज उठा। एक चीता भागता हुआ सामने से निकला। राजा साहब ने उस पर वार किया। गोली लगी, पर चमड़े को छेदती हुई पार हो गई; इससे वह जानवर भागकर निकल गया। अब तो राजा साहब बहुत ही दु:खित हुए। हीरा को बुलाकर कहा-क्यों जी, यह जानवर नहीं मिलेगा?

उस वीर कोल ने कहा-क्यों नहीं?

इतना कहकर वह उसी ओर चला। झाड़ी में, जहाँ वह चीता घाव से व्याकुल बैठा था, वहाँ पहुँचकर उसने देखना आरम्भ किया। क्रोध से भरा हुआ चीता उस कोल-युवक को देखते ही झपटा। युवक असावधानी के कारण वार न कर सका, पर दोनों हाथों से उस भयानक जन्तु की गर्दन को पकड़ लिया, और उसने भी इसके कंधे पर अपने दोनों पंजों को जमा दिया।

दोनों में बल-प्रयोग होने लगा। थोड़ी देर में दोनों जमीन पर लेट गये।


4

यह बात राजा साहब को विदित हुई। उन्होंने उसकी मदद के लिए कोलों को जाने की आज्ञा दी। रामू उस अवसर पर था। उसने सबके पहले जाने के लिए पैर बढ़ाया, और चला। वहाँ जब पहुँचा, तो उस दृश्य को देखकर घबड़ा गया, और हीरा से कहा-हाथ ढीला कर; जब यह छोड़ने लगे, तब गोली मारूँ, नहीं तो सम्भव है कि तुम्हीं को लग जाय।

हीरा-नहीं, तुम गोली मारो।

रामू-तुम छोड़ो तो मैं वार करूँ।

हीरा-नहीं, यह अच्छा नहीं होगा।

रामू-तुम उसे छोड़ो, मैं अभी मारता हूँ।

हीरा-नहीं, तुम वार करो।

रामू-वार करने से सम्भव है कि उछले और तुम्हारे हाथ छूट जायँ, तो तुमको यह तोड़ डालेगा।

हीरा-नहीं, तुम मार लो, मेरा हाथ ढीला हुआ जाता है।

रामू-तुम हठ करते हो, मानते नहीं।

इतने में हीरा का हाथ कुछ बात-चीत करते-करते ढीला पड़ा; वह चीता उछलकर हीरा की कमर को पकड़कर तोड़ने लगा।

रामू खड़ा होकर देख रहा है, और पैशाचिक आकृति उस घृणित पशु के मुख पर लक्षित हो रही है और वह हँस रहा है।

हीरा टूटी हुई साँस से कहने लगा-अब भी मार ले।

रामू ने कहा-अब तू मर ले, तब वह भी मारा जायेगा। तूने हमारा हृदय निकाल लिया है, तूने हमारा घोर अपमान किया है, उसी का प्रतिफल है। इसे भोग।

हीरा को चीता खाये डालता है; पर उसने कहा-नीच! तू जानता है कि 'चंदा' अब तेरी होगी। कभी नहीं! तू नीच है-इस चीते से भी भयंकर जानवर है।

रामू ने पैशाचिक हँसी हँसकर कहा-चंदा अब तेरी तो नहीं है, अब वह चाहे जिसकी हो।

हीरा ने टूटी हुई आवाज से कहा-तुझे इस विश्वासघात का फल शीघ्र मिलेगा और चंदा फिर हमसे मिलेगी। चंदा...प्यारी...च...

इतना उसके मुख से निकला ही था कि चीते ने उसका सिर दाँतों के तले दाब लिया। रामू देखकर पैशाचिक हँसी हँस रहा था। हीरा के समाप्त हो जाने पर रामू लौट आया, और झूठी बातें बनाकर राजा से कहा कि उसको हमारे जाने के पहले ही चीता ने मार लिया।

राजा बहुत दुखी हुए, और जंगल की सरदारी रामू को मिली।


5

बसंत की राका चारों ओर अनूठा दृश्य दिखा रही है। चन्द्रमा न मालूम किस लक्ष्य की ओर दौड़ा चला जा रहा है; कुछ पूछने से भी नहीं बताता। कुटज की कली का परिमल लिये पवन भी न मालूम कहाँ दौड़ रहा है; उसका भी कुछ समझ नहीं पड़ता। उसी तरह, चन्द्रप्रभा के तीर पर बैठी हुई कोल-कुमारी का कोमल कण्ठ-स्वर भी किस धुन में है-नहीं ज्ञात होता।

अकस्मात् गोली की आवाज ने उसे चौंका दिया। गाने के समय जो उसका मुख उद्वेग और करुणा से पूर्ण दिखाई पड़ता था, वह घृणा और क्रोध से रंजित हो गया, और वह उठकर पुच्छमर्दिता सिंहनी के समान तनकर खड़ी हो गई, और धीरे से कहा-यही समय है। ज्ञात होता है, राजा इस समय शिकार खेलने पुन: आ गये हैं-बस, वह अपने वस्त्र को ठीक करके कोल-बालक बन गई, और कमर में से एक चमचमाता हुआ छुरा निकालकर चूमा। वह चाँदनी में चमकने लगा। फिर वह कहने लगी-यद्यपि तुमने हीरा का रक्तपात कर लिया है, लेकिन पिता ने रामू से तुम्हें ले लिया है। अब तुम हमारे हाथ में हो, तुम्हें आज रामू का भी खून पीना होगा।

इतना कहकर वह गोली के शब्द की ओर लक्ष्य करके चली। देखा कि तहखाने में राजा साहब बैठे हैं। शेर को गोली लग चुकी है, और वह भाग गया है, उसका पता नहीं लग रहा है, रामू सरदार है, अतएव उसको खोजने के लिए आज्ञा हुई, वह शीघ्र ही सन्नद्ध हुआ। राजा ने कहा-कोई साथी लेते जाओ।

पहले तो उसने अस्वीकार किया, पर जब एक कोल युवक स्वयं साथ चलने को तैयार हुआ, तो वह नहीं भी न कर सका, और सीधे-जिधर शेर गया था, उसी ओर चला। कोल-बालक भी उसके पीछे हैं। वहाँ घाव से व्याकुल शेर चिंघ्घाड़ रहा है, इसने जाते ही ललकारा। उसने तत्काल ही निकलकर वार किया। रामू कम साहसी नहीं था, उसने उसके खुले मुँह में निर्भीक होकर बन्दूक की नाल डाल दी; पर उसके जरा-सा मुँह घुमा लेने से गोली चमड़ा छेदकर पार निकल गई, और शेर ने क्रुद्ध होकर दाँत से बंदूक की नाल दबा ली। अब दोनों एक दूसरे को ढकेलने लगे; पर कोल-बालक चुपचाप खड़ा है। रामू ने कहा-मार, अब देखता क्या है?

युवक-तुम इससे बहुत अच्छी तरह लड़ रहे हो।

रामू-मारता क्यों नहीं?

युवक-इसी तरह शायद हीरा से भी लड़ाई हुई थी, क्या तुम नहीं लड़ सकते?

रामू-कौन, चंदा! तुम हो? आह, शीघ्र ही मारो, नहीं तो अब यह सबल हो रहा है।

चंदा ने कहा-हाँ, लो मैं मारती हूँ, इसी छुरे से हमारे सामने तुमने हीरा को मारा था, यह वही छुरा है, यह तुझे दु:ख से निश्चय ही छुड़ावेगा-इतना कहकर चंदा ने रामू की बगल में छुरा उतार दिया। वह छटपटाया। इतने ही में शेर को मौका मिला, वह भी रामू पर टूट पड़ा और उसका इति कर आप भी वहीं गिर पड़ा।

चंदा ने अपना छुरा निकाल लिया, और उसको चाँदनी में रंगा हुआ देखने लगी, फिर खिलखिलाकर हँसी और कहा, -'दरद दिल काहि सुनाऊँ प्यारे!' फिर हँसकर कहा-हीरा! तुम देखते होगे, पर अब तो यह छुरा ही दिल की दाह सुनेगा। इतना कहकर अपनी छाती में उसे भोंक लिया और उसी जगह गिर गई, और कहने लगी......हीरा......हम......तुमसे तुमसे......मिले ही......

चन्द्रमा अपने मन्द प्रकाश में यह सब देख रहा था।



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Hindi Kahani

हिंदी कहानी

Madan Mrinalini Jaishankar Prasad

मदन-मृणालिनी जयशंकर प्रसाद





विजया-दशमी का त्योहार समीप है, बालक लोग नित्य रामलीला होने से आनन्द में मग्न हैं।

हाथ में धनुष और तीर लिये हुए एक छोटा-सा बालक रामचन्द्र बनने की तैयारी में लगा हुआ है। चौदह वर्ष का बालक बहुत ही सरल और सुन्दर है।

खेलते-खेलते बालक को भोजन की याद आई। फिर कहाँ का राम बनना और कहाँ की रामलीला। चट धनुष फेंककर दौड़ता हुआ माता के पास जा पहुँचा और उस ममता-मोहमयी माता के गले से लिपटकर-माँ! खाने को दे, माँ! खाने को दे-कहता हुआ जननी के चित्त को आनन्दित करने लगा।

जननी बालक का मचलना देखकर प्रसन्न हो रही थी और थोड़ी देर तक बैठी रहकर और भी मचलना देखा चाहती थी। उसके यहाँ एक पड़ोसिन बैठी थी, अतएव वह एकाएक उठकर बालक को भोजन देने में असमर्थ थी। सहज ही असन्तुष्ट हो जाने वाली पड़ोस की स्त्रियों का सहज क्रोधमय स्वभाव किसी से छिपा न होगा। यदि वह तत्काल उठकर चली जाती, तो पड़ोसिन क्रुद्ध होती। अत: वह उठकर बालक को भोजन देने में आनाकानी करने लगी। बालक का मचलना और भी बढ़ चला। धीरे-धीरे वह क्रोधित हो गया, दौड़कर अपनी कमान उठा लाया; तीर चढ़ाकर पड़ोसिन को लक्ष्य किया और कहा-तू यहाँ से जा, नहीं तो मैं मारता हूँ।

दोनों स्त्रियाँ केवल हँसकर उसको मना करती रहीं। अकस्मात् वह तीर बालक के हाथ से छूट पड़ा और पड़ोसिन की गर्दन में कुछ धँस गया! अब क्या था, वह अर्जुन और अश्वत्थामा का पाशुपतास्त्र हो गया। बालक की माँ बहुत घबरा गयी, उसने अपने हाथ से तीर निकाला, उसके रक्त को धोया, बहुत कुछ ढाढ़स दिया। किन्तु घायल स्त्री का चिल्लाना-कराहना सहज में थमने वाला नहीं था।

बालक की माँ विधवा थी, कोई उसका रक्षक न था। जब उसका पति जीता था, तब तक उसका संसार अच्छी तरह चलता था; अब जो कुछ पूँजी बच रही थी, उसी में वह अपना समय बिताती थी। ज्यों-त्यों करके उसने चिर-संरक्षित धन में से पचीस रुपये उस घायल स्त्री को दिये।

वह स्त्री किसी से यह बात न कहने का वादा करके अपने घर गयी। परन्तु बालक का पता नहीं, वह डर के मारे घर से निकल किसी ओर भाग गया।

माता ने समझा कि पुत्र कहीं डर से छिपा होगा, शाम तक आ जायगा। धीरे-धीरे सन्ध्या-पर-सन्ध्या, सप्ताह-पर-सप्ताह, मास-पर-मास, बीतने लगे; परन्तु बालक का कहीं पता नहीं। शोक से माता का हृदय जर्जर हो गया, वह चारपाई पर लग गयी। चारपाई ने भी उसका ऐसा अनुराग देखकर उसे अपना लिया, और फिर वह उस पर से न उठ सकी। बालक को अब कौन पूछने वाला है!


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कलकत्ता-महानगरी के विशाल भवनों तथा राजमार्गों को आश्चर्य से देखता हुआ एक बालक सुसज्जित भवन के सामने खड़ा है। महीनों कष्ट झेलता, राह चलता, थकता हुआ बालक यहाँ पहुँचा है।

बालक थोड़ी देर तक यही सोचता था कि अब मैं क्या करूँ, किससे अपने कष्ट की कथा कहूँ। इतने में वहाँ धोती-कमीज पहने हुए एक सभ्य बंगाली महाशय का आगमन हुआ।

उस बालक की चौड़ी हड्डी, सुडौल बदन और सुन्दर चेहरा देखकर बंगाली महाशय रुक गये और उसे एक विदेशी समझकर पूछने लगे।

तुम्हारा मकान कहाँ है?

ब...में।

तुम यहाँ कैसे आये?

भागकर।

नौकरी करोगे?

हाँ।

अच्छा, हमारे साथ चलो।

बालक ने सोचा कि सिवा काम के और क्या करना है, तो फिर इनके साथ ही उचित है। कहा-अच्छा, चलिये।

बंगाली महाशय उस बालक को घुमाते-फिराते एक मकान के द्वार पर पहुँचे। दरबान ने उठकर सलाम किया। वह बालक-सहित एक कमरे में पहुँचे, जहाँ एक नवयुवक बैठा हुआ कुछ लिख रहा था, सामने बहुत से कागज इधर-उधर बिखरे पड़े थे।

युवक ने बालक को देखकर पूछा-बाबूजी, यह बालक कौन है?

यह नौकरी करेगा, तुमको एक आदमी की जरूरत थी ही, सो इसको हम लिवा लाये हैं, अपने साथ रक्खो-बाबूजी यह कहकर घर के दूसरे भाग में चले गये थे।

युवक के कहने पर बालक भी अचकचाता हुआ बैठ गया। उनमें इस तरह बातें होने लगीं-

युवक-क्यों जी, तुम्हारा नाम क्या है?

बालक-(कुछ सोचकर) मदन।

युवक-नाम तो बड़ा अच्छा है। अच्छा, कहो, तुम क्या खाओगे? रसोई बनाना जानते हो?

बालक-रसोई बनाना तो नहीं जानते। हाँ, कच्ची-पक्की जैसी हो, बनाकर खा लेते हैं, किन्तु ..

अच्छा, संकोच करने की कोई जरूरत नहीं है-इतना कहकर युवक ने पुकारा-कोई है?

एक नौकर दौड़कर आया-हुजूर, क्या हुक्म है?

युवक ने कहा-इनको भोजन कराने के लिए ले जाओ।

भोजन के उपरान्त बालक युवक के पास आया। युवक ने एक घर दिखाकर कहा कि उस सामने की कोठरी में सोओ और उसे अपने रहने का स्थान समझो।

युवक की आज्ञा के अनुसार बालक उस कोठरी में गया, देखा तो एक साधारण-सी चौकी पड़ी है; एक घड़े में जल, लोटा और गिलास भी रक्खा हुआ है। वह चुपचाप चौकी पर लेट गया।

लेटने पर उसे बहुत-सी बातें याद आने लगीं, एक-एक करके उसे भावना के जाल में फँसाने लगीं। बाल्यावस्था के साथी, उनके साथ खेल-कूद, राम-रावण की लड़ाई, फिर उस विजया-दशमी के दिन की घटना, पड़ोसिन के अंग में तीर का धँस जाना, माता की व्याकुलता, और मार्ग के कष्ट को सोचते-सोचते उस भयातुर बालक की विचित्र दशा हो गयी।

मनुष्य की मिमियाई निकालने वाली द्वीप-निवासिनी जातियों की भयानक कहानियाँ, जिन्हें उसने बचपन में माता की गोद में पड़े-पड़े सुना था, उसे और भी डराने लगीं। अकस्मात् उसके मस्तिष्क को उद्वेग से भर देनेवाली यह बात भी समा गयी कि-ये लोग तो मुझे नौकर बनाने के लिए अपने यहाँ लाये थे, फिर इतने आराम से क्यों रक्खा है? हो-न-हो, वही टापूवाली बात है। बस, फिर कहाँ की नींद और कहाँ का सुख, करवटें बदलने लगा! मन में यही सोचता था कि यहाँ से किसी तरह भाग चलो।


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परन्तु निद्रा भी कैसी प्यारी वस्तु है! घोर दु:ख के समय भी मनुष्य को यही सुख देती है। सब बातों से व्याकुल होने पर भी वह कुछ देर के लिये सो गया।

मदन उसी घर में रहने लगा। अब उसे उतनी घबराहट नहीं मालूम होती। अब वह निर्भय-सा हो गया है। किन्तु अभी तक यह बात कभी-कभी उसे उधेड़-बुन में लगा देती है कि ये लोग मुझसे इतना अच्छा बर्ताव क्यों करते हैं और क्यों इतना सुख देते हैं। पर इन सब बातों को वह उस समय भूल जाता है, जब 'मृणालिनी' उसकी रसोई बनवाने लगती है। देखो, रोटी जलती है, उसे उलट दो, दाल भी चला दो-इत्यादि बातें जब मृणालिनी के कोमल कण्ठ से वीणा की झंकार के समान सुनाई देती है, तब वह अपना दु:ख-माता का सोच-सब भूल जाता है।

मदन है तो अबोध, किन्तु संयुक्त प्रान्तवासी होने के कारण स्पृश्यास्पृश्य का उसे बहुत ही ध्यान रहता है। वह दूसरे का बनाया भोजन नहीं करता। अतएव मृणालिनी आकर उसे बताती है और भोजन के समय हवा भी करती है।

मृणालिनी गृहस्वामी की कन्या है। वह देवबाला-सी जान पड़ती है। बड़ी-बड़ी आँखें, उज्जवल कपोल, मनोहर अंगभंगी, गुल्फविलम्बित केश-कलाप उसे और भी सुन्दरी बनने में सहायता दे रहे हैं। अवस्था तेरह वर्ष की है; किन्तु वह बहुत गम्भीर है।

नित्य साथ होने से दोनों में अपूर्व भाव का उदय हुआ है। बालक का मुख जब आग की आँच से लाल तथा आँखें धुएँ के कारण आँसुओं से भर जाती हैं, तब बालिका आँखों में आँसू भर कर, रोष-पूर्वक पंखी फेंककर कहती है-लो जी, इससे काम लो, क्यों व्यर्थ परिश्रम करते हो? इतने दिन तुम्हें रसोई बनाते हुए, मगर बनाना न आया!

तब मदन आँच लगने के सारे दु:ख को भूल जाता। तब उसकी तृष्णा और बढ़ जाती; भोजन रहने पर भी भूख सताती है। और, सताया जाकर भी वह हँसने लगता है। मन-ही-मन सोचता, मृणालिनी! तुम बंग-महिला क्यों हुईं?

मदन के मन में यह बात क्यों उत्पन्न हुई? दोनों सुन्दर थे, दोनों ही किशोर थे, दोनों संसार से अनभिज्ञ थे, दोनों के हृदय में रक्त था-उच्छ्वास था-आवेग था-विकास था, दोनों के हृदय-सिन्धु में किसी अपूर्व चन्द्र का मधुर-उज्जवल प्रकाश पड़ता था, दोनों के हृदय-कानन में नन्दन-पारिजात खिला था!

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जिस परिवार में बालक मदन पलता था, उसके मालिक हैं अमरनाथ बनर्जी। आपके नवयुवक पुत्र का नाम है किशोरनाथ बनर्जी, कन्या का नाम मृणालिनी और गृहिणी का नाम हीरामणि है। बम्बई और कलकत्ता, दोनों स्थानों में, आपकी दूकानें थीं, जिनमें बाहरी चीजों का क्रय-विक्रय होता था; विशेष काम मोती के बनिज का था। आपका आफिस सीलोन में था; वहॉँ से मोती की खरीद होती थी। आपकी कुछ जमीन भी वहॉँ थी। उससे आपकी बड़ी आय थी। आप प्राय: अपनी बम्बई की दूकान में और आपका परिवार कलकत्ते में रहता था। धन अपार था, किसी चीज की कमी न थी। तो भी आप एक प्रकार से चिन्तित थे।

संसार में कौन चिन्ताग्रस्त नहीं है? पशु-पक्षी, कीट-पतंग, चेतन और अचेतन, सभी को किसी प्रकार की चिन्ता है। जो योगी हैं, जिन्होंने सब कुछ त्याग दिया है, संसार जिनके वास्ते असार है, उन्होंने भी स्वीकार किया है। यदि वे आत्मचिन्तन न करें, तो उन्हें योगी कौन कहेगा?

किन्तु बनर्जी महाशय की चिन्ता का कारण क्या है? सो पति-पत्नी की इस बातचीत से ही विदित हो जायगा-

अमरनाथ-किशोर तो क्वाँरा ही रहा चाहता है। अभी तक उसकी शादी कहीं पक्की नहीं हुई।

हीरामणि-सीलोन में आपके व्यापार करने तथा रहने से समाज आपको दूसरी ही दृष्टि से देख रहा है।

अमरनाथ-ऐसे समाज की मुझे परवाह नहीं है। मैं तो केवल लडक़ी और लड़के का ब्याह अपनी जाति में करना चाहता था। क्या टापुओं में जाकर लोग पहले बनिज नहीं करते थे? मैंने कोई अन्य धर्म तो ग्रहण नहीं किया, फिर यह व्यर्थ का आडम्बर क्यों है? और, यदि, कोई खान-पान का दोष दे, तो क्या यहाँ पर तिलक कर पूजा करने वाले लोगों से होटल बचा हुआ है?

हीरामणि-फिर क्या कीजियेगा? समाज तो इस समय केवल उन्हीं बगला-भगतों को परम धार्मिक समझता है!

अमरनाथ-तो फिर अब मैं ऐसे समाज को दूर ही से हाथ जोड़ता हूँ।

हीरामणि-तो क्या ये लडक़ी-लड़के क्वांरे ही रहेंगे?

अमरनाथ-नहीं, अब हमारी यह इच्छा है कि तुम सबको लेकर उसी जगह चलें। यहाँ कई वर्ष रहते भी हुआ किन्तु कार्य सिद्ध होने की कुछ भी आशा नहीं है, तो फिर अपना व्यापार क्यों नष्ट होने दें? इसलिये, अब तुम सबको वहीं चलना होगा। न होगा तो ब्राह्म हो जायँगे, किन्तु यह उपेक्षा अब सही नहीं जाती।


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मदन, मृणालिनी के संगम से बहुत ही प्रसन्न है। सरला मृणालिनी भी प्रफुल्लित है। किशोरनाथ भी उसे बहुत ही प्यार करता है, प्राय: उसी को साथ लेकर हवा खाने के लिए जाता है। दोनों में बहुत ही सौहार्द है। मदन भी बाहर किशोरनाथ के साथ और घर आने पर मृणालिनी की प्रेममयी वाणी से आप्यायित रहता है।

मदन का समय सुख से बीतने लगा। किन्तु बनर्जी महाशय के सपरिवार बाहर जाने की बातों ने एक बार उसके हृदय को उद्वेगपूर्ण बना दिया। वह सोचने लगा कि मेरा क्या परिणाम होगा, क्या मुझे भी चलने के लिए आज्ञा देंगे? और, यदि ये चलने के लिए कहेंगे, तो मैं क्या करूँगा? इनके साथ जाना ठीक होगा या नहीं?

इन सब बातों को वह सोचता ही था कि इतने में किशोरनाथ ने अकस्मात् आकर उसे चौंका दिया। उसने खड़े होकर पूछा-कहिये, आप लोग किस सोच-विचार में पड़े हुए हैं? कहाँ जाने का विचार है?

क्यों, क्या तुम न चलोगे?

कहाँ?

जहाँ हम लोग जायँ।

वही तो पूछता हूँ कि आप लोग कहाँ जायँगे?

सीलोन।

तो मुझसे भी आप वहाँ चलने के लिये कहते हैं?

इसमें तुम्हारी हानि ही क्या है?

(यज्ञोपवीत दिखाकर) इसकी ओर भी तो ध्यान कीजिये!

तो क्या समुद्र-यात्रा तुम नहीं कर सकते?

सुना है कि वहाँ जाने से धर्म नष्ट हो जाता है!

क्यों? जिस तरह तुम यहाँ भोजन बनाते हो, उसी तरह वहाँ भी बनाना।

जहाज पर भी चढऩा होगा!

उसमें हर्ज ही क्या है? लोग गंगासागर और जगन्नाथजी जाते समय जहाज पर नहीं चढ़ते?

मदन अब निरुत्तर हुआ; किन्तु उत्तर सोचने लगा। इतने ही में उधर से मृणालिनी आती हुई दिखायी पड़ी। मृणालिनी को देखते ही उसके विचाररूपी मोतियों को प्रेम-हंस ने चुग लिया और उसे उसकी बुद्धि और भी भ्रमपूर्ण जान पड़ने लगी।

मृणालिनी ने पूछा-क्यों मदन, तुम बाबा के साथ न चलोगे?

जिस तरह वीणा की झंकार से मस्त होकर मृग स्थिर हो जाता है, अथवा मनोहर वंशी की तान से झूमने लगता है, वैसे ही मृणालिनी के मधुर स्वर में मुग्ध मदन ने कह दिया-क्यों न चलूँगा।


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सारा संसार घड़ी-घड़ी-भर पर, पल-पल-भर पर, नवीन-सा प्रतीत होता है और इससे उस विश्वयन्त्र को बनाने वाले स्वतन्त्र की बड़ी भारी निपुणता का पता लगता है; क्योंकि नवीनता की यदि रचना न होती, तो मानव-समाज को यह संसार और ही तरह का भासित होता। फिर उसे किसी वस्तु की चाह न होती, इतनी तरह के व्यावहारिक पदार्थों की कुछ भी आवश्यकता न होती। समाज, राज्य और धर्म के विशेष परिवर्तन-रूपी पट में इसकी मनोहर मूर्ति और भी सलोनी देख पड़ती है। मनुष्य बहुप्रेमी क्यों हो जाता है? मानवों की प्रवृत्ति क्यों दिन-रात बदला करती है? नगर-निवासियों को पहाड़ी घाटियाँ सौन्दर्यमयी प्रतीत होती हैं? विदेश-पर्यटन में क्यों मनोरंजन होता है? मनुष्य क्यों उत्साहित होता है? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर में केवल यही कहा जा सकता है कि नवीनता की प्रेरणा!

नवीनता वास्तव में ऐसी ही वस्तु है कि जिससे मदन को भारत से सीलोन तक पहुँच जाना कुछ कष्टकर न हुआ।

विशाल सागर के वक्षस्थल पर दानव-राज की तरह वह जहाज अपनी चाल और उसकी शक्ति दिखा रहा है। उसे देखकर मदन को द्रौपदी और पाण्डवों को लादे हुए घटोत्कच का ध्यान आता था।

उत्ताल तरंगों की कल्लोल-माला अपना अनुपम दृश्य दिखा रही है। चारों ओर जल-ही-जल है, चन्द्रमा अपने पिता की गोद में क्रीड़ा करता हुआ आनन्द दे रहा है। अनन्त सागर में अनन्त आकाश-मण्डल के असंख्य नक्षत्र अपने प्रतिबिम्ब दिखा रहे हैं।

मदन तीन-चार बरस में युवक हो गया है। उसकी भावुकता बढ़ गयी थी। वह समुद्र का सुन्दर दृश्य देख रहा था। अकस्मात् एक प्रकाश दिखायी देने लगा। वह उसी को देखने लगा।

उस मनोहर अरुण का प्रकाश नील जल को भी आरक्तिम बनाने की चेष्टा करने लगा। चंचल तरंगों की लहरियाँ सूर्य की किरणों से क्रीड़ा करने लगीं। मदन उस अनन्त समुद्र को देखकर डरा नहीं किन्तु अपने प्रेममय हृदय का एक जोड़ा देखकर और भी प्रसन्न हुआ वह निर्भीक हृदय से उन लोगों के साथ सीलोन पहुँचा।


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अमरनाथ के विशाल भवन में रहने से मदन को बड़ी ही प्रसन्नता है। मृणालिनी और मदन उसी प्रकार से मिलते-जुलते हैं, जैसे कलकत्ते में मिलते-जुलते थे। लवण-महासमुद्र की महिमा दोनों ही को मनोहर जान पड़ती है। प्रशान्त महासागर के तट की सन्ध्या दोनों के नेत्रों को ध्यान में लगा देती है। डूबते हुए सूर्यदेव देव-तुल्य हृदयों को संसार की गति दिखलाते हैं, अपने राग की आभा उन प्रभातमय हृदयों पर डालते हैं, दोनों ही सागर-तट पर खड़े सिन्धु की तरंग-भंगियों को देखते हैं; फिर भी दोनों ही दोनों की मनोहर अंग-भंगियों में भूले हुए हैं।

महासमुद्र के तट पर बहुत समय तक खड़े होकर मृणालिनी और मदन उस अनन्त का सौन्दर्य देखते थे। अकस्मात् बैण्ड का सुरीला राग सुनाई दिया, जो कि सिन्धु गर्जन को भी भेद कर निकलता था।

मदन, मृणालिनी-दोनों एकाग्रचित् हो उस ओजस्विनी कविवाणी को जातीय संगीत में सुनने लगे। किन्तु वहाँ कुछ दिखाई न दिया। चकित होकर वे सुन रहे थे। प्रबल वायु भी उत्ताल तरंगों को हिलाकर उनको डराता हुआ उसी की प्रतिध्वनि करता था। मन्त्र-मुग्ध के समान सिन्धु भी अपनी तरंगों के घात-प्रतिघात पर चिढक़र उन्हीं शब्दों को दुहराता है। समुद्र को स्वीकार करते देख कर अनन्त आकाश भी उसी की प्रतिध्वनि करता है।

धीरे-धीरे विशाल सागर के हृदय को फाड़ता हुआ एक जंगी जहाज दिखाई पड़ा। मदन और मृणालिनी, दोनों ही, स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखते रहे। जहाज अपनी जगह पर ठहरा और इधर पोर्ट-संरक्षक ने उस पर सैनिकों के उतरने के लिए यथोचित प्रबन्ध किया।

समुद्र की गम्भीरता, सन्ध्या की निस्तब्धता और बैण्ड के सुरीले राग ने दोनों के हृदयों को सम्मोहित कर लिया, और वे इन्हीं सब बातों की चर्चा करने लग गये।

मदन ने कहा-मृणालिनी, यह बाजा कैसा सुरीला है!

मृणालिनी का ध्यान टूटा। सहसा उसके मुख से निकला-तुम्हारे कल-कण्ठ से अधिक नहीं है।

इसी तरह दिन बीतने लगे। मदन को कुछ काम नहीं करना पड़ता था। जब कभी उसका जी चाहता, तब वह महासागर के तट पर जाकर प्रकृति की सुषमा को निरखता और उसी में आनन्दित होता था। वह प्राय: गोता लगाकर मोती निकालने वालों की ओर देखा करता और मन-ही-मन उनकी प्रशंसा किया करता था।

मदन का मालिक भी उसको कभी कोई काम करने के लिये आज्ञा नहीं देता था। वह उसे बैठा देखकर मृणालिनी के साथ घूमने के लिए जाने की आज्ञा देता था। उसका स्वभाव ही ऐसा सरल था कि सभी सहवासी उससे प्रसन्न रहते थे, वह भी उनसे खूब हिल-मिलकर रहता था।


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संसार भी बड़ा प्रपञ्चमय यन्त्र है। वह अपनी मनोहरता पर आप ही मुग्ध रहता है।

एक एकान्त कमरे में बैठे हुए मृणालिनी और मदन ताश खेल रहे हैं; दोनों जी-जान से अपने-अपने जीतने की कोशिश कर रहे हैं।

इतने ही में सहसा अमरनाथ बाबू उस कोठरी में आये। उनके मुख-मण्डल पर क्रोध झलकता था। वह आते ही बोले-क्यों रे दुष्ट! तू बालिका को फुसला रहा है?

मदन तो सुनकर सन्नाटे में आ गया। उसने नम्रता के साथ होकर पूछा-क्यों पिता, मैंने क्या किया?

अमरनाथ-अभी पूछता ही है! तू इस लडक़ी को बहका कर अपने साथ लेकर दूसरी जगह भागना चाहता है?

मदन-बाबूजी, यह आप क्या कह रहे हैं? मुझ पर आप इतना अविश्वास कर रहे हैं? किसी दुष्ट ने आपसे झूठी बात कही है।

अमरनाथ-अच्छा, तुम यहाँ से चलो और अब से तुम दूसरी कोठरी में रहा करो। मृणालिनी को और तुमको अगर हम एक जगह अब देख पावेंगे तो समझ रक्खो-समुद्र के गर्भ में ही तुमको स्थान मिलेगा।

मदन, अमरनाथ बाबू के पीछे चला। मृणालिनी मुरझा गयी, मदन के ऊपर अपवाद लगाना उसके सुकुमार हृदय से सहा नहीं गया। वह नव-कुसुमित पददलित आश्रय-विहीन माधवी-लता के समान पृथ्वी पर गिर पड़ी और लोट-लोटकर रोने लगी।

मृणालिनी ने दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया और वहीं लोटती हुई आँसुओं से हृदय की जलन को बुझाने लगी।

कई घण्टे के बाद जब उसकी माँ ने जाकर किवाड़ खुलवाये, उस समय उसकी रेशमी साड़ी का आँचल भींगा हुआ, उसका मुख सूखा हुआ और आँखें लाल-लाल हो आयी थीं। वास्तव में वह मदन के लिये रोई थी। इसी से उसकी यह दशा हो गयी। सचमुच संसार बड़ा प्रपञ्चमय है।


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दूसरे घर में रहने से मदन बहुत घबड़ाने लगा। वह अपना मन बहलाने के लिए कभी-कभी समुद्र-तट पर बैठकर गद्गद हो सूर्य-भगवान का पश्चिम दिशा से मिलना देखा करता था; और जब तक वह अस्त न हो जाते थे, तब तक बराबर टकटकी लगाये देखता था। वह अपने चित्त में अनेक कल्पना की लहरें उठाकर समुद्र और अपने हृदय से तुलना भी किया करता था।

मदन का अब इस संसार में कोई नहीं है। माता भारत में जीती है या मर गयी-यह भी बेचारे को नहीं मालूम! संसार की मनोहरता, आशा की भूमि, मदन के जीवन-स्रोत का जल, मदन के हृदय-कानन का अपूर्व पारिजात, मदन के हृदय-सरोवर की मनोहर मृणालिनी भी अब उससे अलग कर दी गई है। जननी, जन्मभूमि, प्रिय, कोई भी तो मदन के पास नहीं है? इसी से उसका हृदय आलोड़ित होने लगा, और वह अनाथ बालक ईष्र्या से भरकर अपने अपमान की ओर ध्यान देने लगा। उसको भली-भाँति विश्वास हो गया कि इस परिवार के साथ रहना ठीक नहीं है। जब इन्होंने मेरा तिरस्कार किया, तो अब इन्हीं के आश्रित होकर क्यों रहूँ?

यह सोचकर उसने अपने चित्त में कुछ निश्चय किया और कपड़े पहनकर समुद्र की ओर घूमने के लिए चल पड़ा। राह में वह अपनी उधेड़बुन में चला जाता था कि किसी ने पीठ पर हाथ रक्खा। मदन ने पीछे देखकर कहा-आह, आप हैं किशोर बाबू?

किशोरनाथ ने हँसकर कहा-कहाँ बगदादी-ऊँट की तरह भागे जाते हो?

कहीं तो नहीं, यहीं समुद्र की ओर जा रहा हूँ।

समुद्र की ओर क्यों?

शरण माँगने के लिए।

यह बात मदन ने डबडबायी हुई आँखों से किशोर की ओर देखकर कही।

किशोर ने रुमाल से मदन के आँसू पोंछते-पोंछते कहा-मदन, हम जानते हैं कि उस दिन बाबूजी ने जो तिरस्कार किया था, उससे तुमको बहुत दु:ख है। मगर सोचो तो, इसमें दोष किसका है? यदि तुम उस रोज मृणालिनी को बहकाने का उद्योग न करते, तो बाबूजी तुम पर क्यों अप्रसन्न होते?

अब तो मदन से नहीं रहा गया। उसने क्रोध से कहा-कौन दुष्ट उस देवबाला पर झूठा अपवाद लगाता है? और मैंने उसे बहकाया है? इस बात का कौन साक्षी है? किशोर बाबू! आप लोग मालिक हैं, जो चाहें सो कहिये। आपने पालन किया है, इसलिए, यदि आप आज्ञा दें तो मदन समुद्र में भी कूद पड़ने के लिए तैयार है, मगर अपवाद और अपमान से बचाये रहिये।

कहते-कहते मदन का मुख क्रोध से लाल हो आया, आँखों में आँसू भर आये, उसके आकार से उस समय दृढ़ प्रतिज्ञा झलकती थी।

किशोर ने कहा-इस बारे में विशेष हम कुछ नहीं जानते, केवल माँ के मुख से सुना था कि जमादार ने बाबूजी से तुम्हारी निन्दा की है और इसी से वह तुम पर बिगड़े हैं।

मदन ने कहा-आप लोग अपनी बाबूगीरी में भूले रहते हैं और ये बेईमान आपका सब माल खाते हैं। मैंने उस जमादार को मोती निकालनेवालों के हाथ मोती बेचते देखा; मैंने पूछा-क्यों, तुमने मोती कहाँ पाया? तब उसने गिड़गिड़ाकर, पैर पकड़कर, मुझसे कहा-बाबूजी से न कहियेगा। मैंने उसे डाँटकर फिर ऐसा काम न करने के लिए कहकर छोड़ दिया, आप लोगों से नहीं कहा। इसी कारण वह ऐसी चाल चलता है और आप लोगों ने भी बिना सोचे-समझे उसकी बात पर विश्वास कर लिया है।

यों कहते-कहते मदन उठ खड़ा हो गया। किशोर ने उसका हाथ पकड़कर बैठाया और आप भी बैठकर कहने लगा-मदन, घबड़ाओ मत, थोड़ी देर बैठकर हमारी बात सुनो। हम उसको दण्ड देंगे और तुम्हारा अपवाद भी मिटावेंगे। मगर हम एक बात जो कहते हैं, उसे ध्यान देकर सुनो। मृणालिनी अब बालिका नहीं है, और तुम भी बालक नहीं हो। तुम्हारे-उसके जैसे भाव हैं, सो भी हमसे छिपे नहीं हैं। फिर ऐसी जगह पर हम तो यही चाहते हैं कि तुम्हारा और मृणालिनी का ब्याह हो जाय।


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मदन ब्याह का नाम सुनकर चौंक पड़ा, और मन में सोचने लगा कि यह कैसी बात? कहाँ हम युक्तप्रान्त-निवासी अन्यजातीय, और कहाँ ये बंगाली ब्राह्मण, फिर ब्याह किस तरह हो सकता है! हो-न-हो ये मुझे भुलावा देते हैं। क्या मैं इनके साथ अपना धर्म नष्ट करूँगा? क्या इसी कारण ये लोग मुझे इतना सुख देते हैं और खूब खुलकर मृणालिनी के साथ घूमने-फिरने और रहने देते थे? मृणालिनी को मैं जी से चाहता हूँ, और जहाँ तक देखता हूँ, मृणालिनी भी मुझसे कपट-प्रेम नहीं करती। किन्तु यह ब्याह नहीं हो सकता क्योंकि इसमें धर्म और अधर्म दोनों का डर है। धर्म का निर्णय करने की मुझमें शक्ति नहीं है। मैंने ऐसा ब्याह होते न देखा है और न सुना है, फिर कैसे यह ब्याह करूँ?

इन्हीं बातों को सोचते-सोचते बहुत देर हो गयी। जब मदन को यह सुन पड़ा कि 'अच्छा, सोचकर हमसे कहना', तब वह चौंक पड़ा और देखा तो किशोरनाथ जा रहा है।

मदन ने किशोरनाथ के जाने पर कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया और फिर अपने विचारों के सागर में मग्न हो गया।

फिर मृणालिनी का ध्यान आया, हृदय धड़कने लगा। मदन की चिन्ता-शक्ति का वेग रुक गया और उसके मन में यही समाया कि ऐसे धर्म को मैं दूर ही से हाथ जोड़ता हूँ! मृणालिनी-प्रेम-प्रतिमा मृणालिनी-को मैं नहीं छोड़ सकता।

मदन इसी मन्तव्य को स्थिर कर, समुद्र की ओर मुख कर, उसकी गम्भीरता निहारने लगा।

वहाँ पर कुछ धनी लोग पैसा फेंककर उसे समुद्र से ले आने का तमाशा देख रहे थे। मदन ने सोचा कि प्रेमियों का जीवन 'प्रेम' है और सज्जनों का अमोघ धन 'धर्म' है। ये लोग अपने प्रेम-जीवन की परवाह न कर धर्म-धन को बटोरते हैं और फिर इनके पास जीवन और धन दोनों चीजें दिखाई पड़ती हैं। तो क्या मनुष्य इनका अनुकरण नहीं कर सकता? अवश्य कर सकता है। प्रेम ऐसी तुच्छ वस्तु नहीं है कि धर्म को हटाकर उस स्थान पर आप बैठे। प्रेम महान है, प्रेम उदार है। प्रेमियों को भी वह उदार और महान बनाता है। प्रेम का मुख्य अर्थ है 'आत्मत्याग'। तो क्या मृणालिनी से ब्याह कर लेना ही प्रेम में गिना जायेगा? नहीं-नहीं, वह घोर स्वार्थ है। मृणालिनी को मैं जन्म-भर प्रेम से हृदय-मन्दिर में बिठाकर पूजूँगा, उसकी सरल प्रतिमा को पंङ्क में न लपेटूँगा। परन्तु ये लोग जैसा बर्ताव करते हैं, उससे सम्भव है कि मेरे विचार पलट जायँ। इसलिए अब इन लोगों से दूर रहना ही उचित है।

मदन इन्हीं बातों को सोचता हुआ लौट आया, और जो अपना मासिक वेतन जमा किया था वह-तथा कुछ कपड़े आदि आवश्यक सामान लेकर वहाँ से चला गया। जाते समय उसने एक पत्र लिखकर वहीं छोड़ दिया।

जब बहुत देर तक लोगों ने मदन को नहीं देखा, तब चिन्तित हुए। खोज करने से उनको मदन का पत्र मिला, जिसे किशोरनाथ ने पढ़ा और पढक़र उसका मर्म पिता को समझा दिया।

पत्र का भाव समझते ही उनकी सब आशा निर्मूल हो गयी। उन्होंने कहा-किशोर, देखो, हमने सोचा था कि मृणालिनी किसी कुलीन हिन्दू को समर्पित हो, परन्तु वह नहीं हुआ। इतना व्यय और परिश्रम, जो मदन के लिए किया गया, सब व्यर्थ हुआ। अब वह कभी मृणालिनी से ब्याह नहीं करेगा, जैसा कि उसके पत्र से विदित होता है।

आपके उस व्यवहार ने उसे और भी भडक़ा दिया। अब वह कभी ब्याह न करेगा।

मृणालिनी का क्या होगा?

जो उसके भाग्य में है!

क्या जाते समय मदन ने मृणालिनी से भी भेंट नहीं की?

पूछने से मालूम होगा।

इतना कहकर किशोर मृणालिनी के पास गया। मदन उससे भी नहीं मिला था। किशोर ने आकर पिता से सब हाल कह दिया।

अमरनाथ बहुत ही शोकग्रस्त हुए। बस, उसी दिन से उनकी चिन्ता बढऩे लगी। क्रमश: वह नित्य ही मद्य-सेवन करने लगे। वह तो प्राय: अपनी चिन्ता दूर करने के लिए मद्य-पान करते थे, किन्तु उसका फल उलटा हुआ-उनकी दशा और भी बुरी हो चली, यहाँ तक कि वह सब समय पान करने लगे, काम-काज देखना-भालना छोड़ दिया।

नवयुवक 'किशोर' बहुत चिन्तित हुआ, किन्तु वह धैर्य के साथ सांसारिक कष्ट सहने लगा।

मदन के चले जाने से मृणालिनी को बड़ा कष्ट हुआ। उसे यह बात और भी खटकती थी कि मदन जाते समय उससे क्यों नहीं मिला। वह यह नहीं समझती थी कि मदन यदि जाते समय उससे मिलता, तो जा नहीं सकता था।

मृणालिनी बहुत विरक्त हो गयी। संसार उसे सूना दिखाई देने लगा। किन्तु वह क्या करे? उसे अपनी मानसिक व्यथा सहनी ही पड़ी।


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मदन ने अपने एक मित्र के यहाँ जाकर डेरा डाला। वह भी मोती का व्यापार करता था। बहुत सोचने-विचारने के उपरान्त उसने भी मोती का ही व्यवसाय करना निश्चित किया।

मदन नित्य सन्ध्या के समय, मोती के बाजार में जा, मछुए लोग जो अपने मेहनताने में मिली हुई मोतियों की सीपियाँ बेचते थे-उनको खरीदने लगा; क्योंकि इसमें थोड़ी पूँजी से अच्छी तरह काम चल सकता था। ईश्वर की कृपा से उसको नित्य विशेष लाभ होने लगा।

संसार में मनुष्य की अवस्था सदा बदलती रहती है। वही मदन, जो तिरस्कार पाकर दासत्व छोड़ने पर लक्ष्य-भ्रष्ट हो गया था, अब एक प्रसिद्ध व्यापारी बन गया।

मदन इस समय सम्पन्न हो गया। उसके यहाँ अच्छे-अच्छे लोग मिलने-जुलने आने लगे। उसने नदी के किनारे एक बहुत सुन्दर बँगला बनवा लिया है; उसके चारों ओर सुन्दर बगीचा भी है। व्यापारी लोग उत्सव के अवसरों पर उसको निमन्त्रण देते हैं; वह भी अपने यहाँ कभी-कभी उन लोगों को निमन्त्रित करता है। संसार की दृष्टि में वह बहुत सुखी था, यहाँ तक कि बहुत लोग उससे डाह करने लगे। सचमुच संसार बड़ा आडम्बर-प्रिय है!


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मदन सब प्रकार से शारीरिक सुख भोग करता था; पर उसके चित्त-पट पर किसी रमणी की मलिन छाया निरन्तर अंकित रहती थी; जो उसे कभी-कभी बहुत कष्ट पहुँचाती थी। प्राय: वह उसे विस्मृति के जल से धो डालना चाहता था। यद्यपि वह चित्र किसी साधारण कारीगर का अंकित किया हुआ नहीं था कि एकदम लुप्त हो जाय, तथापि वह बराबर उसे मिटा डालने की ही चेष्टा करता था।

अकस्मात् एक दिन, जब सूर्य की किरणें सुवर्ण-सी सु-वर्ण आभा धारण किए हुई थीं, नदी का जल मौज में बह रहा था, उस समय मदन किनारे खड़ा हुआ स्थिर भाव से नदी की शोभा निहार रहा था। उसको वहाँ कई-एक सुसज्जित जलयान देख पड़े। उसका चित्त, न जाने क्यों उत्कण्ठित हुआ। अनुसन्धान करने पर पता लगा कि वहाँ वार्षिक जल-विहार का उत्सव होता है, उसी में लोग जा रहे हैं।

मदन के चित्त में भी उत्सव देखने की आकांक्षा हुई। वह भी अपनी नाव पर चढक़र उसी ओर चला। कल्लोलिनी की कल्लोलों में हिलती हुई वह छोटी-सी सुसज्जित तरी चल दी।

मदन उस स्थान पर पहुँचा, जहाँ नावों का जमाव था। सैकड़ों बजरे और नौकाएँ अपने नीले-पीले, हरे-लाल निशान उड़ाती हुई इधर-उधर घूम रही हैं। उन पर बैठे हुए मित्र लोग आपस में आमोद-प्रमोद कर रहे हैं। कामिनियाँ अपने मणिमय अलंकारों की प्रभा से उस उत्सव को आलोकमय किये हुई हैं।

मदन भी अपनी नाव पर बैठा हुआ एकटक इस उत्सव को देख रहा है। उसकी आँखें जैसे किसी को खोज रही हैं। धीरे-धीरे सन्ध्या हो गयी। क्रमश: एक, दो, तीन तारे दिखाई दिये। साथ ही, पूर्व की तरफ, ऊपर को उठते हुए गुब्बारे की तरह चंद्रबिम्ब दिखाई पड़ा। लोगों के नेत्रों में आनन्द का उल्लास छा गया। इधर दीपक जल गये। मधुर संगीत, शून्य की निस्तब्धता में, और भी गूँजने लगा। रात के साथ ही आमोद-प्रमोद की मात्रा बढ़ी।

परन्तु मदन के हृदय में सन्नाटा छाया हुआ है। उत्सव के बाहर वह अपनी नौका को धीरे-धीरे चला रहा है। अकस्मात् कोलाहल सुनाई पड़ा, वह चौंककर उधर देखने लगा। उसी समय कोई चार-पाँच हाथ दूर एक काली-सी चीज दिखाई दी। अस्त हो रहे चन्द्रमा का प्रकाश पड़ने से कुछ वस्त्र भी दिखाई देने लगा। वह बिना कुछ सोचे-समझे ही जल में कूद पड़ा और उसी वस्तु के साथ बह चला।

ऊषा की आभा पूर्व में दिखाई पड़ रही है। चन्द्रमा की मलिन ज्योति तारागण को भी मलिन कर रही है।

तरंगों से शीतल दक्षिण-पवन धीरे-धीरे संसार को निद्रा से जगा रहा है। पक्षी भी कभी-कभी बोल उठते हैं।

निर्जन नदी-तट में एक नाव बँधी है, और बाहर एक सुकुमारी सुन्दरी का शरीर अचेत अवस्था में पड़ा हुआ है। एक युवक सामने बैठा हुआ उसे होश में लाने का उद्योग कर रहा है। दक्षिण-पवन भी उसे इस शुभ काम में बहुत सहायता दे रहा है।

सूर्य की पहली किरण का स्पर्श पाते ही सुन्दरी के नेत्र-कमल धीरे-धीरे विकसित होने लगे। युवक ने ईश्वर को धन्यवाद दिया और झुककर उस कामिनी से पूछा-मृणालिनी, अब कैसी हो?

मृणालिनी ने नेत्र खोलकर देखा। उसके मुख-मण्डल पर हर्ष के चिह्न दिखाई पड़े। उसने कहा-प्यारे मदन, अब अच्छी हूँ!

प्रणय का भी वेग कैसा प्रबल है! यह किसी महासागर की प्रचण्ड आँधी से कम प्रबलता नहीं रखता। इसके झोंके में मनुष्य की जीवन-नौका असीम तरंगों से घिर कर प्राय: कूल को नहीं पाती। अलौकिक आलोकमय अन्धकार में प्रणयी अपनी प्रणय-तरी पर आरोहण कर उसी आनन्द के महासागर में घूमना पसन्द करता है, कूल की ओर जाने की इच्छा भी नहीं करता।

इस समय मदन और मृणालिनी दोनों की आँखों से आँसुओं की धारा धीरे-धीरे बह रही है। चंचलता का नाम भी नहीं है। कुछ बल आने पर दोनों उस नाव में जा बैठे।

मदन ने मल्लाहों को पास के गाँव से दूध या और कुछ भोजन की वस्तु लाने के लिए भेजा। फिर दोनों ने बिछुड़ने के उपरान्त की सब कथा परस्पर कह सुनाई।

मृणालिनी कहने लगी-भैया किशोरनाथ से मैं तुम्हारा सब हाल सुना करती थी। पर वह कहा करते थे कि तुमसे मिलने में उनको संकोच होता हैं। इसका कारण उन्होंने कुछ नहीं बतलाया। मैं भी हृदय पर पत्थर रखकर तुम्हारे प्रणय को आज तक स्मरण कर रही हूँ।

मदन ने बात टालकर पूछा-मृणालिनी, तुम जल में कैसे गिरीं?

मृणालिनी ने कहा-मुझे बहुत उदास देख भैया ने कहा, चलो तुम्हें एक तमाशा दिखलावें, सो मैं भी आज यहाँ मेला देखने आयी। कुछ कोलाहल सुनकर मैं नाव पर खड़ी हो देखने लगी। दो नाववालों में झगड़ा हो रहा था। उन्हीं के झगड़े में हाथापाई में नाव हिल गयी और मैं गिर पड़ी। फिर क्या हुआ, सो मैं कुछ नहीं जानती।

इतने में दूर से एक नाव आती हुई दिखायी पड़ी, उस पर किशोरनाथ था। उसने मृणालिनी को देखकर बहुत हर्ष प्रकट किया, और सब लोग मिलकर बहुत आनन्दित हुए।

बहुत कुछ बातचीत होने के उपरान्त मृणालिनी और किशोर दोनों ने मदन के घर चलना स्वीकार किया। नावें नदी-तट पर स्थित मदन के घर की ओर बढ़ीं। उस समय मदन को एक दूसरी ही चिन्ता थी।

भोजन के उपरान्त किशोरनाथ ने कहा-मदन, हम अब भी तुमको छोटा भाई ही समझते हैं; पर तुम शायद हमसे कुछ रुष्ट हो गये हो।

मदन ने कहा-भैया, कुछ नहीं। इस दास से जो कुछ ढिठाई हुई हो, उसे क्षमा करना, मैं तो आपका वही मदन हूँ।

इसी तरह की बहुत-सी बातें होती रहीं, और फिर दूसरे दिन किशोरनाथ मृणालिनी को साथ लेकर अपने घर गया।


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अमरनाथ बाबू की अवस्था बड़ी शोचनीय है। वह एक प्रकार से मद्य के नशे में चूर रहते हैं। काम-काज देखना सब छोड़ दिया है। अकेला किशोरनाथ काम-काज सँभालने के लिए तत्पर हुआ, पर उसके व्यापार की दशा अत्यन्त शोचनीय होती गयी, और उसके पिता का स्वास्थ्य भी बिगड़ चला। क्रमश: उसको चारों ओर अन्धकार दिखाई देने लगा।

संसार की कैसी विलक्षण गति है! जो बाबू अमरनाथ एक समय सारे सीलोन में प्रसिद्ध व्यापारी गिने जाते थे, और व्यापारी लोग जिनसे सलाह लेने के लिए तरसते थे, वही अमरनाथ इस समय कैसी अवस्था में हैं! कोई उनसे मिलने भी नहीं आता!

किशोरनाथ एक दिन अपने आफिस में बैठा कार्य देख रहा था। अकस्मात् मृणालिनी भी उसी स्थान में आ गयी और एक कुर्सी खींचकर बैठ गयी। उसने किशोर से कहा-क्यों भैया, पिताजी की कैसी अवस्था है? काम-काज की भी दशा अच्छी नहीं है, तुम भी चिन्ता से व्याकुल रहते हो, यह क्या है?

किशोरनाथ-बहन कुछ न पूछो, पिताजी की अवस्था तो तुम देख ही रही हो। काम-काज की अवस्था भी अत्यन्त शोचनीय हो रही है। पचास लाख रुपये के लगभग बाजार का देना है; और आफिस का रुपया सब बाजार में फँस गया है, जो कि काम देखे-भाले बिना पिताजी की अस्वस्थता के कारण दब-सा गया है। इसी सोच में बैठा हुआ हूँ कि ईश्वर क्या करेंगे!

मृणालिनी भयातुर हो गयी। उसके नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी। किशोर उसे समझाने लगा; फिर बोला-केवल एक ईमानदार कर्मचारी अगर काम-काज की देख-भाल किया करता, तो यह अवस्था न होती। आज यदि मदन होता, तो हम लोगों की यह दशा न होती।

मदन का नाम सुनते ही मृणालिनी कुछ विवर्ण हो गयी और उसकी आँखों में आँसू भर आये। इतने में दरबान ने आकर कहा-सरकार, एक रजिस्ट्री चिठ्ठी मृणालिनी देवी के नाम से आयी है, डाकिया बाहर खड़ा है।

किशोर ने कहा-बुला लाओ।

किशोर ने वह रजिस्ट्री लेकर खोली। उसमें एक पत्र और एक स्टाम्प का कागज था। देखकर किशोर ने मृणालिनी के आगे फेंक दिया। मृणालिनी ने फिर वह पत्र किशोर के हाथ में देकर पढऩे के लिये कहा। किशोर पढऩे लगा।

मृणालिनी!

आज मैं तुमको पत्र लिख रहा हूँ। आशा है कि तुम इसे ध्यान देकर पढ़ोगी। मैं एक अनजाने स्थान का रहनेवाला कंगाल के भेष में तुमसे मिला और तुम्हारे परिवार में पालित हुआ। तुम्हारे पिता ने मुझे आश्रय दिया, और मैं सुख से तुम्हारा मुख देखकर दिन बिताने लगा। पर दैव को वह भी ठीक न जँचा! अच्छा, जैसी उसकी इच्छा! पर मैं तुम्हारे परिवार को सदा स्नेह की दृष्टि से देखता हूँ। बाबू अमरनाथ के कहने-सुनने का मुझे कुछ ध्यान भी नहीं है, मैं उसे आशीर्वाद समझता हूँ। मेरे चित्त में उसका तनिक भी ध्यान नहीं है, पर केवल पश्चात्ताप यह है कि मैं उनसे बिना कहे-सुने चला आया। अच्छा, इसके लिए उनसे क्षमा माँग लेना और भाई किशोरनाथ से भी मेरा यथोचित अभिवादन कह देना।

अब कुछ आवश्यक बातें मैं लिखता हूँ, उन्हें ध्यान से पढ़ो। जहाँ तक सम्भव है, उनके करने में तुम आगा-पीछा न करोगी-यह मुझे विश्वास है। मुझे तुम्हारे परिवार की दशा अच्छी तरह विदित है, मैं उसे लिखकर तुम्हारा दु:ख नहीं बढ़ाना चाहता। सुनो, यह एक 'बिल' है जिसमें मैंने अपनी सब सीलोन की सम्पत्ति तुम्हारे नाम लिख दी है। वह तुम्हारी ही है, उसे लेने में तुमको कुछ संकोच न करना चाहिये। वह सब तुम्हारे ही रुपये का लाभ है। जो धन मैं वेतन में पाता था, वही मूल कारण है। अस्तु, यह मूलधन, लाभ और ब्याज-सहित, तुमको लौटा दिया जाता है। इसे अवश्य स्वीकार करना, और स्वीकार करो या न करो, अब सिवा तुम्हारे इसका स्वामी कौन है? क्योंकि मैं भारतवर्ष से जिस रूप में आया था, उसी रूप में लौटा जा रहा हूँ। मैं इस पत्र को लिखकर तब भेजता हूँ, जब घर से निकलकर जहाज को रवाना हो चुका हूँ। अब तुमसे भेंट भी नहीं हो सकती। तुम यदि आओ भी, तो उस समय मैं जहाज पर होऊँगा। तुमसे मेरी केवल यही प्रार्थना है कि 'तुम मुझे भूल जाना'।-मदन

यह पत्र पढ़ते ही मृणालिनी की और किशोरनाथ की अवस्था दूसरी ही हो गयी। मृणालिनी ने कातर स्वर से कहा-भैया, क्या समुद्र-तट तक चल सकते हो?

किशोरनाथ ने खड़े होकर कहा-अवश्य!

बस, तुरन्त ही एक गाड़ी पर सवार होकर दोनों समुद्र-तट की ओर चले। ज्योंही वे पहुँचे, त्योंही जहाज तट छोड़ चुका था। उस समय व्याकुल होकर मृणालिनी की आँखें किसी को खोज रही थीं। किन्तु अधिक खोज नहीं करनी पड़ी।

किशोर और मृणालिनी दोनों ने देखा कि गेरुए रंग का कपड़ा पहिने हुए एक व्यक्ति दोनों को हाथ जोड़े हुए जहाज पर खड़ा है, और जहाज शीघ्रता के साथ समुद्र के बीच में चला जा रहा है!

मृणालिनी ने देखा कि बीच में अगाध समुद्र है!


 

 






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Hindi Kahani

हिंदी कहानी

Gulam Jaishankar Prasad

गुलाम जयशंकर प्रसाद



1

फूल नहीं खिलते हैं, बेले की कलियाँ मुरझाई जा रही हैं। समय में नीरद ने सींचा नहीं, किसी माली की भी दृष्टि उस ओर नहीं घूमी; अकाल में बिना खिले कुसुम-कोरक म्लान होना ही चाहता है। अकस्मात् डूबते सूर्य की पीली किरणों की आभा से चमकता हुआ एक बादल का टुकड़ा स्वर्ण-वर्षा कर गया। परोपकारी पवन उन छींटों को ढकेलकर उन्हें एक कोरक पर लाद गया। भला इतना भार वह कैसे सह सकता है! सब ढुलककर धरणी पर गिर पड़े। कोरक भी कुछ हरा हो गया।

यमुना के बीच धारा में एक छोटी, पर बहुत ही सुन्दर तरणी, मन्द पवन के सहारे धीरे-धीरे बह रही है। सामने के महल से अनेक चन्द्रमुख निकलकर उसे देख रहे हैं। चार कोमल सुन्दरियाँ डाँड़ें चला रही हैं, और एक बैठी हुई सितारी बजा रही है। सामने, एक भव्य पुरुष बैठा हुआ उसकी ओर निर्निमेष दृष्टि से देख रहा है।

पाठक! यह प्रसिद्ध शाहआलम दिल्ली के बादशाह हैं। जलक्रीड़ा हो रही है।

सान्ध्य-सूर्य की लालिमा जीनत-महल के अरुण मुख-मण्डल की शोभा और भी बढ़ा रही है। प्रणयी बादशाह उस आतप-मण्डित मुखारविन्द की ओर सतृष्ण नयन से देख रहे हैं, जिस पर बार-बार गर्व और लज्जा का दुबारा रंग चढ़ता-उतरता है, और इसी कारण सितार का स्वर भी बहुत शीघ्र चढ़ता-उतरता है। संगीत, तार पर चढक़र दौड़ता हुआ, व्याकुल होकर घूम रहा है; क्षण-भर भी विश्राम नहीं।

जीनत के मुखमण्डल पर स्वेद-बिन्दु झलकने लगे। बादशाह ने व्याकुल होकर कहा-बस करो, प्यारी जीनत! बस करो! बहुत अच्छा बजाया, वाह, क्या बात है! साकी, एक प्याला शीराजी शर्बत!

'हुजूर आया'-कहता हुआ एक सुकुमार बालक सामने आया, हाथ में पान-पात्र था। उस बालक की मुख-कान्ति दर्शनीय थी। भरा प्याला छलकना चाहता था, इधर घुँघराली अलकें उसकी आँखों पर बरजोरी एक पर्दा डालना चाहती थीं। बालक प्याले को एक हाथ में लेकर जब केश-गुच्छ को हटाने लगा, तब जीनत और शाहआलम दोनों चकित होकर देखने लगे। अलकें अलग हुईं। बेगम ने एक ठण्डी साँस ली। शाहआलम के मुख से भी एक आह निकलना ही चाहती थी, पर उसे रोककर निकल पड़ा-'बेगम को दो।'

बालक ने दोनों हाथों से पान-पात्र जीनत की ओर बढ़ाया। बेगम ने उसे लेकर पान कर लिया।

नहीं कह सकते कि उस शर्बत ने बेगम को कुछ तरी पहुँचाई या गर्मी; किन्तु हृदय-स्पन्दन अवश्य कुछ बढ़ गया। शाहआलम ने झुककर कहा-एक और!

बालक विचित्र गति से पीछे हटा और थोड़ी देर में दूसरा प्याला लेकर उपस्थित हुआ। पान-पात्र निश्शेष कर शाहआलम ने हाथ कुछ और फैला दिया, और बालक की ओर इंगित करके बोले-कादिर, जरा उँगलियाँ तो बुला दे।

बालक अदब से सामने बैठ गया और उनकी उँगलियों को हाथ में लेकर बुलाने लगा।

मालूम होता है कि जीनत को शर्बत ने कुछ ज्यादा गर्मी पहुँचाई। वह छोटे बजरे के मेहराब में से झुककर यमुना-जल छूने लगी। कलेजे के नीचे एक मखमली तकिया मसली जाने लगी, या न मालूम वही कामिनी के वक्षस्थल को पीडऩ करने लगी।

शाहआलम की उँगलियाँ, उस कोमल बाल-रवि-कर-समान स्पर्श से, कलियों की तरह चटकने लगीं। बालक की निर्निमेष दृष्टि आकाश की ओर थी। अकस्मात् बादशाह ने कहा-मीना! ख्वाजा-सरा से कह देना कि इस कादिर को अपनी खास तालीम में रखें, और उसके सुपुर्द कर देना।

एक डाँड़े चलाने वाली ने झुककर कहा-बहुत अच्छा हुजूर!

बेगम ने अपने सीने से तकिये को और दबा दिया; किन्तु वह कुछ न बोल सकी, दबकर रह गयी।


2

उपर्युक्त घटना को बहुत दिन बीत गये। गुलाम कादिर अब अच्छा युवक मालूम होने लगा। उसका उन्नत स्कन्ध, भरी-भरी बाँहें और विशाल वक्षस्थल बड़े सुहावने हो गये। किन्तु कौन कह सकता है कि वह युवक है। ईश्वरीय नियम के विरुद्ध उसका पुंसत्व छीन लिया गया है।

कादिर, शाहआलम का प्यारा गुलाम है। उसकी तूती बोल रही है, सो भी कहाँ? शाही नौबतखाने के भीतर।

दीवाने-आम में अच्छी सज-धज है। आज कोई बड़ा दरबार होने वाला है। सब पदाधिकारी अपने योग्यतानुसार वस्त्राभूषण से सजकर अपने-अपने स्थान को सुशोभित करने लगे। शाहआलम भी तख्त पर बैठ गये। तुला-दान होने के बाद बादशाह ने कुछ लोगों का मनसब बढ़ाया और कुछ को इनाम दिया। किसी को हर्बे दिये गये; किसी की पदवी बढ़ायी गयी; किसी की तनख्वाह बढ़ी।

किन्तु बादशाह यह सब करके भी तृप्त नहीं दिखाई पड़ते। उनकी निगाहें किसी को खोज रही हैं। वे इशारा कर रही हैं कि उन्हीं से काम निकल जाय, रसना को बोलना न पड़े; किन्तु करें क्या? वह हो नहीं सकता था। बादशाह ने एक तरफ देखकर कहा-गुलाम कादिर!

कादिर अपने कमरे में कपड़े पहनकर तैयार है, केवल कमरबंद में एक जड़ाऊ दस्ते की कटार लगाना बाकी है, जिसे बादशाह ने उसे प्रसन्न होकर दिया है। कटार लगाकर एक बड़े दर्पण में मुँह देखने की लालसा से वह उस ओर बढ़ा। दर्पण के सामने खड़े होकर उसने देखा, अपरूप सौन्दर्य! किसका? अपना ही। सचमुच कादिर की दृष्टि अपनी आँखों पर से नहीं हटती। मुग्ध होकर वह अपना रूप देख रहा है।

उसका पुरुषोचित सुन्दर मुख-मण्डल तारुण्य-सूर्य के आतप से आलोकित हो रहा है। दोनों भरे हुए कपोल प्रसन्नता से बार-बार लाल हो आते हैं, आँखें हँस रही हैं। सृष्टि सुन्दरतम होकर उसके सामने विकसित हो रही है।

प्रहरी ने आकर कहा-जहाँपनाह ने दरबार में याद किया है।

कादिर चौंक उठा और उसका रंग उतर गया। वह सोचने लगा कि उसका रूप और तारुण्य कुछ नहीं है, किसी काम का नहीं। मनुष्य की सारी सम्पत्ति उससे जबर्दस्ती छीन ली गयी है।

कादिर का जीवन भार हो उठा। निरभ्र, गगन में पावसघन घिर उठे। उसका प्राण तलमला उठा, और वह व्याकुल होकर चाहता था कि दर्पण फोड़ दे।

क्षण-भर में सारी प्रसन्नता मिट्टी में मिल गयी। जीवन दु:सह हो उठा। दाँत आपस में घिस उठे और कटार भी कमर से बाहर निकलने लगी।

कादिर कुछ शान्त हुआ। कुछ सोचकर धीरे-धीरे दरबार की ओर चला। बादशाह के सामने पहुँचकर यथोचित अभिवादन किया

शाहआलम-कादिर! इतनी देर तक कहाँ रहा?

कादिर-जहाँपनाह! गुलाम की खता माफ हो।

शाहआलम-(हँसते हुए) खता कैसी, कादिर?

कादिर-(जलकर) हुजूर, देर हुई।

शाहआलम-अच्छा, उसकी सजा दी जायगी।

कादिर-(अदब से) लेकिन हुजूर, मेरी भी कुछ अर्ज है।

बादशाह ने पूछा-क्या?

कादिर ने कहा-मुझे यही सजा मिले कि मैं कुछ दिनों के लिये देहली से निकाल दिया जाऊँ।

शाहआलम ने कहा-सो तो बहुत बड़ी सजा है कादिर, ऐसा नहीं हो सकता। मैं तुम्हें कुछ इनाम देना चाहता हूँ, ताकि वह यादगार रहे, और तुम फिर ऐसा कुसूर न करो।

कादिर ने हाथ बाँधकर कहा-हुजूर! इनाम में मुझे छुट्टी ही मिल जाय, ताकि कुछ दिनों तक मैं अपने बूढ़े बाप की खिदमत कर सकूँ।

शाहआलम-(चौंककर) उसकी खिदमत के लिये मेरी दी हुई जागीर काफी है। सहारनपुर में उसकी आराम से गुजरती है।

कादिर ने गिड़गिड़ाकर कहा-लेकिन जहाँपनाह, लडक़ा होकर मेरा भी कोई फर्ज है।

शाहआलम ने कुछ सोचकर कहा-अच्छा, तुम्हें रुख्सत मिली और यादगार की तरह तुम्हें एक-हजारी मनसब अता किया जाता है, ताकि तुम वहाँ से लौट आने में फिर देर न करो।

उपस्थित लोग 'करामात', हुजूर का एकबाल और बुलन्द हो' की धुन मचाने लगे। गुलाम कादिर अनिच्छा रहते उन लोगों का साथ देता था, और अपनी हार्दिक प्रसन्नता प्रकट करने की कोशिश करता था।


3

भारत के सपूत, हिन्दुओं के उज्जवल रत्न छत्रपति महाराज शिवाजी ने जो अध्यवसाय और परिश्रम किया, उसका परिणाम मराठों को अच्छा मिला, और उन्होंने भी जब तक उस पूर्व-नीति को अच्छी तरह से माना, लाभ उठाया। शाहआलम के दरबार में क्या-भारत में-आज मराठा-वीर सिन्धिया ही नायक समझा जाता है। सिन्धिया की विपुल वाहिनी के बल से शाहआलम नाममात्र को दिल्ली के सिंहासन पर बैठे हैं। बिना सिन्धिया के मंजूर किये बादशाह-सलामत रत्ती-भर हिल नहीं सकते। सिन्धिया दिल्ली और उसके बादशाह के प्रधान रक्षक हैं। शाहआलम का मुगल रक्त सर्द हो चुका है।

सिन्धिया आपस के झगड़े तय करने के लिये दक्खिन चला गया है। 'मंसूर' नामक कर्मचारी ही इस समय बादशाह का प्रधान सहायक है। शाहआलम का पूरा शुभचिन्तक होने पर भी वह हिन्दू सिन्धिया की प्रधानता से भीतर-भीतर जला करता था।

जला हुआ, विद्रोह का झंडा उठाये, इसी समय, गुलाम कादिर रुहेलों के साथ सहारनपुर से आकर दिल्ली के उस पार डेरा डाले पड़ा है। मंसूर उसके लिये हर तरह से तैयार है। एक बार वह भुलावे में आकर चला गया है। अबकी बार उसकी इच्छा है कि वजारत वही करे।

बूढ़े बादशाह संगमरमर के मीनाकारी किये हुए बुर्ज में गावतकिये के सहारे लेटे हुए हैं। मंसूर सामने हाथ बाँधे खड़ा है। शाहआलम ने भरी हुई आवाज में पूछा-क्यों मंसूर! क्या गुलाम कादिर सचमुच दिल्ली पर हमला करके तख्त छीनना चाहता है? क्या उसको इसीलिए हमने इस मरतबे पर पहुँचाया? क्या सबका आखिरी नतीजा यही है? बोलो, साफ कहो। रुको मत, जिसमें कि तुम बात बना सको।

मंसूर-जहाँपनाह! वह तो गुलाम है। फकत हुजूर की कदमबोसी हासिल करने के लिये आया है। और, उसकी तो यही अर्जी है कि हमारे आका शाहंशाहआलम-हिंद एक काफिर के हाथ की पुतली न बने रहें। अगर हुक्म दें, तो क्या यह गुलाम वह काम नहीं कर सकता?

शाहआलम-मंसूर! इसके माने?

मंसूर-बंद:परवर! वह दिल्ली की वजारत के लिये अर्ज करता है और गुलामी में हाजिर होना चाहता है। उसे तो सिन्धिया से रंज है, हुजूर तो उसके मेहरबान आका हैं।

शाहआलम-(जरा तनकर) हाँ मंसूर, उसे हमने बचपन से पाला है, और इस लायक बनाया।

मंसूर-(मन में) और उसे आपने ही, खुद-गरजी से-जो काबिले-नफरत थी-दुनिया के किसी काम का न रक्खा, जिसके लिये वह जी से जला हुआ है।

शाहआलम-बोलो मंसूर! चुप क्यों हो? क्या वह एहसान-फरामोश है?

मंसूर-हुजूर! फिर, गुलाम खिदमत में बुलाया जावे?

शाहआलम-वजारत देने में मुझे कोई उज्र नहीं है। वह सँभाल सकेगा?

मंसूर-हुजूर, अगर वह न सँभाल सकेगा, तो उसको वही झेलेगा। सिन्धिया खुद उससे समझ लेगा।

शाहआलम-हाँ जी, सिन्धिया से कह दिया जायगा कि लाचारी से उसको वजारत दी गयी। तुम थे नहीं, उसने जबर्दस्ती वह काम अपने हाथ में लिया।

मंसूर-और इससे मुसलमान रियाया भी हुजूर से खुश हो जायगी। तो, उसे हुक्म आने का भेज दिया जाय?


4

दिल्ली के दुर्ग पर गुलाम कादिर का पूर्ण अधिकार हो गया है। बादशाह के कर्मचारियों से सब काम छीन लिया गया है। रुहेलों का किले पर पहरा है। अत्याचारी गुलाम महलों की सब चीजों को लूट रहा है। बेचारी बेगमें अपमान के डर से पिशाच रुहेलों के हाथ, अपने हाथ से अपने आभूषण उतारकर दे रही हैं। पाशविक अत्याचार की मात्रा अब भी पूर्ण नहीं हुई। दीवाने-खास में सिंहासन पर बादशाह बैठे हैं। रुहेलों के साथ गुलाम कादिर उसे घेरकर खड़ा है।

शाहआलम-गुलाम कादिर, अब बस कर! मेरे हाल पर रहम कर, सब कुछ तूने कर लिया। अब मुझे क्यों नाहक परेशान करता है?

गुलाम-अच्छा इसी में है कि अपना छिपा खजाना बता दो।

एक रुहेला-हाँ,हाँ, हम लोगों के लिये भी तो कुछ चाहिये।

शाहआलम-कादिर! मेरे पास कुछ नहीं है। क्यों मुझे तकलीफ देता है?

कादिर-मालूम होता है, सीधी उँगली से घी नहीं निकलेगा।

शाहआलम-मैंने तुझे इस लायक इसलिये बनाया कि तू मेरी इस तरह बेइज्जती करे?

कादिर-तुम्हारे-ऐसों के लिये इतनी ही सजा काफी नहीं है। नहीं देखते हो कि मेरे दिल में बदले की आग जल रही है, मुझे तुमने किस काम का रक्खा? हाय!

मेरी सारी कार्रवाई फजूल है, मेरा सब तुमने लूट लिया है। बदला कहती है कि तुम्हारा गोश्त मैं अपने दाँतों से नोच डालूँ।

शाहआलम-बस कादिर! मैं अपनी खता कुबूल करता हूँ। उसे माफ कर! या तो अपने हाथों से मुझे कत्ल कर डाल! मगर इतनी बेइज्जती न कर!

गुलाम-अच्छा, वह तो किया ही जायेगा! मगर खजाना कहाँ है?

शाहआलम-कादिर! मेरे पास कुछ नहीं है!

गुलाम-अच्छा, तो उतर आएँ तख्त से, देर न करें!

शाहआलम-कादिर! मैं इसी पर बैठा हूँ, जिस पर बैठकर तुझे हुक्म दिया करता था। आ, इसी जगह खंजर से मेरा काम तमाम कर दे।

'वही होगा' कहता हुआ नर-पिशाच कादिर तख्त की ओर बढ़ा। बूढ़े बादशाह को तख्त से घसीटकर नीचे ले आया और उन्हें पटककर छाती पर चढ़ बैठा। खंजर की नोक कलेजे पर रखकर कहने लगा, अब भी अपना खजाना बताओ, तो जान सलामत बच जायगी।

शाहआलम गिड़गिड़ाकर कहने लगे कि ऐसी जिन्दगी की जरूरत नहीं है। अब तू अपना खञ्जर कलेजे के पार कर!

कादिर-लेकिन इससे क्या होगा! अगर तुम मर जाओगे, तो मेरे कलेजे की आग किसे झुलसायेगी; इससे बेहतर है कि मुझसे जैसी चीज छीन ली गयी है, उसी तरह की कोई चीज तुम्हारी भी ली जाय। हाँ, इन्हीं आँखों से मेरी खूबसूरती देखकर तुमने मुझे दुनिया के किसी काम का न रक्खा। लो, मैं तुम्हारी आँखें निकालता हूँ, जिससे मेरा कलेजा कुछ ठण्डा होगा।

इतना कह कादिर ने कटार से शाहआलम की दोनों आँखें निकाल लीं। रोशनी की जगह उन गड्ढों से रक्त के फुहारे निकलने लगे। निकली हुई आँखों को कादिर की आँखें प्रसन्नता से देखने लगीं।


 

 






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Hindi Kahani

हिंदी कहानी

Ashok Jaishankar Prasad

अशोक जयशंकर प्रसाद



1

पूत-सलिला भागीरथी के तट पर चन्द्रालोक में महाराज चक्रवर्ती अशोक टहल रहे हैं। थोड़ी दूर पर एक युवक खड़ा है। सुधाकर की किरणों के साथ नेत्र-ताराओं को मिलाकर स्थिर दृष्टि से महाराज ने कहा-विजयकेतु, क्या यह बात सच है कि जैन लोगों ने हमारे बौद्ध-धर्माचार्य होने का जनसाधारण में प्रवाद फैलाकर उन्हें हमारे विरुद्ध उत्तेजित किया है और पौण्ड्रवर्धन में एक बुद्धमूर्ति तोड़ी गयी है?

विजयकेतु-महाराज, क्या आपसे भी कोई झूठ बोलने का साहस कर सकता है?

अशोक-मनुष्य के कल्याण के लिये हमने जितना उद्योग किया, क्या वह सब व्यर्थ हुआ? बौद्धधर्म को हमने क्यों प्रधानता दी? इसीलिये कि शान्ति फैलेगी, देश में द्वेष का नाम भी न रहेगा, और उसी शान्ति की छाया में समाज अपने वाणिज्य, शिल्प और विद्या की उन्नति करेगा। पर नहीं, हम देख रहे हैं कि हमारी कामना पूर्ण होने में अभी अनेक बाधाएँ हैं। हमें पहले उन्हें हटाकर मार्ग प्रशस्त करना चाहिये।

विजयकेतु-देव ! आपकी क्या आज्ञा है?

अशोक-विजयकेतु, भारत में एक समय वह था, जब कि इसी अशोक के नाम से लोग काँप उठते थे। क्यों? इसीलिये कि वह बड़ा कठोर शासक था। पर वही अशोक जब से बौद्ध कहकर सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ है, उसके शासन को लोग कोमल कहकर भूलने लग गये हैं। अस्तु, तुमको चाहिये कि अशोक का आतंक एक बार फिर फैला दो; और यह आज्ञा प्रचारित कर दो कि जो मनुष्य जैनों का साथी होगा, वह अपराधी होगा; और जो एक जैन का सिर काट लावेगा, वह पुरस्कृत किया जावेगा।

विजयकेतु-(काँपकर) जो महाराज की आज्ञा!

अशोक-जाओ, शीघ्र जाओ।

विजयकेतु चला गया। महाराज अभी वहीं खड़े हैं। नूपुर का कलनाद सुनाई पड़ा। अशोक ने चौंककर देखा, तो बीस-पचीस दासियों के साथ महारानी तिष्यरक्षिता चली आ रही हैं।

अशोक-प्रिये! तुम यहाँ कैसे?

तिष्यरक्षिता-प्राणनाथ! शरीर से कहीं छाया अलग रह सकती है? बहुत देर हुई, मैंने सुना था कि आप आ रहे हैं; पर बैठे-बैठे जी घबड़ा गया कि आने में क्यों देर हो रही है। फिर दासी से ज्ञात हुआ कि आप महल के नीचे बहुत देर से टहल रहे हैं। इसीलिये मैं स्वयं आपके दर्शन के लिये चली आई। अब भीतर चलिये!

अशोक-मैं तो आ ही रहा था। अच्छा चलो।

अशोक और तिष्यरक्षिता समीप के सुन्दर प्रासाद की ओर बढ़े। दासियाँ पीछे थीं।


2

राजकीय कानन में अनेक प्रकार के वृक्ष, सुरभित सुमनों से भरे झूम रहे हैं। कोकिला भी कूक-कूक कर आम की डालों को हिलाये देती है। नव-वसंत का समागम है। मलयानिल इठलाता हुआ कुसुम-कलियों को ठुकराता जा रहा है।

इसी समय कानन-निकटस्थ शैल के झरने के पास बैठकर एक युवक जल-लहरियों की तरंग-भंगी देख रहा है। युवक बड़े सरल विलोकन से कृत्रिम जलप्रपात को देख रहा है। उसकी मनोहर लहरियाँ जो बहुत ही जल्दी-जल्दी लीन हो स्रोत में मिलकर सरल पथ का अनुकरण करती हैं, उसे बहुत ही भली मालूम हो रही हैं। पर युवक को यह नहीं मालूम कि उसकी सरल दृष्टि और सुन्दर अवयव से विवश होकर एक रमणी अपने परम पवित्र पद से च्युत होना चाहती है।

देखो, उस लता-कुंज में, पत्तियों की ओट में, दो नीलमणि के समान कृष्णतारा चमककर किसी अदृश्य आश्चर्य का पता बता रहे हैं। नहीं-नहीं, देखो, चन्द्रमा में भी कहीं तारे रहते हैं? वह तो किसी सुन्दरी के मुख-कमल का आभास है।

युवक अपने आनन्द में मग्न है। उसे इसका कुछ भी ध्यान नहीं है कि कोई व्याघ्र उसकी ओर अलक्षित होकर बाण चला रहा है। युवक उठा, और उसी कुंज की ओर चला। किसी प्रच्छन्न शक्ति की प्रेरणा से वह उसी लता-कुञ्ज की ओर बढ़ा। किन्तु उसकी दृष्टि वहाँ जब भीतर पड़ी, तो वह अवाक् हो गया। उसके दोनों हाथ आप जुट गये। उसका सिर स्वयं अवनत हो गया।

रमणी स्थिर होकर खड़ी थी। उसके हृदय में उद्वेग और शरीर में कम्प था। धीरे-धीरे उसके होंठ हिले और कुछ मधुर शब्द निकले। पर वे शब्द स्पष्ट होकर वायुमण्डल में लीन हो गये। युवक का सिर नीचे ही था। फिर युवती ने अपने को सम्भाला, और बोली-कुनाल, तुम यहाँ कैसे? अच्छे तो हो?

माताजी की कृपा से-उत्तर में कुनाल ने कहा।

युवती मन्द मुस्कान के साथ बोली-मैं तुम्हें देर से यहाँ छिप कर देख रही हूँ।

कुनाल-महारानी तिष्यरक्षिता को छिपकर मुझे देखने की क्या आवश्यकता है?

तिष्यरक्षिता-(कुछ कम्पित स्वर से) तुम्हारे सौन्दर्य से विवश होकर।

कुनाल-(विस्मित तथा भयभीत होकर) पुत्र का सौन्दर्य तो माता ही का दिया हुआ है।

तिष्यरक्षिता-नहीं कुनाल, मैं तुम्हारी प्रेम-भिखारिनी हूँ, राजरानी नहीं हूँ; और न तुम्हारी माता हूँ।

कुनाल-(कुंज से बाहर निकलकर) माताजी, मेरा प्रणाम ग्रहण कीजिए, और अपने इस पाप का शीघ्र प्रायश्चित कीजिये। जहाँ तक सम्भव होगा, अब आप इस पाप-मुख को कभी न देखेंगी।

इतना कहकर शीघ्रता से वह युवक राजकुमार कुनाल, अपनी विमाता की बात सोचता हुआ, उपवन के बाहर निकल गया। पर तिष्यरक्षिता किंकर्तव्यविमूढ़ होकर वहीं तब तक खड़ी रहीं, जब तक किसी दासी के भूषण-शब्द ने उसकी मोह-निद्रा को भंग नहीं किया।


3

श्रीनगर के समीपवर्ती कानन में एक कुटीर के द्वार पर कुनाल बैठा हुआ ध्यानमग्न है। उसकी सुशील पत्नी उसी कुटीर में कुछ भोजन बना रही है।

कुटीर स्वच्छ तथा उसकी भूमि परिष्कृत है। शान्ति की प्रबलता के कारण पवन भी उसी समय धीरे-धीरे चल रहा है।

किन्तु वह शान्ति देर तक न रही, क्योंकि एक दौड़ता हुआ मृगशावक कुनाल की गोद में आ गिरा, जिससे उसके ध्यान में विघ्न हुआ, और वह खड़ा हो गया। कुनाल ने उस मृगशावक को देखकर समझा कि कोई व्याघ्र भी इसके पीछे आता ही होगा। पर जब कोई उसे न देख पड़ा, तो उसने उस मृगशावक को अपनी स्त्री 'धर्मरक्षिता' को देकर कहा-प्रिये! क्या तुम इसको बच्चे की तरह पालोगी?

धर्मरक्षिता-प्राणनाथ, हमारे ऐसे वनचारियों को ऐसे ही बच्चे चाहिये।

कुनाल-प्रिये! तुमको हमारे साथ बहुत कष्ट है।

धर्मरक्षिता-नाथ, इस स्थान पर यदि सुख न मिला, तो मैं समझूँगी कि संसार में भी कहीं सुख नहीं है।

कुनाल-किन्तु प्रिये, क्या तुम्हें वे सब राज-सुख याद नहीं आते? क्या उनकी स्मृति तुम्हें नहीं सताती? और, क्या तुम अपनी मर्म-वेदना से निकलते हुए आँसुओं को रोक नहीं लेतीं! या वे सचमुच हैं ही नहीं?

धर्मरक्षिता-प्राणधार! कुछ नहीं है। यह सब आपका भ्रम है। मेरा हृदय जितना इस शान्त वन में आनन्दित है, उतना कहीं भी न रहा। भला ऐसे स्वभाववर्धित, सरल-सीधे और सुमनवाले साथी कहाँ मिलते? ऐसी मृदुला लताएँ, जो अनायास ही चरण को चूमती हैं, कहाँ उस जनरव से भरे राजकीय नगर में मिली थीं? नाथ, और सच कहना, (मृग को चूमकर) ऐसा प्यारा शिशु भी तुम्हें आज तक कहीं मिला था? तिस पर भी आपको अपनी विमाता की कृपा से जो दु:ख मिलता था, वह भी यहाँ नहीं है। फिर ऐसा सुखमय जीवन और कौन होगा?

कुनाल के नेत्र आँसुओं से भर आये, और वह उठकर टहलने लगे। धर्मरक्षिता भी अपने कार्य में लगी। मधुर पवन भी उस भूमि में उसी प्रकार चलने लगा। कुनाल का हृदय अशान्त हो उठा, और वह टहलता हुआ कुछ दूर निकल गया। जब नगर का समीपवर्ती प्रान्त उसे दिखाई पड़ा, तब वह रुक गया और उसी ओर देखने लगा।


4

पाँच-छ: मनुष्य दौड़ते हुए चले आ रहे हैं। वे कुनाल के पास पहुँचना ही चाहते थे कि उनके पीछे बीस अश्वारोही देख पड़े। वे सब-के-सब कुनाल के समीप पहुँचे। कुनाल चकित दृष्टि से उन सबको देख रहा था।

आगे दौड़कर आनेवालों ने कहा-महाराज, हम लोगों को बचाइये।

कुनाल उन लोगों को पीछे करके आप आगे डटकर खड़ा हो गया। वे अश्वारोही भी उस युवक कुनाल के अपूर्व तेजोमय स्वरूप को देखकर सहमकर, उसी स्थान पर खड़े हो गये। कुनाल ने उन अश्वारोहियों से पूछा-तुम लोग इन्हें क्यों सता रहे हो? क्या इन लोगों ने कोई ऐसा कार्य किया है, जिससे ये लोग न्यायत: दण्डभागी समझे गये हैं?

एक अश्वारोही, जो उन लोगों का नायक था, बोला-हम लोग राजकीय सैनिक हैं, और राजा की आज्ञा से इन विधर्मी जैनियों का बध करने के लिये आये हैं। पर आप कौन हैं, जो महाराज चक्रवत्र्ती देवप्रिय अशोकदेव की आज्ञा का विरोध करने पर उद्यत हैं?

कुनाल-चक्रवर्ती अशोक! वह कितना बड़ा राजा है?

नायक-मूर्ख! क्या तू अभी तक महाराज अशोक का पराक्रम नहीं जानता, जिन्होंने अपने प्रचण्ड भुजदण्ड के बल से कलिंग-विजय किया है? और, जिनकी राज्य-सीमा दक्षिण में केरल और मलयगिरि, उत्तर में सिन्धुकोश-पर्वत, तथा पूर्व और पश्चिम में किरात-देश और पटल हैं! जिनकी मैत्री के लिये यवन-नृपति लोग उद्योग करते रहते हैं, उन महाराज को तू भलीभाँति नहीं जानता?

कुनाल-परन्तु इससे भी बड़ा कोई साम्राज्य है, जिसके लिये किसी राज्य की मैत्री की आवश्यकता नहीं है।

नायक-इस विवाद की आवश्यकता नहीं है, हम अपना काम करेंगे।

कुनाल-तो क्या तुम लोग इन अनाथ जीवों पर कुछ दया न करोगे?

इतना कहते-कहते राजकुमार को कुछ क्रोध आ गया, नेत्र लाल हो गये। नायक उस तेजस्वी मूर्ति को देखकर एक बार फिर सहम गया।

कुनाल ने कहा-अच्छा, यदि तुम न मानोगे, तो यहाँ के शासक से जाकर कहो कि राजकुमार कुनाल तुम्हें बुला रहे हैं।

नायक सिर झुकाकर कुछ सोचने लगा। तब उसने अपने एक साथी की ओर देखकर कहा-जाओ, इन बातों को कहकर, दूसरी आज्ञा लेकर जल्द आओ।

अश्वारोही शीघ्रता से नगर की ओर चला। शेष सब लोग उसी स्थान पर खड़े थे।

थोड़ी देर में उसी ओर से दो अश्वारोही आते हुए दिखाई पड़े। एक तो वही था,जो भेजा गया था, और दूसरा उस प्रदेश का शासक था। समीप आते ही वह घोड़े पर से उतर पड़ा और कुनाल का अभिवादन करने के लिए बढ़ा। पर कुनाल ने रोक कर कहा-बस, हो चुका, मैंने आपको इसलिये कष्ट दिया है कि इन निरीह मनुष्यों की हिंसा की जा रही है।

शासक-राजकुमार! आपके पिता की आज्ञा ही ऐसी है, और आपका यह वेश क्या है?

कुनाल-इसके पूछने की कोई आवश्यकता नहीं, पर क्या तुम इन लोगों को मेरे कहने से छोड़ सकते हो?

शासक-(दु:खित होकर) राजकुमार, आपकी आज्ञा हम कैसे टाल सकते हैं, (ठहरकर) पर एक और बड़े दु:ख की बात है।

कुनाल-वह क्या?

शासक ने एक पत्र अपने पास से निकालकर कुनाल को दिखलाया। कुनाल उसे पढक़र चुप रहा, और थोड़ी देर के बाद बोला-तो तुमको इस आज्ञा का पालन अवश्य करना चाहिये।

शासक-पर, यह कैसे हो सकता है?

कुनाल-जैसे हो, वह तो तुम्हें करना ही होगा।

शासक-किन्तु राजकुमार, आपके इस देव-शरीर के दो नेत्र-रत्न निकालने का बल मेरे हाथों में नहीं है। हाँ, मैं अपने इस पद का त्याग कर सकता हूँ।

कुनाल-अच्छा, तो तुम मुझे इन लोगों के साथ महाराज के समीप भेज दो।

शासक ने कहा-जैसी आज्ञा।


5

पौण्ड्रवर्धन नगर में हाहाकार मचा हुआ है। नगर-निवासी प्राय: उद्विग्न हो रहे हैं। पर विशेषकर जैन लोगों ही में खलबली मची हुई है। जैन-रमणियाँ, जिन्होंने कभी घर के बाहर पैर भी नहीं रक्खा था, छोटे शिशुओं को लिये हुए भाग रही हैं। पर जायँ कहाँ? जिधर देखती हैं, उधर ही सशस्त्र उन्मत्त काल बौद्ध लोग उन्मत्तों की तरह दिखाई पड़ते हैं। देखो, वह स्त्री, जिसके केश परिश्रम से खुल गये हैं-गोद का शिशु अलग मचल कर रो रहा है, थककर एक वृक्ष के नीचे बैठ गयी है; अरे देखो! दुष्ट निर्दय वहाँ भी पहुँच गये, और उस स्त्री को सताने लगे।

युवती ने हाथ जोड़कर कहा-आप लोग दु:ख मत दीजिये। फिर उसने एक-एक करके अपने सब आभूषण उतार दिये और वे दुष्ट उन सब अलंकारों को लेकर भाग गये। इधर वह स्त्री निद्रा से क्लान्त होकर उसी वृक्ष के नीचे सो गयी।

उधर देखिये, वह एक रथ चला जा रहा है, और उसके पर्दे हटाकर बता रहे हैं कि उसमें स्त्री और पुरुष तीन-चार बैठे हैं। पर सारथी उस ऊँची-नीची पथरीली भूमि में भी उन लोगों की ओर बिना ध्यान दिये रथ शीघ्रता से लिये जा रहा है। सूर्य की किरणें पश्चिम में पीली हो गयी हैं। चारों ओर उस पथ में शान्ति है। केवल उसी रथ का शब्द सुनाई पड़ता है, जो अभी उत्तर की ओर चला जा रहा है।

थोड़ी ही देर में वह रथ सरोवर के समीप पहुँचा और रथ के घोड़े हाँफते हुए थककर खड़े हो गये। अब सारथी भी कुछ न कर सका और उसको रथ के नीचे उतरना पड़ा।

रथ को रुका जानकर भीतर से एक पुरुष निकला और उसने सारथी से पूछा-क्यों, तुमने रथ क्यों रोक दिया?

सारथी-अब घोड़े नहीं चल सकते।

पुरुष-तब तो फिर बड़ी विपत्ति का सामना करना होगा; क्योंकि पीछा करने वाले उन्मत्त सैनिक आ ही पहुँचेंगे।

सारथी-तब क्या किया जाय? (सोचकर) अच्छा, आप लोग इस समीप की कुटी में चलिये, यहाँ कोई महात्मा हैं, वह अवश्य आप लोगों को आश्रय देंगे।

पुरुष ने कुछ सोचकर सब आरोहियों को रथ पर से उतारा, और वे सब लोग उसी कुटी की ओर अग्रसर हुए।

कुटी के बाहर एक पत्थर पर अधेड़ मनुष्य बैठा हुआ है। उसका परिधेय वस्त्र भिक्षुओं के समान है। रथ पर के लोग उसी के सामने जाकर खड़े हुए। उन्हें देखकर वह महात्मा बोले-आप लोग कौन हैं और क्यों आये हैं?

उसी पुरुष ने आगे बढक़र, हाथ जोड़कर कहा-महात्मन्-हम लोग जैन हैं और महाराज अशोक की आज्ञा से जैन लोगों का सर्वनाश किया जा रहा है। अत: हम लोग प्राण के भय से भाग कर अन्यत्र जा रहे हैं। पर मार्ग में घोड़े थक गये, अब ये इस समय चल नहीं सकते। क्या आप थोड़ी देर तक हम लोगों को आश्रय दीजियेगा?

महात्मा थोड़ी देर सोचकर बोले-अच्छा, आप लोग इसी कुटी में चले जाइये।

स्त्री-पुरुषों ने आश्रय पाया।

अभी उन लोगों को बैठे थोड़ी ही देर हुई है कि अकस्मात् अश्व-पद-शब्द ने सबको चकित और भयभीत कर दिया। देखते-देखते दस अश्वारोही उस कुटी के सामने पहुँच गये। उनमें से एक महात्मा की ओर लक्ष्य करके बोला-ओ भिक्षु, क्या तूने अपने यहाँ भागे हुए जैन विधर्मियों को आश्रय दिया है? समझ रख, तू हम लोगों से बहाना नहीं कर सकता, क्योंकि उनका रथ इस बात का ठीक पता दे रहा है।

महात्मा-सैनिकों, तुम उन्हें लेकर क्या करोगे? मैंने अवश्य उन दुखियों को आश्रय दिया है। क्यों व्यर्थ नर-रक्त से अपने हाथों को रंजित करते हो?

सैनिक अपने साथियों की ओर देखकर बोला-यह दुष्ट भी जैन ही है, ऊपरी बौद्ध बना हुआ है; इसे भी मारो।

'इसे भी मारो' का शब्द गूँज उठा, और देखते-देखते उस महात्मा का सिर भूमि में लोटने लगा।

इस काण्ड को देखते ही कुटी के स्त्री-पुरुष चिल्ला उठे। उन नर-पिशाचों ने एक को भी न छोड़ा! सबकी हत्या की।

अब सब सैनिक धन खोजने लगे। मृत स्त्री-पुरुषों के आभूषण उतारे जाने लगे। एक सैनिक, जो उस महात्मा की ओर झुका था, चिल्ला उठा। सबका ध्यान उसी ओर आकर्षित हुआ। सब सैनिकों ने देखा, उसके हाथ में एक अँगूठी है, जिस पर लिखा है, 'वीताशोक'!


6

महाराज अशोक के भाई, जिनका पता नहीं लगता था, वही 'वीताशोक' मारे गये! चारों ओर उपद्रव शान्त है। पौण्ड्रवर्धन नगर प्रशान्त समुद्र की तरह हो गया है।

महाराज अशोक पाटलिपुत्र के साम्राज्य-सिंहासन पर विचारपति होकर बैठे हैं। राजसभा की शोभा तो कहते नहीं बनती। सुवर्ण-रचित बेल-बूटों की कारीगरी से, जिनमें मणि-माणिक्य स्थानानुकूल बिठाये गये हैं। मौर्य-सिंहासन-मडन्दर भारतवर्ष का वैभव दिखा रहा है, जिसे देखकर पारसीक सम्राट 'दारा' के सिंहासन-मन्दिर को ग्रीक लोग तुच्छ दृष्टि से देखते थे।

धर्माधिकारी, प्राड्विवाक, महामात्य, धर्म-महामात्य रज्जुक, और सेनापति, सब अपने-अपने स्थान पर स्थित हैं। राजकीय तेज का सन्नाटा सबको मौन किये है।

देखते-देखते एक स्त्री और एक पुरुष उस सभा में आये। सभास्थित सब लोगों की दृष्टि को पुरुष के अवनत तथा बड़े-बड़े नेत्रों ने आकर्षित कर लिया। किन्तु सब नीरव हैं। युवक और युवती ने मस्तक झुकाकर महाराजा को अभिवादन किया।

स्वयं महाराजा ने पूछा-तुम्हारा नाम?

उत्तर-कुनाल।

प्रश्न-पिता का नाम।

उत्तर-महाराज चक्रवर्ती धर्माशोक।

सब लोग उत्कण्ठा और विस्मय से देखने लगे कि अब क्या होता है, पर महाराज का मुख कुछ भी विकृत न हुआ, प्रत्युत और भी गम्भीर स्वर से प्रश्न करने लगे।

प्रश्न-तुमने कोई अपराध किया है?

उत्तर-अपनी समझ से तो मैंने अपराध से बचने का उद्योग किया था।

प्रश्न-फिर तुम किस तरह अपराधी बनाये गये?

उत्तर-तक्षशिला के महासामन्त से पूछिये।

महाराज की आज्ञा होते ही शासक ने अभिवादन के उपरान्त एक पत्र उपस्थित किया, जो अशोक के कर में पहुँचा।

महाराज ने क्षण-भर में महामात्य से फिरकर पूछा-यह आज्ञा-पत्र कौन ले गया था, उसे बुलाया जाय।

पत्रवाहक भी आया और कम्पित स्वर से अभिवादन करते हुए बोला-धर्मावतार, यह पत्र मुझे महादेवी तिष्यरक्षिता के महल से मिला था, और आज्ञा हुई थी कि इसे शीघ्र तक्षशिला के शासक के पास पहुँचाओ।

महाराज ने शासक की ओर देखा। उसने हाथ जोड़कर कहा-महाराज, यही आज्ञा-पत्र लेकर गया था।

महाराज ने गम्भीर होकर अमात्य से कहा-तिष्यरक्षिता को बुलाओ।

महामात्य ने कुछ बोलने की चेष्टा की, किन्तु महाराज के भृकुटिभंग ने उन्हें बोलने से निरस्त किया; अब वह स्वयं उठे और चले।


7

महादेवी तिष्यरक्षिता राजसभा में उपस्थित हुईं। अशोक ने गम्भीर स्वर से पूछा-यह तुम्हारी लेखनी से लिखा गया है? क्या उस दिन तुमने इसी कुकर्म के लिये राजमुद्रा छिपा ली थी? क्या कुनाल के बड़े-बड़े सुन्दर नेत्रों ने ही तुम्हें आँखें निकलवाने की आज्ञा देने के लिये विवश किया था? अवश्य तुम्हारा ही यह कुकर्म है। अस्तु, तुम्हारी-ऐसी स्त्री को पृथ्वी के ऊपर नहीं, किन्तु भीतर रहना चाहिये।

सब लोग काँप उठे। कुनाल ने आगे बढ़ घुटने टेक दिये और कहा-क्षमा।

अशोक ने गम्भीर स्वर से कहा-नहीं।

तिष्यरक्षिता उन्हीं पुरुषों के साथ गयी, जो लोग उसे जीवित समाधि देनेवाले थे। महामात्य ने राजकुमार कुनाल को आसन पर बैठाया और धर्मरक्षिता महल में गयी।

महामात्य ने एक पत्र और अँगूठी महाराज को दी। यह पौण्ड्रवर्धन के शासक का पत्र तथा वीताशोक की अँगूठी थी।

पत्र-पाठ करके और मुद्रा को देखकर वही कठोर अशोक विह्वल हो गये, ओर अवसन्न होकर सिंहासन पर गिर पड़े।

उसी दिन से कठोर अशोक ने हत्या की आज्ञा बन्द कर दी, स्थान-स्थान पर जीवहिंसा न करने की आज्ञा पत्थरों पर खुदवा दी गयी।

कुछ ही काल के बाद महाराज अशोक ने उद्विग्न चित्त को शान्त करने के लिये भगवान बुद्ध के प्रसिद्ध स्थानों को देखने के लिए धर्म-यात्रा की।


 

 






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Hindi Kahani

हिंदी कहानी

Chittaur Uddhaar Jaishankar Prasad

चित्तौर-उद्धार जयशंकर प्रसाद



1

दीपमालाएँ आपस में कुछ हिल-हिलकर इंगित कर रही हैं, किन्तु मौन हैं। सज्जित मन्दिर में लगे हुए चित्र एकटक एक-दूसरे को देख रहे हैं, शब्द नहीं हैं। शीतल समीर आता है, किन्तु धीरे-से वातायन-पथ के पार हो जाता है, दो सजीव चित्रों को देखकर वह कुछ नहीं कह सकता है। पर्यंक पर भाग्यशाली मस्तक उन्नत किये हुए चुपचाप बैठा हुआ युवक, स्वर्ण-पुत्तली की ओर देख रहा है, जो कोने में निर्वात दीपशिखा की तरह प्रकोष्ठ को आलोकित किये हुए है। नीरवता का सुन्दर दृश्य, भाव-विभोर होने का प्रत्यक्ष प्रमाण, स्पष्ट उस गृह में आलोकित हो रहा है।

अकस्मात् गम्भीर कण्ठ से युवक उद्वेग में भर बोल उठा-सुन्दरी! आज से तुम मेरी धर्म-पत्नी हो, फिर मुझसे संकोच क्यों?

युवती कोकिल-स्वर से बोली-महाराजकुमार! यह आपकी दया है, जो दासी को अपनाना चाहते हैं, किन्तु वास्तव में दासी आपके योग्य नहीं है।

युवक-मेरी धर्मपरिणीता वधू, मालदेव की कन्या अवश्य मेरे योग्य है। यह चाटूक्ति मुझे पसन्द नहीं। तुम्हारे पिता ने, यद्यपि वह मेरे चिर-शत्रु हैं, तुम्हारे ब्याह के लिए नारियल भेजा, और मैंने राजपूत धर्मानुसार उसे स्वीकार किया, फिर भी तुम्हारी-ऐसी सुन्दरी को पाकर हम प्रवञ्चित नहीं हुए और इसी अवसर पर अपने पूर्व-पुरुषों की जन्मभूमि का भी दर्शन मिला।

'उदारहृदय राजकुमार! मुझे क्षमा कीजिये। देवता से छलना मनुष्य नहीं कर सकता। मैं इस सम्मान के योग्य नहीं कि पर्यंक पर बैठूँ, किन्तु चरण-प्रान्त में बैठकर एक बार नारी-जीवन का स्वर्ग भोग कर लेने में आपके-ऐसे देवता बाधा न देंगे।'

इतना कहकर युवती ने पर्यंक से लटकते हुए राजकुमार के चरणों को पकड़ लिया।

वीर कुमार हम्मीर अवाक् होकर देखने लगे। फिर उसका हाथ पकड़कर पास में बैठा लिया। राजकुमारी शीघ्रता से उतरकर पलंग के नीचे बैठ गयी।

दाम्पत्य-सुख से अपरिचित कुमार की भँवे कुछ चढ़ गयीं, किन्तु उसी क्षण यौवन के नवीन उल्लास ने उन्हें उतार दिया। हम्मीर ने कहा-फिर क्यों तुम इतना उत्कण्ठित कर रही हो? सुन्दरी! कहो, क्या बात है?

राजकुमारी-मैं विधवा हूँ। सात वर्ष की अवस्था में, सुना है कि मेरा ब्याह हुआ और आठवें वर्ष विधवा हुई। यह भी सुना है कि विधवा का शरीर अपवित्र होता है। तब, जगत्पवित्र शिशौदिया-कुल के कुमार को छूने का कैसे साहस कर सकती हूँ?

हम्मीर-हैं! तुम क्या विधवा हो? फिर तुम्हारा ब्याह पिता ने क्यों किया?

राजकुमारी-केवल देवता को अपमानित करने के लिये।

हम्मीर की तलवार में स्वयं एक झनकार उत्पन्न हुई। फिर भी उन्होंने शान्त होकर कहा-अपमान इससे नहीं होता, किन्तु परिणीता वधू को छोड़ देने में अवश्य अपमान है।

राजकुमारी-प्रभो! पतिता को लेकर आप क्यों कलंकित होते हैं?

हम्मीर ने मुस्कुराकर कहा-ऐसे निर्दोष और सच्चे रत्न को लेकर कौन कलंकित हो सकता है?

राजकुमारी संकुचित हो गयी। हम्मीर ने हाथ पकड़कर उठाकर पलँग पर बैठाया, और कहा-आओ, तुम्हें मुझसे-समाज, संसार-कोई भी नहीं अलग कर सकता।

राजकुमारी ने वाष्परुद्ध कण्ठ से कहा-इस अनाथिनी को सनाथ करके आपने चिर-ऋणी बनाया, और विह्वल होकर हम्मीर के अंक में सिर रख दिया।


2

कैलवाड़ा-प्रदेश के छोटे-से दुर्ग के एक प्रकोष्ठ में राजकुमार हम्मीर बैठे हुए चिन्ता में निमग्न हैं। सोच रहे थे-जिस दिन मुंज का सिर मैंने काटा, उसी दिन एक भारी बोझ मेरे सिर दिया गया, वह पितृव्य का दिया हुआ महाराणा-वंश का राजतिलक है, उसका पूरा निर्वाह जीवन भर करना कर्तव्य है। चित्तौर का उद्धार करना ही मेरा प्रधान लक्ष्य है। पर देखूँ, ईश्वर कैसे इसे पूरा करता है। इस छोटी-सी सेना से, यथोचित धन का अभाव रहते, वह क्योंकर हो सकता है? रानी मुझे चिन्ताग्रस्त देखकर यही समझती है कि विवाह ही मेरे चिन्तित होने का कारण है। मैं उसकी ओर देखकर मालदेव पर कोई अत्याचार करने पर संकुचित होता हूँ। ईश्वर की कृपा से एक पुत्र भी हुआ, किन्तु मुझे नित्य चिन्तित देखकर रानी पिता के यहाँ चली गयी है। यद्यपि देवता-पूजन करने के लिये ही वहाँ उनका जाना हुआ है, किन्तु मेरी उदासीनता भी कारण है। भगवान एकलिंगेश्वर कैसे इस दु:साध्य कार्य को पूर्ण करते हैं, यह वही जानें।

इसी तरह की अनेक विचार-तरंगें मानस में उठ रही थीं। सन्ध्या की शोभा सामने की गिरि-श्रेणी पर अपनी लीला दिखा रखी है, किन्तु चिन्तित हम्मीर को उसका आनन्द नहीं। देखते-देखते अन्धकार ने गिरिप्रदेश को ढँक लिया। हम्मीर उठे, वैसे ही द्वारपाल ने आकर कहा-महाराज विजयी हों। चित्तौर से एक सैनिक, महारानी का भेजा हुआ, आया है।

थोड़ी ही देर में सैनिक लाया गया और अभिवादन करने के बाद उसने एक पत्र हम्मीर के हाथ में दिया। हम्मीर ने उसे लेकर सैनिक को विदा किया, और पत्र पढऩे लगे-

प्राणनाथ जीवनसर्वस्व के चरणों में

कोटिश: प्रणाम।

देव! आपकी कृपा ही मेरे लिये कुशल है। मुझे यहाँ आये इतने दिन हुए, किन्तु एक बार भी आपने पूछा नहीं। इतनी उदासीनता क्यों? क्या, साहस में भरकर जो मुझे आपने स्वीकार किया, उसका प्रतिकार कर रहे हैं? देवता! ऐसा न चाहिये। मेरा अपराध ही क्या? मैं आपका चिन्तित मुख नहीं देख सकती, इसीलिए कुछ दिनों के लिए यहाँ चली आयी हूँ, किन्तु बिना उस मुख के देखे भी शान्ति नहीं। अब कहिये, क्या करूँ? देव! जिस भूमि की दर्शनाभिलाषा ने ही आपको मुझसे ब्याह करने के लिये बाध्य किया, उसी भूमि में आने से मेरा हृदय अब कहता है कि आप ब्याह करके नहीं पश्चात्ताप कर रहे हैं, किन्तु आपकी उदासीनता केवल चित्तौर-उद्धार के लिये है। मैं इसमें बाधा-स्वरूप आपको दिखाई पड़ती हूँ। मेरे ही स्नेह से आप पिता के ऊपर चढ़ाई नहीं कर सकते, और पितरों के ऋण से उद्धार नहीं पा रहे हैं। इस जन्म में तो आपसे उद्धार नहीं हो सकती और होने की इच्छा भी नहीं-कभी, किसी भी जन्म में। चित्तौर-अधिष्ठात्री देवी ने मुझे स्वप्न में जो आज्ञा दी है, मैं उसी कार्य के लिये रुकी हूँ। पिता इस समय चित्तौर में नहीं हैं, इससे यह न समझिये कि मैं आपको कायर समझती हूँ, किन्तु इसलिये कि युद्ध में उनके न रहने से उनकी कोई शारीरिक क्षति नहीं होगी। मेरे कारण जिसे आप बचाते हैं, वह बात बच जायेगी। सरदारों से रक्षित चित्तौर-दुर्ग के वीर सैनिकों के साथ सम्मुख युद्ध में इस समय विजय प्राप्त कर सकते हैं। मुझे निश्चय है, भवानी आपकी रक्षा करेगी। और, मुझे चित्तौर से अपने साथ लिवा न जाकर यहीं सिंहासन पर बैठिये। दासी चरण-सेवा करके कृतार्थ होगी।


3

चित्तौर-दुर्ग के सिंहद्वार पर एक सहस्र राजपूत-सवार और उतने ही भील-धनुर्धर पदातिक उन्मुक्त शस्त्र लिये हुए महाराणा हम्मीर की जय का भीम-नाद कर रहे हैं।

दुर्ग-रक्षक सचेष्ट होकर बुर्जियों पर से अग्नि-वर्षा करा रहा है, किन्तु इन दृढ़ प्रतिज्ञ वीरों को हटाने में असमर्थ है। दुर्गद्वार बंद है। आक्रमणकारियों के पास दुर्गद्वार तोड़ने का कोई साधन नहीं है, तो भी वे अदम्य उत्साह से आक्रमण कर रहे हैं। वीर हम्मीर कतिपय उत्साही वीरों के साथ अग्रसर होकर प्राचीर पर चढऩे का उद्योग करने लगे, किन्तु व्यर्थ, कोई फल नहीं हुआ। भीलों की बाण-वर्षा से हम्मीर का शत्रुपक्ष निर्बल होता था, पर वे सुरक्षित थे। चारों ओर भीषण हत्याकाण्ड हो रहा है। अकस्मात् दुर्ग का सिंहद्वार सशब्द खुला।

हम्मीर की सेना ने समझा कि शत्रु मैदान में, युद्ध करने के लिये आ गये, बड़े उल्लास से आक्रमण किया गया। किन्तु देखते हैं तो सामने एक सौ क्षत्राणियाँ हाथ में तलवार लिये हुए दुर्ग के भीतर खड़ी हैं! हम्मीर पहले तो संकुचित हुए, फिर जब देखा कि स्वयं राजकुमारी ही उन क्षत्राणियों की नेत्री हैं और उनके हाथ में भी तलवार है, तो वह आगे बढ़े। राजकुमारी ने प्रणाम करके तलवार महाराणा के हाथों में दे दी, राजपूतों ने भीम-नाद के साथ 'एकलिंग की जय' घोषित किया।

वीर हम्मीर अग्रसर नहीं हो रहे हैं। दुर्ग से रक्षक ससैन्य उसी स्थान पर आ गया, किन्तु वहाँ का दृश्य देखकर वह भी अवाक् हो गया। हम्मीर ने कहा-सेनापते! मैं इस तरह दुर्ग-अधिकार पा तुम्हें बन्दी नहीं करना चाहता, तुम ससैन्य स्वतन्त्र हो। यदि इच्छा हो, तो युद्ध करो। चित्तौर-दुर्ग राणा-वंश का है। यदि हमारा होगा, तो एकलिंग-भगवान् की कृपा से उसे हम हस्तगत करेंगे ही।

दुर्ग-रक्षक ने कुछ सोचकर कहा-भगवान की इच्छा है कि आपको आपका पैतृक दुर्ग मिले, उसे कौन रोक सकता है? सम्भव है कि इसमें राजपूतों की भलाई हो। इससे बन्धुओं का रक्तपात हम नहीं कराना चाहते। आपको चित्तौर का सिंहासन सुखद हो, देश की श्री-वृद्धि हो, हिन्दुओं का सूर्य मेवाड़-गगन में एक बार फिर उदित हो। भील, राजपूत, शत्रुओं ने मिलकर महाराणा का जयनाद किया, दुन्दुभि बज उठी। मंगल-गान के साथ सपत्नीक हम्मीर पैतृक सिंहासन पर आसीन हुए। अभिवादन ग्रहण कर लेने पर महाराणा ने महिषी से कहा-क्या अब भी तुम कहोगी कि तुम हमारे योग्य नहीं हो?


 

 







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Hindi Kahani

हिंदी कहानी

Sikandar Ki Shapath Jaishankar Prasad

सिकंदर की शपथ जयशंकर प्रसाद




1

सूर्य की चमकीली किरणों के साथ, यूनानियों के बरछे की चमक से 'मिंगलौर'-दुर्ग घिरा हुआ है। यूनानियों के दुर्ग तोड़नेवाले यन्त्र दुर्ग की दीवालों से लगा दिये गये हैं, और वे अपना कार्य बड़ी शीघ्रता के साथ कर रहे हैं। दुर्ग की दीवाल का एक हिस्सा टूटा और यूनानियों की सेना उसी भग्न मार्ग से जयनाद करती हुई घुसने लगी। पर वह उसी समय पहाड़ से टकराये हुए समुद्र की तरह फिरा दी गयी, और भारतीय युवक वीरों की सेना उनका पीछा करती हुई दिखाई पड़ने लगी। सिकंदर उनके प्रचण्ड अस्त्राघात को रोकता पीछे हटने लगा।

अफगानिस्तान में 'अश्वक' वीरों के साथ भारतीय वीर कहाँ से आ गये? यह शंका हो सकती है, किन्तु पाठकगण! वे निमन्त्रित होकर उनकी रक्षा के लिये सुदूर से आये हैं, जो कि संख्या में केवल सात हजार होने पर भी ग्रीकों की असंख्य सेना को बराबर पराजित कर रहे हैं।

सिकंदर को उस सामान्य दुर्ग के अवरोध में तीन दिन व्यतीत हो गये। विजय की सम्भावना नहीं है, सिकंदर उदास होकर कैम्प में लौट गया, और सोचने लगा। सोचने की बात ही है। ग़ाजा और परसिपोलिस आदि के विजेता को अफगानिस्तान के एक छोटे-से दुर्ग के जीतने में इतना परिश्रम उठाकर भी सफलता मिलती नहीं दिखाई देती, उलटे कई बार उसे अपमानित होना पड़ा।

बैठे-बैठे सिकंदर को बहुत देर हो गयी। अन्धकार फैलकर संसार को छिपाने लगा, जैसे कोई कपटाचारी अपनी मन्त्रणा को छिपाता हो। केवल कभी-कभी दो-एक उल्लू उस भीषण रणभूमि में अपने भयावह शब्द को सुना देते हैं। सिकंदर ने सीटी देकर कुछ इंगित किया, एक वीर पुरुष सामने दिखाई पड़ा। सिकंदर ने उससे कुछ गुप्त बातें कीं, और वह चला गया। अन्धकार घनीभूत हो जाने पर सिंकदर भी उसी ओर उठकर चला, जिधर वह पहला सैनिक जा चुका था।


2

दुर्ग के उस भाग में, जो टूट चुका था, बहुत शीघ्रता से काम लगा हुआ था, जो बहुत शीघ्र कल की लड़ाई के लिये प्रस्तुत कर दिया गया और सब लोग विश्राम करने के लिये चले गये। केवल एक मनुष्य उसी स्थान पर प्रकाश डालकर कुछ देख रहा है। वह मनुष्य कभी तो खड़ा रहता है और कभी अपनी प्रकाश फैलानेवाली मशाल को लिये हुए दूसरी ओर चला जाता है। उस समय उस घोर अन्धकार में उस भयावह दुर्ग की प्रकाण्ड छाया और भी स्पष्ट हो जाती है। उसी छाया में छिपा हुआ सिकंदर खड़ा है। उसके हाथ में धनुष और बाण है, उसके सब अस्त्र उसके पास हैं। उसका मुख यदि कोई इस समय प्रकाश में देखता, तो अवश्य कहता कि यह कोई बड़ी भयानक बात सोच रहा है, क्योंकि उसका सुन्दर मुखमण्डल इस समय विचित्र भावों से भरा है। अकस्मात् उसके मुख से एक प्रसन्नता का चीत्कार निकल पड़ा, जिसे उसने बहुत व्यग्र होकर छिपाया।

समीप की झाड़ी से एक दूसरा मनुष्य निकल पड़ा, जिसने आकर सिकंदर से कहा-देर न कीजिये, क्योंकि यह वही है।

सिकंदर ने धनुष को ठीक करके एक विषमय बाण उस पर छोड़ा और उसे उसी दुर्ग पर टहलते हुए मनुष्य की ओर लक्ष्य करके छोड़ा। लक्ष्य ठीक था, वह मनुष्य लुढक़कर नीचे आ रहा। सिकंदर और उसके साथी ने झट जाकर उसे उठा लिया, किन्तु उसके चीत्कार से दुर्ग पर का एक प्रहरी झुककर देखने लगा। उसने प्रकाश डालकर पूछा-कौन है?

उत्तर मिला-मैं दुर्ग से नीचे गिर पड़ा हूँ।

प्रहरी ने कहा-घबड़ाइये मत, मैं डोरी लटकाता हूँ।

डोरी बहुत जल्द लटका दी गयी, अफगान वेशधारी सिकंदर उसके सहारे ऊपर चढ़ गया। ऊपर जाकर सिकंदर ने उस प्रहरी को भी नीचे गिरा दिया, जिसे उसके साथी ने मार डाला और उसका वेश आप लेकर उस सीढ़ी से ऊपर चढ़ गया। जाने के पहले उसने अपनी छोटी-सी सेना को भी उसी जगह बुला लिया और धीरे-धीरे उसी रस्सी की सीढ़ी से वे सब ऊपर पहुँचा दिये गये।


3

दुर्ग के प्रकोष्ठ में सरदार की सुन्दर पत्नी बैठी हुई है। मदिरा-विलोल दृष्टि से कभी दर्पण में अपना सुन्दर मुख और कभी अपने नवीन नील वसन को देख रही है। उसका मुख लालसा की मदिरा से चमक-चमक कर उसकी ही आँखों में चकाचौंध पैदा कर रहा है। अकस्मात् 'प्यारे सरदार', कहकर वह चौंक पड़ी, पर उसकी प्रसन्नता उसी क्षण बदल गयी, जब उसने सरदार के वेश में दूसरे को देखा। सिकंदर का मानुषिक सौन्दर्य कुछ कम नहीं था, अबला-हृदय को और भी दुर्बल बना देने के लिये वह पर्याप्त था। वे एक-दूसरे को निर्निमेष दृष्टि से देखने लगे। पर अफगान-रमणी की शिथिलता देर तक न रही, उसने हृदय के सारे बल को एकत्र करके पूछा-तुम कौन हो?

उत्तर मिला-शाहंशाह सिकंदर।

रमणी ने पूछा-यह वस्त्र किस तरह मिला?

सिकंदर ने कहा-सरदार को मार डालने से।

रमणी के मुख से चीत्कार के साथ ही निकल पड़ा-क्या सरदार मारा गया?

सिकंदर-हाँ, अब वह इस लोक में नहीं है।

रमणी ने अपना मुख दोनों हाथों से ढक लिया, पर उसी क्षण उसके हाथ में एक चमकता हुआ छुरा दिखाई देने लगा।

सिकंदर घुटने के बल बैठ गया और बोला-सुन्दरी! एक जीव के लिये तुम्हारी दो तलवारें बहुत थीं, फिर तीसरी की क्या आवश्यकता है?

रमणी की दृढ़ता हट गयी, और न जाने क्यों उसके हाथ का छुरा छटककर गिर पड़ा, वह भी घुटनों के बल बैठ गयी।

सिकंदर ने उसका हाथ पकड़कर उठाया। अब उसने देखा कि सिकंदर अकेला नहीं है, उसके बहुत से सैनिक दुर्ग पर दिखाई दे रहे हैं। रमणी ने अपना हृदय दृढ़ किया और संदूक खोलकर एक जवाहिरात का डिब्बा ले आकर सिकंदर के आगे रक्खा। सिकंदर ने उसे देखकर कहा-मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है, दुर्ग पर मेरा अधिकार हो गया, इतना ही बहुत है।

दुर्ग के सिपाही यह देखकर कि शत्रु भीतर आ गया है, अस्त्र लेकर मारपीट करने पर तैयार हो गये। पर सरदार-पत्नी ने उन्हें मना किया, क्योंकि उसे बतला दिया गया था कि सिकंदर की विजयवाहिनी दुर्ग के द्वार पर खड़ी है।

सिकंदर ने कहा-तुम घबड़ाओ मत, जिस तरह से तुम्हारी इच्छा होगी, उसी प्रकार सन्धि के नियम बनाये जायँगे। अच्छा, मैं जाता हूँ।

अब सिकंदर को थोड़ी दूर तक सरदार-पत्नी पहुँचा गयी। सिकंदर थोड़ी सेना छोड़कर आप अपने शिविर में चला गया।


4

सन्धि हो गयी। सरदार-पत्नी ने स्वीकार कर लिया कि दुर्ग सिकंदर के अधीन होगा। सिकंदर ने भी उसी को यहाँ की रानी बनाया और कहा-भारतीय योद्धा जो तुम्हारे यहाँ आये हैं, वे अपने देश को लौटकर चले जायँ। मैं उनके जाने में किसी प्रकार की बाधा न डालूँगा। सब बातें शपथपूर्वक स्वीकार कर ली गयीं।

राजपूत वीर अपने परिवार के साथ उस दुर्ग से निकल पड़े, स्वदेश की ओर चलने के लिए तैयार हुए। दुर्ग के समीप ही एक पहाड़ी पर उन्होंने अपना डेरा जमाया और भोजन करने का प्रबन्ध करने लगे।

भारतीय रमणियाँ जब अपने प्यारे पुत्रों और पतियों के लिये भोजन प्रस्तुत कर रहीं थीं, तो उनमें उस अफगान-रमणी के बारे में बहुत बातें हो रही थीं, और वे सब उसे बड़ी घृणा की दृष्टि से देखने लगीं, क्योंकि उसने एक पति-हत्याकारी को आत्म-समर्पण कर दिया था। भोजन के उपरान्त जब सब सैनिक विराम करने लगे तब युद्ध की बातें कहकर अपने चित्त को प्रसन्न करने लगे। थोड़ी देर नहीं बीती थी कि एक ग्रीक अश्वारोही उनके समीप आता दिखाई पड़ा, जिसे देखकर एक राजपूत युवक उठ खड़ा हुआ और उसकी प्रतीक्षा करने लगा।

ग्रीक सैनिक उसके समीप आकर बोला-शाहंशाह सिकंदर ने तुम लोगों को दया करके अपनी सेना में भरती करने का विचार किया है। आशा है कि इस सम्वाद से तुम लोग बहुत प्रसन्न होगे।

युवक बोल उठा-इस दया के लिये हम लोग कृतज्ञ हैं, पर अपने भाइयों पर अत्याचार करने में ग्रीकों का साथ देने के लिए हम लोग कभी प्रस्तुत नहीं हैं।

ग्रीक-तुम्हें प्रस्तुत होना चाहिये, क्योंकि शाहंशाह सिकंदर की आज्ञा है।

युवक-नहीं महाशय, क्षमा कीजिये। हम लोग आशा करते हैं कि सन्धि के अनुसार हम लोग अपने देश को शान्तिपूर्वक लौट जायेंगे, इसमें बाधा न डाली जायगी।

ग्रीक-क्या तुम लोग इस बात पर दृढ़ हो? एक बार और विचार कर उत्तर दो, क्योंकि उसी उत्तर पर तुम लोगों का जीवन-मरण निर्भर होगा।

इस पर कुछ राजपूतों ने समवेत स्वर से कहा-हाँ-हाँ, हम अपनी बात पर दृढ़ हैं, किन्तु सिकंदर, जिसने देवताओं के नाम से शपथ ली है, अपनी शपथ को न भूलेगा।

ग्रीक-सिकंदर ऐसा मूर्ख नहीं है कि आये हुए शत्रुओं को और दृढ़ होने का अवकाश दे। अस्तु, अब तुम लोग मरने के लिए तैयार हो।

इतना कहकर वह ग्रीक अपने घोड़े को घुमाकर सीटी बजाने लगा, जिसे सुनकर अगणित ग्रीक-सेना उन थोड़े से हिन्दुओं पर टूट पड़ी।

इतिहास इस बात का साक्षी है कि उन्होंने प्राण-प्रण से युद्ध किया और जब तक कि उनमें एक भी बचा, बराबर लड़ता गया। क्यों न हो, जब उनकी प्यारी स्त्रियाँ उन्हें अस्त्रहीन देखकर तलवार देती थीं और हँसती हुई अपने प्यारे पतियों की युद्ध क्रिया देखती थीं। रणचण्डियाँ भी अकर्मण्य न रहीं, जीवन देकर अपना धर्म रखा। ग्रीकों की तलवारों ने उनके बच्चों को भी रोने न दिया, क्योंकि पिशाच सैनिकों के हाथ सभी मारे गये।

अज्ञात स्थान में निराश्रय होकर उन सब वीरों ने प्राण दिये। भारतीय लोग उनका नाम भी नहीं जानते!


 

 




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Hindi Kahani

हिंदी कहानी

Sharanagat Jaishankar Prasad

शरणागत जयशंकर प्रसाद





1

प्रभात-कालीन सूर्य की किरणें अभी पूर्व के आकाश में नहीं दिखाई पड़ती हैं। ताराओं का क्षीण प्रकाश अभी अम्बर में विद्यमान है। यमुना के तट पर दो-तीन रमणियाँ खड़ी हैं, और दो-यमुना की उन्हीं क्षीण लहरियों में, जो कि चन्द्र के प्रकाश से रंजित हो रही हैं-स्नान कर रही हैं। अकस्मात् पवन बड़े वेग से चलने लगा। इसी समय एक सुन्दरी, जो कि बहुत ही सुकुमारी थी, उन्हीं तरंगों से निमग्न हो गयी। दूसरी, जो कि घबड़ाकर निकलना चाहती थी, किसी काठ का सहारा पाकर तट की ओर खड़ी हुई अपनी सखियों में जा मिली। पर वहाँ सुकुमारी नहीं थी। सब रोती हुई यमुना के तट पर घूमकर उसे खोजने लगीं।

अन्धकार हट गया। अब सूर्य भी दिखाई देने लगे। कुछ ही देर में उन्हें, घबड़ाई हुई स्त्रियों को आश्वासन देती हुई, एक छोटी-सी नाव दिखाई दी। उन सखियों ने देखा कि वह सुकुमारी उसी नाव पर एक अंग्रेज और एक लेडी के साथ बैठी हुई है।

तट पर आने पर मालूम हुआ कि सिपाही-विद्रोह की गड़बड़ से भागे हुए एक सम्भ्रान्त योरोपियन-दम्पति उस नौका के आरोही हैं। उन्होंने सुकुमारी को डूबते हुए बचाया है और इसे पहुँचाने के लिये वे लोग यहाँ तक आये हैं।

सुकुमारी को देखते ही सब सखियों ने दौड़कर उसे घेर लिया और उससे लिपट-लिपटकर रोने लगीं। अंग्रेज और लेडी दोनों ने जाना चाहा, पर वे स्त्रियाँ कब मानने वाली थीं? लेडी साहिबा को रुकना पड़ा। थोड़ी देर में यह खबर फैल जाने से उस गाँव के जमींदार ठाकुर किशोर सिंह भी उस स्थान पर आ गये। अब, उनके अनुरोध करने से, विल्फर्ड और एलिस को उनका आतिथ्य स्वीकार करने के लिये विवश होना पड़ा क्योंकि सुकुमारी, किशोर सिंह की ही स्त्री थी, जिसे उन लोगों ने बचाया था।


2

चन्दनपुर के जमींदार के घर में, जो यमुना-तट पर बना हुआ है, पाईंबाग के भीतर, एक रविश में चार कुर्सियाँ पड़ी हैं। एक पर किशोर सिंह और दो कुर्सियों पर विल्फर्ड और एलिस बैठे हैं, तथा चौथी कुर्सी के सहारे सुकुमारी खड़ी है। किशोर सिंह मुस्करा रहे हैं, और एलिस आश्चर्य की दृष्टि से सुकुमारी को देख रही है।

विल्फर्ड उदास हैं और सुकुमारी मुख नीचा किये हुए है। सुकुमारी ने कनखियों से किशोर सिंह की ओर देखकर सिर झुका लिया।

एलिस-(किशोर सिंह से) बाबू साहब, आप इन्हें बैठने की इजाजत दें।

किशोर सिंह-मैं क्या मना करता हूँ?

एलिस-(सुकुमारी को देखकर) फिर वह क्यों नहीं बैठतीं?

किशोर सिंह-आप कहिये, शायद बैठ जायँ।

विल्फर्ड-हाँ, आप क्यों खड़ी हैं?

बेचारी सुकुमारी लज्जा से गड़ी जाती थी।

एलिस-(सुकुमारी की ओर देखकर) अगर आप न बैठेंगी, तो मुझे बहुत रंज होगा।

किशोर सिंह-यों न बैठेंगी, हाथ पकड़कर बिठाइये।

एलिस सचमुच उठी, पर सुकुमारी एक बार किशोर सिंह की ओर वक्र दृष्टि से देखकर हँसती हुई पास की बारहदरी में भागकर चली गयी, किन्तु एलिस ने पीछा न छोड़ा। वह भी वहाँ पहुँची, और उसे पकड़ा। सुकुमारी एलिस को देख गिड़-गिड़ाकर बोली-क्षमा कीजिये, हम लोग पति के सामने कुर्सी पर नहीं बैठतीं, और न कुर्सी पर बैठने का अभ्यास ही है।

एलिस चुपचाप खड़ी रह गयी, यह सोचने लगी कि-क्या सचमुच पति के सामने कुर्सी पर न बैठना चाहिये। फिर उसने सोचा-यह बेचारी जानती ही नहीं कि कुर्सी पर बैठने में क्या सुख है?


3

चन्दनपुर के जमींदार के यहाँ आश्रय लिये हुए योरोपियन-दम्पति सब प्रकार सुख से रहने पर भी सिपाहियों का अत्याचार सुनकर शंकित रहते थे। दयालु किशोर सिंह यद्यपि उन्हें बहुत आश्वासन देते, तो भी कोमल प्रकृति की सुन्दरी एलिस सदा भयभीत रहती थी।

दोनों दम्पति कमरे में बैठे हुए यमुना का सुन्दर जल-प्रवाह देख रहे हैं। विचित्रता यह है कि 'सिगार' न मिल सकने के कारण विल्फर्ड साहब सटक के सड़ाके लगा रहे हैं। अभ्यास न होने के कारण सटक से उन्हें बड़ी अड़चन पड़ती थी, तिस पर सिपाहियों के अत्याचार का ध्यान उन्हें और भी उद्विग्न किये हुए था; क्योंकि एलिस का भय से पीला मुख उनसे देखा न जाता था।

इतने में बाहर कोलाहल सुनाई पड़ा। एलिस के मुख से 'ओ माई गाड' (Oh My God !) निकल पड़ा और भय से वह मूर्च्छित हो गयी। विल्फर्ड और किशोर सिंह ने एलिस को पलंग पर लिटाया, और आप 'बाहर क्या है' सो देखने के लिये चले।

विल्फर्ड ने अपनी राइफल हाथ में ली और साथ में जान चाहा, पर किशोर सिंह ने उन्हें समझाकर बैठाला और आप खूँटी पर लटकती तलवार लेकर बाहर निकल गये।

किशोर सिंह बाहर आ गये, देखा तो पाँच कोस पर जो उनका सुन्दरपुर ग्राम है, उसे सिपाहियों ने लूट लिया और प्रजा दुखी होकर अपने जमींदार से अपनी दु:ख-गाथा सुनाने आयी है। किशोर सिंह ने सबको आश्वासन दिया, और उनके खाने-पीने का प्रबन्ध करने के लिए कर्मचारियों को आज्ञा देकर आप विल्फर्ड और एलिस को देखने के लिये भीतर चले आये।

किशोर सिंह स्वाभाविक दयालु थे और उनकी प्रजा उन्हें पिता के समान मानती थी, और उनका उस प्रान्त में भी बड़ा सम्मान था। वह बहुत बड़े इलाकेदार होने के कारण छोटे-से राजा समझे जाते थे। उनका प्रेम सब पर बराबर था। किन्तु विल्फर्ड और सरला एलिस को भी वह बहुत चाहने लगे, क्योंकि प्रियतमा सुकुमारी की उन लोगों ने प्राण-रक्षा की थी।


4

किशोर सिंह भीतर आये। एलिस को देखकर कहा-डरने की कोई बात नहीं है। यह मेरी प्रजा थी, समीप के सुन्दरपुर गाँव में सब रहते हैं। उन्हें सिपाहियों ने लूट लिया है। उनका बंदोबस्त कर दिया गया है। अब उन्हें कोई तकलीफ नहीं।

एलिस ने लम्बी साँस लेकर आँख खोल दी, और कहा-क्या वे सब गये?

सुकुमारी-घबराओ मत, हम लोगों के रहते तुम्हारा कोई अनिष्ट नहीं हो सकता।

विल्फर्ड-क्या सिपाही रियासतों को लूट रहे हैं?

किशोर सिंह-हाँ, पर अब कोई डर नहीं है, वे लूटते हुए इधर से निकल गये।

विल्फर्ड-अब हमको कुछ डर नहीं है।

किशोर सिंह-आपने क्या सोचा?

विल्फर्ड-अब ये सब अपने भाइयों को लूटते हैं, तो शीघ्र ही अपने अत्याचार का फल पावेंगे और इनका किया कुछ न होगा।

किशोर सिंह ने गम्भीर होकर कहा-ठीक है।

एलिस ने कहा-मैं आज आप लोगों के संग भोजन करूँगी।

किशोर सिंह और सुकुमारी एक दूसरे का मुख देखने लगे। फिर किशोर सिंह ने कहा-बहुत अच्छा।


5

साफ दालान में दो कम्बल अलग-अलग दूरी पर बिछा दिये गये हैं। एक पर किशोर सिंह बैठे थे और दूसरे पर विल्फर्ड और एलिस; पर एलिस की दृष्टि बार-बार सुकुमारी को खोज रही थी और वह बार-बार यही सोच रही थी कि किशोर सिंह के साथ सुकुमारी अभी नहीं बैठी।

थोड़ी देर में भोजन आया, पर खानसामा नहीं। स्वयं सुकुमारी एक थाल लिये हैं और तीन-चार औरतों के हाथ में भी खाद्य और पेय वस्तुएँ हैं। किशोर सिंह के इशारा करने पर सुकुमारी ने वह थाल एलिस के सामने रखा, और इसी तरह विल्फर्ड और किशोर सिंह को परस दिया गया। पर किसी ने भोजन करना नहीं आरम्भ किया।

एलिस ने सुकुमारी से कहा-आप क्या यहाँ भी न बैठेंगी? क्या यहाँ भी कुर्सी है?

सुकुमारी-परसेगा कौन?

एलिस-खानसामा।

सुकुमारी-क्यों, क्या मैं नहीं हूँ?

किशोर सिंह-जिद न कीजिये, यह हमारे भोजन कर लेने पर भोजन करती हैं।

एलिस ने आश्चर्य और उदासी-भरी एक दृष्टि सुकुमारी पर डाली। एलिस को भोजन कैसा लगा, सो नहीं कहा जा सकता।


6

भारत में शान्ति स्थापित हो गयी है। अब विल्फर्ड और एलिस अपनी नील की कोठी पर वापस जाने वाले हैं। चन्दनपुर में उन्हें बहुत दिन रहना पड़ा। नील-कोठी वहाँ से दूर है।

दो घोड़े सजे-सजाये खड़े हैं और किशोर सिंह के आठ सशस्त्र सिपाही उनको पहुँचाने के लिए उपस्थित हैं। विल्फर्ड साहब किशोर सिंह से बात-चीत करके छुट्टी पा चुके हैं। केवल एलिस अभी तक भीतर से नहीं आयी। उन्हीं के आने की देर है।

विल्फर्ड और किशोर सिंह पाईं-बाग में टहल रहे थे। इतने में सात-आठ स्त्रियों का झुंड मकान से बाहर निकला। हैं! यह क्या? एलिस ने अपना गाउन नहीं पहना, उसके बदले फिरोजी रंग के रेशमी कपड़े का कामदानी लहँगा और मखमल की कंचुकी, जिसके सितारे रेशमी ओढ़नी के ऊपर से चमक रहे हैं। हैं! यह क्या? स्वाभाविक अरुण अधरों में पान की लाली भी है, आँखों में काजल की रेखा भी है, चोटी भी फूलों से गूँथी जा चुकी है, और मस्तक में सुन्दर सा बाल-अरुण का बिन्दु भी तो है!

देखते ही किशोर सिंह खिलखिलाकर हँस पड़े, और विल्फर्ड तो भौंचक्के-से रह गये।

किशोर सिंह ने एलिस से कहा-आपके लिये भी घोड़ा तैयार है-पर सुकुमारी ने कहा-नहीं, इनके लिये पालकी मँगा दो।


 

 





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हिंदी कविता

Maharana Ka Mahatva Jaishankar Prasad

महाराणा का महत्त्व जयशंकर प्रसाद



"क्यों जी कितनी दूर अभी वह दुर्ग है ?"

शिविका में से मधुर शब्द यह सुन पड़ा।

दासी ने उन सैनिक लोगों से यही

-यथा प्रतिध्वनि दुहराती है शब्द को-

प्रश्न किया जो साथ-साथ थे चल रहे ।


कानन में पतझड़ भी कैसा फैल के

भीषण निज आतंक दिखाता था, कड़े

सूखे पत्तों के ही 'खड़-खड़' शब्द से 

अपना कुत्सित क्रोध प्रकट था कर रहा ।

प्रबल प्रभंजन वेगपूर्ण था चल रहा

हरे-हरे द्रुमदल को खूब लथेड़ता

घूम रहा था, कर सदृश उस भूमि में।

जैसी हरियाली थी वैसी ही वहाँ-

सूखे काँटे पत्ते बिखरे ढेर-से

बड़े मनुष्यों के पैरों से दीन-सम

जो कुचले जाते थे, हय-पद-वज्र से।

धूल उड़ रही थी, जो घुसकर आँख में

पथ न देखने देती सैनिक वृन्द को,

जिन वृक्षों में डाली ही अवशिष्ट थी

अपहृत था सर्वस्व यहाँ तक, पत्र भी-

एक न थे उनमें, कुसुमों की क्या कथा !

नव वसंत का आगम था बतला रहा

उनका ऐसा रूप, जगत-गति है यही ।

पूर्ण प्रकृति की पूर्ण नीति है क्या भली,

अवनति को जो सहन करे गंभीर हो

धूल सदृश भी नीच चढ़े सिर तो नहीं 

जो होता उद्विग्न, उसे ही समय में

उस रज-कण को शीतल करने का अहो

मिलता बल है, छाया भी देता वही ।

निज पराग को मिश्रित कर उनमें कभी

कर देता है उन्हे सुगंधित, मृदुल भी। 


देव दिवाकर भी असह्य थे हो रहे

यह छोटा-सा झुंड सहन कर ताप को,

बढ़ता ही जाता है अपने मार्ग में।

शिविका को घेरे थे वे सैनिक सभी

जो गिनती में शत थे, प्रण में वीर थे ।

मुगल चमूपति के अनुचर थे, साथ में

रक्षा करते थे स्वामी के 'हरम' की।


दासी ने भी वही प्रश्न जब फिर किया-

"क्यों जी कितनी दूर अभी वह दुर्ग है ?" 


सैनिक ने बढ़ करके तब उत्तर दिया-

"अभी यहाँ से दूर निरापद स्थान है,

यह नवाब साहब की आज्ञा है कड़ी-

मत रुकना तुम क्षण भर भी इस मार्ग में 

"क्योंकि महाराणा की विचरण-भूमि है

वहाँ मार्ग में कहीं; मिलेगी क्षति तुम्हें

यदि ठहरोगे; रुकता हूँ इससे नहीं।"


दासी ने फिर कहा-"जरा ठहरो यहीं

क्योंकि प्यास ऐसी बेगम को है लगी,

चक्कर-सा मालूम हो रहा है उन्हें ।" 


सैनिक ने फिर दूर दिखा संकेत से

कहा कि वह जो झुरमुट-सा है दीखता

वृक्षों का, उस जगह मिलेगा जल, उसी 

घाटी तक बस चली-चलो, कुछ दूर है।"

XXX 

विस्तृत तरु-शाखाओं के ही बीच में

छोटी-सी सरिता थी, जल भी स्वच्छ था;

कल कल ध्वनि भी निकल रही संगीत-सी

व्याकुल को आश्वासन-सा देती हुई।

ठहरा, फिर वह दल उसके ही पुलिन में

प्रखर ग्रीष्म का ताप मिटाता था वही

छोटा-सा शुचि स्रोत, हटाता क्रोध को 

जैसे छोटा मधुर शब्द, हो एक ही।


अभी देर भी हुई नहीं उस भूमि में 

उन दर्पोद्धत यवनों के उस वृन्द को,

कानन घोषित हुआ अश्व-पद-शब्द से,

'लू' समान कुछ राजपूत भी आ गये।

लगे झुलसने यवनों को निज तेज से

हुए सभी सन्नद्ध युद्ध आरम्भ था-

पण प्राणों का लगा हुआ-सा दीखता।

युवक एक जो उनका नायक था वहाँ

राजपूत था; उसका बदन बता रहा

जैसी भौ थी चढ़ी ठीक वैसा कड़ा

चढ़ा धनुष था, वे जो आँखें लाल थीं

तलवारों का भावी रंग बता रही।

यवन पथिक का झुण्ड बहुत घबरा गया

इन कानन-केसरियों की हुङ्कार से ।

कहा युवक ने आगे बढ़ कर जोर से

"शस्त्र हमें जो दे देगा वह प्राण को

पावेगा प्रतिफल मे, होगा मुक्त भी।" 


यवन-चमूनायक भी कुछ कायर न था,

कहा--"मरूँगा करते ही कर्तव्य को-

वीर शस्त्र को देकर भीख न माँगते ।"


मचा द्वन्द तब घोर उसी रणभूमि में

दोनों ही के अश्व हुए रथचक्र रो

रण शिक्षा, कैसा, कर लाघव था भरा।

यवन वीर ने माला निज कर में लिया 

और चलाया वेग सहित, पर क्या हुआ

राजपूत तो उसके सिर पर है खड़ा

निज हय पर, कर में भी असि उन्मुक्त है।

यवन-वीर भी घूम पड़ा असि खींच के

गुथी बिजलियाँ दो मानो रण व्योम में

वर्षा होने लगी रक्त के विन्दु की;

युगल द्वितीया चन्द्र उदित अथवा हुए

धूलि-पटल को जलद-जाल-सा काट के।

किन्तु यवन का तीक्ष्ण वार अति प्रबल था

जिसे रोकना 'राजपूत' का काम था,

रुधिर फुहारा-पूर्ण-यवन-कर कट गया 

असि जिसम था, वेग-सहित वह गिर पड़ा

पुच्छल तारा सदृश, केतु-आकार का।

अभी देर भी हुई नहीं शिर रुण्ड से

अलग जा पड़ा यवन-वीर का भूमि में ।

बचे हुए सब यवन वही अनुगत हुए

घेर लिया शिविका को क्षत्रिय सैन्य ने ।

"जय कुमार श्री अमरसिंह!"-के नाद से

कानन घोपित हुआ, पवन भी त्रस्त हो

करने लगा प्रतिध्वनि उस जय शब्द की।

राजपूत वन्दी गण को लेकर चले। 

XXX 

दिन-भर के विश्रांत विहग कुल नीड़ से

निकल-निकल कर लगे डाल पर बैठने ।

पश्चिम निधि में दिनकर होते अरत थे

विपुल शैल माला अर्बुदगिरि की घनी-

शान्त हो रही थी, जीवन के शेष में

कर्मयोगरत मानव को जैसी सदा

मिलती है शुभ शांति । भली कैसी छटा 

प्रकृति-करों से निर्मित कानन देश की

स्निग्ध उपल शुचि स्रोत सलिल से धो गये,

जैसे चंद्रप्रभा में नीलाकाश भी

उज्ज्वल हो जाता है छुटी मलीनता ।

महाप्राण जीवों के कीर्ति सुकेतु से

ऊँचे तरुवर खड़े शैल पर झूमते ।

आर्य जाति के इतिहासों के लेख-सी,

जल-स्रोत-सी बनी चित्र रेखावली

शैल-शिखाओं पर सुंदर है दीखती


(यह रचना अभी अधूरी है)



 

 








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हिंदी कविता

Poetry from Plays Jaishankar Prasad

नाटकों में से काव्य रचनाएँ जयशंकर प्रसाद




अजातशत्रु

1

बच्चे बच्चों से खेलें, हो स्नेह बढ़ा उसके मन में,

कुल-लक्ष्मी हो मुदित, भरा हो मंगल उसके जीवन में!

बन्धुवर्ग हों सम्मानित, हों सेवक सुखी, प्रणत अनुचर,

शान्तिपूर्ण हो स्वामी का मन, तो स्पृहणीय न हो क्यों घर?

2. करुणा

गोधूली के राग-पटल में स्नेहांचल फहराती है।

स्निग्ध उषा के शुभ्र गगन में हास विलास दिखाती है।।

मुग्ध मधुर बालक के मुख पर चन्द्रकान्ति बरसाती है।

निर्निमेष ताराओं से वह ओस बूँद भर लाती है।।

निष्ठुर आदि-सृष्टि पशुओं की विजित हुई इस करुणा से।

मानव का महत्त्व जगती पर फैला अरुणा करुणा से।।

3

चंचल चन्द्र सूर्य है चंचल

चपल सभी ग्रह तारा है।

चंचल अनिल, अनल, जल थल, सब

चंचल जैसे पारा है।


जगत प्रगति से अपने चंचल,

मन की चंचल लीला है।

प्रति क्षण प्रकृति चंचला कैसी

यह परिवर्तनशीला है।


अणु-परमाणु, दुःख-सुख चंचल

क्षणिक सभी सुख साधन हैं।

दृश्य सकल नश्वर-परिणामी,

किसको दुख, किसको धन है


क्षणिक सुखों को स्थायी कहना

दुःख-मूल यह भूल महा।

चंचल मानव! क्यों भूला तू,

इस सीटी में सार कहाँ?

4. प्रलय की छाया

मीड़ मत खिंचे बीन के तार

निर्दय उँगली! अरी ठहर जा

पल-भर अनुकम्पा से भर जा,

यह मूर्च्छित मूर्च्छना आह-सी

निकलेगी निस्सार।


छेड़-छेड़कर मूक तन्त्र को,

विचलित कर मधु मौन मन्त्र को-

बिखरा दे मत, शून्य पवन में

लय हो स्वर-संसार।


मसल उठेगी सकरुण वीणा,

किसी हृदय को होगी पीड़ा,

नृत्य करेगी नग्न विकलता

परदे के उस पार।

5

बहुत छिपाया, उफन पड़ा अब,

सँभालने का समय नहीं है

अखिल विश्व में सतेज फैला

अनल हुआ यह प्रणय नहीं है


कहीं तड़पकर गिरे न बिजली

कहीं न वर्षा हो कालिमा की

तुम्हें न पाकर शशांक मेरे

बना शून्य यह, हृदय नहीं है


तड़प रही है कहीं कोकिला

कहीं पपीहा पुकारता है

यही विरुद क्या तुम्हें सुहाता

कि नील नीरद सदय नहीं है


जली दीपमालिका प्राण की

हृदय-कुटी स्वच्छ हो गई है

पलक-पाँवड़े बिछा चुकी हूँ

न दूसरा ठौर, भय नहीं है


चपल निकलकर कहाँ चले अब

इसे कुचल दो मृदुल चरण से

कि आह निकले दबे हृदय से

भला कहो, यह विजय नहीं है

6

चला है मन्थर गति में पवन रसीला नन्दन कानन का

नन्दन कानन का, रसीला नन्दन कानन का

फूलों पर आनन्द भैरवी गाते मधुकर वृन्द,

बिखर रही है किस यौवन की किरण, खिला अरविन्द,

ध्यान है किसके आनन का

नन्दन कानन का, रसीला नन्दन कानन का ।।


उषा सुनहला मद्य पिलाती, प्रकृति बरसाती फूल,

मतवाले होकर देखो तो विधि-निषेध को भूल,

आज कर लो अपने मन का।

नन्नद कानन का, रसीला नन्दन कानन का ।।

7. प्रार्थना

दाता सुमति दीजिए!

मान-हृदय-भूमि करुणा से सींचकर

बोधक-विवेक-बीज अंकुरित कीजिए

दाता सुमति दीजिए।।

8. प्रार्थना

अधीर हो न चित्त विश्व-मोह-जाल में।

यह वेदना-विलोल-वीचि-मय समुद्र है।।

है दुःख का भँवर चला कराल चाल में।

वह भी क्षणिक, इसे कहीं टिकाव है नहीं।।

सब लौट जाएँगे उसी अनन्त काल में।

अधीर हो न चित्त विश्व-मोह-जाल में।।

9

निर्जन गोधूली प्रान्तर में खोले पर्णकुटी के द्वार,

दीप जलाए बैठे थे तुम किए प्रतीक्षा पर अधिकार।

बटमारों से ठगे हुए की ठुकराए की लाखों से,

किसी पथिक की राह देखते अलस अकम्पित आँखों से-

पलकें झुकी यवनिका-सी थीं अन्तस्तल के अभिनय में।

इधर वेदना श्रम-सीकर आँसू की बूँदें परिचय में।

फिर भी परिचय पूछ रहे हो, विपुल विश्व में किसको दूँ

चिनगारी श्वासों में उठती, रो लूँ, ठहरो दम ले लूँ

निर्जन कर दो क्षण भर कोने में, उस शीतल कोने में,

यह विश्रांल सँभल जाएगा सहज व्यथा के सोने में।

बीती बेला, नील गगन तम, छिन्न विपंच्ची, भूला प्यार,

क्षमा-सदृश छिपना है फिर तो परिचय देंगे आँसू-हार।

10

अमृत हो जाएगा, विष भी पिला दो हाथ से अपने।

पलक ये छक चुके हैं चेतना उनमें लगी कँपने।।

विकल हैं इन्द्रियाँ, हाँ देखते इस रूप के सपने।

जगत विस्मृत हृदय पुलकित लगा वह नाम है जपने।।

11

हमारे जीवन का उल्लास हमारे जीवन का धन रोष।

हमारी करुणा के दो बूँद मिले एकत्र, हुआ संतोष।।

दृष्टि को कुछ भी रुकने दो, न यों चमक दो अपनी कान्ति।

देखने दो क्षण भर भी तो, मिले सौन्दर्य देखकर शान्ति।।

नहीं तो निष्ठुरता का अन्त, चला दो चपल नयन के बाण।

हृदय छिद जाए विकल बेहाल, वेदना से हो उसका त्राण।।

12

अलका की किस विकल विरहिणी की पलकों का ले अवलम्ब

सुखी सो रहे थे इतने दिन, कैसे हे नीरद निकुरम्ब!

बरस पड़े क्यों आज अचानक सरसिज कानन का संकोच,

अरे जलद में भी यह ज्वाला! झुके हुए क्यों किसका सोच?

किस निष्ठुर ठण्डे हृत्तल में जमे रहे तुम बर्फ समान?

पिघल रहे हो किस गर्मी से! हे करुणा के जीवन-प्राण

चपला की व्याकुलता लेकर चातक का ले करुण विलाप,

तारा आँसू पोंछ गगन के, रोते हो किस दुख से आप?

किस मानस-निधि में न बुझा था बड़वानल जिससे बन भाप,

प्रणय-प्रभाकर कर से चढ़ कर इस अनन्त का करते माप,

क्यों जुगनू का दीप जला, है पथ में पुष्प और आलोक?

किस समाधि पर बरसे आँसू, किसका है यह शीतल शोक।

थके प्रवासी बनजारों-से लौटे हो मन्थर गति से;

किस अतीत की प्रणय-पिपासा, जगती चपला-सी स्मृति से?

13

स्वर्ग है नहीं दूसरा और।

सज्जन हृदय परम करुणामय यही एक है ठौर।।

सुधा-सलिल से मानस, जिसका पूरित प्रेम-विभोर।

नित्य कुसुममय कल्पद्रुम की छाया है इस ओर।।

14

स्वजन दीखता न विश्व में अब, न बात मन में समाय कोई।

पड़ी अकेली विकल रो रही, न दुःख में है सहाय कोई।।


पलट गए दिन स्नेह वाले, नहीं नशा, अब रही न गर्मी ।

न नींद सुख की, न रंगरलियाँ, न सेज उजला बिछाए सोई ।।


बनी न कुछ इस चपल चित्त की, बिखर गया झूठ गर्व जो।

था असीम चिन्ता चिता बनी है, विटप कँटीले लगाए रोई ।।


क्षणिक वेदना अनन्त सुख बस, समझ लिया शून्य में बसेरा ।

पवन पकड़कर पता बताने न लौट आया न जाए कोई।।

15

चल बसन्त बाला अंचल से किस घातक सौरभ से मस्त,

आती मलयानिल की लहरें जब दिनकर होता है अस्त।


मधुकर से कर सन्धि, विचर कर उषा नदी के तट उस पार;

चूसा रस पत्तों-पत्तों से फूलों का दे लोभ अपार।


लगे रहे जो अभी डाल से बने आवरण फूलों के,

अवयव थे शृंगार रहे तो वनबाला के झूलों के।


आशा देकर गले लगाया रुके न वे फिर रोके से,

उन्हें हिलाया बहकाया भी किधर उठाया झोंके से।


कुम्हलाए, सूखे, ऐंठे फिर गिरे अलग हो वृन्तों से,

वे निरीह मर्माहत होकर कुसुमाकर के कुन्तों से।


नवपल्लव का सृजन! तुच्छ है किया बात से वध जब क्रूर,

कौन फूल-सा हँसता देखे! वे अतीत से भी जब दूर।


लिखा हुआ उनकी नस-नस में इस निर्दयता का इतिहास,

तू अब 'आह' बनी घूमेगी उनके अवशेषों के पास।

 

 










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Hindi Kavita

हिंदी कविता

Misc Poetry Jaishankar Prasad

विविध रचनाएँ जयशंकर प्रसाद




1. हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती

स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती

अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो,

प्रशस्त पुण्य पंथ हैं - बढ़े चलो बढ़े चलो।


असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी।

सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी।

अराति सैन्य सिंधु में - सुबाड़वाग्नि से जलो,

प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो बढ़े चलो।

2. अरुण यह मधुमय देश हमारा

अरुण यह मधुमय देश हमारा।

जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।


सरल तामरस गर्भ विभा पर, नाच रही तरुशिखा मनोहर।

छिटका जीवन हरियाली पर, मंगल कुंकुम सारा।।


लघु सुरधनु से पंख पसारे, शीतल मलय समीर सहारे।

उड़ते खग जिस ओर मुँह किए, समझ नीड़ निज प्यारा।।


बरसाती आँखों के बादल, बनते जहाँ भरे करुणा जल।

लहरें टकरातीं अनन्त की, पाकर जहाँ किनारा।।


हेम कुम्भ ले उषा सवेरे, भरती ढुलकाती सुख मेरे।

मंदिर ऊँघते रहते जब, जगकर रजनी भर तारा।।

3. आत्‍मकथ्‍य

मधुप गुन-गुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी यह,

मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।

इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्‍य जीवन-इतिहास

यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्‍यंग्‍य मलिन उपहास

तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।

तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रीती।

किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले-

अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरने वाले।

यह विडंबना! अरी सरलते हँसी तेरी उड़ाऊँ मैं।

भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।

उज्‍ज्‍वल गाथा कैसे गाऊँ, मधुर चाँदनी रातों की।

अरे खिल-खिलाकर हँसतने वाली उन बातों की।

मिला कहाँ वह सुख जिसका मैं स्‍वप्‍न देकर जाग गया।

आलिंगन में आते-आते मुसक्‍या कर जो भाग गया।

जिसके अरूण-कपोलों की मतवाली सुन्‍दर छाया में।

अनुरागिनी उषा लेती थी निज सुहाग मधुमाया में।

उसकी स्‍मृति पाथेय बनी है थके पथिक की पंथा की।

सीवन को उधेड़ कर देखोगे क्‍यों मेरी कंथा की?

छोटे से जीवन की कैसे बड़े कथाएँ आज कहूँ?

क्‍या यह अच्‍छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूँ?

सुनकर क्‍या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्‍मकथा?

अभी समय भी नहीं, थकी सोई है मेरी मौन व्‍यथा।

4. सब जीवन बीता जाता है

सब जीवन बीता जाता है

धूप छाँह के खेल सदॄश

सब जीवन बीता जाता है


समय भागता है प्रतिक्षण में,

नव-अतीत के तुषार-कण में,

हमें लगा कर भविष्य-रण में,

आप कहाँ छिप जाता है

सब जीवन बीता जाता है


बुल्ले, नहर, हवा के झोंके,

मेघ और बिजली के टोंके,

किसका साहस है कुछ रोके,

जीवन का वह नाता है

सब जीवन बीता जाता है


वंशी को बस बज जाने दो,

मीठी मीड़ों को आने दो,

आँख बंद करके गाने दो

जो कुछ हमको आता है

सब जीवन बीता जाता है

5. आह ! वेदना मिली विदाई

आह! वेदना मिली विदाई

मैंने भ्रमवश जीवन संचित,

मधुकरियों की भीख लुटाई


छलछल थे संध्या के श्रमकण

आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण

मेरी यात्रा पर लेती थी

नीरवता अनंत अँगड़ाई


श्रमित स्वप्न की मधुमाया में

गहन-विपिन की तरु छाया में

पथिक उनींदी श्रुति में किसने

यह विहाग की तान उठाई


लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी

रही बचाए फिरती कब की

मेरी आशा आह! बावली

तूने खो दी सकल कमाई


चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर

प्रलय चल रहा अपने पथ पर

मैंने निज दुर्बल पद-बल पर

उससे हारी-होड़ लगाई


लौटा लो यह अपनी थाती

मेरी करुणा हा-हा खाती

विश्व! न सँभलेगी यह मुझसे

इसने मन की लाज गँवाई

6. दो बूँदें

शरद का सुंदर नीलाकाश

निशा निखरी, था निर्मल हास

बह रही छाया पथ में स्वच्छ

सुधा सरिता लेती उच्छ्वास

पुलक कर लगी देखने धरा

प्रकृति भी सकी न आँखें मूंद

सु शीतलकारी शशि आया

सुधा की मनो बड़ी सी बूँद !

7. तुम कनक किरन

तुम कनक किरन के अंतराल में

लुक छिप कर चलते हो क्यों ?


नत मस्तक गवर् वहन करते

यौवन के घन रस कन झरते

हे लाज भरे सौंदर्य बता दो

मोन बने रहते हो क्यों ?


अधरों के मधुर कगारों में

कल कल ध्वनि की गुंजारों में

मधु सरिता सी यह हंसी तरल

अपनी पीते रहते हो क्यों ?


बेला विभ्रम की बीत चली

रजनीगंधा की कली खिली

अब सांध्य मलय आकुलित दुकूल

कलित हो यों छिपते हो क्यों ?

8. भारत महिमा

हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार

उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार


जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक

व्योम-तम पुँज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक


विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत

सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत


बचाकर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत

अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ पर हम बढ़े अभीत


सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता विकास

पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास


सिंधु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह

दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह


धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद

हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद


विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम

भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम


यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि

मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि


किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं

हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं


जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर

खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर


चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न

हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न


हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव

वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव


वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान

वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान


जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष

निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष

9. आदि छन्द

हारे सुरसे, रमेस घनेस, गनेसहू शेष न पावत पारे

पारे हैं कोटिक पातकी पंजु ‘कलाधार’ ताहि छिनो लिखि तारे

तारेन की गिनती सम नाहि सुजेते तरे प्रभु पापी विचारे

चारे चले न विरंचिह्न के जो दयालु ह्नै शंकर नेकु निहारे

10. पहली प्रकाशित रचना

सावन आए वियोगिन को तन

आली अनंग लगे अति तावन।

तापन हीय लगी अबला

तड़पै जब बिज्जु छटा छवि छावन।।


छावन कैसे कहूँ मैं विदेस

लगे जुगनू हिय आग लगावन

गावन लागे मयूर ‘कलाधर’

झाँपि कै मेघ लगे बरसावन।।

11. आशा तटिनी का कूल नहीं मिलता है

आशा तटिनी का कूल नहीं मिलता है।

स्वच्छन्द पवन बिन कुसुम नहीं खिलता।

कमला कर में अति चतुर भूल जाता है।

फूले फूलों पर फिरता टकराता है

मन को अथाह गंभीर समुद्र बनाओ।

चंचल तरंग को चित्त से वेग हटाओ

शैवाल तरंगों में ऊपर बहता है

मुक्ता समूह थिर जल भीतर रहता है।

 

 










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Hindi Kavita

हिंदी कविता

Kanan-Kusum Jaishankar Prasad

कानन-कुसुम जयशंकर प्रसाद



1. प्रभो

विमल इन्दु की विशाल किरणें

प्रकाश तेरा बता रही हैं

अनादि तेरी अन्नत माया

जगत् को लीला दिखा रही हैं


प्रसार तेरी दया का कितना

ये देखना हो तो देखे सागर

तेरी प्रशंसा का राग प्यारे

तरंगमालाएँ गा रही हैं


तुम्हारा स्मित हो जिसे निरखना

वो देख सकता है चंद्रिका को

तुम्हारे हँसने की धुन में नदियाँ

निनाद करती ही जा रही हैं

विशाल मन्दिर की यामिनी में

जिसे देखना हो दीपमाला

तो तारका-गण की ज्योती उसका

पता अनूठा बता रही हैं


प्रभो ! प्रेममय प्रकाश तुम हो

प्रकृति-पद्मिनी के अंशुमाली

असीम उपवन के तुम हो माली

धरा बराबर जता रही है

जो तेरी होवे दया दयानिधि

तो पूर्ण होता ही है मनोरथ

सभी ये कहते पुकार करके

यही तो आशा दिला रही है

2. वन्दना

जयति प्रेम-निधि ! जिसकी करुणा नौका पार लगाती है

जयति महासंगीत ! विश्‍व-वीणा जिसकी ध्वनि गाती है

कादम्‍िबनी कृपा की जिसकी सुधा-नीर बरसाती है

भव-कानन की धरा हरित हो जिससे शोभा पाती है


निर्विकार लीलामय ! तेरी शक्ति न जानी जाती है

ओतप्रोत हो तो भी सबकी वाणी गुण-गुना गाती है

गदगद्-हृदय-निःसृता यह भी वाणी दौड़ी जाती है

प्रभु ! तेरे चरणों में पुलकित होकर प्रणति जनाती है

3. नमस्कार

जिस मंदिर का द्वार सदा उन्मुक्त रहा है

जिस मंदिर में रंक-नरेश समान रहा है

जिसके हैं आराम प्रकृति-कानन ही सारे

जिस मंदिर के दीप इन्दु, दिनकर औ’ तारे

उस मंदिर के नाथ को, निरूपम निरमय स्वस्थ को

नमस्कार मेरा सदा पूरे विश्‍व-गृहस्थ को

4. मन्दिर

जब मानते हैं व्यापी जलभूमि में अनिल में

तारा-शशांक में भी आकाश मे अनल में

फिर क्यो ये हठ है प्यारे ! मन्दिर में वह नहीं है

वह शब्द जो ‘नही’ है, उसके लिए नहीं है


जिस भूमि पर हज़ारों हैं सीस को नवाते

परिपूर्ण भक्ति से वे उसको वहीं बताते

कहकर सइस्त्र मुख से जब है वही बताता

फिर मूढ़ चित्त को है यह क्‍यों नही सुहाता


अपनी ही आत्मा को सब कुछ जो जानते हो

परमात्मा में उसमें नहिं भेद मानते हो

जिस पंचतत्व से है यह दिव्य देह-मन्दिर

उनमें से ही बना है यह भी तो देव-मन्दिर


उसका विकास सुन्दर फूलों में देख करके

बनते हो क्यों मधुव्रत आनन्द-मोद भरके

इसके चरण-कमल से फिर मन क्यों हटाते हो

भव-ताप-दग्ध हिय को चन्दन नहीं चढ़ाते


प्रतिमा ही देख करके क्यों भाल में है रेखा

निर्मित किया किसी ने इसको, यही है रेखा

हर-एक पत्थरो में वह मूर्ति ही छिपी है

शिल्पी ने स्वच्छ करके दिखला दिया, वही है


इस भाव को हमारे उसको तो देख लीजे

धरता है वेश वोही जैसा कि उसको दिजे

यों ही अनेक-रूपी बनकर कभी पुजाया

लीला उसी की जग में सबमें वही समाया


मस्जिद, पगोडा, गिरजा, किसको बनाया तूने

सब भक्त-भावना के छोटे-बड़े नमूने

सुन्दर वितान कैसा आकाश भी तना है

उसका अनन्त-मन्दिर, यह विश्‍व ही बना है

5. करुण क्रन्दन

करुणा-निधे, यह करुण क्रन्दन भी ज़रा सुन लीजिये

कुछ भी दया हो चित्त में तो नाथ रक्षा कीजिये


हम मानते, हम हैं अधम, दुष्कर्म के भी छात्र हैं

हम है तुम्हारे, इसलिये फिर भी दया के पात्र हैं


सुख में न तुमको याद करता, है मनुज की गति यही

पर नाथ, पड़कर दुःख में किसने पुकारा है नहीं


सन्तुष्ट बालक खेलने से तो कभी थकता नहीं

कुछ क्लेश पाते, याद पड़ जाते पिता-माता वही


संसार के इस सिन्धु में उठती तरंगे घोर हैं

तैसी कुहू की है निशा, कुछ सूझता नहीं छोर हैं


झंझट अनेकों प्रबल झंझा-सदृश है अति-वेग में

है बुद्धि चक्कर में भँवर सी घूमती उद्वेग में


गुण जो तुम्हारा पार करने का उसे विस्मृत न हो

वह नाव मछली को खिलाने की प्रभो बंसी न हो


हे गुणाधार, तुम्हीं बने हो कर्णधार विचार लो

है दूसरा अब कौन, जैसे बने नाथ ! सम्हार लो


ये मानसिक विप्लव प्रभो, जो हो रहे दिन-रात हैं

कुविचार-क्रूरों के कठिन कैसे कुठिल आघात हैं


हे नाथ, मेरे सारथी बन जाव मानस-युद्ध में

फिर तो ठहरने से बचेंगे एक भी न विरूद्ध में

6. महाक्रीड़ा

सुन्दरी प्रााची विमल ऊषा से मुख धोने को है

पूर्णिमा की रात्रि का शश्‍ाि अस्त अब होने को है


तारका का निकर अपनी कान्ति सब खोने को है

स्वर्ण-जल से अरूण भी आकाश-पट धोने को है


गा रहे हैं ये विहंगम किसके आने कि कथा

मलय-मारूत भी चला आता है हरने को व्यथा


चन्द्रिका हटने न पाई, आ गई ऊषा भली

कुछ विकसने-सी लगी है कंज की कोमल कली


हैं लताएँ सब खड़ी क्यों कुसुम की माला लिये

क्यों हिमांशु कपूर-सा है तारका-अवली लिये


अरूण की आभा अभी प्राची में दिखलाई पड़ी

कुछ निकलने भी लगी किरणो की सुन्दर-सी लड़ी


देव-दिनकर क्या प्रभा-पूरित उदय होने को हैं

चक्र के जोड़े कहो कया मोदमय होने को हैं


वृत आकृत कुंकुमारूण कंज-कानन-मित्र है

पूर्व में प्रकटित हुआ यह चरित जिसके चित्र हैं


कल्पना कहती है, कन्दुक है महाशिशु-खेल का

जिसका है खिलवाड़ इस संसार में सब मेल का


हाँ, कहो, किस ओर खिंचते ही चले जाओगे तुम

क्या कभी भी खेल तजकर पास भी आओगे तुम


नेत्र को यों मीच करके भागना अच्छा नहीं

देखकर हम खोज लेंगे, तुम रहो चाहे कहीं


पर कहो तो छिपके तुम जाओगे क्यों किस ओर को

है कहाँ वह भूमि जो रक्खे मेरे चितचोर को


बनके दक्षिण-पौन तुम कलियो से भी हो खेलते

अलि बने मकरन्द की मीठी झड़ी हो झेलते


गा रहे श्‍यामा के स्वर में कुछ रसीले राग से

तुम सजावट देखते हो प्रकृति की अनुराग से


देके ऊषा-पट प्रकृति को हो बनाते सहचरी

भाल के कुंकुम-अरूण की दे दिया बिन्दी खरी


नित्य-नूतन रूप हो उसका बनाकर देखते

वह तुम्हें है देखती, तुम युगल मिलकर खेलते

7. करुणा-कुंज

क्लान्त हुआ सब अंग शिथिल क्यों वेष है

मुख पर श्रम-सीकर का भी उन्मेष है

भारी भोझा लाद लिया न सँभार है

छल छालों से पैर छिले न उबार है


चले जा रहे वेग भरे किस ओर को

मृग-मरीचिका तुुम्हें दिखाती छोर को

किन्तु नहीं हे पथिक ! वह जल है नहीं

बालू के मैदान सिवा कुछ है नहीं


ज्वाला का यह ताप तुम्हें झुलसा रहा

मनो मुकुल मकरन्द-भरा कुम्हला रहा

उसके सिंचन-हेतु न यह उद्योग है

व्यर्थ परिश्रम करो न यह उपयोग है


कुसुम-वाहना प्रकृति मनोज्ञ वसन्त है

मलयज मारूत प्रेम-भरा छविवन्त है

खिली कुसुम की कली अलीगण घूमते

मद-माते पिक-पुंज मंज्जरी चूमते


किन्तु तुम्हें विश्राम कहाँ है नाम को

केवल मोहित हुए लोभ से काम को

ग्रीष्मासन है बिछा तुम्हारे हृदय में

कुसुमाकर पर ध्यान नहीं इस समय में


अविरल आँसू-धार नेत्र से बह रहे

वर्षा-ऋतु का रूप नहीं तुम लख रहे

मेघ-वाहना पवन-मार्ग में विचरती

सुन्दर श्रम-लव-विन्दु धरा को वितरती


तुम तो अविरत चले जा रहे हो कहीं

तुम्हें सुघर से दृश्‍य दिखाते हैं नहीं

शरद-शर्वरी शिशिर-प्रभंजन-वेग में

चलना है अविराम तुम्हें उद्वेग में


भ्रम-कुहेलिका से दृग-पथ भी भ्रान्त है

है पग-पग पर ठोकर, फिर नहि शान्त है

व्याकुल होकर, चलते हो क्यो मार्ग में

छाया क्या है नहीं कही इस मार्ग में


त्रस्त पथिक, देखो करुणा विश्‍वेश की

खड़ी दिलाती तुम्हें याद हृदयेश की

शाीतातप की भीति सता सकती नही

दुख तो उसका पता न पा सकता कहीं


भ्रान्त शान्त पथिकों का जीवन-मूल है

इसका ध्यान मिटा देना सब भूल है

कुसुमित मधुमय जहाँ सुखद अलिपुंज है

शान्त-हेतु वह देखो ‘करुणा-कुंज है

8. प्रथम प्रभात

मनोवृत्तियाँ खग-कुल-सी थी सो रही,

अन्तःकरण नवीन मनोहर नीड़ में

नील गगन-सा शान्त हृदय भी हो रहा,

बाह्य आन्तरिक प्रकृति सभी सोती रही


स्पन्दन-हीन नवीन मुकुल-मन तृष्ट था

अपने ही प्रच्छन्न विमल मकरन्द से

अहा! अचानक किस मलयानिल ने तभी,

(फूलों के सौरभ से पूरा लदा हुआ)-


आते ही कर स्पर्श गुदगुदाया हमें,

खूली आँख, आनन्द-दृश्य दिखला दिया

मनोवेग मधुकर-सा फिर तो गूँज के,

मधुर-मधुर स्वर्गीय गान गाने लगा


वर्षा होने लगी कुसुम-मकरन्द की,

प्राण-पपीहा बोल उठा आनन्द में,

कैसी छवि ने बाल अरुण सी प्रकट हो,

शून्य हृदय को नवल राग-रंजित किया


सद्यःस्नात हुआ फिर प्रेम-सुतीर्थ में,

मन पवित्र उत्साहपूर्ण भी हो गया,

विश्व विमल आनन्द भवन-सा बन रहा

मेरे जीवन का वह प्रथम प्रभात था

9. नव वसंत

पूर्णिमा की रात्रि सुखमा स्वच्छ सरसाती रही

इन्दु की किरणें सुधा की धार बरसाती रहीं

युग्म याम व्यतीत है आकाश तारों से भरा

हो रहा प्रतिविम्ब-पूरित रम्य यमुना-जल-भरा


कूल पर का कुसुम-कानन भी महाकमनीय हैं

शुभ्र प्रासादावली की भी छटा रमणीय है

है कहीं कोकिल सघन सहकार को कूंजित किये

और भी शतपत्र को मधुकर कही गुंजित किये


मधुर मलयानिल महक की मौज में मदमत्त है

लता-ललिता से लिपटकर ही महान प्रमत्त है

क्यारियों के कुसुम-कलियो को कभी खिझला दिया

सहज झोंके से कभी दो डाल को हि मिला दिया


घूमता फिरता वहाँ पहुँचा मनोहर कुंज में

थी जहाँ इक सुन्दरी बैठी महा सुख-पुंज में

धृष्ट मारूत भी उड़ा अंचल तुरत चलता हुआ

माधवी के पत्र-कानों को सहज मलता हुआ


ज्यो उधर मुख फेरकर देखा हटाने के लिये

आ गया मधुकर इधर उसके सताने के लिये

कामिनी इन कौतुकों से कब बहलने ही लगी

किन्तु अन्यमनस्क होकर वह टहलने ही लगी


ध्यान में आया मनोहर प्रिय-वदन सुख-मूल वह

भ्रान्त नाविक ने तुरत पाया यथेप्सित कूल वह

नील-नीरज नेत्र का तब तो मनोज्ञ विकास था

अंग-परिमल-मधुर मारूत का महान विलास था


मंजरी-सी खिल गई सहकार की बाला वही

अलक-अवली हो गई सु-मलिन्द की माला वही

शान्त हृदयाकाश स्वच्छ वसंत-राका से भरा

कल्पना का कुसुम-कानन काम्य कलियों से भरा


चुटकियाँ लेने लगीं तब प्रणय की कोरी कली

मंजरी कम्पित हुई सुन कोकिला की काकली

सामने आया युवक इक प्रियतमे ! कहता हुआ

विटप-बाहु सुपाणि-पल्लव मधुर प्रेम जता छुआ


कुमुद विकसित हो गये तब चन्द्रमा वह सज उठा

कोकिला-कल-रव-समान नवीन नूमुर बज उठा

प्रकृति और वसंत का सुखमय समागम हो गया

मंजरी रसमत्त मधुकर-पुंज का कम हो गया


सौरभित सरसिज युगल एकत्र होकर खिल गये

लोल अलकावलि हुई मानो मधुव्रत मिल गये

श्‍वास मलयज पवन-सा आनन्दमय करने लगा

मधुर मिश्रण युग-हृदय का भाव-रस भरने लगा


दृश्‍य सुन्दर हो गये, मन में अपूर्व विकास था

आन्तरिक और ब्राहृ सब में नव वसंत-विलास था

10. मर्म-कथा

प्रियतम ! वे सब भाव तुम्हारे क्या हुए

प्रेम-कंज-किजल्क शुष्क कैसे हए

हम ! तुम ! इतना अन्तर क्यों कैसे हुआ

हा-हा प्राण-अधार शत्रु कैसे हुआ

कहें मर्म-वेदना दुसरे से अहो-

‘‘जाकर उससे दुःख-कथा मेरी कहो’’

नही कहेंगे, कोप सहेंगे धीर हो

दर्द न समझो, क्या इतने बेपीर हो

चुप रहकर कह दुँगा मैं सारी कथा

बीती है, हे प्राण ! नई जितनी व्यथा

मेरा चुप रहना बुलवावेगा तुम्हें

मैं न कहूँगा, वह समझावेगा तुम्हें

जितना चाहो, शान्त बनो, गम्भीर हो

खुल न पड़ो, तब जानेंगे, तुम धीर हो

रूखे ही तुम रहो, बूँद रस के झरें

हम-तुम जब हैं एक, लोग बकतें फिरें

11. हृदय-वेदना

सुनो प्राण-प्रिय, हृदय-वेदना विकल हुई क्या कहती है

तव दुःसह यह विरह रात-दिन जैसे सुख से सहती है

मै तो रहता मस्त रात-दिन पाकर यही मधुर पीड़ा

वह होकर स्वच्छन्द तुम्हारे साथ किया करती क्रीड़ा


हृदय-वेदना मधुर मूर्ति तब सदा नवीन बनाती है

तुम्हें न पाकर भी छाया में अपना दिवस बिताती है

कभी समझकर रूष्ट तुम्हें वह करके विनय मनाती है

तिरछी चितवन भी पा करके तुरत तुष्ट हो जाती है


जब तुम सदय नवल नीरद से मन-पट पर छा जाते हो

पीड़ास्थल पर शीतल बनकर तब आँसू बरसाते हो

मूर्ति तुम्हारी सदय और निर्दय दोनो ही भाती है

किसी भाँति भी पा जाने पर तुमको यह सुख पाती है


कभी-कभी हो ध्यान-वंचिता बड़ी विकल हो जाती है

क्रोधित होकर फिर यह हमको प्रियतम ! बहुत सताती है

इसे तम्हारा एक सहारा, किया करो इससे क्रीड़ा

मैं तो तुमको भूल गया हूँ पाकर प्रेममयी पीड़ा

12. ग्रीष्म का मध्यान्ह

विमल व्योम में देव-दिवाकर अग्नि-चक्र से फिरते हैं

किरण नही, ये पावक के कण जगती-तल पर गिरते हैं


छाया का आश्रय पाने को जीव-मंडली गिरती है

चण्ड दिवाकर देख सती-छाया भी छिपती फिरती है


प्रिय वसंत के विरह ताप से घरा तप्त हो जाती है

तृष्णा हो कर तृषित प्यास-ही-प्यास पुकार मचाती है


स्वेद धूलि-कण धूप-लपट के साथ लिपटकर मिलते हैं

जिनके तार व्योम से बँधकर ज्वाला-ताप उगिलते हैं


पथिक देख आलोक वही फिर कुछ भी देख न सकता है

होकर चकित नहीं आगे तब एक पैर चल सकता है


निर्जन कानन में तरूवर जो खड़े प्रेत-से रहते है

डाल हिलाकर हाथों से वे जीव पकड़ना चाहते हैं


देखो, वृक्ष शाल्मली का यह महा-भयावह कैसा है

आतप-भीत विहड़्गम-कुल का क्रन्दन इस पर कैसा है


लू के झोंके लगने से जब डाल-सहित यह हिलता है

कुम्भकर्ण-सा कोटर-मुख से अगणित जीव उगिलता है


हरे-हरे पत्‍ते वृक्षों के तापित को मुरझाते हैं

देखादेखी सूख-सूखकर पृथ्वी पर गिर जाते हैं


धूल उड़ाता प्रबल प्रभंजन उनको साथ उड़ाता है

अपने खड़-खड़ शब्दों को भी उनके साथ बढ़ाता है

13. जलद-आहृवान

शीघ्र आ जाओ जलद ! स्वागत तुम्हारा हम करें

ग्रीष्म से सन्तप्त मन के ताप को कुछ कम करें

है धरित्री के उरस्थल में जलन तेरे विना

शून्य था आकाश तेरे ही जलद ! घेरे विना

मानदण्ड-समान जो संसार को है मापता

लहू की पंचाग्नि जो दिन-रात ही है तापता

जीव जिनके आश्रमो की-सी गुहा में मोद से

वास करते, खेलते है बालवृन्द विनोद से

पत्रहीना वल्लरी-जैसे जटा बिखरी हुई

उत्‍तरीय-समान जिन पर धूप है निखरी हुई

शैल वे साधक सदा जीवन-सुधा को चाहते

ध्यान में काली घटा के नित्य ही अवगाहते

धूलिधूसर है धरा मलिना तुम्हारे ही लिये

है फटी दूर्वादलों की श्‍याम साड़ी देखिये

जल रही छाती, तुम्हारा प्रेम-वारि मिला नहीं

इसलिये उसका मनोगत-भाव-फूल खिला नहीं

नेत्र-निर्झर सुख-सलिल से भरें, दु,ख सारे भगें

शीघ्र आ जाओ जलद ! आनन्द के अंकुर उगें

14. भक्तियोग

दिननाथ अपने पीत कर से थे सहारा ले रहे

उस श्रृंग पर अपनी प्रभा मलिना दिखाते ही रहे


वह रूप पतनोन्मुख दिवाकर का हुआ पीला अहो

भय और व्याकुलता प्रकट होती नहीं किसकी कहो


जिन-पत्तियों पर रश्‍िमयाँ आश्रम ग्रहण करती रहीं

वे पवन-ताड़ित हो सदा ही दूर को हटती रहीं


सुख के सभी साथी दिखाते है अहो संसार में

हो डूबता उसको बचाने कौन जाता धार में


कुल्या उसी गिरि-प्रान्त में बहती रही कल-नाद से

छोटी लहरियाँ उठ रही थी आन्तरिक आहृलाद से


पर शान्त था वह शैल जैसे योग-मग्न विरक्त हो

सरिता बनी माया उसे कहती कि ‘तुम अनुरक्त हो’


वे वन्य वीरूध कुसुम परिपूरित भले थे खिल रहे

कुछ पवन के वश में हुए आनन्द से थे खिल रहे


देखो, वहाँ वह कौन बैठा है शिला पर, शान्त है

है चन्द्रमा-सा दीखता आसन विमल-विधु-कान्त है


स्थिर दृष्टि है जल-विन्दु-पूरित भाव—मानस का भरा

उन अश्रुकण में एक भी उनमें न इस भव से डरा


वह स्वच्छ शरद-ललाट चिन्तित-सा दिखाई दे रहा

पर एक चिन्ता थी वही जिसको हृदय था दे रहा


था बुद्ध-पद्मासन, हृदय अरविन्द-सा था खिल रहा

वह चिन्त्य मधुकर भी मधुर गुंजार करता मिल रहा


प्रतिक्षण लहर ले बढ़ रहे थे भाव-निधि में वेग से

इस विष्व के आलोक-मणि की खोज में उद्वेग से


प्रति श्‍वास आवाहन किया करता रहा उस इष्ट को

जो स्पर्श कर लेता कमी था पुण्य प्रेम अभीष्ट को


परमाणु भी सब स्तब्ध थे, रोमांच भी था हो रहा

था स्फीत वक्षस्थल किसी के ध्यान में होता रहा


आनन्द था उपलब्ध की सुख-कल्पना मे मिल रहा

कुछ दुःख भी था देर होने से वही अनमिल रहा


दुष्प्राप्य की ही प्राप्ति में हाँ बद्ध जीवनमुक्त था

कहिये उसे हम क्या कहें, अनुरक्त था कि विरक्त था


कुछ काल तक वह जब रहा ऐसे मनोहर ध्यान में

आनन्द देती सुन पड़ी मंजीर की ध्वनि कान में


नव स्वच्छ सन्ध्या तारका में से अभी उतरी हुई

उस भक्त के ही सामने आकर खड़ी पुतरी हुई


वह मुर्त्ति बोल-‘भक्तवर! क्यों यह परिश्रम हो रहा

क्यों विश्‍व का आनन्द-मंदिर आह! तू यों खो रहा


यह छोड़कर सुख है पड़ा किसके कुहक के जाल में

सुख-लेख मैं तो पढ़ रही हूँ स्पष्ट तेरे भाल में


सुन्दर सुहृद सम्पति सुखदा सुन्दरी ले हाथ में

संसार यह सब सौंपना है चाहता तव हाथ में


फिर भागते हो क्यों ? न हटता यो कभी निर्भीक है

संसार तेरा कर रहा है स्वागत, चलो, सब ठीक है


उन्नत हुए भ्रू-युग्म फिर तो बंक ग्रीवा भी हुई

फिर चढ़ गई आपादमस्तक लालिमा दौड़ी हुई


‘है सत्य सुन्दरि ! तव कथन, पर कुछ सुनो मेरा कहा’

आनन्द के विह्वल हुए-से भक्त ने खुलकर कहा


‘जब ये हमारे है, भला किस लिये हम छोड़ दें

दुष्प्राप्य को जो मिल रहा सुख-सुत्र उसको तोड़ दें


जिसके बिना फीके रहें सारे जगत-सुख-भोग ये

उसको तुरत ही त्याग करने को बताते लोग ये


उस ध्यान के दो बूँद आँसू ही हृदय-सर्वस्व हैं

जिस नेत्र में हों वे नहीं समझो की वे ही निःस्व है


उस प्रेममय सर्वेश का सारा जगत् औ’ जाति है

संसार ही है मित्र मेरा, नाम को न अराति है


फिर, कौन अप्रिय है मुझे, सुख-दुःख यह सब कुछ नहीं

केवल उसी की है कृपा आनन्द और न कुछ कहीं


हमको रूलाता है कभी, हाँ, फिर हँसाता है कभी

जो मौज में आता जभी उसके, अहो करता तभी


वह प्रेम का पागल बड़ा आनन्द देता है हमें

हम रूठते उससे कभी, फिर भी मनाता है हमें


हम प्रेम-मतवाले बने, अब कौन मतवाले बनें

मत-धर्म सबको ही बहाया प्रेमनिधि-जल में घने


आनन्द आसन पर सुधा-मन्दाकिनी में स्नात हो

हम और वह बैठे हए हैं प्रेम-पुलकित-गात हो


यह दे ईर्ष्‍या हो रही है, सुन्दरी ! तुमको अभी

दिन बीतने दो दो कहाँ, फिर एक देखोगी कभी


फिर यह हमारा हम उसी के, वह हमीं, हम वह हुए

तब तुम न मुझसे भिन्न हो, सब एक ही फिर हो गये


यह सुन हँसी वही मूर्ति करूणा की हुई कादम्बिनी

फिर तो झड़ी-सी लग गई आनन्द के जल की घनी

15. रजनीगंधा

दिनकर अपनी किरण-स्‍वर्ण से रंजित करके

पहुंचे प्रमुदित हुए प्रतीची पास सँवर के


प्रिय-संगम से सुखी हुई आनन्द मानती

अरूण-राग-रंजित कपोल से सोभा पाती


दिनकर-कर से व्यथित बिताया नीरस वासर

वही हुए अति मुदित विहंगम अवसर पाकर


कोमल कल-रव किया बड़ा आनन्द मनाया

किया नीड़ में वास, जिन्हें निज हाथ बनाया


देखो मन्थर गति से मारूत मचल रहा है

हरी-हरी उद्यान-लता में विचल रहा है


कुसुम सभी खिल रहे भरे मकरन्द-मनोहर

करता है गुंजार पान करके रस मधुकर


देखो वह है कौन कुसुम कोमल डाली में

किये सम्पुटित वदन दिवाकर-किरणाली में


गौर अंग को हरे पल्लवों बीच छिपाती

लज्जावती मनोज्ञ लता का दृष्य दिखाती


मधुकर-गण का पुंज नहीं इस ओर फिरा है

कुसुमित कोमल कुंज-बीच वह अभी घिरा है


मलयानिल मदमत्त हुआ इस ओर न आया

इसके सुन्दर सौरभ का कुछ स्वाद न पाया


तिमिर-भार फैलाती-सी रजनी यह आई

सुन्दर चन्द्र अमन्द हुआ प्रकटित सुखदाई


स्पर्श हुआ उस लता लजीली से विधु-कर का

विकसित हुई प्रकाश किया निज दल मनहर का


देखो-देखो, खिली कली अलि-कुल भी आया

उसे उड़़ाया मारूत ने पराग जो पाया


सौरभ विस्तृत हुआ मनोहर अवंसर पाकर

म्लान वदन विकसाया इस रजनी ने आकर


कुल-बाला सी लजा रही थी जो वासर में

रूप अनूपम सजा रही है वह सुख-सर में


मघुमय कोमल सुरभि-पूर्ण उपवन जिससे है

तारागण की ज्योति पड़ी फीकी इससे है


रजनी में यह खिली रहेगी किस आशा पर

मधुकर का भी ध्यान नहीं है क्या पाया फिर


अपने-सदृष समूह तारका का रजनी-भर

निर्निमेष यह देख रही है कैसे सुख पर


कितना है अनुराग भरा अस छोटे मन में

निशा-सखी का प्रेम भरा है इसके तन में


‘रजनी-गंधा’ नाम हुआ है सार्थक इसका

चित्त प्रफुल्लित हुआ प्राप्त कर सौरभ जिसका

16. सरोज

अरुण अभ्युदय से हो मुदित मन प्रशान्त सरसी में खिल रहा है

प्रथम पत्र का प्रसार करके सरोज अलि-गन से मिल रहा है

गगन मे सन्ध्या की लालिमा से किया संकुचित वदन था जिसने

दिया न मकरन्द प्रेमियो को गले उन्ही के वो मिल रहा है

तुम्हारा विकसित वदन बताता, हँसे मित्र को निरख के कैसे

हृदय निष्कपट का भाव सुन्दर सरोज ! तुझ पर उछल रहा है

निवास जल ही में है तुम्हारा तथापि मिश्रित कभी न होेते

‘मनुष्य निर्लिप्त होवे कैसे-सुपाठ तुमसे ये मिल रहा है

उन्ही तरंगों में भी अटल हो, जो करना विचलित तुम्हें चाहती

‘मनुष्य कर्त्तव्य में यों स्थिर हो’-ये भाव तुममें अटल रहा है

तुम्हें हिलाव भी जो समीरन, तो पावे परिमल प्रमोद-पूरित

तुम्हारा सौजन्य है मनोहर, तरंग कहकर उछल रहा है

तुम्हारे केशर से हो सुगन्धित परागमय हो रहे मधुव्रत

‘प्रसाद’ विश्‍वेश का हो तुम पर यही हृदय से निकल रहा है

17. मलिना

नव-नील पयोधर नभ में काले छाये

भर-भरकर शीतल जल मतवाले धाये


लहराती ललिता लता सुबाल लजीली

लहि संग तरून के सुन्दर बनी सजीली


फूलो से दोनों भरी डालियाँ हिलतीं

दोनों पर बैठी खग की जोड़ी मिलती


बुलबुल कोयल हैं मिलकर शोर मचाते

बरसाती नाले उछल-उछल बल खाते


वह हरी लताओ की सुन्दर अमराई

बन बैठी है सुकुमारी-सी छावि छाई


हर ओर अनूठा दृश्‍य दिखाई देता

सब मोती ही-से बना दिखाई देता


वह सघन कुंज सुख-पुंज भ्रमर की आली

कुछ और दृश्‍य है सुषमा नई निराली


बैठी है वसन मलीन पहिन इक बाला

पुरइन-पत्रों के बीच कमल की माला


उस मलिन वसन में अंग-प्रभा दमकीली

ज्यों घूसर नभ में चन्द्र-कला चमकीली


पर हाय ! चन्द्र को घन ने क्‍यों है घेरा

उज्जवल प्रकाश के पास अजीब अँधेरा


उस रस-सरवर में क्यों चिन्ता की लहरी

चंचल चलती है भाव-भरी है गहरी


कल-कमल कोश पर अहो ! पड़ा क्यों पाला

कैसी हाला ने किया उसे मतवाला


किस धीवर ने यह जाल निराला डाला

सीपी से निकली है मोती की माला


उत्ताल तरंग पयोनिधि में खिलती है

पतली मृणालवाली नलिनी हिलती है


नहीं वेग-सहित नलिनी को पवन हिलाओ

प्यारे मधुकर से उसको नेक मिलाओ


नव चंद अमंद प्रकाश लहे मतवाली

खिलती है उसको करने दो मनवाली

18. जल-विहारिणी

चन्द्रिका दिखला रही है क्या अनूपम सी छटा

खिल रही हैं कुसुम की कलियाँ सुगन्धो की घटा

सब दिगन्तो में जहाँ तक दृष्टि-पथ की दौड़ है

सुधा का सुन्दर सरोवर दीखता बेजोड़ है

रम्य कानन की छटा तट पर अनोखी देख लो

शान्त है, कुछ भय नहीं है, कुछ समय तक मत टलो

अन्धकार घना भरा है लता और निकुंज में

चन्द्रिका उज्जवल बनाता है उन्हें सुख-पुंजमें

शैल क्रीड़ा का बनाया है मनोहर काम ने

सुधा-कण से सिक्त गिरि-श्रेणी खड़ी है सामने

प्रकृति का मनमुग्धकारी गूँजता-सा गान है

शैल भी सिर को उठाकर खड़ा हरिण-समान है


गान में कुछ बीण की सुन्दर मिली झनकार है

कोकिला की कूक है या भृंग का गुंजार है

स्वच्छ-सुन्दर नीर के चंचल तरंगो में भली

एक छोटी-सी तरी मन-मोहिनी आती चली


पंख फैलाकर विहंगम उड़ रहा अकाश में

या महा इक मत्स्य है, जो खेलता जल-वास में

चन्द्रमण्डल की समा उस पर दिखाई दे रही

साथ ही में शुक्र की शोभा अनूठी ही रही


पवन-ताड़ित नीर के तरलित तरंगों में हिले

मंजु सौरभ-पुंज युग ये कंज कैसे हैं खिले

या प्रशान्त विहायसी में शोभते है प्रात के

तारका-युग शुभ्र हैं आलोक-पूरन गात के


या नवीना कामिनी की दीखती जोड़ी भली

एक विकसित कुसुम है तो दूसरी जैसे कली

जव-विहार विचारकर विद्याधरो की बालिका

आ गई हैं क्या ? कि ये इन्दु-कर की मालिका


एक की तो और ही बाँकी अनोखी आन है

मधुर-अधरों में मनोहर मन्द-मृदु मुसक्यान है

इन्दु में उस इन्दु के प्रतिबिम्ब के सम है छटा

साथ में कुछ नील मेघों की घिरी-सी है घटा

नील नीरज इन्दु के आलोक में भी खिल रहे

बिना स्वाती-विन्दु विद्रुम सीप में मोती रहें

रूप-सागर-मध्य रेखा-वलित कम्बु कमाल है

कंज एक खिला हुआ है, युगल किन्तु मृणाल है

चारू-तारा-वलित अम्बर बन रहा अम्बर अहा

चन्द उसमें चमकता है, कुछ नही जाता कहा

कंज-कर की उँगलियाँ हैं सुन्दरी के तार में

सुन्दरी पर एक कर है और ही कुछ तार में

चन्द्रमा भी मुग्ध मुख-मण्डल निरखता ही रहा

कोकिला का कंठ कोमल राग में ही भर रहा

इन्दु सुन्दर व्योम-मध्य प्रसार कर किरणावली

क्षुद्र तरल तरंग को रजताभ करता है छली

प्रकृति अपने नेत्र-तारा से निरखती है छटा

घिर रही है घोर एक आनन्द-घन की-सी घटा

19. ठहरो

वेेगपूर्ण है अश्‍व तुम्हारा पथ में कैसे

कहाँ जा रहे मित्र ! प्रफुल्लित प्रमुदित जैसे

देखो, आतुर दृष्टि किये वह कौन निरखता

दयादृष्टि निज डाल उसे नहि कोई लखता


‘हट जाओ’ की हुंकार से होता है भयभीत वह

यदि दोगे उसको सान्त्वना, होगा मुदित सप्रीत वह


उसे तुम्हारा आश्रय है, उसको मत भूलो

अपना आश्रित जान गर्व से तुम मत फूलो

कुटिला भृकुटी देख भीत कम्पित होता है

डरने पर भी सदा कार्य में रत होता है


यदि देते हो कुछ भी उसे, अपमान न करना चाहिये

उसको सम्बोधन मधुर से तुम्हें बुलाना चाहिये


तनक न जाओ मित्र ! तनिक उसकी भी सुन लो

जो कराहता खाट धरे, उसको कुछ गुन लो

कर्कश स्वर की बोल कान में न सुहाती है

मीठी बोली तुम्हें नहीं कुछ भी आती है


उसके नेत्रों में अश्रु है, वह भी बड़ा समुद्र है

अभिमान-नाव जिस पर चढ़े हो वह तो अति क्षद्र है


वह प्रणाम करता है, तुम नहिं उत्तर देते

क्यों, क्या वह है जीव नहीं जो रूख नहिं देते

कैसा यह अभिमान, अहो कैसी कठिनाई

उसने जो कुछ भूल किया, वह भूलो भाई


उसका यदि वस्त्र मलीन है, पास बिठा सकते नहीं

क्या उज्जवल वस्त्र नवीन इक उसे पिन्हा सकते नहीं


कुंचित है भ्रू-युगल वदन पर भी लाली है

अधर प्रस्फुरित हुआ म्यान असि से खाली है

डरता है वह तुम्हें देख, निज कर को रोको

उस पर कोई वार करे तो उसको टोको


है भीत जो कि संसार से, असि नहिं है उसके लिये

है उसे तुम्हारी सान्त्वना नम्र बनाने के लिये

20. बाल-क्रीड़ा

हँसते हो तो हँसो खूब, पर लोट न जाओ

हँसते-हँसते आँखों से मत अश्रु बहाओ

ऐसी क्या है बात ? नहीं जो सुनते मेरी

मिली तुम्हें क्या कहो कहीं आनन्द की ढेरी


ये गोरे-गोरे गाल है लाल हुए अति मोद से

क्या क्रीड़ा करता है हृदय किसी स्वतंत्र विनोद से


उपवन के फल-फूल तुम्हारा मार्ग देखते

काँटे ऊँवे नहीं तुम्हें हैं एक लेखते

मिलने को उनसे तुम दौड़े ही जाते हो

इसमें कुछ आनन्द अनोखा पा जाते हो


माली बूढ़ा बकबक किया करता है, कुछ बस नहीं

जब तुमने कुछ भी हँस दिया, क्रोध आदि सब कुछ नहीं


राजा हा या रंक एक ही-सा तुमको है

स्नेह-योग्य है वही हँसता जो तुमको है

मान तुम्हारा महामानियो से भारी है

मनोनीत जो बात हुई तो सुखकारी है


वृद्धों की गल्पकथा कभी होती जब प्रारम्भ है

कुछ सुना नहीं तो भी तुरत हँसने का आरम्भ है

21. कोकिल

नया हृदय है, नया समय है, नया कुंज है

नये कमल-दल-बीच गया किंजल्क-पुंज है

नया तुम्हारा राग मनोहर श्रुति सुखकारी

नया कण्ठ कमनीय, वाणि वीणा-अनुकारी


यद्यपि है अज्ञात ध्वनि कोकिल ! तेरी मोदमय

तो भी मन सुनकर हुआ शीतल, शांत, विनोदमय


विकसे नवल रसाल मिले मदमाते मधुकर

आलबाल मकरन्द-विन्दु से भरे मनोहर

मंजु मलय-हिल्लोल हिलाता है डाली को

मीठे फल के लिये बुलाता जो माली को


बैठे किसलय-पुंज में उसके ही अनुराग से

कोकिल क्या तुम गा रहे, अहा रसीले राग से


कुमुद-बन्धु उल्लास-सहित है नभ में आया

बहुत पूर्व से दौड़ा था, अब अवसर पाया

रूका हुआ है गगन-बीच इस अभिलाषा से

ले निकाल कुछ अर्थ तुम्हारी नव भाषा से


गाओ नव उत्साह से, रूको न पल-भर के लिये

कोकिल ! मलयज पवन में भरने को स्वर के लिये

22. सौन्दर्य

नील नीरद देखकर आकाश में

क्यो खड़ा चातक रहा किस आश में

क्यो चकोरों को हुआ उल्लास है

क्या कलानिधि का अपूर्व विकास है


क्या हुआ जो देखकर कमलावली

मत्त होकर गूँजती भ्रमरावली

कंटको में जो खिला यह फूल है

देखते हो क्यों हृदय अनुकूल है


है यही सौन्दर्य में सुषमा बड़ी

लौह-हिय को आँच इसकी ही कड़ी

देखने के साथ ही सुन्दर वदन

दीख पड़ता है सजा सुखमय सदन


देखते ही रूप मन प्रमुदित हुआ

प्राण भी अमोद से सुरभित हुआ

रस हुआ रसना में उसके बोेलकर

स्पर्श करता सुख हृदय को खोलकर


लोग प्रिय-दर्शन बताते इन्दु को

देखकर सौन्दर्य के इक विन्दु को

किन्तु प्रिय-दर्शन स्वयं सौन्दर्य है

सब जगह इसकी प्रभा ही वर्य है


जो पथिक होता कभी इस चाह में

वह तुरत ही लुट गया इस राह में

मानवी या प्राकृतिक सुषमा सभी

दिव्य शिल्पी के कला-कौशल सभी


देख लो जी-भर इसे देखा करो

इस कलम से चित्त पर रेखा करो

लिखते-लिखते चित्र वह बन जायेगा

सत्य-सुन्दर तब प्रकट हो जायेगा

23. एकान्त में

आकाश श्री-सम्पन्न था, नव नीरदों से था घिरा

संध्या मनोहर खेलती थी, नील पट तम का गिरा

यह चंचला चपला दिखाती थी कभी अपनी कला

ज्यों वीर वारिद की प्रभामय रत्नावाली मेखला

हर और हरियाली विटप-डाली कुसुम से पूर्ण है

मकरन्दमय, ज्यों कामिनी के नेत्र मद से पूर्ण है

यह शैला-माला नेत्र-पथ के सामने शोभा भली

निर्जन प्रशान्त सुशैल-पथ में गिरी कुसुमों की कली

कैसी क्षितिज में है बनाती मेघ-माला रूप को

गज, अश्‍व, सुरभी दे रही उपहार पावस भूप को

यह शैल-श्रृंग विराग-भूमि बना सुवारिद-वृन्द की

कैसी झड़ी-सी लग रही है स्वच्छ जल के बिन्दु की

स्त्रोतस्विनी हरियालियों में कर रही कलरव महा

ज्यों हरे धूँघट-ओट में है कामिनी हँसती अहा

किस ओर से यह स्त्रोत आता है शिखर में वेग से

जो पूर्ण करता वन कणों से हृदय को आवेग से

अविराम जीवन-स्त्रोत-सा यह बन रहा है शैल पर

उद्देश्‍य-हीन गवाँ रहाँ है समय को क्यों फैलकर

कानन-कुसुम जो हैं वे भला पूछो किसी मति धीर से

उत्तंग जो यह श्रृंग है उस पर खड़ा तरूराज है

शाखावली भी है महा सुखमा सुपुष्प-समाज है

होकर प्रमत्त खड़ा हुआ है यह प्रभंजन-वेग में

हाँ ! झूमता है चित्त के आमोद के आवेग में

यह शून्यता वन की बनी बेजोड़ पूरी शान्ति से

करूणा-कलित कैसी कला कमनीय कोमल कान्ति से

चल चित्त चंचल वेग को तत्काल करता धीर है

एकान्त में विश्रान्त मन पाता सुशीतल नीर है

निस्तब्धता संसार की उस पूर्ण से है मिल रही

पर जड़ प्रकृति सब जीव में सब ओर ही अनमिल रही

24. दलित कुमुदिनी

अहो, यही कृत्रिम क्रीड़ासर-बीच कुमुदिनी खिलती थी

हरे लता-कुंजो की छाया जिसको शीतल मिलती थी

इन्दु-किरण की फूलछड़ी जिसका मकरन्द गिराती थी

चण्ड दिवाकर की किरणें भी पता न जिसका पाती थीं

रहा घूमता आसपास में कभी न मधुर मृणाल छुआ

राजहंस भी जिस सुन्दरता पर मोहित सम मत्त हुआ

जिसके मधुर पराग-अन्ध हो मधुप किया करते फेरा

मृदु चुम्बन-उल्लास-भरी लहरी का जिस पर था घेरा

शीत पवन के मधुर स्पर्श से सिहर उठा करती थी जो

श्‍यामा का संगीत नवीन सकम्प सुना करती थी जो

छोटी-छोटी स्वर्ण मछलियों का जिस पर रहता पहरा

स्वच्छ आन्तरिक प्रेम-भाव का रंग चढ़ा जिस पर गहरा

जिसका मधुर मरन्द-स्त्रोत भी उछल-उछल मिलता जल में

सौरभ उसका फैलाता था रम्य सरोवर निर्मल में

जिसका मुग्ध विकास हदय को अहो मुग्ध कर देता था

सरज पीत केसर भी खिलकर भव्य भाव पर देता था

किसी स्वार्थी मतवाले हाथी से हा ! पद-दलित हुई

वही कुमुदिनी, ग्रीष्मताप-तापिज रज में परिमिलित हुई

छिन्न-पत्र मकरन्दहीन हो गई न शोभा प्यारी है

पड़ी कण्टकाकीर्ण मार्ग में, कालचक्र गति न्यारी है

25. निशीथ-नदी

विमल व्योम में तारा-पुंज प्रकट हो कर के

नीरव अभिनय कहो कर रहे हैं ये कैसा

प्रेम के दृग-तारा-से ये निर्निमेष हैं

देख रहे-से रूप अलौकिक सुन्दर किसका

दिशा, धारा, तरू-राजि सभी ये चिन्तित-से हैं

शान्त पवन स्वर्गीय स्पर्श से सुख देता है

दुखी हृदय में प्रिय-प्रतीति की विमल विभा-सी

तारा-ज्योति मिल है तम में, कुछ प्रकाश है

कुल युगल में देखो कैसी यह सरिता है

चारों ओर दृश्य सब कैसे हरे-भरे हैं

बालू भी इस स्नेहपूर्ण जल प्रभाव से

उर्वर हैं हो रहे, करारे नहीं काटते

पंकिल करते नहीं स्वच्छशीला सरिता को

तरूगण अपनी शाखाओं से इंगित करके

उसे दिखाते ओर मार्ग, वह ध्यान न देकर

चली जा रही है अपनी ही सीधी धुन में

उसे किसी से कुछ न द्वेष है, मोह भी नहीं

उपल-खण्ड से टकराने का भाव नहीं है

पंकिल या फेनिल होना भी नहीं जानती

पर्ण-कुटीरों की न बहाती भरी वेग से

क्षीणस्त्रोत भी नहीं हुई खर ग्रीष्म-ताप से

गर्जन भी है नहीं, कहीं उत्पात नहीं है

कोमल कल-कलनाद हो रहा शान्ति-गीत-सा

कब यह जीवन-स्त्रोत मधुर ऐसा ही होगा

हृदय-कुसुम कब सौरभ से यों विकसित होकर

पूर्ण करेगा अपने परिमल से दिगंत को

शांति-चित्त को अपने शीतल लहरों से कब

शांत करेगा हर लेगा कब दुःख-पिपासा

26. विनय

बना लो हृदय-बीच निज धाम

करो हमको प्रभु पूरन-काम

शंका रहे न मन में नाथ

रहो हरदम तुम मेरे साथ

अभय दिखला दो अपना हाथ

न भूलें कभी तुम्हारा नाम

बना लो हृदय-बीच निज धाम


मिटा दो मन की मेरे पीर

धरा दो धर्मदेव अब धीर

पिला दो स्वच्छ प्रेममय नीर

बने मति सुन्दर लोक-ललाम

बना लो हृदय-बीच निज धाम


काट दो ये सारे दुःख द्वन्द्व

न आवे पास कभी छल-छन्द

मिलो अब आके आनँदकन्द

रहें तव पद में आठो याम

बना लो हृदय-बीच निज धाम

करो हमको प्रभु पूरन-काम

27. तुम्हारा स्मरण

सकल वेदना विस्मृत होती

स्मरण तुम्हारा जब होता

विश्वबोध हो जाता है

जिससे न मनुष्य कभी रोता


आँख बंद कर देखे कोई

रहे निराले में जाकर

त्रिपुटी में, या कुटी बना ले

समाधि में खाये गोता


खड़े विश्व-जनता में प्यारे

हम तो तुमको पाते हैं

तुम ऐसे सर्वत्र-सुलभ को

पाकर कौन भला खोता


प्रसन्न है हम उसमे, तेरी-

प्रसन्नता जिसमें होवे

अहो तृषित प्राणों के जीवन

निर्मल प्रेम-सुधा-सोता


नये-नये कौतुक दिखलाकर

जितना दूर किया चाहो

उतना ही यह दौड़-दौड़कर

चंचल हृदय निकट होता

28. याचना

जब प्रलय का हो समय, ज्वालामुखी निज मुख खोल दे

सागर उमड़ता आ रहा हो, शक्ति-साहस बोल दे

ग्रहगण सभी हो केन्द्रच्युत लड़कर परस्पर भग्न हों

उस समय भी हम हे प्रभो ! तव पदृमपद में लग्न हो


जब शैल के सब श्रृंग विद्युद़ वृन्द के आघात से

हों गिर रह भीषण मचाते विश्व में व्याघात-से

जब र घिर रहे हों प्रलय-घन अवकाश-गत आकाश में

तब भी प्रभो ! यह मन खिंचे तव प्रेम-धारा-पाश में


जब क्रूर षडरिपु के कुचक्रों में पड़े यह मन कभी

जब दुःख कि ज्वालावली हों भस्म करती सुख सभी

जब हों कृतघ्नों के कुटिल आघात विद्युत्पात-से

जब स्वार्थी दुख दे रहे अपने मलिन छलछात से


जब छोड़कर प्रेमी तथा सन्मित्र सब संसार में

इस घाव पर छिड़कें नमक, हो दुख खड़ा आकार में

करूणानिधे ! हों दुःखसागर में कि हम आनन्द में

मन-मधुप हो विश्वस्त-प्रमुदित तव चरण अरविन्द में


हम हाें सुमन की सेज पर या कंटको की आड़ में

पर प्राणधन ! तुम छिपे रहना, इस हृदय की आड़ में

हम हो कहीं इस लोक में, उस लोक में, भूलोक में

तव प्रेम-पथ में ही चलें, हे नाथ ! तव आलोक में

29. पतित पावन

पतित हो जन्म से, या कर्म ही से क्यों नहीं होवे

पिता सब का वही है एक, उसकी गोद में रोवे

पतित पदपद्म में होवे

ताे पावन हो जाता है


पतित है गर्त में संसार के जो स्वर्ग से खसका

पतित होना कहो अब कौन-सा बाकी रहा उसका

पतित ही को बचाने के

लिये, वह दौड़ आता है


पतित हो चाह में उसके, जगत में यह बड़ा सुख है

पतित हो जो नहीं इसमें, उसे सचमुच बड़ा दुख है

पतित ही दीन होकर

प्रेम से उसको बुलाता है


पतित होकर लगाई धूल उस पद की न अंगों में

पतित है जो नहीं उस प्रेमसागर की तरंगो में

पतित हो ‘पूत’ हो जाना

नहीं वह जान पाता है


‘प्रसाद’ उसका ग्रहण कर छोड़ दे आचार अनबन है

वो सब जीवों का जीवन है, वही पतितों का पावन है

पतित होने की देरी है

तो पावन हो ही जाता है

30. खंजन

व्याप्त है क्या स्वच्छ सुषमा-सी उषा भूलोक में

स्वर्णमय शुभ दृश्य दिखलाता नवल आलोक में

शुभ्र जलधर एक-दो कोई कहीं दिखला गये

भाग जाने का अनिल-निर्देश वे भी पा गये


पुण्य परिमल अंग से मिलने लगा उल्लास से

हंस मानस का हँसा कुछ बोलकर आवास से

मल्लिका महँकी, अली-अवली मधुर-मधु से छकी

एक कोने की कली भी गन्ध-वितरण कर सकी


बह रही थी कूल में लावण्य की सरिता अहो

हँस रही थी कल-कलध्वनि से प्रफुल्लितगात हो

खिल रहा शतदल मधुर मकरन्द भी पड़ता चुआ

सुरभि-संयच-कोश-सा आनन्द से पूरित हुआ


शरद के हिम-र्विदु मानो एक में ढाले हुए

दृश्यगोचर हो रहे है प्रेम से पाले हुए

है यही क्या विश्ववर्षा का शरद साकार ही

सुन्दरी है या कि सुषमा का खड़ा आकार ही


कौन नीलोज्ज्वल युगल ये दो यहाँ पर खेलते

हैं झड़ी मकरन्द की अरविन्द में ये झेलते

क्या समय था, ये दिखाई पड़ गये, कुछ तो कहो

सत्य क्या जीवन-शरद के ये प्रथम खंजन अहो

31. विरह

प्रियजन दृग-सीमा से जभी दूर होते

ये नयन-वियोगी रक्त के अश्रु रोते

सहचर-सुखक्रीड़ा नेत्र के सामने भी

प्रति क्षण लगती है नाचने चित्त में भी


प्रिय, पदरज मेघाच्छन्न जो हो रहा हो

यह हृदय तुम्हारा विश्व को खो रहा हो

स्मृति-सुख चपला की क्या छटा देखते हो

अविरल जलधारा अश्रु में भींगते हो


हृदय द्रवित होता ध्यान में भूत ही के

सब सबल हुए से दीखते भाव जी के

प्रति क्षण मिलते है जो अतीताब्धि ही में

गत निधि फिर आती पूर्ण की लब्धि ही में


यह सब फिर क्या है, ध्यान से देखिये तो

यह विरह पुराना हो रहा जाँचिये तो

हम अलग हुए हैं पूर्ण से व्यक्त होके

वह स्मृति जगती है प्रेम की नींद सोके

32. रमणी-हृदय

सिन्धु कभी क्‍या बाड़वाग्नि को यों सह लेता

कभी शीत लहरों से शीतल ही कर देता

रमणी-हृदय अथाह जो न दिखालाई पड़ता

तो क्या जल होकर ज्वाला से यों फिर लड़ता

कौन जानता है, नीचे में, क्या बहता है

बालू में भी स्नेह कहाँ कैसे रहता है

फल्गू की है धार हृदय वामा का जैसे

रूखा ऊपर, भीतर स्नेह-सरोवर जैसे

ढकी बर्फ से शीतल ऊँची चोटी जिनकी

भीतर है क्या बात न जानी जाती उनकी

ज्वालामुखी-समान कभी जब खुल जाते हैं।

भस्म किया उनको, जिनको वे पा जाते हैं

स्वच्छ स्नेह अन्तर्निहित, फल्‍गू-सदृश किसी समय

कभी सिन्धु ज्वालामुखी, धन्य-धन्य रमणी हृदय

33. हाँ, सारथे ! रथ रोक दो

हाँ, सारथे ! रथ रोक दो, विश्राम दो कुछ अश्व को

यह कुंज था आनन्द-दायक, इस हृदय के विश्व को

यह भूमि है उस भक्त की आराधना की साधिका

जिसको न था कुछ भय यहाँ भवजन्य आधि व्याधि का


जब था न कुछ परिचित सुधा से हृदय वन-सा था बना

तब देखकर इस कुंज को कुसुमित हुआ था वह घना

बरसा दिया मकरन्द की झीनी झड़ी उल्लास से

सुरभित हुआ संसार ही इस कुसुम के सुविकास से


जब दौड़ जीवन-मार्ग में पहली हमारी थी हुई

उच्छ्वासमय तटिनी-तरंगों के सदृश बढ़ती गई

था लक्ष्यहीन नवीन वर्षा के पवन-सा वेग में

इस कुंज ही में रूक गया था उस प्रबल उद्वेग में


जन्मान्तर-स्मृति याद कर औ’ भूलकर निज चौकड़ी

मन-मृग रूका गर्दन झुकाकर छोड़कर तेजी बड़ी

अज्ञात से पदचिन्ह का कर अनुसरण आया यहाँ

निज नाभि-सौरभ भूल फूलो का सुरस पाया यहाँ


सुख-दुःख शीतातप भुलाकर प्राण की आराधना

इस स्थान पर की थी अहो सर्वस्व ही की साधना

हे सारथे ! रथ रोक दो, स्मृति का समाधिस्थान है

हम पैर क्या, शिर से चलें, तो भी न उचित विधान है

34. गंगा सागर

प्रिय मनोरथ व्यक्त करें कहो

जगत्-नीरवता कहती ‘नहीं’

गगन में ग्रह गोलक, तारका

सब किये तन दृष्टि विचार में

पर नहीं हम मौन न हो सकें

कह चले अपनी सरला कथा

पवन-संसृति से इस शून्य में

भर उठे मधुर-ध्वनि विश्व में

‘‘यह सही, तुम ! सिन्धु अगाध हो

हृदय में बहु रत्न भरे पड़े

प्रबल भाव विशाल तरंग से

प्रकट हो उठते दिन-रात ही

न घटते-बढ़ते निज सीम से-

तुम कभी, वह बाड़व रूप की

लपट में लिपटी फिरती नदी

प्रिय, तुम्हीं उसके प्रिय लक्ष्य हो

यदि कहो घन पावस-काल का

प्रबल वेग अहो क्षण काल का

यह नहीं मिलना कहला सके

मिलन तो मन का मन से सही

जगत की नीव कल्पित कल्पना

भर रही हृदयाब्धि गंभीर में

‘तुम नहीं इसके उपयुक्त हो

कि यह प्रेम महान सँभाल लो’

जलधि ! मैं न कभी चाहती

कि ‘तुम भी मुझपर अनुरक्त हो’

पर मुझे निज वक्ष उदार में

जगह दो, उसमें सुख में रहें’

35. प्रियतम

क्यों जीवन-धन ! ऐसा ही है न्याय तुम्हारा क्या सर्वत्र

लिखते हुए लेखनी हिलती, कँमता जाता है यह पत्र

औरों के प्रति प्रेम तुम्हारा, इसका मुझको दुःख नहीं

जिसके तुम हो एक सहारा, उसको भूल न जाव कहीं

निर्दय होकर अपने प्रति, अपने को तुमको सौंप दिया

प्रेम नहीं, करूणा करने को क्षण-भर तुमने समय दिया

अब से भी वो अच्छा है, अब और न मुझे करो बदनाम

क्रीड़ा तो हो चुकी तुम्हारी, मेरा क्या होता है काम

स्मृति को लिये हुए अन्तर में, जीवन कर देंगे निःशेष

छोड़ो अब भी दिखलाओ मत, मिल जाने का लोभ विशेष

कुछ भी मत दो, अपना ही जो मुझे बना लो, यही करो

रक्खो जब तक आँखो में, फिर और ढार पर नहीं ढरो

कोर बरौनी का न लगे हाँ, इस कोमल मन को मेरे

पुतली बनकर रहें चमकते, प्रियतम ! हम दृग में तेरे

36. मोहन

अपने सुप्रेम-रस का प्याला पिला दे मोहन

तेरे में अपने को हम जिसमें भुला दें मोहन

निज रूप-माधुरी की चसकी लगा दे मुझको

मुँह से कभी न छूटे ऐसी छका दे मोहन

सौन्दर्य विश्व-भर में फैला हुआ जो तेरा

एकत्र करके उसको मन में दिखा दे मोहन

अस्तित्व रह न जाये हमको हमारे ही में

हमको बना दे तू अब, ऐसी प्रभा दे मोहन

जलकर नहीं है हटते जो रूप की शीखा से

हमको, पतंग अपना ऐसा बना दे मोहन

मेरा हृदय-गगन भी तब राग में रँगा हो

ऐसी उषा की लाली अब तो दिखा दे मोहन

आनन्द से पुलककर हों रोम-रोम भीने

संगीत वह सुधामय अपना सुना दे मोहन

37. भाव-सागर

थोड़ा भी हँसते देखा ज्योंही मुझे

त्योही शीध्र रुलाने को उत्सुक हुए

क्यों ईर्ष्या है तुम्हे देख मेरी दशा

पूर्ण सृष्टि होने पर भी यह शून्यता

अनुभव करके दृदय व्यथित क्यों हो रहा

क्या इसमें कारण है कोई, क्या कभी

और वस्तु से जब तक कुछ फिटकार ही

मिलता नही हृदय को, तेरी ओर वह

तब तक जाने को प्रस्तुत होता नही

कुछ निजस्व-सा तुम पर होता भान है

गर्व-स्फीत हृदय होता तव स्मरण में

अहंकार से भरी हमारी प्रार्थना

देख न शंकित होना, समझो ध्यान से

वह मेरे में तुम हो साहस दे रहे

लिखता हूँ तुमको, फिर उसको देख के

स्वयं संकुचित होकर भेज नही सका

क्या? अपूर्ण रह जाती भाषा, भाव भी

यथातथ्य प्रकटित हो सकते ही नही

अहो अनिर्वचनीय भाव-सागर! सुनो

मेरी भी स्वर-लहरी क्या है कह रही

38. मिल जाओ गले

देख रहा हूँ, यह कैसी कमनीयता

छाया-सी कुसुमित कानन में छा रही

अरे, तुम्हारा ही यह तो प्रतिबिम्ब है

क्यों मुझको भुलवाते हो इनमे ? अजी

तुम्हें नहीं पाकर क्या भूलेगा कभी

मेरा हृदय इन्ही काँटों के फूल में

जग की कृत्रिम उत्तमता का बस नहीं

चल सकता है, बड़ा कठोर हृदय हुआ

मानस-सर में विकसित नव अरविन्द का

परिमल जिस मधुकर को छू भी गया हो

कहो न कैसे यह कुरबक पर मुग्ध हो

घूम रहा है कानन में उद्देश्य से

फूलों का रस लेने की लिप्सा नहीं

मघुकर को वह तो केवल है देखता

कहीं वही तो नहीं कुसुम है खिल रहा

उसे न पाकर छोड़ चला जाता अहो

उसे न कहो कि वह कुरबक-रस लुब्ध है

हृदय कुचलने वालों से बस कुछ नहीं

उन्हें घृणा भी कहती सदा नगण्य है

वह दब सकता नहीं, न उनसे मिल सके

जिसमें तेरी अविकल छवि हो छा रही

तुमसे कहता हूँ प्रियतम ! देखो इधर

अब न और भटकाओ, मिल जाओ गले

39. नहीं डरते

क्या हमने यह दिया, हुए क्यों रूष्ट हमें बतलाओ भी

ठहरो, सुन लो बात हमारी, तनक न जाओ, आओ भी

रूठ गये तुम नहीं सुनोगे, अच्छा ! अच्छी बात हुई

सुहृद, सदय, सज्जन मधुमुख थे मुझको अबतक मिले कई

सबको था दे चुका, बचे थे उलाहने से तुम मेरे

वह भी अवसर मिला, कहूँगा हृदय खोलकर गुण तेरे

कहो न कब बिनती थी मेरी सच कहना की ‘मुझे चाहो’

मेरे खौल रहे हृत्सर में तुम भी आकर अवगाहो

फिर भी, कब चाहा था तुमने हमको, यह तो सत्य कहो

हम विनोद की सामग्री थे केवल इससे मिले रहो

तुम अपने पर मरते हो, तुम कभी न इसका गर्व करो

कि ‘हम चाह में व्याकुल है’ वह गर्म साँस अब नहीं भरो

मिथ्या ही हो, किन्तु प्रेम का प्रत्याख्यान नहीं करते

धोखा क्या है, समझ चुके थे; फिर भी किया, नहीं डरते

40. महाकवि तुलसीदास

अखिल विश्व में रमा हुआ है राम हमारा

सकल चराचर जिसका क्रीड़ापूर्ण पसारा

इस शुभ सत्ता को जिसमे अनुभूत किया था

मानवता को सदय राम का रूप दिया था

नाम-निरूपण किया रत्न से मूल्य निकाला

अन्धकार-भव-बीच नाम-मणि-दीपक बाला

दीन रहा, पर चिन्तामणि वितरण करता था

भक्ति-सुधा से जो सन्ताप हरण करता था

प्रभु का निर्भय-सेवक था, स्वामी था अपना

जाग चुका था, जग था जिसके आगे सपना

प्रबल-प्रचारक था जो उस प्रभु की प्रभुता का

अनुभव था सम्पूर्ण जिसे उसकी विभुता का

राम छोड़कर और की, जिसने कभी न आस की

'राम-चरित-मानस'-कमल जय हो तुलसीदास की

41. धर्मनीति

जब कि सब विधियाँ रहें निषिद्ध, और हो लक्ष्मी को निर्वेद

कुटिलता रहे सदैव समृद्ध, और सन्तोष मानवे खेद

वैध क्रम संयम को धिक्कार

अरे तुम केवल मनोविकार


वाँधती हो जो विधि सद्भाव, साधती हो जो कुत्सित नीति

भग्न हो उसका कुटिल प्रभाव, धर्म वह फैलावेगा भीति

भीति का नाशक हो तब धर्म

नहीं तो रहा लुटेरा-कर्म


दुखी है मानव-देव अधीर-देखकर भीषण शान्त समुद्र

व्यथित बैठा है उसके तीर- और क्या विष पी लेगा रूद्र

करेगा तब वह ताण्डव-नृत्य

अरे दुर्बल तर्कों के भृत्य


गुंजरित होगा श्रृंगीनाद, धूसरित भव बेला में मन्द्र

कँपैंगे सब सूत्रों के पाद, युक्तियाँ सोवेंगी निस्तन्द्र

पंचभूतों को दे आनन्द

तभी मुखरित होगा यह छन्द


दूर हों दुर्बलता के जाल, दीर्घ निःश्वासों का हो अन्त

नाच रे प्रवंचना के काल, दग्ध दावानल करे दिगन्त

तुम्हारा यौवन रहा ललाम

नम्रते ! करुणे ! तुझे प्रणाम

42. गान

जननी जिसकी जन्मभूमि हो; वसुन्धरा ही काशी हो

विश्व स्वदेश, भ्रातृ मानव हों, पिता परम अविनाशी हो

दम्भ न छुए चरण-रेणु वह धर्म नित्य-यौवनशाली

सदा सशक्त करों से जिसकी करता रहता रखवाली

शीतल मस्तक, गर्म रक्त, नीचा सिर हो, ऊँचा कर भी

हँसती हो कमला जिसके करूणा-कटाक्ष में, तिस पर भी

खुले-किवाड़-सदृश हो छाती सबसे ही मिल जाने को

मानस शांत, सरोज-हृदय हो सुरभि सहित खिल जाने को

जो अछूत का जगन्नाथ हो, कृषक-करों का ढृढ हल हो

दुखिया की आँखों का आँसू और मजूरों का कल हो

प्रेम भरा हो जीवन में, हो जीवन जिसकी कृतियों में

अचल सत्य संकल्प रहे, न रहे सोता जागृतियों में

ऐसे युवक चिरंजीवी हो, देश बना सुख-राशी हो

और इसलिये आगे वे ही महापुरुष अविनाशी हो

43. मकरन्द-विन्दु

तप्त हृदय को जिस उशीर-गृह का मलयानिल

शीतल करता शीघ्र, दान कर शान्ति को अखिल

जिसका हृदय पुजारी है रखता न लोभ को

स्वयं प्रकाशानुभव-मुर्ति देती न क्षोभ जो

प्रकृति सुप्रांगण में सदा, मधुक्रीड़ा-कूटस्थ को

नमस्कार मेरा सदा, पूरे विश्व-गृहस्थ को


हैं पलक परदे खिचें वरूणी मधुर आधार से

अश्रुमुक्ता की लगी झालर खुले दृग-द्वार से

चित्त-मन्दिर में अमल आलोक कैसा हो रंहा

पुतलियाँ प्रहरी बनीं जो सौम्य हैं आकार से

मुद मृदंग मनोज्ञ स्वर से बज रहा है ताल में

कल्पना-वीणा बजी हर-एक अपने ताल से

इन्द्रियाँ दासी-सदृश अपनी जगह पर स्तब्ध है

मिल रहा गृहपति-सदृश यह प्राण प्राणधार से


हृदय नहिं मेंरा शून्य रहे

तुम नहीं आओ जो इसमें तो, तब प्रतिबिम्ब रहे

मिलने का आनन्द मिले नहिं जो इस मन को मेरे

करूण-व्यथा ही लेकर तेरी जिये प्रेम के डेरे


मिले प्रिय, इन चरणों की धूल

जिसमें लिपटा ही आया है सकल सुमंगल-मूल

बड़े भाग्य से बहुत दिनो पर आये हो तुम प्यारे

बैठो, घबराओ मन, बोलो, रहो नहीं मन मारे

हृदय सुनाना तुम्हें चाहता, गाथाएँ जो बीतीं

गदगद कंठ, न कह सकता हूँ, देखी बाजी जीती


प्रथम, परम आदर्श विश्व का जो कि पुरातन

अनुकरणों का मुख्य सत्य जो वस्तु सनातन

उत्तमता का पूर्ण रूप आनन्द भरा धन

शक्ति-सुधा से सिचा, शांति से सदा हरा वन

परा प्रकृति से परे नहीं जो हिलामिला है

सन्मानस के बीच कमल-सा नित्य खिला है

चेतन की चित्कला विश्व में जिसकी सत्ता

जिसकी ओतप्रोंत व्योम में पूर्ण महत्ता

स्वानुभूति का साक्षी है जो जड़ क चेतन

विश्व-शरीरी परमात्मा-प्रभुता का केतन

अणु-अणु में जो स्वभाव-वश गति-विधि-निर्धारक

नित्य-नवल-सम्बन्ध-सूत्र का अद्भूत कारक

जो विज्ञानाकार है, ज्ञानों का आधार हैं

नमस्कार सदनन्त को ऐसे बारम्बार है


गज समान है ग्रस्त, त्रस्त द्रोपती सदृश है

ध्रुव-सा धिक्कृत और सुदामा-सा वह कृश है

बँधा हुआ प्रहलाद सदृश कुत्सिम कर्मों से

अपमानित गौतमी न थी इतनी मर्मों से

धर्म बिलखता सोचता

हम क्या से क्या हो गये

थक कर, कुछ अवतार ले

तुम सुख-निधि में सो गये

44. चित्रकूट

उदित कुमुदिनी-नाथ हुए प्राची में ऐसे

सुधा-कलश रत्नाकार से उठाता हो जैसे


धीरे-धीरे उठे गई आशा से मन में

क्रीड़ा करने लगे स्वच्छ-स्वच्छन्द गगन में


चित्रकूट भी चित्र-लिखा-सा देख रहा था

मन्दाकिनी-तरंग उसी से खेल रहा था


स्फटिक-शीला-आसीन राम-वैदेही ऐसे

निर्मल सर में नील कमल नलिनी हो जैसे


निज प्रियतम के संग सुखी थी कानन में भी

प्रेम भरा था वैदेही के आनन में भी


मृगशावक के साथ मृगी भी देख रही थी

सरल विलोकन जनकसुता से सीख रही थी


निर्वासित थे राम, राज्य था कानन में भी

सच ही हैं श्रीमान् भोगते सुख वन में भी


चन्द्रतप था व्योम, तारका रत्न जड़े थे

स्वच्छ दीप था सोम, प्रजा तरू-पुज्ज खड़े थे


शान्त नदी का स्त्रोत बिछा था अति सुखकारी

कमल-कली का नृत्य हो रहा था मनहारी


बोल उठा हंस देखकर कमल-कली को

तुरत रोकना पड़ा गूँजकर चतुर अली को


हिली आम की डाल, चला ज्यों नवल हिंडोला

‘आह कौन है’ पच्चम स्वर से कोकिल बोला


मलयानिल प्रहारी-सा फिरता था उस वन में

शान्ति शान्त हो बैठी थी कामद-कानन में


राघव बोले देख जानकी के आनन को-

‘स्वर्गअंगा का कमल मिला कैसे कानन ने


‘निल मघुप को देखा, वहीं उस कंज की कली ने

स्वयं आगमन किया’-कहा यह जनक-लली ने


बोले राघव--‘प्रिय ! भयावह-से इस वन में

शंका होती नहीं तुम्हारे कोमल मन में’


कहा जानकी ने हँसकार--‘अहा ! महल, मन्दिर मनभावन

स्परण न होते तुम्हें कहो क्या वे अति पावन,


रहते थे झंकारपूर्ण जो तव नूपुरर से

सुरभिपूर्ण पुर होता था जिस अन्तःपुर में


जनकसुता ने कहा --‘नाथ ! वह क्या कहते हैं

नारी के सुख सभी साथ पति के रहते हैं


कहो उसे प्रियप्राण ! अभाव रहा फिर किसका

विभव चरण का रेणु तुम्हारा ही है जिसका


मधुर-मधुर अलाप करते ही पिय-गोद में

मिठा सकल सन्ताप, वैदेही सोने लगी


पुलकित-तनु ये राम, देख जानकी की दशा

सुमन-स्पर्श अभिराम, सुख देता किसको नहीं


नील गगन सम राम, अहा अंक में चन्द्रमुख

अनुपम शोभधाम आभूषण थे तारका


खुले हुए कच-भार बिखर गये थे बदन पर

जैसे श्याम सिवार आसपास हो कमल के


कैसा सुन्दर दृश्य ! लता-पत्र थे हिल रहे

जैसे प्रकृति अदृश्य, बहु कर से पंखा झले


निर्निमेष सौन्दर्य, देख जानकी-अंग का

नृपचूड़ामणिवर्य राम मुग्ध-से हो रहे


‘कुछ कहना है आर्य’ बोले लक्ष्मण दूर से

‘ऐसा ही है कार्य, इससे देता कष्ट हूँ’


राघव ने सस्नेह कहा--‘कहो, क्या बात है

कानन हो या गेह, लक्ष्मण तुम चिरबन्धु हो


फिर कैसा संकोच ? आओ, बैठो पास में

करो न कुछ भी सोच, निर्भय होकर तुम कहो’


पाकर यह सम्मान, लक्ष्मन ने सविनय कहा--

‘आर्य ! आपका मान, यश, सदैव बढ़ता रहे


फिरता हूँ मैं नित्य, इस कानन में ध्यान से

परिचय जिसमें सत्य मिले मुझे इस स्थान का


अभी टहलकर दूर, ज्योंही मै लौटा यहाँ

एक विकटमुख क्रूर भील मिला उस राह में


मेरा आना जान, उठा सजग हो भील वह

मैने शर सन्धान किया जानकर शत्रु को


किन्तु, क्षमा प्रति बार, माँगा उसने नम्र हो

रूका हमारा वार, पूछा फिर--‘तुम कौन हो’


उसने फिर कर जोड़ कहा--‘दास हूँ आपका

चरण कमल को छोड़, और कहाँ मुझको शरण,


निषादपति का दूत मैं प्रेरित आया यहाँ

कहना है करतूत भरत भूमिपति का प्रभो


सजी सैन्य चतुरड़्ग बलशाली ले साथ में

किये और ही ढंग, आते हैं इस ओंर को’


पुलकित होकर राम बोले लक्ष्मण वीर से--

‘और नहीं कुछ काम मिलने आते हैं भरत’


सोते अभी खग-वृन्द थे निज नीड़ में आराम से

ऊषा अभी निकली नहीं थी रविकरोज्ज्वल-दास से


केवल टहनियाँ उच्च तरूगण की कभी हिलती रहीं

मलयज पवन से विवस आपस में कभी मिलती रहीं


ऊँची शिखर मैदान पर्णकुटीर, सब निस्तब्ध थे

सब सो रहे; जैसे आभागों के दुखद प्रारब्ध थे


झरने पहाड़र चल रहे थे, मधुर मीठी चाल से

उड़ते नहीं जलकण अभी थे उपलखण्ड विशाल से


आनन्द के आँसू भरे थे, गगन में तारावली

थी देखती रजनी विदा होते निशाकर को भली


कलियाँ कुसुकम की थी लजाई प्रथम-स्मर्श शरीर से

चिटकीं बहुत जब छेड़छाड़ हुआ समीर अधीर से


थी शान्ति-देवी-सी खड़ी उस ब्रह्मवेला में भली

मन्दाकिनी शुभ तरल जल के बीच मिथिलाधिप लली


रजलिप्त स्वच्छ शरीर होता था सरोज-पराग से

जल भी रँगा था श्यामलोज्ज्वल राम के अनुराग से


जल-बिन्दु थे जो वदन पर, उस इन्दु मन्द प्रकाश में

द्रवचन्द्रकान्त मनोज्ञ मणि के बने विमल विलास में


आकराठ-मज्जित जानकी चन्द्रभमय जल में खड़ी

सचमुच वदन-विधु था, शरद-घन बीच जिसकी गति अड़ी


जल की लहरियाँ घेरती वन मेघमाला-सी उसे

हो पवन-ताड़ित इन्दु कर मलता निरख करके जिसे


कर स्नान पर्णकुटीर को अपने सिधारी जानकी

तब कंजलोचन के जगाने की क्रिया अनुमान की


रविकर-सदृश हेमाभ उँगाली से चरण-सरसिज छुआ

उन्निद्र होने से लगे दृगकज्ज, कम्प सहज हुआ


उस नित्यपरिचित स्पर्श से राघव सजग हो जग गये

होकर निरालस नित्यकृत्य सुधारने में लग गये


फलफूल लेने के लिए तब जानकी तरू-पुंज में

सच्चारिणी ललिता लता-सी हो गई घन-कुंज में


अपने सुकृत-फल के समान मिले उन्हें फल ढेर से

मीठे, नवीन, सुस्वादु, जो संचित रहे थे देर से


हो स्वस्थ प्रातःकर्म से जब राम पर्णकूटीर में

आये टहल मन्दाकिनी-तट से प्रभात-समीर में


देखा कुशासन है बिछा, फल और जल प्रस्तुत वहाँ

हैं जानकी भी पास, पर लक्ष्मण न दिखलाते वहाँ


सीता ने जब खोज लिया सौमित्र को

तरू-समीप में, वीर-विचित्र चरित्र को


‘लक्ष्मण ! आवो वत्स, कहाँ तुम चढ़ रहे’

प्रेम-भरे ये वचन जानकी ने कहे


‘आये, होगा स्वादु मधुर फल यह पका

देखो, अपने सौरभ से है सह छका’


लक्ष्मण ने यह कहा और अति वेग से

चले वृक्ष की ओर, चढ़े उद्वेग से


ऊँचा था तरूराज, सघन वह था हरा

फल-फूलों से डाल-पात से था भरा


लक्ष्मण तुरत अदृश्य उसी में हो गये

जलद-जाल के बीच विमल विधु-से हुऐ


टहल रहे थे राम उसी ही स्थान में

कोलाहल रव पड़ा सुनाई कान में


चकित हुए थे राम, बात न समझ पड़ी

लक्ष्मण की पुकार तब तक यह सुन पड़ी-


‘आर्य, आर्यं, बस धनुष मुझे दे दीजिये’

कुछ भी देने में विलम्ब मत कीजिये’


कहा राम ने--‘वत्स, कहो क्या बात है

सुनें भला कुछ, कैसा यह उत्पात है’


लक्ष्मण ने फिर कहा--‘देर मत कीजिये

आया है वह दुष्ट मारने दीजिये’


‘कौन ? कहो तो स्पष्ट, कौन अरि है यहाँ !’

कहा राम नें--‘सुनें भला, वह है कहाँ’


‘दुष्ट भरत आता ले सेना संग में

रँगा हुआ है क्रूर राजमद-रंग में


उसका हृद्गत भाव और ही आर्य है

आता करने को कुछ कुत्सित कार्य है’


सुनकर लक्ष्मण के यह वाक्य प्रमाद से--

भरे, हँसे तब राम मलीन विषाद से


कहा--‘उतर आओ लक्ष्मण उस वृक्ष से

हटो शीघ्र उस भ्र्रम-पूरित विषवृक्ष से’


लक्ष्मण नीचे आकर बोले रोष से--

‘वनवासी हुए हैं आप निज दोष से’


भरत इसी क्षण पहुँचे, दौड़ समीप में

बढ़ा प्रकाश सुभ्रातृस्नेह के दीप में


चरण-स्पर्श के लिए भरत-भुज ज्यों बढ़े

राम-बहु गल-बीच पड़े, सुख से मढ़े


अहा ! विमल स्वर्गीय भाव फिर आ गया

नील कमल मकरन्द-विन्दु से छा गया

45. भरत

हिमगिरि का उतुंग श्रृंग है सामने

खड़ा बताता है भारत के गर्व को

पड़ती इस पर जब माला रवि-रश्मि की

मणिमय हो जाता है नवल प्रभात में

बनती है हिम-लता कुसुम-मणि के खिले

पारिजात का पराग शुचि धूलि है

सांसारिक सब ताप नहीं इस भूमि में

सूर्य-ताप भी सदा सुखद होता यहाँ

हिम-सर में भी खिले विमल अरविन्द हैं

कहीं नहीं हैं शोच, कहाँ संकोच है

चन्द्रप्रभा में भी गलकर बनते नदी

चन्द्रकान्त से ये हिम-खंड मनोज्ञ हैं

फैली है ये लता लटकती श्रृंग में

जटा समान तपस्वी हिम-गिरि की बनी

कानन इसके स्वादु फलो से है भरे

सदा अयचित देते हैं फल प्रेम से

इसकी कैसी रम्य विशाल अधित्यका

है जिसके समीप आश्रम ऋषिवर्य का


अहा ! खेलता कौन यहाँ शिशु सिंह से

आर्यवृन्द के सुन्दर सुखमय भाग्य-सा

कहता है उसको लेकर निज गोद में --

‘खोल, गोल, मुख सिंह-बाल, मैं देखकर

गिन लूँगा तेरे दाँतो को है भले

देखूँ तो कैसे यह कुटिल कठोर हैं’


देख वीर बालक के इस औद्धत्य को

लगी गरजने भरी सिंहिनी क्रोध से

छड़ी तानकर बोला बालक रोष से--

‘बाधा देगी क्रीड़ा में यदि तू कभी

मार खायगी, और तुझे दूँगा नहीं--

इस बच्चे को; चली जा, अरी भाग जा’


अहा, कौन यह वीर बाल निर्भीक है

कहो भला भारतवासी ! हो जानते

यही ‘भरत’ वह बालक हैं, जिस नाम से

‘भारत संज्ञा पड़ी इसी वर भूमि की

कश्यप के गुरूकुल में शिक्षित हो रहा

आश्रम में पलकर कानन में घूमकर


निज माता की गोद मोद भरता रहा

जो पति से भी विछुड़ रही दुदैंव-वश

जंगल के शिशु-सिंह सभी सहचर रहे

राह घूमता हो निर्भीक प्रवीर यह


जिसने अपने बलशाली भुजदंड

भारत का साम्राज्य प्रथम स्थापित किया


वही वीर यह बालक है दुष्यन्त का

भारत का शिर-रत्न ‘भरत’ शुभ नाम है

46. शिल्प सौन्दर्य

कोलाहल क्यों मचा हुआ है ? घोर यह

महाकाल का भैरव गर्जन हो रहा

अथवा तापों के मिस से हुंकार यह

करता हुआ पयोधि प्रलय का आ रहा

नहीं; महा संघर्षण से होकर व्यथित

हरिचन्दन दावानल फैलाने लगा

आर्यमंदिरों के सब ध्वंस बचे हुए

धूल उड़ाने लगे, पड़ी जो आँख में--

उनके, जिनके वे थे खुदवाये गये

जिससे देख न सकते वे कर्तव्य-पथ

दुर्दिन-जल-धारा न सम्हाल सकी अहो

बालू की दींवाल मुगल-साम्राज्य की

आर्य-शिल्प के साथ गिरा वह भी

जिसे, अपने कर से खोदा आलमगीर ने

मुगल-महीपति के अत्याचारी, अबल

कर कँपने-से लगे ! अहो यह क्या हुआ

मुगल-अदृष्टाकाश-मध्य अति तेज से

धूमकेतु-से सूर्यमल्ल समुदित हुए

सिंहद्वार है खुला दीन के मुख सदृश

प्रतिहिंसा-पूरित वीरों की मण्डली

व्याप्त हो रही है दिल्ली के दुर्ग में

मुगल-महीपाें के आवासादिक बहुत

टूट चुके हैं, आम खास के अंश भी

किन्तु न कोई सैनिक भी सन्मुख हुआ

रोषानल से ज्वलित नेत्र भी लाल हैं

मुख-मण्डल भीषण प्रतिहिंसा-पूर्ण हे

सूर्यमल्ल मध्याह्न सूर्य सम चण्ड हो

मोती-मस्जिद के प्रांगण में है खड़े

भीम गदा है कर में, मन में वेग है

उठा, क्रुद्ध हो सबलज हाथ लेकर गदा

छज्जे पर जा पड़ा, काँपकर रह गई

मर्मर की दीवाल, अलग टुकड़ा हुआ

किन्तु न फिर वह चला चण्डकर नाश को

क्यों जी, यह कैसा निष्किय प्रतिरोध है

सूर्यमल्ल रूक गये, हृदय भी रूक गया

भीषणता रूक कर करूणा-सी हो गई।

कहा-‘नष्ट कर देंगे यदि विद्वेष से--

इसको, तो फिर एक वस्तु संसार की

सुन्दरता से पूर्ण सदा के लिए ही

हो जायेगी लुप्त।’ बड़ा आश्चर्य है

आज काम वह किया शिल्प-सौन्दर्य ने

जिसे करती कभी सहस्त्रों वक्तृता

अति सर्वत्र अहो वर्जित है, सत्य ही

कहीं वीरता बनती इससे क्रूरता

धर्म-जन्य प्रतिहिंसा ने क्या-क्या नहीं

किया, विशेष अनिष्ट शिल्प-साहित्य का

लुप्त हो गये कितने ही विज्ञान के

साधन, सुन्दर ग्रन्थ जलाये वे गये

तोड़े गये, अतीत-कथा-मकरन्द को

रहे छिपाये शिल्प-कुसुम जो शिला हो

हे भारत के ध्वंस शिल्प ! स्मृति से भरे

कितनी वर्षा शीताताप तुम सह चुके

तुमको देख करूण इस वेश में

कौन कहेगा कब किसने निर्मित किया

शिल्पपूर्ण पत्थर कब मिट्टी हो गये

किस मिट्टी की ईंटें हैं बिखरी हुई।

47. कुरूक्षेत्र

नील यमुना-कूल में तब गोप-बालक-वेश था

गोप-कुल के साथ में सौहार्द-प्रेम विशेष था

बाँसुरी की एक ही बस फूंकी तो पर्याप्त थी

गोप-बालों की सभा सर्वत्र ही फिर प्राप्त थी

उस रसीले राग में अनुराग पाते थे सभी

प्रेम के सारल्य ही का राग गाते थे सभी

देख मोहन को न मोहे, कौन था इस भूमि में

रास की राका रूकी थी देख मुख ब्रजभूमि में !

धेनु-चारण-कार्य कालिन्दी-मनोहर-कूल में

वेणुवादन-कुंज में, जो छिप रहा था फूल में

भूलकर सब खेल ये, कर ध्यान निज पितु-मात का-

कंस को मारा, रहा जो दुष्ट पीवर गात का


थी इन्होने ही सही सत्रह कठोर चढ़ाइयाँ

हारकर भागा मगध-सम्राट कठिन लड़ाइयाँ

देखकर दौर्वृत्य यह दुर्दम्य क्षत्रिय-जाति का

कर लिया निश्चित अरिन्दन ने निपात अराति का

वीर वार्हद्रथ बली शिशुपाल के सुन सन्धि को

और भी साम्राज्य-स्थापना की महा अभिसन्धि को

छोड़कर ब्रज, बालक्रीड़ा-भूमि, यादव-वृन्द ले

द्वारका पहुंचे, मधुप ज्यों खोज ही अरविन्द ले

सख्यस्थापन कर सुभद्रा को विवाहा पार्थ में

आप साम-भागी हुए तब पाण्डवों के स्वार्थ से

वीर वार्हद्रथ गया मारा कठिन रणनीति से

आप संरक्षक हुए फिर पाण्डवों के, प्रीति से

केन्द्रच्युत नक्षत्र-मण्डल-से हुए राजन्य थे

आन्तरिक विद्वेष के भी छा गये पर्यन्य थे

दिव्य भारत का अदृष्टाकाश तमसाच्छन्न था

मलिनता थी व्याप्त कोई भी कहीं न प्रसन्न था

सुप्रभात किया अनुष्ठित राजसूय सुरीति से

हो गई ऊषा अमल अभिषेक-जलयुत प्रीति से

धर्मराज्य हुआ प्रतिष्ठित धर्मराज नरेश थे

इस महाभारत-गगन के एक दिव्य दिनेश थे

यो सरलता से हुआ सम्पन्न कृष्ण-प्रभाव से

देखकर वह राजसूय जला हृदय दुर्भाव से

हो गया सन्नद्ध तब शिशूपाल लड़ने के लिये

और था ही कौन केशव संग लड़ने के लिये

थी बड़ी क्षमता, सही इससे बहुत-सी गालियाँ

फूल उतने ही भरे, जितनी बड़ी हो डालियाँ

क्षमा करते, पर लगे काँटे खटकने और को

चट धराशायी किया तब पाप के शिरमौर को


पांडवों का देख वैभव नीच कौरवनाथ ने

द्युत-रचना की, दिया था साथ शकुनी-हाथ ने

कुटिल के छल से छले जाकर अकिच्चन हो गये

हारकर सर्वस्व पाण्डव विपिनवासी हो गये

कष्ट से तेरह बरस कर वास कानन-कुंज में

छिप रहे थे सूर्य-से जो वीर वारिद-पुंज में

कृष्ण-मारूत का सहारा पा, प्रकट होना पड़ा

कर्मं के जल में उन्हें निज दुःख सब धोना पड़ा

आप अध्वर्य्य हुए, ब्रह्म यधिष्ठिर को किया

कार्य होता का धनंजय ने स्वयं निज कर लिया

धनुष की डोरी बनी उस यज्ञ में सच्ची स्त्रुवा

उस महारण-अग्नि में सब तेज-बल ही घी हुवा

बध्य पशु भी था सुयोधन, भार्गवादिक मंत्र थे

भीम के हुंकार ही उद्गीथ के सब तंत्र थे

रक्त-दुःशासन बना था सोमरस शुचि प्रीति से

कृष्ण ने दीक्षित किया था धनुवैंदिक रीति से

कौरवादिक सामने, पीछे पृथसुत सैन्य है

दिव्य रथ है बीच में, अर्जुन-हृदय में दैन्य है

चित्र हैं जिसके चरित, यह कृष्ण रथ से सारथी

चित्र ही-से देखते यह दृश्य वीर महारथी

मोहनी वंशी नहीं है कंज कर में माधुरी

रश्मि है रथ की, प्रभा जिसमें अनोखी है भरी

शुद्ध सम्मोहन बजाया वेणु से ब्रजभूमि में

नीरधर-सी धीर ध्वनि का शंख अब रणभूमि में

नील तनु के पास ऐसी शुभ्र अश्वों की छटा

उड़ रहे जैसे बलाका, घिर रही उन पर घटा

स्वच्छ छायापथ-समीप नवीन नीरद-जाल है

या खड़ा भागीरथी-तट फुल्ल नील तमाल है

छा गया फिर मोह अर्जुन को, न वह उत्साह था

काम्य अन्तःकरण में कारूण्य-नीर-प्रवाह था

‘क्यों करें बध वीर निज कुल का सड़े-से स्वार्थ से

कर्म यह अति घोर है, होगा नहीं यह रथ के वहाँ

सव्यासाची का मनोरथ भी चलाते थे वहाँ

जानकर यह भाव मुख पर कुछ हँसी-सी छा गई

दन्त-अवली नील घन की वारिधारा-सी हुई

कृष्ण ने हँसकर कहा-‘कैसी अनोखी बात है

रण-विमुख होवे विजय ! दिन में हुई कब रात है

कयह अनार्यों की प्रथा सीखी कहाँ से पार्थ ने

धर्मच्युत होना बताया एक छोटे स्वार्थ ने

क्यों हुए कादर, निरादर वीर कर्माें का किया

सव्यसाची ने हृदय-दौर्बल्य क्यों धारण किया

छोड़ दो इसको, नहीं यह वीन-जन के योग्य है

युद्ध की ही विजय-लक्ष्मी नित्य उनके भोग्य है

रोकते हैं मारने से ध्यान निज कुल-मान के

यह सभी परिवार अपने पात्र हैं सम्मान के

किन्तु यह भी क्या विदित है हे विजय ! तुमको सभी

काल के ही गाल में मरकर पडे़ हैं ये कभी

नर न कर सकत कभी, वह एक मात्र निमित्त है

प्रकृति को रोके नियति, किसमें भला यह वित्त है

क्या न थे तुम, और क्या मै भी न था, पहले कभी

क्या न होंगे और आगे वीर ये सेनप सभी

आत्मा सबकी सदा थी, है, रहेगी मान लो

नित्य चेतनसूत्र की गुरिया सभी को जान लो

ईश प्रेरक-शक्ति है हृद्यंत्र मे सब जीव के

कर्म बतलाये गये हैं भिन्न सारे जीव के

कर्म जो निर्दिष्ट है, हो धीर, करना चाहिये

पर न फल पर कर्म के कुछ ध्यान रखना चाहिये

कर रहा हूँ मैं, करूँगा फल ग्रहण, इस ध्यान से

कर रहा जो कर्म, तो भ्रान्त है अज्ञान से

मारता हूँ मैं, मरेंगे ये, कथा यह भ्रान्त है

ईश से विनियुक्त जीव सुयंत्र-सा अश्रान्त है

है वही कत्त, वहीं फलभोक्ता संसार का

विश्व-क्रीड़ा-क्षेत्र है विश्वेश हृदय-उदार का

रण-विमुख होगे, बनोगे वीर से कायर कहो

मरण से भारी अयश क्यों दौड़कर लेना चहो

उठ खड़े हो, अग्रसर हो, कर्मपथ से मत डरो

क्षत्रियोचित धर्म जो है युद्ध निर्भय हो करो

सुन सबल ये वाक्य केशव के भरे उत्साह स

तन गये डोरे दृगों के, धनुरूष के, अति चाह से

हो गये फिर तो धनजंय से विजय उस भूमि में

है प्रकट जो कर दिखाया पार्थ ने रणभूमि में

48. वीर बालक

भारत का सिर आज इसी सरहिन्द मे

गौरव-मंडित ऊँचा होना चाहता

अरूण उदय होकर देता है कुछ पता

करूण प्रलाप करेगा भैरव घोषणा

पाच्चजन्य बन बालक-कोमल कंठ ही

धर्म-घोषणा आज करेगा देश में

जनता है एकत्र दुर्ग के समाने

मान धर्म का बालक-युगल-करस्थ है

युगल बालकों की कोमल यै मूर्तियां

दर्पपूर्ण कैसी सुन्दर है लग रही

जैसे तीव्र सुगन्ध छिपाये हृदय में

चम्पा की कोमल कलियाँ हों शोभती


सूबा ने कुछ कर्कश स्वर से वेग में

कहा-‘सुनो बालको, न हो बस काल के

बात हमारी अब भी अच्छी मान लो

अपने लिये किवाड़े खोलो भाग्य के

सब कुछ तुम्हें मिलेगा, यदि सम्राट की

होगी करूणा। तुम लोगों के हाथ है

उसे हस्तगत करो, या कि फेंको अभी

किसने तुम्हें भुलाया है ? क्यों दे रहे

जाने अपनी, अब से भी यह सोच लो

यदि पवित्र इस्लाम-धर्म स्वीकार है

तुम लोगों को, तब तो फिर आनन्द है

नहीं, शास्ति इसकी केवल वह मृत्यु है

जो तुमको आशामय जग से अलग ही

कर देगी क्षण-भर में, सोचो, समय है

अभी भविष्यत् उज्जवल करने के लिये

शीघ्र समझकर उत्तर दो इस प्रश्न का’


शान्त महा स्वर्गीय शान्ति की ज्योति से

आलोकित हो गया सुवदन कुमार का

पैतृक-रक्त-प्रवाह-पूर्ण धमकी हुई

शरत्काल के प्रथम शशिकला-सी हँसी

फैल गई मुख पर ‘जोरावरसिंह’ के

कहा-‘यवन ! क्यों व्यर्थ मुझे समझा रहे

वाह-गुरू की शिक्षा मेरी पूर्ण है

उनके चरणों की आभा हृत्पटल पर

अंकित है, वह सुपथ मुझे दिखला रही

परमात्मा की इच्छा जो हो, पूर्ण हो’

कहा घूमकर फिर लघुभ्राता से--‘कहो,

क्या तुम हो भयभीत मृत्यु के गर्त से

गड़ने में क्या कष्ट तुम्हें होगा नहीं’

शिशु कुमार ने कहा--बड़े भाई जहाँ,

वहाँ मुझे भय क्या है ? प्रभु की कृपा से’


निष्ठुर यवन अरे क्या तू यह कह रहा

धर्म यही है क्या इस निर्मय शास्त्र का

कोमल कोरक युगल तोड़कर डाल से

मिट्टी के भीतर तू भयानक रूप यह

महापाप को भी उल्लंघन कर गया

कितने गये जलासे; वध कितने हुए

निर्वासित कितने होकर कब-कब नहीं

बलि चढ़ गये, धन्य देवी धर्मान्धते


राक्षस से रक्षा करने को धर्म की

प्रभु पाताल जा रहे है युग मूर्ति-से

अथवा दो स्थन-पद्म-खिले सानन्द है

ईंटों से चुन दिये गये आकंठ वे

बाल-बराबर भी न भाल पर, बल पड़ा--

जोरावर औ’ फतहसिंह के; धन्य है--

जनक और जननी इनकी, यह भूमि भी


सूबा ने फिर कहा-‘अभी भी समय है-

बचने का बालको, निकल कर मान लो

बात हमारी।’ तिरस्कार की दृष्टि फिर

खुलकर पड़ी यवन के प्रति। वीणा बजी-

‘क्यों अन्तिम प्रभु-स्मरण-कार्य में भी मुझे

छेड़ रहे हो ? प्रभु की इच्छा पूर्ण हो’


सब आच्छादित हुआ यवन की बुद्धि-सा

कमल-कोश में भ्रमर गीत-सा प्रेममय

मधुर प्रणव गुज्जति स्वच्छ होले लगा, ष्

शान्ति ! भयानक शान्ति ! ! और निस्तब्धता !

49. श्रीकृष्ण-जयन्ती

कंस-हृदय की दुश्चिन्ता-सा जगत् में

अन्धकार है व्याप्त, घोर वन है उठा

भीग रहा है नीरद अमने नीर से

मन्थर गति है उनकी कैसी व्याम में

रूके हुए थे, ‘कृष्ण-वर्ण’ को देख लें-

जो कि शीघ्र ही लज्जित कर देगा उन्हें

जगत् आन्तरिक अन्धकार से व्याप्त है

उसका ही यह वाह्य रूप है व्योम में

उसे उजेले में ले आने को अभी

दिव्य ज्योति प्रकटित होगी क्या सत्य ही


सुर-सुन्दरी-वृन्द भी है कुछ ताक में

हो करके चंचला घूमती हैं यहाँ -

झाँक-झाँककर किसको हैं ये देखती

छिड़क रहा है प्रेम-सुधा क्यों मेघ भी

किसका हैं आगमन अहो आनन्दमय

मधुर मेध-गर्जन-मृदंग है बज रहा

झिल्ली वीणा बजा रही है क्यों अभी

तूर्यनाद भी शिखिगण कैसे कर रहे

दौड़-दौड़कर सुमन-सरभि लेता हुआ

पवन स्पर्श करना किसको है चाहता

तरूण तमाल लिपटकर अपने पत्र में

किसका प्रेम जताता है आनन्द से

रह-रहकर चातक पुकारता है किसे-

मुक्त कंठ से, किसे बुलाता है कहो

रहो-रहो वह झगड़ा निबटेगा तभी

छिपी हुई जब ज्योति प्रकट हो जायगी

हाँ, हाँ नीरद-वृन्द, और तम चाहिये

कोई परदा वाला है यह आ रहा

परदा खोलेगा जो एक नया यहीं-

जगत-रंगशाला में। मंगल-पाठ हो

द्विजकुल-चातक और जरा ललकार दो-

‘अरे बालको इस सोये संसार के

जाग पड़ो, जो अपनी लीला-खेल में

तुम्हें बतावेंगे उस गुप्त रहस्य को-

जिसका सोकर स्वप्न देखते हो अभी

मानव-जाति बनेगी गोधन, और जो

बनकर गोपाल घुमावेंगे उन्हें-

वहीं कृष्ण हैं आते इस संसार में

परमोज्जवल कर देंगे अपनी कान्ति से

अन्धकारमय भव को। परमानन्दमय

कार्म-मार्ग दिखलावेंगे सब जीव को


यमुने ! अपना क्षीण प्रवाह बढ़ा रखो

और वेग से बहो, कि चरण पवित्र से

संगम होकर नील कमल खिल जायगा

ब्रजकानन ! सब हरे रहो। लतिका घनी-

हो-होकर तरूराजी से लिपटी रहें

कृष्णवर्ण के आश्रय होकर स्थित रहें

घन ! घेरो आकाश नीलमणि-रंग से

जितना चाहो, पर अब छिपने की नहीं

नवल ज्योति वह, प्रकटित होगी जो अभी

भव-बन्धन से खुलो किवाड़ो ! शीघ्र ही

परम प्रबल आगमन रोक सकती नहीं

यह श्रृंखला, तुम्हारे में हैजो लगी

दिव्य, आलौकिक हर्ष और आलोक का-

स्वच्छ स्त्रोत खर वेग सहित बहता रहे

खल दृग जिसको देख न सकें, न सह सकें


जलद-जाल-सा शीतलकारी जगत् को

विद्युद्वृन्द समान तेजमय ज्योति वह

प्रकट गई। पपिहा-पुकार-सा मधुर औ’-

मनमोहन आनन्द विश्व में छा गया

बरस पड़े नव नीरद मोती औ’ जुही



 

 







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Hindi Kavita

हिंदी कविता

Aansu Jaishankar Prasad

आंसू जयशंकर प्रसाद




आंसू



इस करुणा कलित हृदय में

अब विकल रागिनी बजती

क्यों हाहाकार स्वरों में

वेदना असीम गरजती?


मानस सागर के तट पर

क्यों लोल लहर की घातें

कल कल ध्वनि से हैं कहती

कुछ विस्मृत बीती बातें?


आती हैं शून्य क्षितिज से

क्यों लौट प्रतिध्वनि मेरी

टकराती बिलखाती-सी

पगली-सी देती फेरी?


क्यों व्यथित व्योम गंगा-सी

छिटका कर दोनों छोरें

चेतना तरंगिनी मेरी

लेती हैं मृदल हिलोरें?


बस गयी एक बस्ती हैं

स्मृतियों की इसी हृदय में

नक्षत्र लोक फैला है

जैसे इस नील निलय में।


ये सब स्फुलिंग हैं मेरी

इस ज्वालामयी जलन के

कुछ शेष चिह्न हैं केवल

मेरे उस महा मिलन के।


शीतल ज्वाला जलती हैं

ईधन होता दृग जल का

यह व्यर्थ साँस चल-चल कर

करती हैं काम अनिल का।


बाड़व ज्वाला सोती थी

इस प्रणय सिन्धु के तल में

प्यासी मछली-सी आँखें

थी विकल रूप के जल में।


बुलबुले सिन्धु के फूटे

नक्षत्र मालिका टूटी

नभ मुक्त कुन्तला धरणी

दिखलाई देती लूटी।


छिल-छिल कर छाले फोड़े

मल-मल कर मृदुल चरण से

धुल-धुल कर बह रह जाते

आँसू करुणा के कण से।


इस विकल वेदना को ले

किसने सुख को ललकारा

वह एक अबोध अकिंचन

बेसुध चैतन्य हमारा।


अभिलाषाओं की करवट

फिर सुप्त व्यथा का जगना

सुख का सपना हो जाना

भींगी पलकों का लगना।


इस हृदय कमल का घिरना

अलि अलकों की उलझन में

आँसू मरन्द का गिरना

मिलना निश्वास पवन में।


मादक थी मोहमयी थी

मन बहलाने की क्रीड़ा

अब हृदय हिला देती है

वह मधुर प्रेम की पीड़ा।


सुख आहत शान्त उमंगें

बेगार साँस ढोने में

यह हृदय समाधि बना हैं

रोती करुणा कोने में।


चातक की चकित पुकारें

श्यामा ध्वनि सरल रसीली

मेरी करुणार्द्र कथा की

टुकड़ी आँसू से गीली।


अवकाश भला हैं किसको,

सुनने को करुण कथाएँ

बेसुध जो अपने सुख से

जिनकी हैं सुप्त व्यथाएँ


जीवन की जटिल समस्या

हैं बढ़ी जटा-सी कैसी

उड़ती हैं धूल हृदय में

किसकी विभूति हैं ऐसी?


जो घनीभूत पीड़ा थी

मस्तक में स्मृति-सी छायी

दुर्दिन में आँसू बनकर

वह आज बरसने आयी।


मेरे क्रन्दन में बजती

क्या वीणा, जो सुनते हो

धागों से इन आँसू के

निज करुणापट बुनते हो।


रो-रोकर सिसक-सिसक कर

कहता मैं करुण कहानी

तुम सुमन नोचते सुनते

करते जानी अनजानी।


मैं बल खाता जाता था

मोहित बेसुध बलिहारी

अन्तर के तार खिंचे थे

तीखी थी तान हमारी


झंझा झकोर गर्जन था

बिजली थी सी नीरदमाला,

पाकर इस शून्य हृदय को

सबने आ डेरा डाला।


घिर जाती प्रलय घटाएँ

कुटिया पर आकर मेरी

तम चूर्ण बरस जाता था

छा जाती अधिक अँधेरी।


बिजली माला पहने फिर

मुसक्याता था आँगन में

हाँ, कौन बरस जाता था

रस बूँद हमारे मन में?


तुम सत्य रहे चिर सुन्दर!

मेरे इस मिथ्या जग के

थे केवल जीवन संगी

कल्याण कलित इस मग के।


कितनी निर्जन रजनी में

तारों के दीप जलाये

स्वर्गंगा की धारा में

उज्जवल उपहार चढायें।


गौरव था , नीचे आये

प्रियतम मिलने को मेरे

मै इठला उठा अकिंचन

देखे ज्यों स्वप्न सवेरे।


मधु राका मुसक्याती थी

पहले देखा जब तुमको

परिचित से जाने कब के

तुम लगे उसी क्षण हमको।


परिचय राका जलनिधि का

जैसे होता हिमकर से

ऊपर से किरणें आती

मिलती हैं गले लहर से।


मै अपलक इन नयनों से

निरखा करता उस छवि को

प्रतिभा डाली भर लाता

कर देता दान सुकवि को।


निर्झर-सा झिर झिर करता

माधवी कुंज छाया में

चेतना बही जाती थी

हो मन्त्र मुग्ध माया में।


पतझड़ था, झाड़ खड़े थे

सूखी-सी फूलवारी में

किसलय नव कुसुम बिछा कर

आये तुम इस क्यारी में।


शशि मुख पर घूँघट डाले

अंचल में चपल चमक-सी

आँखों मे काली पुतली

पुतली में श्याम झलक-सी।


प्रतिमा में सजीवता-सी

बस गयी सुछवि आँखों में

थी एक लकीर हृदय में

जो अलग रही लाखों में।


माना कि रूप सीमा हैं

सुन्दर! तव चिर यौवन में

पर समा गये थे, मेरे

मन के निस्सीम गगन में।


लावण्य शैल राई-सा

जिस पर वारी बलिहारी

उस कमनीयता कला की

सुषमा थी प्यारी-प्यारी।


बाँधा था विधु को किसने

इन काली जंजीरों से

मणि वाले फणियों का मुख

क्यों भरा हुआ हीरों से?


काली आँखों में कितनी

यौवन के मद की लाली

मानिक मदिरा से भर दी

किसने नीलम की प्याली?


तिर रही अतृप्ति जलधि में

नीलम की नाव निराली

कालापानी वेला-सी

हैं अंजन रेखा काली।


अंकित कर क्षितिज पटी को

तूलिका बरौनी तेरी

कितने घायल हृदयों की

बन जाती चतुर चितेरी।


कोमल कपोल पाली में

सीधी सादी स्मित रेखा

जानेगा वही कुटिलता

जिसमें भौं में बल देखा।


विद्रुम सीपी सम्पुट में

मोती के दाने कैसे

हैं हंस न, शुक यह, फिर क्यों

चुगने की मुद्रा ऐसे?


विकसित सरसित वन-वैभव

मधु-ऊषा के अंचल में

उपहास करावे अपना

जो हँसी देख ले पल में!


मुख-कमल समीप सजे थे

दो किसलय से पुरइन के

जलबिन्दु सदृश ठहरे कब

उन कानों में दुख किनके?


थी किस अनंग के धनु की

वह शिथिल शिंजिनी दुहरी

अलबेली बाहुलता या

तनु छवि सर की नव लहरी?


चंचला स्नान कर आवे

चंद्रिका पर्व में जैसी

उस पावन तन की शोभा

आलोक मधुर थी ऐसी!


छलना थी, तब भी मेरा

उसमें विश्वास घना था

उस माया की छाया में

कुछ सच्चा स्वयं बना था।


वह रूप रूप ही केवल

या रहा हृदय भी उसमें

जड़ता की सब माया थी

चैतन्य समझ कर मुझमें।


मेरे जीवन की उलझन

बिखरी थी उनकी अलकें

पी ली मधु मदिरा किसने

थी बन्द हमारी पलकें।


ज्यों-ज्यों उलझन बढ़ती थी

बस शान्ति विहँसती बैठी

उस बन्धन में सुख बँधता

करुणा रहती थी ऐंठी।


हिलते द्रुमदल कल किसलय

देती गलबाँही डाली

फूलों का चुम्बन, छिड़ती

मधुप की तान निराली।


मुरली मुखरित होती थी

मुकुलों के अधर बिहँसते

मकरन्द भार से दब कर

श्रवणों में स्वर जा बसते।


परिरम्भ कुम्भ की मदिरा

निश्वास मलय के झोंके

मुख चन्द्र चाँदनी जल से

मैं उठता था मुँह धोके।


थक जाती थी सुख रजनी

मुख चन्द्र हृदय में होता

श्रम सीकर सदृश नखत से

अम्बर पट भीगा होता।


सोयेगी कभी न वैसी

फिर मिलन कुंज में मेरे

चाँदनी शिथिल अलसायी

सुख के सपनों से तेरे।


लहरों में प्यास भरी है

है भँवर पात्र भी खाली

मानस का सब रस पी कर

लुढ़का दी तुमने प्याली।


किंजल्क जाल हैं बिखरे

उड़ता पराग हैं रूखा

हैं स्नेह सरोज हमारा

विकसा, मानस में सूखा।


छिप गयी कहाँ छू कर वे

मलयज की मृदु हिलोरें

क्यों घूम गयी हैं आ कर

करुणा कटाक्ष की कोरें।


विस्मृति हैं, मादकता हैं

मूचर्छना भरी हैं मन में

कल्पना रही, सपना था

मुरली बजती निर्जन में।


हीरे-सा हृदय हमारा

कुचला शिरीष कोमल ने

हिमशीतल प्रणय अनल बन

अब लगा विरह से जलने।


अलियों से आँख बचा कर

जब कुंज संकुचित होते

धुँधली संध्या प्रत्याशा

हम एक-एक को रोते।


जल उठा स्नेह, दीपक-सा,

नवनीत हृदय था मेरा

अब शेष धूमरेखा से

चित्रित कर रहा अँधेरा।


नीरव मुरली, कलरव चुप

अलिकुल थे बन्द नलिन में

कालिन्दी वही प्रणय की

इस तममय हृदय पुलिन में।


कुसुमाकर रजनी के जो

पिछले पहरों में खिलता

उस मृदुल शिरीष सुमन-सा

मैं प्रात धूल में मिलता।


व्याकुल उस मधु सौरभ से

मलयानिल धीरे-धीरे

निश्वास छोड़ जाता हैं

अब विरह तरंगिनि तीरे।


चुम्बन अंकित प्राची का

पीला कपोल दिखलाता

मै कोरी आँख निरखता

पथ, प्रात समय सो जाता।


श्यामल अंचल धरणी का

भर मुक्ता आँसू कन से

छूँछा बादल बन आया

मैं प्रेम प्रभात गगन से।


विष प्याली जो पी ली थी

वह मदिरा बनी नयन में

सौन्दर्य पलक प्याले का

अब प्रेम बना जीवन में।


कामना सिन्धु लहराता

छवि पूरनिमा थी छाई

रतनाकर बनी चमकती

मेरे शशि की परछाई।


छायानट छवि-परदे में

सम्मोहन वेणु बजाता

सन्ध्या-कुहुकिनी-अंचल में

कौतुक अपना कर जाता।


मादकता से आये तुम

संज्ञा से चले गये थे

हम व्याकुल पड़े बिलखते

थे, उतरे हुए नशे से।


अम्बर असीम अन्तर में

चंचल चपला से आकर

अब इन्द्रधनुष-सी आभा

तुम छोड़ गये हो जाकर।


मकरन्द मेघ माला-सी

वह स्मृति मदमाती आती

इस हृदय विपिन की कलिका

जिसके रस से मुसक्याती।


हैं हृदय शिशिरकण पूरित

मधु वर्षा से शशि! तेरी

मन मन्दिर पर बरसाता

कोई मुक्ता की ढेरी।


शीतल समीर आता हैं

कर पावन परस तुम्हारा

मैं सिहर उठा करता हूँ

बरसा कर आँसू धारा


मधु मालतियाँ सोती हैं

कोमल उपधान सहारे

मैं व्यर्थ प्रतीक्षा लेकर

गिनता अम्बर के तारे।


निष्ठुर! यह क्या छिप जाना?

मेरा भी कोई होगा

प्रत्याशा विरह-निशा की

हम होगे औ' दुख होगा।


जब शान्त मिलन सन्ध्या को

हम हेम जाल पहनाते

काली चादर के स्तर का

खुलना न देखने पाते।


अब छुटता नहीं छुड़ाये

रंग गया हृदय हैं ऐसा

आँसू से धुला निखरता

यह रंग अनोखा कैसा!



कामना कला की विकसी

कमनीय मूर्ति बन तेरी

खिंचती हैं हृदय पटल पर

अभिलाषा बनकर मेरी।


मणि दीप लिये निज कर में

पथ दिखलाने को आये

वह पावक पुंज हुआ अब

किरनों की लट बिखराये।


बढ़ गयी और भी ऊँठी

रूठी करुणा की वीणा

दीनता दर्प बन बैठी

साहस से कहती पीड़ा।


यह तीव्र हृदय की मदिरा

जी भर कर-छक कर मेरी

अब लाल आँख दिखलाकर

मुझको ही तुमने फेरी।


नाविक! इस सूने तट पर

किन लहरों में खे लाया

इस बीहड़ बेला में क्या

अब तक था कोई आया।


उम पार कहाँ फिर आऊँ

तम के मलीन अंचल में

जीवन का लोभ नहीं, वह

वेदना छद्ममय छल में।


प्रत्यावर्तन के पथ में

पद-चिह्न न शेष रहा है।

डूबा है हृदय मरूस्थल

आँसू नद उमड़ रहा है।


अवकाश शून्य फैला है

है शक्ति न और सहारा

अपदार्थ तिरूँगा मैं क्या

हो भी कुछ कूल किनारा।


तिरती थी तिमिर उदधि में

नाविक! यह मेरी तरणी

मुखचन्द्र किरण से खिंचकर

आती समीप हो धरणी।


सूखे सिकता सागर में

यह नैया मेरे मन की

आँसू का धार बहाकर

खे चला प्रेम बेगुन की।


यह पारावार तरल हो

फेनिल हो गरल उगलता

मथ डाला किस तृष्णा से

तल में बड़वानल जलता।


निश्वास मलय में मिलकर

छाया पथ छू आयेगा

अन्तिम किरणें बिखराकर

हिमकर भी छिप जायेगा।


चमकूँगा धूल कणों में

सौरभ हो उड़ जाऊँगा

पाऊँगा कहीं तुम्हें तो

ग्रहपथ मे टकराऊँगा।


इस यान्त्रिक जीवन में क्या

ऐसी थी कोई क्षमता

जगती थी ज्योति भरी-सी।

तेरी सजीवता ममता।


हैं चन्द्र हृदय में बैठा

उस शीतल किरण सहारे

सौन्दर्य सुधा बलिहारी

चुगता चकोर अंगारे।


बलने का सम्बल लेकर

दीपक पतंग से मिलता

जलने की दीन दशा में

वह फूल सदृश हो खिलता!


इस गगन यूथिका वन में

तारे जूही से खिलते

सित शतदल से शशि तुम क्यों

उनमे जाकर हो मिलते?


मत कहो कि यही सफलता

कलियों के लघु जीवन की

मकरंद भरी खिल जायें

तोड़ी जाये बेमन की।


यदि दो घड़ियों का जीवन

कोमल वृन्तों में बीते

कुछ हानि तुम्हारी है क्या

चुपचाप चू पड़े जीते!


सब सुमन मनोरथ अंजलि

बिखरा दी इन चरणों में

कुचलो न कीट-सा, इनके

कुछ हैं मकरन्द कणों में।


निर्मोह काल के काले-

पट पर कुछ अस्फुट रेखा

सब लिखी पड़ी रह जाती

सुख-दुख मय जीवन रेखा।


दुख-सुख में उठता गिरता

संसार तिरोहित होगा

मुड़कर न कभी देखेगा

किसका हित अनहित होगा।


मानस जीवन वेदी पर

परिणय हो विरह मिलन का

दुख-सुख दोनों नाचेंगे

हैं खेल आँख का मन का।


इतना सुख ले पल भर में

जीवन के अन्तस्तल से

तुम खिसक गये धीरे-से

रोते अब प्राण विकल से।


क्यों छलक रहा दुख मेरा

ऊषा की मृदु पलकों में

हाँ, उलझ रहा सुख मेरा

सन्ध्या की घन अलकों में।


लिपटे सोते थे मन में

सुख-दुख दोनों ही ऐसे

चन्द्रिका अँधेरी मिलती

मालती कुंज में जैसे।


अवकाश असीम सुखों से

आकाश तरंग बनाता

हँसता-सा छायापथ में

नक्षत्र समाज दिखाता।


नीचे विपुला धरणी हैं

दुख भार वहन-सी करती

अपने खारे आँसू से

करुणा सागर को भरती।


धरणी दुख माँग रही हैं

आकाश छीनता सुख को

अपने को देकर उनको

हूँ देख रहा उस मुख को।


इतना सुख जो न समाता

अन्तरिक्ष में, जल थल में

उनकी मुट्ठी में बन्दी

था आश्वासन के छल में।


दुख क्या था उनको, मेरा

जो सुख लेकर यों भागे

सोते में चुम्बन लेकर

जब रोम तनिक-सा जागे।


सुख मान लिया करता था

जिसका दुख था जीवन में

जीवन में मृत्यु बसी हैं

जैसे बिजली हो घन में।


उनका सुख नाच उठा है

यह दुख द्रुम दल हिलने से

ऋंगार चमकता उनका

मेरी करुणा मिलने से।


हो उदासीन दोनों से

दुख-सुख से मेल कराये

ममता की हानि उठाकर

दो रूठे हुए मनाये।


चढ़ जाय अनन्त गगन पर

वेदना जलद की माला

रवि तीव्र ताप न जलाये

हिमकर को हो न उजाला।


नचती है नियति नटी-सी

कन्दुक-क्रीड़ा-सी करती

इस व्यथित विश्व आँगन में

अपना अतृप्त मन भरती।


सन्ध्या की मिलन प्रतीक्षा

कह चलती कुछ मनमानी

ऊषा की रक्त निराशा

कर देती अन्त कहानी।


"विभ्रम मदिरा से उठकर

आओ तम मय अन्तर में

पाओगे कुछ न,टटोलो

अपने बिन सूने घर में।


इस शिथिल आह से खिंचकर

तुम आओगे-आओगे

इस बढ़ी व्यथा को मेरी

रोओगे अपनाओगे।"


वेदना विकल फिर आई

मेरी चौदहो भुवन में

सुख कहीं न दिया दिखाई

विश्राम कहाँ जीवन में!


उच्छ्वास और आँसू में

विश्राम थका सोता है

रोई आँखों में निद्रा

बनकर सपना होता है।


निशि, सो जावें जब उर में

ये हृदय व्यथा आभारी

उनका उन्माद सुनहला

सहला देना सुखकारी।


तुम स्पर्श हीन अनुभव-सी

नन्दन तमाल के तल से

जग छा दो श्याम-लता-सी

तन्द्रा पल्लव विह्वल से।


यह पारावार तरल हो

फेनिल हो गरल उगलता

मथ डाला किस तृष्णा से

तल में बड़वानल जलता।


निश्वास मलय में मिलकर

छाया पथ छू आयेगा

अन्तिम किरणें बिखराकर

हिमकर भी छिप जायेगा।


चमकूँगा धूल कणों में

सौरभ हो उड़ जाऊँगा

पाऊँगा कहीं तुम्हें तो

ग्रहपथ मे टकराऊँगा।


इस यान्त्रिक जीवन में क्या

ऐसी थी कोई क्षमता

जगती थी ज्योति भरी-सी।

तेरी सजीवता ममता।


हैं चन्द्र हृदय में बैठा

उस शीतल किरण सहारे

सौन्दर्य सुधा बलिहारी

चुगता चकोर अंगारे।


बलने का सम्बल लेकर

दीपक पतंग से मिलता

जलने की दीन दशा में

वह फूल सदृश हो खिलता!


इस गगन यूथिका वन में

तारे जूही से खिलते

सित शतदल से शशि तुम क्यों

उनमे जाकर हो मिलते?


मत कहो कि यही सफलता

कलियों के लघु जीवन की

मकरंद भरी खिल जायें

तोड़ी जाये बेमन की।


यदि दो घड़ियों का जीवन

कोमल वृन्तों में बीते

कुछ हानि तुम्हारी है क्या

चुपचाप चू पड़े जीते!


सब सुमन मनोरथ अंजलि

बिखरा दी इन चरणों में

कुचलो न कीट-सा, इनके

कुछ हैं मकरन्द कणों में।


निर्मोह काल के काले-

पट पर कुछ अस्फुट रेखा

सब लिखी पड़ी रह जाती

सुख-दुख मय जीवन रेखा।


दुख-सुख में उठता गिरता

संसार तिरोहित होगा

मुड़कर न कभी देखेगा

किसका हित अनहित होगा।


मानस जीवन वेदी पर

परिणय हो विरह मिलन का

दुख-सुख दोनों नाचेंगे

हैं खेल आँख का मन का।


इतना सुख ले पल भर में

जीवन के अन्तस्तल से

तुम खिसक गये धीरे-से

रोते अब प्राण विकल से।


क्यों छलक रहा दुख मेरा

ऊषा की मृदु पलकों में

हाँ, उलझ रहा सुख मेरा

सन्ध्या की घन अलकों में।


लिपटे सोते थे मन में

सुख-दुख दोनों ही ऐसे

चन्द्रिका अँधेरी मिलती

मालती कुंज में जैसे।


अवकाश असीम सुखों से

आकाश तरंग बनाता

हँसता-सा छायापथ में

नक्षत्र समाज दिखाता।


नीचे विपुला धरणी हैं

दुख भार वहन-सी करती

अपने खारे आँसू से

करुणा सागर को भरती।


धरणी दुख माँग रही हैं

आकाश छीनता सुख को

अपने को देकर उनको

हूँ देख रहा उस मुख को।


इतना सुख जो न समाता

अन्तरिक्ष में, जल थल में

उनकी मुट्ठी में बन्दी

था आश्वासन के छल में।


दुख क्या था उनको, मेरा

जो सुख लेकर यों भागे

सोते में चुम्बन लेकर

जब रोम तनिक-सा जागे।


सुख मान लिया करता था

जिसका दुख था जीवन में

जीवन में मृत्यु बसी हैं

जैसे बिजली हो घन में।


उनका सुख नाच उठा है

यह दुख द्रुम दल हिलने से

ऋंगार चमकता उनका

मेरी करुणा मिलने से।


हो उदासीन दोनों से

दुख-सुख से मेल कराये

ममता की हानि उठाकर

दो रूठे हुए मनाये।


चढ़ जाय अनन्त गगन पर

वेदना जलद की माला

रवि तीव्र ताप न जलाये

हिमकर को हो न उजाला।


नचती है नियति नटी-सी

कन्दुक-क्रीड़ा-सी करती

इस व्यथित विश्व आँगन में

अपना अतृप्त मन भरती।


सन्ध्या की मिलन प्रतीक्षा

कह चलती कुछ मनमानी

ऊषा की रक्त निराशा

कर देती अन्त कहानी।


"विभ्रम मदिरा से उठकर

आओ तम मय अन्तर में

पाओगे कुछ न,टटोलो

अपने बिन सूने घर में।


इस शिथिल आह से खिंचकर

तुम आओगे-आओगे

इस बढ़ी व्यथा को मेरी

रोओगे अपनाओगे।"


वेदना विकल फिर आई

मेरी चौदहो भुवन में

सुख कहीं न दिया दिखाई

विश्राम कहाँ जीवन में!


उच्छ्वास और आँसू में

विश्राम थका सोता है

रोई आँखों में निद्रा

बनकर सपना होता है।


निशि, सो जावें जब उर में

ये हृदय व्यथा आभारी

उनका उन्माद सुनहला

सहला देना सुखकारी।


तुम स्पर्श हीन अनुभव-सी

नन्दन तमाल के तल से

जग छा दो श्याम-लता-सी

तन्द्रा पल्लव विह्वल से।


सपनों की सोनजुही सब

बिखरें, ये बनकर तारा

सित सरसित से भर जावे

वह स्वर्ग गंगा की धारा


नीलिमा शयन पर बैठी

अपने नभ के आँगन में

विस्मृति की नील नलिन रस

बरसो अपांग के घन से।


चिर दग्ध दुखी यह वसुधा

आलोक माँगती तब भी

तम तुहिन बरस दो कन-कन

यह पगली सोये अब भी।


विस्मृति समाधि पर होगी

वर्षा कल्याण जलद की

सुख सोये थका हुआ-सा

चिन्ता छुट जाय विपद की।


चेतना लहर न उठेगी

जीवन समुद्र थिर होगा

सन्ध्या हो सर्ग प्रलय की

विच्छेद मिलन फिर होगा।


रजनी की रोई आँखें

आलोक बिन्दु टपकाती

तम की काली छलनाएँ

उनको चुप-चुप पी जाती।


सुख अपमानित करता-सा

जब व्यंग हँसी हँसता है

चुपके से तब मत रो तू

यब कैसी परवशता है।


अपने आँसू की अंजलि

आँखो से भर क्यों पीता

नक्षत्र पतन के क्षण में

उज्जवल होकर है जीता।


वह हँसी और यह आँसू

घुलने दे-मिल जाने दे

बरसात नई होने दे

कलियों को खिल जाने दे।


चुन-चुन ले रे कन-कन से

जगती की सजग व्यथाएँ

रह जायेंगी कहने को

जन-रंजन-करी कथाएँ।


जब नील दिशा अंचल में

हिमकर थक सो जाते हैं

अस्ताचल की घाटी में

दिनकर भी खो जाते हैं।


नक्षत्र डूब जाते हैं

स्वर्गंगा की धारा में

बिजली बन्दी होती जब

कादम्बिनी की कारा में।


मणिदीप विश्व-मन्दिर की

पहने किरणों की माला

तुम अकेली तब भी

जलती हो मेरी ज्वाला।


उत्ताल जलधि वेला में

अपने सिर शैल उठाये

निस्तब्ध गगन के नीचे

छाती में जलन छिपाये


संकेत नियति का पाकर

तम से जीवन उलझाये

जब सोती गहन गुफा में

चंचल लट को छिटकाये।


वह ज्वालामुखी जगत की

वह विश्व वेदना बाला

तब भी तुम सतत अकेली

जलती हो मेरी ज्वाला!


इस व्यथित विश्व पतझड़ की

तुम जलती हो मृदु होली

हे अरुणे! सदा सुहागिनि

मानवता सिर की रोली।


जीवन सागर में पावन

बड़वानल की ज्वाला-सी

यह सारा कलुष जलाकर

तुम जलो अनल बाला-सी।


जगद्वन्द्वों के परिणय की

हे सुरभिमयी जयमाला

किरणों के केसर रज से

भव भर दो मेरी ज्वाला।


तेरे प्रकाश में चेतन-

संसार वेदना वाला,

मेरे समीप होता है

पाकर कुछ करुण उजाला।


उसमें धुँधली छायाएँ

परिचय अपना देती हैं

रोदन का मूल्य चुकाकर

सब कुछ अपना लेती हैं।


निर्मम जगती को तेरा

मंगलमय मिले उजाला

इस जलते हुए हृदय को

कल्याणी शीतल ज्वाला।


जिसके आगे पुलकित हो

जीवन है सिसकी भरता

हाँ मृत्यु नृत्य करती है

मुस्क्याती खड़ी अमरता ।


वह मेरे प्रेम विहँसते

जागो मेरे मधुवन में

फिर मधुर भावनाओं का

कलरव हो इस जीवन में।


मेरी आहों में जागो

सुस्मित में सोनेवाले

अधरों से हँसते-हँसते

आँखों से रोनेवाले।


इस स्वप्नमयी संसृत्ति के

सच्चे जीवन तुम जागो

मंगल किरणों से रंजित

मेरे सुन्दरतम जागो।


अभिलाषा के मानस में

सरसिज-सी आँखे खोलो

मधुपों से मधु गुंजारो

कलरव से फिर कुछ बोलो।


आशा का फैल रहा है

यह सूना नीला अंचल

फिर स्वर्ण-सृष्टि-सी नाचे

उसमें करुणा हो चंचल


मधु संसृत्ति की पुलकावलि

जागो, अपने यौवन में

फिर से मरन्द हो

कोमल कुसुमों के वन में।


फिर विश्व माँगता होवे

ले नभ की खाली प्याली

तुमसे कुछ मधु की बूँदे

लौटा लेने को लाली।


फिर तम प्रकाश झगड़े में

नवज्योति विजयिनि होती

हँसता यह विश्व हमारा

बरसाता मंजुल मोती।


प्राची के अरुण मुकुर में

सुन्दर प्रतिबिम्ब तुम्हारा

उस अलस ऊषा में देखूँ

अपनी आँखों का तारा।


कुछ रेखाएँ हो ऐसी

जिनमें आकृति हो उलझी

तब एक झलक! वह कितनी

मधुमय रचना हो सुलझी।


जिसमें इतराई फिरती

नारी निसर्ग सुन्दरता

छलकी पड़ती हो जिसमें

शिशु की उर्मिल निर्मलता


आँखों का निधि वह मुख हो

अवगुंठन नील गगन-सा

यह शिथिल हृदय ही मेरा

खुल जावे स्वयं मगन-सा।


मेरी मानसपूजा का

पावन प्रतीक अविचल हो

झरता अनन्त यौवन मधु

अम्लान स्वर्ण शतदल हो।


कल्पना अखिल जीवन की

किरनों से दृग तारा की

अभिषेक करे प्रतिनिधि बन

आलोकमयी धारा की।


वेदना मधुर हो जावे

मेरी निर्दय तन्मयता

मिल जाये आज हृदय को

पाऊँ मैं भी सहृदयता।


मेरी अनामिका संगिनि!

सुन्दर कठोर कोमलते!

हम दोनों रहें सखा ही

जीवन-पथ चलते-चलते।


ताराओं की वे रातें

कितने दिन-कितनी घड़ियाँ

विस्मृति में बीत गईं वें

निर्मोह काल की कड़ियाँ


उद्वेलित तरल तरंगें

मन की न लौट जावेंगी

हाँ, उस अनन्त कोने को

वे सच नहला आवेंगी।


जल भर लाते हैं जिसको

छूकर नयनों के कोने

उस शीतलता के प्यासे

दीनता दया के दोने।


फेनिल उच्छ्वास हृदय के

उठते फिर मधुमाया में

सोते सुकुमार सदा जो

पलकों की सुख छाया में।


आँसू वर्षा से सिंचकर

दोनों ही कूल हरा हो

उस शरद प्रसन्न नदी में

जीवन द्रव अमल भरा हो।


जैसे जीवन का जलनिधि

बन अंधकार उर्मिल हो

आकाश दीप-सा तब वह

तेरा प्रकाश झिलमिल हो।


हैं पड़ी हुई मुँह ढककर

मन की जितनी पीड़ाएँ

वे हँसने लगीं सुमन-सी

करती कोमल क्रीड़ाएँ।


तेरा आलिंगन कोमल

मृदु अमरबेलि-सा फैले

धमनी के इस बन्धन में

जीवन ही हो न अकेले।


हे जन्म-जन्म के जीवन

साथी संसृति के दुख में

पावन प्रभात हो जावे

जागो आलस के सुख में ।


जगती का कलुष अपावन

तेरी विदग्धता पावे

फिर निखर उठे निर्मलता

यह पाप पुण्य हो जावे।


सपनों की सुख छाया में

जब तन्द्रालस संसृति है

तुम कौन सजग हो आई

मेरे मन में विस्मृति है!


तुम! अरे, वही हाँ तुम हो

मेरी चिर जीवनसंगिनि

दुख वाले दग्ध हृदय की

वेदने! अश्रुमयि रंगिनि!


जब तुम्हें भूल जाता हूँ

कुड्मल किसलय के छल में

तब कूक हूक-सू बन तुम

आ जाती रंगस्थल में।


बतला दो अरे न हिचको

क्या देखा शून्य गगन में

कितना पथ हो चल आई

रजनी के मृदु निर्जन में!


सुख तृप्त हृदय कोने को

ढँकती तमश्यामल छाया

मधु स्वप्निल ताराओं की

जब चलती अभिनय माया।


देखा तुमने तब रुककर

मानस कुमुदों का रोना

शशि किरणों का हँस-हँसकर

मोती मकरन्द पिरोना।


देखा बौने जलनिधि का

शशि छूने को ललचाना

वह हाहाकार मचाना

फिर उठ-उठकर गिर जाना।


मुँह सिये, झेलती अपनी

अभिशाप ताप ज्वालाएँ

देखी अतीत के युग की

चिर मौन शैल मालाएँ।


जिनपर न वनस्पति कोई

श्यामल उगने पाती है

जो जनपद परस तिरस्कृत

अभिशप्त कही जाती है।


कलियों को उन्मुख देखा

सुनते वह कपट कहानी

फिर देखा उड़ जाते भी

मधुकर को कर मनमानी।


फिर उन निराश नयनों की

जिनके आँसू सूखे हैं

उस प्रलय दशा को देखा

जो चिर वंचित भूखे हैं।


सूखी सरिता की शय्या

वसुधा की करुण कहानी

कूलों में लीन न देखी

क्या तुमने मेरी रानी?


सूनी कुटिया कोने में

रजनी भर जलते जाना

लघु स्नेह भरे दीपक का

देखा है फिर बुझ जाना।


सबका निचोड़ लेकर तुम

सुख से सूखे जीवन में

बरसों प्रभात हिमकन-सा

आँसू इस विश्व-सदन में ।

 

 






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Hindi Kavita

हिंदी कविता

Chitradhar Jaishankar Prasad

चित्राधार जयशंकर प्रसाद




अयोध्या का उद्धार


(महाराज रामचन्द्र के बाद कुश को

कुशावती और लव को श्रावस्ती

इत्यादि राज्य मिले तथा अयोध्या

उजड़ गई। वाल्मीकि रामायण में

किसी ऋषभ नामक राजा द्वारा

उसके फिर से बसाए जाने का

पता मिलता है; परन्तु महाकवि

कालिदास ने अयोध्या का उद्धार

कुश द्वारा होना लिखा है।

उत्तर काण्ड के विषय में लोगों

का अनुमान है कि वह बहुत

पीछे बना। हो सकता है कि

कालिदास के समय में ऋषभ

द्वारा अयोध्या का उद्धार होना

न प्रसिद्ध रहा हो। अस्तु, इसमें

कालिदास का ही अनुसरण

किया गया है।‒लेखक)


"नव तमाल कल कुञ्ज सों घने

सरित-तीर अति रम्य हैं बने।

अरध रैनि महँ भीजि भावती

लसत चारु नगरी कुशावती"।।


युग याम व्यतीत यामिनी

बहुतारा किरणालि मालिनी।

निज शान्ति सुराजय थापिके

शशिकी आज बनी जु भामिनी।।


विमल विधुकला की कान्ति फैली भली है

सुललित बहुतारा हीर-हारावली है।

सरवर-जलहूं में चन्द्रमा मन्द डोलै

वर परिमल पूरो पौन कीन्हे कलोलै।।


मन मुदित मराली जै मनोहारिनी है

मदकल निज पीके संग जे चारिनी है।

तहँ कमल-विलासी हँस की पांति डोलै

द्विजकुल तरुशाखा में कबौं मन्द बोलै।


करि-करि मृदु केली वृक्ष की डालियों से

सुनि रहस कथा के गुंज को आलियों से।

लहि मुदित मरन्दै मन्द ही मन्द डोलै

यह विहरण-प्रेमी पौन कीन्हे कलोलै।।


विशद भवन माहीं रत्न दीपांकुराली

निज मधुर प्रकाशै चन्द्रमा मैं मिलाली।

बिधुकर-धवलाभा मन्दिरों की अनोखी

सरवर महँ छाया फैलि छाई सुचोखी।।


विविध चित्र बहु भांति के लगे

मणि जड़ाव चहुँ ओर जो जगे।

महल मांहि बिखरवाती विभा

मधुर गन्धमय दीप की शिखा।।


कुशराज-कुमार नींद में

सुख सोये शुचि सेज पै तहां।

बिखरे चहुँ ओर पुष्प के

सुखमा सौरभ पूर है जहां।।


मुखचन्द अमन्द सोहई

अति गंभीर सुभाव पूर है।

अधिरानहि-बीच खेलई

मुदु हाँसी सुखमा सुमूर है।।


तहँ निद्रित नैन राजहीं

नव लीला मय शील ओज हैं।

मनु इन्दुहि मध्य साजहीं

युग संकोचित-से सरोज हैं।।


तहँ चारु ललाट सिंधु में

नहि चिन्ता लहरी बिराजही।

अति मन्दहि मन्द कान में

मनुवीणा ध्वनिसों सुबाजही।।


बढ़ि पञ्चम राम मैं जबै

सुविपञ्ची ध्वनि कान में पड़ी।

जगि के तहँ एक भामिनी

अध मूंदे दृग ते लख्यो खड़ी।।


पुतरी पुखराज की मनो

सुचि सांचे महँ ढारि के बनी।

उतरी कोउ देव-कामिनी

छवि मालिन्य विषादसों सनी।।


कर बीन लिए बजावती

रजनी में नहिं कोउ संग है।

बनिता वर-रूप-आगरी

सहजै ही सुकुमार अंग है।।


कल-कण्ठ-ध्वनि सु कोमला

मिलि वीणा-स्वर सों सुहात है।

कुश नीरव है लखै सुनै

जनु जादू सबही लखात है।।


“तुम वा कुल के कुमार हो

हरिचन्द्रादि जहां उदार से।

निज दुःख सह्यो तज्यो नहीं

सत राख्यो उर रत्न-हारसे।।”


“अनरण्य दिलीप आदि ने

जेहिको यत्न अनेक सों रच्यो।

रघुवंश-जहाज सो लखो

यहि साम्राज्य महाब्धि में बच्यो।।”


“अनराजकता तरंग में

फँसि के धारनि बे अधार है।

तेहि को सबही यही कहै

“कुश” याको वर-कर्णाधार है।।”


तब वंश सुकीर्ति को सबै

अनुहास्यो उदधी वहै अजै।

निज कूलन सों बढ़ै नहीं

अरु मर्य्यादहुँ को नहीं तजै।।


“जेहि कीर्ति-कलाप-गध सों

मदमाती मलयानिलौ फिरै।

हिम शैल अधित्यकान लौं

सबको चित आनन्द सों भरै।।”


“जेहि वंश-चरित्र को लिखे

कवि वाल्मीकि अजौ सुख्यात है।

तुमही ! निज तात सामुहे

शुचि गायो वह क्यों भुलात है।।”


“जेहि राम राज्य को सदा

रहिहै या जग मांहि नाम है।

तेहि के तुमहुँ सपूत है।

चित चेतो बिगरयो न काम है।।”


“तुम छाइ रहे कुशवती

अरु सोये रघुवंश की ध्वजा।

उठि जागहु सुप्रभात है

जेहि जागे सुख सोवती प्रजा।।”


नीरव नील निशीथिनी

नोखी नारि निहारि।

विपति-विदारी वीरवर

बोले बचन बिचारि।।


“देवि! नाम निज धाम,

काम कौन ? मोते कहौ।

अरु तुम येहि आराम‒

मांहि आगमन किमि कियो?”


“तुम रूप-निधान कामिनी

यह जैसी विमला सुयामिनी।

रघुवंशहि जानिहो सही

परनारी पर दीठ दैं नहीं।।”


“तुम क्यों बनी अति दीन?

क्यों मुख लखात मलीन?

निज दुःख मोहिं बताउ

कछु करहुं तासु उपाउ।।”


“जब लों करवाल धारिहैं

रघुवंशी दृढ़ चित्त मान के।

कुटिला भृकुटि न देखिहैं

सुरभि, ब्राह्मण औ तियान के।।”


शोचहु न चित्त महैं शंक नाहीं

मोचहु बिषाद निज हीय चाहि।

ईश्वर सहाय लहि है सहाय

मेंटहुँ तुम्हार दुख, करि उपाय।।”


सुनि अति सुख मानी सुन्दरी मंजु बानी

गदगद सु गिराते यों कह्यो दीन-बानी।

“तुम सुमति सुधारी ईश पीरा निवारी

अब सुनहु बिचारी है, कथा जो हमारी।।”


“सुख-समृद्धि सब भांति सो मुदा

रहत पूर नर नारी ये मुदा।

अवध-राज नगरी सुसोहती

लखत जाहि अलकाहु मोहती।।”


“इक्ष्वाकु आदिक की विमल‒

कीरति दिगन्त प्रकासिता।

सो भई नगरी नाग-कुल‒

आधीन और विलासिता।।


नहि सक्यौ सहि जब दुःख

तब आई अहौं लै के पता।

सो मोहिं जानहुं हे नरेन्द्र!

अवध नगर की देवता।।”


“जहँ लख्यो विपुल मतंग‒

तुंग सदा झरै मदनीर को।

तहँ किमि लखै बहु बकत

व्यर्थ शृगालिनी के भीर को।।


जहँ हयन हेषा बिकट‒

ध्वनि, शत्रु-हृदय कँपावती।

तहँ गिद्धनी-गन ह्वै सुछन्द

विहारि कै सुख पावती।।”


जहँ करत कोकिल कलित‒

कोमल-नाद अतिहि सुहावने ।

सो सुनि सकत नहिंका, काकन

के कुबोल भयावने।।


जहँ कामिनी कल-किंकिनी

धुनि सुनत श्रुति सुख पावहीं।

तहँ बिकत झिल्लीरव सुनत

सुकहत नहीं कछु आवहीं।।


“कुमुद” नाम इक नाग वंश है

समुझि ताहि यह वीर अंश है।

बिगत राम जनहीन दीन है

निज अधीन करि ताहि लीन है।।


उजरी नगरी तऊ तहां।

मणि-माणिक्य अनेक हैं परे।

तेहि को अधिकार में किये

सुख भोगै सब भांति सो भरे।।


रघु, दिलीप, अज आदि नृप,

दशरथ राम उदार।

पाल्यो जाको सदय ह्वै,

तासु करहु उद्धार।।


निज पूर्वज-गन की विमल‒

कीरति हूं बचि जाय।

कुमुद्वती सम सुन्दरी,

औरहु लाभ लखाय।।


सुनि, बोले वरवीर

“डरहु न नेकहु चित्त में

धरे रहौ उर धीर,

काल्हि उबारौं अवध को।।”


भोर होत ही राजसभा में

बैठे रघुकुल-राई।

प्रजा, अमात्य आदि सबही ने

दियो अनेक बधाई।।


श्रोत्रिय गनहि बुलाई, सकल‒

निज राज दान कै दीन्ह्यो।

और कटक सजि, अवध नगर

के हेतु पयानो कीन्ह्यो।।


जब अवध की सीमा लख्यो

तब खड़े ह्वै सह सैन के।

अरु कुमुद पहँ पठयो तबै

निज दूत, शुचि सुख दैन कै।।


“बिनु बूझि तुम अधिकृत कियौ

यह अवधि नगरि सुहावनी।

तेहि छोड़ि कै चलि जाहु,

नतु संगर करौ लै कै अनी।।”


वह तुरत आओ सैन लै,

रन-हेतु कुश कै सामुहे।

इतहूँ सुभट सब अस्त्र लै

तहँ रोष सों सबही जुहे।।


तहँ चले तीर, नराच, भल्ल,

सुमल्ल सबही भिरि गये।

तरवारि की बहु मारि बाढ़ी

दुहूं दल के अरि गये।।


बढ़यो क्रोध करि कुश कुमार

धनु को टंकारत।

प्रबल तेज शरजाल छाड़ि

चहुं दिशि हुंकारत।।


अम्बर-अवनिहि एक कीन्ह,

शर सों सब छायो।

अरगिन भरि-भरि नीर नैन

भागे मग पायो।।


कुश-प्रभाव लखि हीन होय के,

कुमुद आप हिय माहिं जोय के।

निज निवास महँ जायके छिप्यो

तबहि दूत कुश को तहाँ दिप्यो।।


परमा रमणी कुमुद्वती

धन-रत्नादि संग लै,

कुश को मिलि तोष दीजिये

नहिं तो सैन सज़ाव जंग लै।।


यहि मैं लखि निस्तार

कुमुद चल्यो कुश सों मिलन।

विविध रत्न उपहार

लै बहु धन निज संग में ।।


आयो तहँ कर जोरि,

कुमुद कुमुद्वति संग लै।

बोल्यो बचन निहोरि,

व्याहहु याको राज लै।।


सुन्दरि के दृग-बान

लखे रोष सबही गयो।

छाड़यो शर संधान

अवध माँहि तबही गयो।।


कुल लक्ष्मी परताप

लख्यो सबै सुखमय नगर।

मिट्यो सकल सन्ताप

बैठे सिंहासन तबै।।


कुश-कुमुद्वती को परिणय

सबको मन भायो।

अवध नगर सुखसाज

महा सुखमा सो छायो।।


वन-मिलन



अरुण विभा विलसित-हिम-शृंग मुकुटवर छाजत।

मालिनि मन्द प्रवाह सुखद-सुदुकूल विराजत।।

तरुगन राजि कतहुँ मरकत-हारावलि लाजै।

सांचहु भूधरनृपति समान हिमालय राजै।।


तेहि कटि तट महँ कण्व‒महर्षि तपोवन सोहैं।

सरल कटाक्षन ते हरिनी जहँ मुनि-मन मोहै।।

सरस रसाल, कदम्ब, तमालन की सुचि पांती।

धव, अशोक, अरु देव दारु, तरुगन बहुभांती।।


नव-मल्लिका, कुंद, मालती, बकुल अरु जाती।

चम्पक अरु मन्दार केतकी की बहु पांती।।

सुमन लिये साखा सह हिलत वायु के प्रेरित।

सौरभ सुभग बगारत जासों बन है सुरभित।।


वल्कल-वसन-विभूषित अंग सुमन की माला।

कर्णिकार को कर्नफूल विसवलय विसाला।।

कुंदकली-सों कलित केश-अवली भल राजत।

चम्पक-कलिका-हार सुरुचि गल-बीच विराजत।।


सुन्दर सहज सुभाव बदन पर मुनि-मन मोहैं।

सूधी बिमल चितौन मृगन से नैन लजोहैं।।

जेहि पवित्र मुख भाव लखे सबही सुर नारी।

निज बिलोल नव-हास विलासहिं करती वारी।।


बैठी मालिनि तीर सुभगवेतसी-कुंज में।

विलसत परिमल पूर समीरन केश-पुंज में।।

युगल मनोहर बनबाला अति सुन्दर सोहैं।

“प्रियम्बदा-अनुसूया!” जाके नाम मिठोहैं।।


“री अनुसूया! देखु सामुहे चम्पक-लतिका।

भरी सुरुचि सुकुमार अंग-अंगन मों कलिका।।

मन-ही-मन कुम्हिलात खिलत बेहाल विचारी।

‘प्रियम्बदा’ दृग भरि बोली उसास लै भारी।।


“कोमल-किसलय माहिं कली धारति अलबेली।

कुंदन-सों रंग जासु गढ़न मन हरन नवेली।।

अपर कुसुम-कलिका सों करत फिरे रंगरेली।

याहि न पूछत कोउ मधुकर सब ही अवहेली।।”


“यामें मधुर मरन्द, पराग, सुगन्ध सबै है।

सुन्दर रूप, सुरंग, जाहि-लखि और लजै है।।

पै रूखे परिमल पै सबही नाक चढ़ावत।

जैसे सूधो भाव न सब को हिय ललचावत।।


“मातो मधकर ह्वै मधु-अंध, विवेक न राखै।

मुरि मुसुक्यान मनोहर कलियन को अभिलाखै।।

सूधी चम्पक-लता नहीं जानत रस केली।

यहि विचार कोउ मधुकर नहिं अंकहि निज मेली।।”


“इनको कुटिल स्वभाव कोऊ इनको का दोखै।

स्वारथ रत परपीर नहीं जानत किमि तोखै।।

पाई समीपहिं जाही सो वाही सों पागैं।

ये तो परम विलासी, नहिं जानत अनुरागैं।।”


“बोली ‘अनुसूया’ यों‒अनखि-तोहिं का सूझी।

जा बिनही बातन पर, बातन माहिं अरूझी।।

तुम बनबासी कोउ दूजो‒नहिं सुनिबे वारो।

बन में नाच्यो मोर कहो किन आइ निहारो?”


“बहु लतिका तरु वीरूध, जे मम बाल सनेही।

तिनको सिञ्चन करहु, अहै तुव कारज एही।।

यह अशोक को पादप जामे किसलय कोमल।

औरहु परम रसाल लखहु करुना कदम्ब भल।।”


“अहै माधवी लता मृदुल-कलिका-नव धारति।

‘शकुन्तला’ के विरह-अश्रु की बूंद पसारति।।

निज मृनाल-सी बाहनि सों भरि गागरि आनी।

जाको सांझ-सबेरे सींचति दै-दै पानी।।”


“ये सब सींचन हेतु अबहिं-बातें तुम करतीं।

कुसुम चूनिबो और अहै, क्यों बरसत अरतीं।।

शकुन्तला को नाम सुने दूजी यों बोली‒


क्यों हक नाहक दबी आग यों कहि पुनि खोली।।


पाइ राज-सुख सखियन को निज हाय! बिसारी।

बहुत दिवस बीते, निज-खबर न दीन्हीं प्यारी।।

अहो गौतमी हू कछु कहत न रजधानी की।

मम बन-बासिनि सखी जु शकुन्तला-रानी की।।”


“नगर नागरी महरानिन के सैन अनोखे।

वह सूधी बन-बाला पिय को कैसे तोखे।।

जाने दे, बिन काज कहा बैठी बतरावत।

पाइ पिया को प्रेम सखिहिं किन पूछन आवत!


अबहिं शुकहिं आहार देइबो हैं हम वारी।

बहुत अबेर भई सु कुटीरहिं चलिये प्यारी।।”

तब कश्यप को शिष्य तहां गालव चलि आयो।

“कण्व कहां है?” पूछ्यो तिनसों अति हरषायो।।


“अग्निहोत्र-शाला में”‒कहि दोनों बन-बाला।

कुसुम-पात्र लीन्हों उठाइ मालति की माला।।

लजत मराली गमन लखे, वे दोनों आली।

वल्कल-वसन समेटि चली लै कुसुल उताली।।


कोकिल सों निज स्वर मिलाइ बहु बोलत बोली।

निज आश्रम पै पहुँचीं वे सब करत ठिठोली।।

कुसुम-पात्र धरि गुरु-समीप निज सिरहि झुकाई।

वन्दन कर बैठीं वे, मनकी मनहिं दुराई।।


बोल्यो गालव करि प्रणाम ऋषिवर को कर सों‒

“लै संदेस हम आये हैं अपने गुरुवर सों।।

महाराज दुष्यन्त सहित निजसुत प्रियवर के।।

शकुन्तला-संग मिले, शाप छूट्यो मुनिवर के।।


“बहु ब्रत धारि अनेक कष्ट सहि पुनि सुख पायो।

सुखद पुत्र मुख चन्द्र देखि अति हिय हरषायो।।

दलित कुसुम अपमानित-हिय, बाला बेचारी।

श्।कुन्तला निज पति-सुख पायो पुनि सुकुमारी।।


गद्गद कण्ठ, सिथिल-बानी पति ही सुखसानी।

बोले कण्व-महर्षि अनूपम, अविकल ज्ञानी।

“सबही दिन नहिं रहत दुःख संसार मँझारी।

कहुं दिन की है जोति कहूँ है चन्द्र उजारी।।”


प्रियम्बदा अनुसूया हूँ अति ही हिय हरषा।

आनन्दित ह्वै सुखद अश्रु निज आँखिन बरषी।।

पायो जब संवाद मनोहर निज अभिलाषित।

भयो प्रफुल्लित तबहिं वहै, तप-वन चिर-तापित।।


“हेमकूट ते उतरि मरीची के आश्रम सों।

आवत हैं दुष्यन्त-सहित निजी श्री अनुपम सों।”

मातलि आय कह्यो ज्यों ही, सब ही हिय हुलसे।

तहं आनन्दमय ध्वनि उठी तबहीं ऋषिकुल से।


शकुन्तला दुष्यन्त, बीच में भरत सुहावत।

धर्म, शांति, आनन्द, मनहुं साथहिं चलि आवत।।

देखत ही अकुलाय उठीं, तुरतहिं बन-बाला।

प्रियम्बदा, अनुसूया, बिकसी ज्यों मृदु माला।।


भाट सखी-गन सों, तबही वह रोवन लागी।

हर्ष-विषाद असीम, आनन्दित ह्वै पुनि पागी।

शकुन्तला निज बाल-सखी गल सों कहुँ लागै।

बढ़यो अधिक आवेग माहिं, नहिं गल भुज त्यागै।।


करुण, प्रेम प्रवाह बढ़यो, वा शुद्ध तपोवन।

बरसन लग्यो मनोहर मंजुल मुंद आनंद-घन।।

श्रद्धा, भक्ति, सरलता, सब ही जुरी एक छन।

चित्र-लिखे -से चुप ह्वै देखत खड़े एक मन।।


कछुक बेर पर कण्व-चरण पर निज सिर नाई।

करि प्रणाम कर जोरि, खड़े भै बिधुकुल-राई।।

कुशल पूछ पुनि कण्व, दियो आशीष अनुपम।

भरतहुँ पुनि कीन्ह्यो प्रणाम, लहि मोद महातम।।


शकुन्तला सों पालित तब, वह मृग तहं आयो।

सिर हिलाई अरु चरण-चूमि आनन्द जनायो।।

माधवि लता मनोहर की निज करते मरस्यो।।

वह तप-वन तब अधिक-मनोरम ह्वै सुचि दरस्यो।।


यज्ञ-भूमि को करि प्रणाम, आनन्द समैठे।

पूर्व मिलन के कुञ्ज मांहि, कछु छन सब बैठे।।

शकुन्तला, दुष्यन्त, भरत, मालिनी के तीरन।

बन-बासिनि वाला-युग के संग लागी बिहरन।।


प्रियम्बदा मुख चूमि भरत को लेत अंक में।

शकुन्तला अनुसूया संग बिहरत निशंक में।।

निजी बीते दिवसन की सुमधुर कथा सुनावत।

चुप ह्वै के दुष्यन्त सुनत, अति ही सुख पावत।


सरल-स्वभाव बन-बासिनि, वे सब बरबाला।

कथानुकूल सुधारत भाव‒अनेक रसाला।।

पति सों बिछुरन-मिलन समय की कहि बहु बातें।

चिर दुखिया आनन्दित ह्वै सब मोद मनाते।।


प्रियम्बदा तब दुष्यन्तहिं दीन्हों उराहनो।

अहो परम धार्मिक, तेरी है बहु सराहनो।।

शकुन्तला को शाप हेतु विस्मृत तुम कीन्हों।

याही वन हम रहीं, खोज हमरी हू लीन्हों?


“अहो होत है अधिक निठुर ‒नर सब, नारी सों।

जों लौं मुख सामुहे अहैं तौ लौ प्यारी सों।

नहिं तो कौन कहां, को, कैसो, कासों नाते।

बहु दिन पै जो मिलै‒तबौ पूछी नहिं बाते ।।”


अनुसूया हंसि बोली‒ये तो अति सूधे हैं।

इनको यहै स्वभाव कहा यामे तू पैहैं।।

शकुन्तला मुसक्याई कह्यो‒“जाने दे सखियो।।

इनके सब बातन को अपने हिय में रखियो।।


अब यह मेरी एक विनय धरि ध्यान सुनै तू।

इनके विमल, चरित्रन को नहिं नेक गुनै तू।।

जामें फिर निंहं बिछुरैं, सब यह ही मति ठानो।

सदन हमारे संग चलो अति ही सुख माने।।”


यज्ञ-प्रज्ज्वलित बन्हि, लखे सब ही प्रणाम किय।

कण्व-महर्षि आनन्दित को अभिवन्दन हूं किय।।

शकुन्तला कर जोरि पिता सों हिय सकुचाती।

कह्यो-“विनय करिबो-कुछ है पै नहिं कहि आती।।”


बोले कण्व ‒“कहो, जो कछु तुमको कहनो है।”

शकुन्तला ने कह्वो‒“सखी-संग मोहिं रहनो है।।

इन सखियन के बिना अहो हम अति दुख पायो।”

कण्व “अस्तु” कहि सबको अति आनन्द बढ़ायो।।


कञ्चन कंकन किंकिनि को कलनाद सुनावत।

नन्दन-कानन-कुसुमदाम सौरभ सौ छावत।।

निज अमन्द सुचिचन्द‒बदन सोभा दिखरावत।

जगमगात जाहिरहि जवाहिर को चमकावत।।


निज अनूप अति ओपदार आभा दिखरावत।

चञ्चल चीनांशुक अञ्चल को चलत उड़ावत।।

केश कदम्बन कलित कुसुम-कलिका बिखरावत।

मञ्जु मेनका को देख्यो सब उतरत आवत।।


यथा उचित अभिवंदन सब ही कियो परस्पर।

शकुन्तला माता सों लपटी अतिहि प्रेम भर।।

भरत-चन्द्रमुख चूमि भइ वह हिय सों हरषित।

प्रियम्बदा-अनुसूया सिरा कीन्हों कर परसित।।


कण्व दियो आसीन जाहु सब सुख सों रहियो।

जीवन के सब लाभ प्रेम परिपूरित लहियो।।

चिर बिछुरे सब मिले हिये आनन्द बढ़ावन।

मालिनी-तरल-तरंग लगी मंगल को गावन।।


प्रेम-राज्य

(पूर्वार्द्ध)



बाल विभाकर सोहत, अरुण किरण अवली सों।

कृष्णा क्रीड़त निजनव, तरलित जल लहरीसों।।

मलयजघीर पवन-बन‒उपवन महँ सञ्चरहीं।

कोकिल कुल कलनाद करत अति मधुर विहरहीं।।


टालीकोट सुयुद्धभूमि में प्रवलदुहूं दल।

सूर्यकेतु महाराज, विजयनगरेश महाबल।।

प्रतिपक्षी बहु यवन राज, मिलि सैन सजायो।

बीरकर्म अरु कादरता, को दृश्य दिखायो।।


सिंहद्वार पर खड़े नरेश लखैं सेना को।

बांधवराजे यूथप सँगघेरैं बहुनाको।।

सेनापति सह सैन्य, युद्धभूमिहि चल दीन्हो।

पांच वर्ष को बालक इक आगमन सुकीन्हो।।


चन्द्रोज्ज्वल मुख मधुर, विमल हाँसी को धारत।

सहज सलोने अंग, मनोहर ताहि सँवारत।।

तब नरेश निज सुतके मुख सुख में अति पागे।

हिये लाइ आनन्द सहित, मुख चूमन लागे।।


कह्यो “प्रिया को विरह, तुमहिलखि सबहि बिसारी।

किन्तु वत्स यह वीरकर्म्म, कुलप्रथा हमारी।।

सो अब तुमहि त्राण की आशा हिय महुँ धारौ।

काहि समर्पहूं तुमहिं चित्त नहिं कुछ निरधारौ।।”


आयो तहं इक भील‒युथपति दुहुँ करजोरे।

चरनन पै सिरनाइ, कह्वो अति वचन निहोरे‒

“महाराज ! यह राजकुंवर हमको दै देहू।

राखैंगे प्रानन प्यारे को सहित सनेहू।।


अनुज एक सह भील, सैन्य आज्ञा पालन को।

आपहिं की सेवा में है सेना चालन को।।

हिम गिरि कटि महँ, इनको लै हमहूँ चलि जैहैं।

शत्रु न कोऊ इनको, खोजनते कहुँ पैहैं।।


जब हम सुनिहैं विजय आपकी तो पुनि ऐहैं।

कीन्हैं नेक बिलम्ब न यामें कछु फल ह्वै हैं।।

“अस्तु” कह्यो पुनि शिरहि सूंघि आलिंगन कीन्हों।।

बालक को मुख चूमि, तुरत भीलहि दै दीन्हों।।


“दादा” कहि अकुलाइ उठ्यो तबहिं वह बालक।

नैनन मों भरि नीर कह्यो नरगन के पालक।।

“दादा” ये ही हैं तुम्हरे, इन्हीं को कहियो।

मेरे जीवन प्रान, सदा ही सुखसे रहियो।”


यों कहि के मुख फेरि, अश्व पै निज चढ़ि लीन्हों।

खींचि म्यान ते खड्ग युद्ध सन्मुख चलि दीन्हों।।

आवतही नरनाह, देखि सब छत्री सेना।

अति उमगित भइ अंग आनन्द अटैना।।


वीर वृद्ध महाराज, बदन पर हाँसी रेखा।

सब को हिय उत्साहित कीन्हों सब ही देखा।

जयतु जयतु महाराज, कह्यो तब सबही फौजैं।

जलधि बीर रस में, ज्यों उमड़ि उठी बहु मौजैं।।


फरकि उठे भुजदण्ड, वीर रससों उमगाहे।

चमकि उठीं तरवार, वर्म्म अरु चर्म सनाहें।।

सैना करि द्वै भाग, एक सैनप को सौंप्यो।

अरु एकहि लै आप, अकेले रनको रोप्यो।।


तब हर हर कहि कीन्ह्यो धावा शत्रुन ऊपर।

गरुड़ करत जिमि धावा, पन्नग प्रबल चमू पर।।

भिड़े वीर ढुहुँ ओर चली, कारी तलवारैं।

एक वीर सिर हेतु, अप्सरा तन मन वारैं।।


दाबि लियो क्षत्रीन, यवन के सब सेना को।

भागन को नहिं राह, घेरि लीन्हों सब नाको।।

विकल कियो तरवार मारसों व्यथित भये सब।

भागे यवन अनेक, लखै जहँही अवसर जब।।


ह्वै रणमत्त परे तबही सब पीछे छत्री।।

तुरतहिं मारै ताहि, जबहि देखैं कोउ अत्री।।

करि कादरता कछुक, यवन जे रन सों भागे।

तेऊ मिलि तब लीन्ह्यो, घेरि बीर-पथ त्यागे।।


उन क्षत्रिन संग महाराज, तिनमहं घिरि गयऊ।

सेनापति तहं तिनहि, छुड़ावन को नहिं अयऊ।।

अहो! लोभ बस करत, काज कैसे नर नारी।।

करत आत्म-मर्यादा, धर्म्म सबहि को वारी।।


राखत कछुक विचार नहीं यह पुन्य पाप सों।

निज तृष्णा को सींचत, नर नित आस“भाप” सों।।

नित्य करत जो पालन, तासों करत महाछल।

बहु विधि करत उपाय, बढ़ावन को अपनो बल।।


चाहत जासों जौन, करावत है यह तासों।

याको काउ जीतत नहिं हारे सब यासों।।

करिके बीर कर्म्म अरु लरिके निज अरगिन सों।

राखि स्वधर्म महान, टर्यो नहिं अपने पन सों।।


मारि म्लेच्छतम करि, अनूप बहु बीर काम को।

सूर्य्यकेतू तब गये, सुखद निज अस्तधाम को।।

विश्वम्भर के शांत अंक महं आश्रय लीन्हों।

आशुतोष तब आशु-शान्ति अभिनव तेहि दीन्हों।।


“भारतभूमि धन्य तुम, अनुपम खान।

भये जहां बहु रतन, अतुल महान।।

भये नृपति जहं इक्ष्वाकु बलवान।

जहां प्रियव्रत जनमे, विदित जहान।।


भये नृपति सिरमौर जाह दुष्यंत।

जन्म लियो जहं भरत सुकीर्त्ति अनन्त।।

जम्बूद्वीपहिं बांट्यो करि नवखण्ड।

निज नामते बसायो, भारतखण्ड।।


जिनके रथ सहसारथि, नभलौं जाहिं।

जिनके भुजबल-सागर को नहिं थाहि।।

जिनके शरण लहे, निर्विघ्न सुरेश।

अमरावती विराजहिं, चारु हमेश।।


जिनके प्रत्यञ्चा की, सुनि टनकार।

अरिशिर मुकुटमणिन को सहै न भार।।

भये भीष्म रणभीष्म, हरण अरिदर्प।

जामदग्निते रच्यो समर करि दर्प।।


जिनकी देव प्रतिज्ञा की सुख्याति।

गाइगाइ नहिं वाणी अजहुं अघाति।।

विजय भये जिन भये पराजय नाहिं।

जिनके भुजबल ते, प्रसन्न ह्वै चाहि।।


दियो पाशुपत व्योमकेश त्रिपुरारि।

कियो दिग्विजय डारयो शत्रुन मारि।।

जिनके क्रोध अनल महँ, स्त्रुवा नराच।

आहुति अक्षौहिणी, भई सुनु सांच।।


वसुन्धरे तव रक्त‒पिपासा धन्य।

मरी जहां चतुरंगिनि सैन अगन्य।।”


करि कुकर्म्म यह जब वह, क्षत्री-कुल-कलंक-अति।

सेनापति यवन के, सैनप पहं निशंक मति।।

गयो लेन निज पुरस्कार, तब सब उठि धाये।

मातृ-भूमि-द्रोही कहि, अति उपहास बनाये॥


तब अति क्षुब्ध चित्त, गृहको वह लौटन लाग्यो।

देख्यो गृह के द्वार, एक बाला मन पाग्यो॥

गृह में देख्यो नाहिं कोउ अति कुण्ठित भो हिय।

ललिता को लीन्ह्यो उठाइ, अरु मुख चुम्बन किय ॥


रोइ कहन लागी बाला, तब अति दुख सानी।

“छाड़ि मोंहि जननी हू, गई कहाँ नहिं जानी ॥”

पुनि लखि बाला कर मह, पत्र एक अति आकुल।

लीन्हों ताहि पढ़न को, तब वह सैनप व्याकुल॥


पढ्यो ताहि "नहि अहौ-अहौ तुम पती हमारे।

तुम्हरे सन्‍मुख महाराज, किमि स्वर्ग सिधारे ॥

तुम आशा भय बाला को, लीन्हे हिय पोखौ।

तुमहि क्षमा हित स्वर्ग-मॉहि महराजहिं तोखौ॥"


वह निराश निज हृदय, लिये तबही कुलघालक।

कीन्हों उत्तर गमन, तबै सेना को पालक॥

कृष्ण की नव तरल बीचि, अति कृष्णा लागै।

अरु वह मलयजपवन नाहि बहि हिय अनुरागै॥


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Hindi Kavita

हिंदी कविता

Kamayani Jaishankar Prasad

कामायनी जयशंकर प्रसाद



चिंता सर्ग भाग-1

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,

बैठ शिला की शीतल छाँह

एक पुरुष, भीगे नयनों से

देख रहा था प्रलय प्रवाह ।


नीचे जल था ऊपर हिम था,

एक तरल था एक सघन,

एक तत्व की ही प्रधानता

कहो उसे जड़ या चेतन ।


दूर दूर तक विस्तृत था हिम

स्तब्ध उसी के हृदय समान,

नीरवता-सी शिला-चरण से

टकराता फिरता पवमान ।


तरूण तपस्वी-सा वह बैठा

साधन करता सुर-श्मशान,

नीचे प्रलय सिंधु लहरों का

होता था सकरुण अवसान।


उसी तपस्वी-से लंबे थे

देवदारू दो चार खड़े,

हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर

बनकर ठिठुरे रहे अड़े।


अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ,

ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार,

स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का

होता था जिनमें संचार।


चिंता-कातर वदन हो रहा

पौरूष जिसमें ओत-प्रोत,

उधर उपेक्षामय यौवन का

बहता भीतर मधुमय स्रोत।


बँधी महावट से नौका थी

सूखे में अब पड़ी रही,

उतर चला था वह जल-प्लावन,

और निकलने लगी मही।


निकल रही थी मर्म वेदना

करुणा विकल कहानी सी,

वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही,

हँसती-सी पहचानी-सी।


"ओ चिंता की पहली रेखा,

अरी विश्व-वन की व्याली,

ज्वालामुखी स्फोट के भीषण

प्रथम कंप-सी मतवाली।


हे अभाव की चपल बालिके,

री ललाट की खलखेला

हरी-भरी-सी दौड़-धूप,

ओ जल-माया की चल-रेखा।


इस ग्रहकक्षा की हलचल-

री तरल गरल की लघु-लहरी,

जरा अमर-जीवन की,

और न कुछ सुनने वाली, बहरी।


अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी-

अरी आधि, मधुमय अभिशाप

हृदय-गगन में धूमकेतु-सी,

पुण्य-सृष्टि में सुंदर पाप।


मनन करावेगी तू कितना?

उस निश्चित जाति का जीव

अमर मरेगा क्या?

तू कितनी गहरी डाल रही है नींव।


आह घिरेगी हृदय-लहलहे

खेतों पर करका-घन-सी,

छिपी रहेगी अंतरतम में

सब के तू निगूढ धन-सी।


बुद्धि, मनीषा, मति, आशा,

चिंता तेरे हैं कितने नाम

अरी पाप है तू, जा, चल जा

यहाँ नहीं कुछ तेरा काम।


विस्मृति आ, अवसाद घेर ले,

नीरवते बस चुप कर दे,

चेतनता चल जा, जड़ता से

आज शून्य मेरा भर दे।"


"चिंता करता हूँ मैं जितनी

उस अतीत की, उस सुख की,

उतनी ही अनंत में बनती जाती

रेखायें दुख की।


आह सर्ग के अग्रदूत

तुम असफल हुए, विलीन हुए,

भक्षक या रक्षक जो समझो,

केवल अपने मीन हुए।


अरी आँधियों ओ बिजली की

दिवा-रात्रि तेरा नतर्न,

उसी वासना की उपासना,

वह तेरा प्रत्यावत्तर्न।


मणि-दीपों के अंधकारमय

अरे निराशा पूर्ण भविष्य

देव-दंभ के महामेध में

सब कुछ ही बन गया हविष्य।


अरे अमरता के चमकीले पुतलो

तेरे ये जयनाद

काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि

बन कर मानो दीन विषाद।


प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित

हम सब थे भूले मद में,

भोले थे, हाँ तिरते केवल सब

विलासिता के नद में।


वे सब डूबे, डूबा उनका विभव,

बन गया पारावार

उमड़ रहा था देव-सुखों पर

दुख-जलधि का नाद अपार।"


"वह उन्मुक्त विलास हुआ क्या

स्वप्न रहा या छलना थी

देवसृष्टि की सुख-विभावरी

ताराओं की कलना थी।


चलते थे सुरभित अंचल से

जीवन के मधुमय निश्वास,

कोलाहल में मुखरित होता

देव जाति का सुख-विश्वास।


सुख, केवल सुख का वह संग्रह,

केंद्रीभूत हुआ इतना,

छायापथ में नव तुषार का

सघन मिलन होता जितना।


सब कुछ थे स्वायत्त,विश्व के-बल,

वैभव, आनंद अपार,

उद्वेलित लहरों-सा होता

उस समृद्धि का सुख संचार।


कीर्ति, दीप्ती, शोभा थी नचती

अरूण-किरण-सी चारों ओर,

सप्तसिंधु के तरल कणों में,

द्रुम-दल में, आनन्द-विभोर।


शक्ति रही हाँ शक्ति-प्रकृति थी

पद-तल में विनम्र विश्रांत,

कँपती धरणी उन चरणों से होकर

प्रतिदिन ही आक्रांत।


स्वयं देव थे हम सब,

तो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि?

अरे अचानक हुई इसी से

कड़ी आपदाओं की वृष्टि।


गया, सभी कुछ गया,मधुर तम

सुर-बालाओं का श्रृंगार,

ऊषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित

मधुप-सदृश निश्चित विहार।


भरी वासना-सरिता का वह

कैसा था मदमत्त प्रवाह,

प्रलय-जलधि में संगम जिसका

देख हृदय था उठा कराह।"


"चिर-किशोर-वय, नित्य विलासी

सुरभित जिससे रहा दिगंत,

आज तिरोहित हुआ कहाँ वह

मधु से पूर्ण अनंत वसंत?


कुसुमित कुंजों में वे पुलकित

प्रेमालिंगन हुए विलीन,

मौन हुई हैं मूर्छित तानें

और न सुन पडती अब बीन।


अब न कपोलों पर छाया-सी

पडती मुख की सुरभित भाप

भुज-मूलों में शिथिल वसन की

व्यस्त न होती है अब माप।


कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे,

हिलते थे छाती पर हार,

मुखरित था कलरव,गीतों में

स्वर लय का होता अभिसार।


सौरभ से दिगंत पूरित था,

अंतरिक्ष आलोक-अधीर,

सब में एक अचेतन गति थी,

जिसमें पिछड़ा रहे समीर।


वह अनंग-पीड़ा-अनुभव-सा

अंग-भंगियों का नत्तर्न,

मधुकर के मरंद-उत्सव-सा

मदिर भाव से आवत्तर्न।


भाग -2


सुरा सुरभिमय बदन अरूण वे

नयन भरे आलस अनुराग़,

कल कपोल था जहाँ बिछलता

कल्पवृक्ष का पीत पराग।


विकल वासना के प्रतिनिधि

वे सब मुरझाये चले गये,

आह जले अपनी ज्वाला से

फिर वे जल में गले, गये।"


"अरी उपेक्षा-भरी अमरते री

अतृप्ति निबार्ध विलास

द्विधा-रहित अपलक नयनों की

भूख-भरी दर्शन की प्यास।


बिछुडे़ तेरे सब आलिंगन,

पुलक-स्पर्श का पता नहीं,

मधुमय चुंबन कातरतायें,

आज न मुख को सता रहीं।


रत्न-सौंध के वातायन,

जिनमें आता मधु-मदिर समीर,

टकराती होगी अब उनमें

तिमिंगिलों की भीड़ अधीर।


देवकामिनी के नयनों से जहाँ

नील नलिनों की सृष्टि-

होती थी, अब वहाँ हो रही

प्रलयकारिणी भीषण वृष्टि।


वे अम्लान-कुसुम-सुरभित-मणि

रचित मनोहर मालायें,

बनीं श्रृंखला, जकड़ी जिनमें

विलासिनी सुर-बालायें।


देव-यजन के पशुयज्ञों की

वह पूर्णाहुति की ज्वाला,

जलनिधि में बन जलती

कैसी आज लहरियों की माला।"


"उनको देख कौन रोया

यों अंतरिक्ष में बैठ अधीर

व्यस्त बरसने लगा अश्रुमय

यह प्रालेय हलाहल नीर।


हाहाकार हुआ क्रंदनमय

कठिन कुलिश होते थे चूर,

हुए दिगंत बधिर, भीषण रव

बार-बार होता था क्रूर।


दिग्दाहों से धूम उठे,

या जलधर उठे क्षितिज-तट के

सघन गगन में भीम प्रकंपन,

झंझा के चलते झटके।


अंधकार में मलिन मित्र की

धुँधली आभा लीन हुई।

वरूण व्यस्त थे, घनी कालिमा

स्तर-स्तर जमती पीन हुई,


पंचभूत का भैरव मिश्रण

शंपाओं के शकल-निपात

उल्का लेकर अमर शक्तियाँ

खोज़ रहीं ज्यों खोया प्रात।


बार-बार उस भीषण रव से

कँपती धरती देख विशेष,

मानो नील व्योम उतरा हो

आलिंगन के हेतु अशेष।


उधर गरजती सिंधु लहरियाँ

कुटिल काल के जालों सी,

चली आ रहीं फेन उगलती

फन फैलाये व्यालों-सी।


धसँती धरा, धधकती ज्वाला,

ज्वाला-मुखियों के निस्वास

और संकुचित क्रमश: उसके

अवयव का होता था ह्रास।


सबल तरंगाघातों से

उस क्रुद्ध सिंद्धु के, विचलित-सी-

व्यस्त महाकच्छप-सी धरणी

ऊभ-चूम थी विकलित-सी।


बढ़ने लगा विलास-वेग सा

वह अतिभैरव जल-संघात,

तरल-तिमिर से प्रलय-पवन का

होता आलिंगन प्रतिघात।


वेला क्षण-क्षण निकट आ रही

क्षितिज क्षीण, फिर लीन हुआ

उदधि डुबाकर अखिल धरा को

बस मर्यादा-हीन हुआ।


करका क्रंदन करती

और कुचलना था सब का,

पंचभूत का यह तांडवमय

नृत्य हो रहा था कब का।"


"एक नाव थी, और न उसमें

डाँडे लगते, या पतवार,

तरल तरंगों में उठ-गिरकर

बहती पगली बारंबार।


लगते प्रबल थपेडे़, धुँधले तट का

था कुछ पता नहीं,

कातरता से भरी निराशा

देख नियति पथ बनी वहीं।


लहरें व्योम चूमती उठतीं,

चपलायें असंख्य नचतीं,

गरल जलद की खड़ी झड़ी में

बूँदे निज संसृति रचतीं।


चपलायें उस जलधि-विश्व में

स्वयं चमत्कृत होती थीं।

ज्यों विराट बाड़व-ज्वालायें

खंड-खंड हो रोती थीं।


जलनिधि के तलवासी

जलचर विकल निकलते उतराते,

हुआ विलोड़ित गृह,

तब प्राणी कौन! कहाँ! कब सुख पाते?


घनीभूत हो उठे पवन,

फिर श्वासों की गति होती रूद्ध,

और चेतना थी बिलखाती,

दृष्टि विफल होती थी क्रुद्ध।


उस विराट आलोड़न में ग्रह,

तारा बुद-बुद से लगते,

प्रखर-प्रलय पावस में जगमग़,

ज्योतिर्गणों-से जगते।


प्रहर दिवस कितने बीते,

अब इसको कौन बता सकता,

इनके सूचक उपकरणों का

चिह्न न कोई पा सकता।


काला शासन-चक्र मृत्यु का

कब तक चला, न स्मरण रहा,

महामत्स्य का एक चपेटा

दीन पोत का मरण रहा।


किंतु उसी ने ला टकराया

इस उत्तरगिरि के शिर से,

देव-सृष्टि का ध्वंस अचानक

श्वास लगा लेने फिर से।


आज अमरता का जीवित हूँ मैं

वह भीषण जर्जर दंभ,

आह सर्ग के प्रथम अंक का

अधम-पात्र मय सा विष्कंभ!"


"ओ जीवन की मरू-मरिचिका,

कायरता के अलस विषाद!

अरे पुरातन अमृत अगतिमय

मोहमुग्ध जर्जर अवसाद!


मौन नाश विध्वंस अँधेरा

शून्य बना जो प्रकट अभाव,

वही सत्य है, अरी अमरते

तुझको यहाँ कहाँ अब ठाँव।


मृत्यु, अरी चिर-निद्रे

तेरा अंक हिमानी-सा शीतल,

तू अनंत में लहर बनाती

काल-जलधि की-सी हलचल।


महानृत्य का विषम सम अरी

अखिल स्पंदनों की तू माप,

तेरी ही विभूति बनती है सृष्टि

सदा होकर अभिशाप।


अंधकार के अट्टहास-सी

मुखरित सतत चिरंतन सत्य,

छिपी सृष्टि के कण-कण में तू

यह सुंदर रहस्य है नित्य।


जीवन तेरा क्षुद्र अंश है

व्यक्त नील घन-माला में,

सौदामिनी-संधि-सा सुन्दर

क्षण भर रहा उजाला में।"


पवन पी रहा था शब्दों को

निर्जनता की उखड़ी साँस,

टकराती थी, दीन प्रतिध्वनि

बनी हिम-शिलाओं के पास।


धू-धू करता नाच रहा था

अनस्तित्व का तांडव नृत्य,

आकर्षण-विहीन विद्युत्कण

बने भारवाही थे भृत्य।


मृत्यु सदृश शीतल निराश ही

आलिंगन पाती थी दृष्टि,

परमव्योम से भौतिक कण-सी

घने कुहासों की थी वृष्टि।


वाष्प बना उड़ता जाता था

या वह भीषण जल-संघात,

सौरचक्र में आवतर्न था

प्रलय निशा का होता प्रात।

आशा सर्ग भाग-1

ऊषा सुनहले तीर बरसती

जयलक्ष्मी-सी उदित हुई,

उधर पराजित काल रात्रि भी

जल में अतंर्निहित हुई।


वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का

आज लगा हँसने फिर से,

वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में

शरद-विकास नये सिर से।


नव कोमल आलोक बिखरता

हिम-संसृति पर भर अनुराग,

सित सरोज पर क्रीड़ा करता

जैसे मधुमय पिंग पराग।


धीरे-धीरे हिम-आच्छादन

हटने लगा धरातल से,

जगीं वनस्पतियाँ अलसाई

मुख धोती शीतल जल से।


नेत्र निमीलन करती मानो

प्रकृति प्रबुद्ध लगी होने,

जलधि लहरियों की अँगड़ाई

बार-बार जाती सोने।


सिंधुसेज पर धरा वधू अब

तनिक संकुचित बैठी-सी,

प्रलय निशा की हलचल स्मृति में

मान किये सी ऐठीं-सी।


देखा मनु ने वह अतिरंजित

विजन का नव एकांत,

जैसे कोलाहल सोया हो

हिम-शीतल-जड़ता-सा श्रांत।


इंद्रनीलमणि महा चषक था

सोम-रहित उलटा लटका,

आज पवन मृदु साँस ले रहा

जैसे बीत गया खटका।


वह विराट था हेम घोलता

नया रंग भरने को आज,

'कौन' ? हुआ यह प्रश्न अचानक

और कुतूहल का था राज़!


"विश्वदेव, सविता या पूषा,

सोम, मरूत, चंचल पवमान,

वरूण आदि सब घूम रहे हैं

किसके शासन में अम्लान?


किसका था भू-भंग प्रलय-सा

जिसमें ये सब विकल रहे,

अरे प्रकृति के शक्ति-चिह्न

ये फिर भी कितने निबल रहे!


विकल हुआ सा काँप रहा था,

सकल भूत चेतन समुदाय,

उनकी कैसी बुरी दशा थी

वे थे विवश और निरुपाय।


देव न थे हम और न ये हैं,

सब परिवर्तन के पुतले,

हाँ कि गर्व-रथ में तुरंग-सा,

जितना जो चाहे जुत ले।"


"महानील इस परम व्योम में,

अतंरिक्ष में ज्योतिर्मान,

ग्रह, नक्षत्र और विद्युत्कण

किसका करते से-संधान!


छिप जाते हैं और निकलते

आकर्षण में खिंचे हुए?

तृण, वीरुध लहलहे हो रहे

किसके रस से सिंचे हुए?


सिर नीचा कर किसकी सत्ता

सब करते स्वीकार यहाँ,

सदा मौन हो प्रवचन करते

जिसका, वह अस्तित्व कहाँ?


हे अनंत रमणीय कौन तुम?

यह मैं कैसे कह सकता,

कैसे हो? क्या हो? इसका तो-

भार विचार न सह सकता।


हे विराट! हे विश्वदेव !

तुम कुछ हो,ऐसा होता भान-

मंद्-गंभीर-धीर-स्वर-संयुत

यही कर रहा सागर गान।"


"यह क्या मधुर स्वप्न-सी झिलमिल

सदय हृदय में अधिक अधीर,

व्याकुलता सी व्यक्त हो रही

आशा बनकर प्राण समीर।


यह कितनी स्पृहणीय बन गई

मधुर जागरण सी-छबिमान,

स्मिति की लहरों-सी उठती है

नाच रही ज्यों मधुमय तान।


जीवन-जीवन की पुकार है

खेल रहा है शीतल-दाह-

किसके चरणों में नत होता

नव-प्रभात का शुभ उत्साह।


मैं हूँ, यह वरदान सदृश क्यों

लगा गूँजने कानों में!

मैं भी कहने लगा, 'मैं रहूँ'

शाश्वत नभ के गानों में।


यह संकेत कर रही सत्ता

किसकी सरल विकास-मयी,

जीवन की लालसा आज

क्यों इतनी प्रखर विलास-मयी?


तो फिर क्या मैं जिऊँ

और भी-जीकर क्या करना होगा?

देव बता दो, अमर-वेदना

लेकर कब मरना होगा?"


एक यवनिका हटी,

पवन से प्रेरित मायापट जैसी।

और आवरण-मुक्त प्रकृति थी

हरी-भरी फिर भी वैसी।


स्वर्ण शालियों की कलमें थीं

दूर-दूर तक फैल रहीं,

शरद-इंदिरा की मंदिर की

मानो कोई गैल रही।


विश्व-कल्पना-सा ऊँचा वह

सुख-शीतल-संतोष-निदान,

और डूबती-सी अचला का

अवलंबन, मणि-रत्न-निधान।


अचल हिमालय का शोभनतम

लता-कलित शुचि सानु-शरीर,

निद्रा में सुख-स्वप्न देखता

जैसे पुलकित हुआ अधीर।


उमड़ रही जिसके चरणों में

नीरवता की विमल विभूति,

शीतल झरनों की धारायें

बिखरातीं जीवन-अनुभूति!


उस असीम नीले अंचल में

देख किसी की मृदु मुसक्यान,

मानों हँसी हिमालय की है

फूट चली करती कल गान।


शिला-संधियों में टकरा कर

पवन भर रहा था गुंजार,

उस दुर्भेद्य अचल दृढ़ता का

करता चारण-सदृश प्रचार।


संध्या-घनमाला की सुंदर

ओढे़ रंग-बिरंगी छींट,

गगन-चुंबिनी शैल-श्रेणियाँ

पहने हुए तुषार-किरीट।


विश्व-मौन, गौरव, महत्त्व की

प्रतिनिधियों से भरी विभा,

इस अनंत प्रांगण में मानो

जोड़ रही है मौन सभा।


वह अनंत नीलिमा व्योम की

जड़ता-सी जो शांत रही,

दूर-दूर ऊँचे से ऊँचे

निज अभाव में भ्रांत रही।


उसे दिखाती जगती का सुख,

हँसी और उल्लास अजान,

मानो तुंग-तुरंग विश्व की।

हिमगिरि की वह सुढर उठान


थी अंनत की गोद सदृश जो

विस्तृत गुहा वहाँ रमणीय,

उसमें मनु ने स्थान बनाया

सुंदर, स्वच्छ और वरणीय।


पहला संचित अग्नि जल रहा

पास मलिन-द्युति रवि-कर से,

शक्ति और जागरण-चिन्ह-सा

लगा धधकने अब फिर से।


जलने लगा निंरतर उनका

अग्निहोत्र सागर के तीर,

मनु ने तप में जीवन अपना

किया समर्पण होकर धीर।


सज़ग हुई फिर से सुर-संकृति

देव-यजन की वर माया,

उन पर लगी डालने अपनी

कर्ममयी शीतल छाया।


भाग-2


उठे स्वस्थ मनु ज्यों उठता है

क्षितिज बीच अरुणोदय कांत,

लगे देखने लुब्ध नयन से

प्रकृति-विभूति मनोहर, शांत।


पाकयज्ञ करना निश्चित कर

लगे शालियों को चुनने,

उधर वह्नि-ज्वाला भी अपना

लगी धूम-पट थी बुनने।


शुष्क डालियों से वृक्षों की

अग्नि-अर्चिया हुई समिद्ध।

आहुति के नव धूमगंध से

नभ-कानन हो गया समृद्ध।


और सोचकर अपने मन में

"जैसे हम हैं बचे हुए-

क्या आश्चर्य और कोई हो

जीवन-लीला रचे हुए,"


अग्निहोत्र-अवशिष्ट अन्न कुछ

कहीं दूर रख आते थे,

होगा इससे तृप्त अपरिचित

समझ सहज सुख पाते थे।


दुख का गहन पाठ पढ़कर

अब सहानुभूति समझते थे,

नीरवता की गहराई में

मग्न अकेले रहते थे।


मनन किया करते वे बैठे

ज्वलित अग्नि के पास वहाँ,

एक सजीव, तपस्या जैसे

पतझड़ में कर वास रहा।


फिर भी धड़कन कभी हृदय में

होती चिंता कभी नवीन,

यों ही लगा बीतने उनका

जीवन अस्थिर दिन-दिन दीन।


प्रश्न उपस्थित नित्य नये थे

अंधकार की माया में,

रंग बदलते जो पल-पल में

उस विराट की छाया में।


अर्ध प्रस्फुटित उत्तर मिलते

प्रकृति सकर्मक रही समस्त,

निज अस्तित्व बना रखने में

जीवन हुआ था व्यस्त।


तप में निरत हुए मनु,

नियमित-कर्म लगे अपना करने,

विश्वरंग में कर्मजाल के

सूत्र लगे घन हो घिरने।


उस एकांत नियति-शासन में

चले विवश धीरे-धीरे,

एक शांत स्पंदन लहरों का

होता ज्यों सागर-तीरे।


विजन जगत की तंद्रा में

तब चलता था सूना सपना,

ग्रह-पथ के आलोक-वृत से

काल जाल तनता अपना।


प्रहर, दिवस, रजनी आती थी

चल-जाती संदेश-विहीन,

एक विरागपूर्ण संसृति में

ज्यों निष्फल आंरभ नवीन।


धवल,मनोहर चंद्रबिंब से अंकित

सुंदर स्वच्छ निशीथ,

जिसमें शीतल पावन गा रहा

पुलकित हो पावन उद्गगीथ।


नीचे दूर-दूर विस्तृत था

उर्मिल सागर व्यथित, अधीर

अंतरिक्ष में व्यस्त उसी सा

चंद्रिका-निधि गंभीर।


खुलीं उस रमणीय दृश्य में

अलस चेतना की आँखे,

हृदय-कुसुम की खिलीं अचानक

मधु से वे भीगी पाँखे।


व्यक्त नील में चल प्रकाश का

कंपन सुख बन बजता था,

एक अतींद्रिय स्वप्न-लोक का

मधुर रहस्य उलझता था।


नव हो जगी अनादि वासना

मधुर प्राकृतिक भूख-समान,

चिर-परिचित-सा चाह रहा था

द्वंद्व सुखद करके अनुमान।


दिवा-रात्रि या-मित्र वरूण की

बाला का अक्षय श्रृंगार,

मिलन लगा हँसने जीवन के

उर्मिल सागर के उस पार।


तप से संयम का संचित बल,

तृषित और व्याकुल था आज-

अट्टाहास कर उठा रिक्त का

वह अधीर-तम-सूना राज।


धीर-समीर-परस से पुलकित

विकल हो चला श्रांत-शरीर,

आशा की उलझी अलकों से

उठी लहर मधुगंध अधीर।


मनु का मन था विकल हो उठा

संवेदन से खाकर चोट,

संवेदन जीवन जगती को

जो कटुता से देता घोंट।


"आह कल्पना का सुंदर

यह जगत मधुर कितना होता

सुख-स्वप्नों का दल छाया में

पुलकित हो जगता-सोता।


संवेदन का और हृदय का

यह संघर्ष न हो सकता,

फिर अभाव असफलताओं की

गाथा कौन कहाँ बकता?


कब तक और अकेले?

कह दो हे मेरे जीवन बोलो?

किसे सुनाऊँ कथा-कहो मत,

अपनी निधि न व्यर्थ खोलो।


"तम के सुंदरतम रहस्य,

हे कांति-किरण-रंजित तारा

व्यथित विश्व के सात्विक शीतल बिदु,

भरे नव रस सारा।


आतप-तपित जीवन-सुख की

शांतिमयी छाया के देश,

हे अनंत की गणना

देते तुम कितना मधुमय संदेश।


आह शून्यते चुप होने में

तू क्यों इतनी चतुर हुई?

इंद्रजाल-जननी रजनी तू क्यों

अब इतनी मधुर हुई?"


"जब कामना सिंधु तट आई

ले संध्या का तारा दीप,

फाड़ सुनहली साड़ी उसकी

तू हँसती क्यों अरी प्रतीप?


इस अनंत काले शासन का

वह जब उच्छंखल इतिहास,

आँसू औ' तम घोल लिख रही तू

सहसा करती मृदु हास।


विश्व कमल की मृदुल मधुकरी

रजनी तू किस कोने से-

आती चूम-चूम चल जाती

पढ़ी हुई किस टोने से।


किस दिंगत रेखा में इतनी

संचित कर सिसकी-सी साँस,

यों समीर मिस हाँफ रही-सी

चली जा रही किसके पास।


विकल खिलखिलाती है क्यों तू?

इतनी हँसी न व्यर्थ बिखेर,

तुहिन कणों, फेनिल लहरों में,

मच जावेगी फिर अधेर।


घूँघट उठा देख मुस्कयाती

किसे ठिठकती-सी आती,

विजन गगन में किस भूल सी

किसको स्मृति-पथ में लाती।


रजत-कुसुम के नव पराग-सी

उडा न दे तू इतनी धूल-

इस ज्योत्सना की, अरी बावली

तू इसमें जावेगी भूल।


पगली हाँ सम्हाल ले,

कैसे छूट पडा़ तेरा अँचल?

देख, बिखरती है मणिराजी-

अरी उठा बेसुध चंचल।


फटा हुआ था नील वसन क्या

ओ यौवन की मतवाली।

देख अकिंचन जगत लूटता

तेरी छवि भोली भाली


ऐसे अतुल अंनत विभव में

जाग पड़ा क्यों तीव्र विराग?

या भूली-सी खोज़ रही कुछ

जीवन की छाती के दाग"


"मैं भी भूल गया हूँ कुछ,

हाँ स्मरण नहीं होता, क्या था?

प्रेम, वेदना, भ्रांति या कि क्या?

मन जिसमें सुख सोता था


मिले कहीं वह पडा अचानक

उसको भी न लुटा देना

देख तुझे भी दूँगा तेरा भाग,

न उसे भुला देना"

श्रद्धा सर्ग भाग-1

कौन हो तुम? संसृति-जलनिधि

तीर-तरंगों से फेंकी मणि एक,

कर रहे निर्जन का चुपचाप

प्रभा की धारा से अभिषेक?


मधुर विश्रांत और एकांत-जगत का

सुलझा हुआ रहस्य,

एक करुणामय सुंदर मौन

और चंचल मन का आलस्य"


सुना यह मनु ने मधु गुंजार

मधुकरी का-सा जब सानंद,

किये मुख नीचा कमल समान

प्रथम कवि का ज्यों सुंदर छंद,


एक झटका-सा लगा सहर्ष,

निरखने लगे लुटे-से

कौन गा रहा यह सुंदर संगीत?

कुतुहल रह न सका फिर मौन।


और देखा वह सुंदर दृश्य

नयन का इद्रंजाल अभिराम,

कुसुम-वैभव में लता समान

चंद्रिका से लिपटा घनश्याम।


हृदय की अनुकृति बाह्य उदार

एक लम्बी काया, उन्मुक्त

मधु-पवन क्रीडित ज्यों शिशु साल,

सुशोभित हो सौरभ-संयुक्त।


मसृण, गांधार देश के नील

रोम वाले मेषों के चर्म,

ढक रहे थे उसका वपु कांत

बन रहा था वह कोमल वर्म।


नील परिधान बीच सुकुमार

खुल रहा मृदुल अधखुला अंग,

खिला हो ज्यों बिजली का फूल

मेघवन बीच गुलाबी रंग।


आह वह मुख पश्विम के व्योम बीच

जब घिरते हों घन श्याम,

अरूण रवि-मंडल उनको भेद

दिखाई देता हो छविधाम।


या कि, नव इंद्रनील लघु श्रृंग

फोड़ कर धधक रही हो कांत

एक ज्वालामुखी अचेत

माधवी रजनी में अश्रांत।


घिर रहे थे घुँघराले बाल अंस

अवलंबित मुख के पास,

नील घनशावक-से सुकुमार

सुधा भरने को विधु के पास।


और, उस पर वह मुसक्यान

रक्त किसलय पर ले विश्राम

अरुण की एक किरण अम्लान

अधिक अलसाई हो अभिराम।


नित्य-यौवन छवि से ही दीप्त

विश्व की करुण कामना मूर्ति,

स्पर्श के आकर्षण से पूर्ण

प्रकट करती ज्यों जड़ में स्फूर्ति।


ऊषा की पहिली लेखा कांत,

माधुरी से भीगी भर मोद,

मद भरी जैसे उठे सलज्ज

भोर की तारक-द्युति की गोद


कुसुम कानन अंचल में

मंद-पवन प्रेरित सौरभ साकार,

रचित, परमाणु-पराग-शरीर

खड़ा हो, ले मधु का आधार।


और, पडती हो उस पर शुभ्र नवल

मधु-राका मन की साध,

हँसी का मदविह्वल प्रतिबिंब

मधुरिमा खेला सदृश अबाध।


कहा मनु ने-"नभ धरणी बीच

बना जीचन रहस्य निरूपाय,

एक उल्का सा जलता भ्रांत,

शून्य में फिरता हूँ असहाय।


शैल निर्झर न बना हतभाग्य,

गल नहीं सका जो कि हिम-खंड,

दौड़ कर मिला न जलनिधि-अंक

आह वैसा ही हूँ पाषंड।


पहेली-सा जीवन है व्यस्त,

उसे सुलझाने का अभिमान

बताता है विस्मृति का मार्ग

चल रहा हूँ बनकर अनज़ान।


भूलता ही जाता दिन-रात

सजल अभिलाषा कलित अतीत,

बढ़ रहा तिमिर-गर्भ में

नित्य जीवन का यह संगीत।


क्या कहूँ, क्या हूँ मैं उद्भ्रांत?

विवर में नील गगन के आज

वायु की भटकी एक तरंग,

शून्यता का उज़ड़ा-सा राज़।


एक स्मृति का स्तूप अचेत,

ज्योति का धुँधला-सा प्रतिबिंब

और जड़ता की जीवन-राशि,

सफलता का संकलित विलंब।"


"कौन हो तुम बंसत के दूत

विरस पतझड़ में अति सुकुमार।

घन-तिमिर में चपला की रेख

तपन में शीतल मंद बयार।


नखत की आशा-किरण समान

हृदय के कोमल कवि की कांत-

कल्पना की लघु लहरी दिव्य

कर रही मानस-हलचल शांत"।


लगा कहने आगंतुक व्यक्ति

मिटाता उत्कंठा सविशेष,

दे रहा हो कोकिल सानंद

सुमन को ज्यों मधुमय संदेश।


"भरा था मन में नव उत्साह

सीख लूँ ललित कला का ज्ञान,

इधर रही गन्धर्वों के देश,

पिता की हूँ प्यारी संतान।


घूमने का मेरा अभ्यास बढ़ा था

मुक्त-व्योम-तल नित्य,

कुतूहल खोज़ रहा था,

व्यस्त हृदय-सत्ता का सुंदर सत्य।


दृष्टि जब जाती हिमगिरी ओर

प्रश्न करता मन अधिक अधीर,

धरा की यह सिकुडन भयभीत आह,

कैसी है? क्या है? पीर?


मधुरिमा में अपनी ही मौन

एक सोया संदेश महान,

सज़ग हो करता था संकेत,

चेतना मचल उठी अनजान।


बढ़ा मन और चले ये पैर,

शैल-मालाओं का श्रृंगार,

आँख की भूख मिटी यह देख

आह कितना सुंदर संभार।


एक दिन सहसा सिंधु अपार

लगा टकराने नद तल क्षुब्ध,

अकेला यह जीवन निरूपाय

आज़ तक घूम रहा विश्रब्ध।


यहाँ देखा कुछ बलि का अन्न,

भूत-हित-रत किसका यह दान

इधर कोई है अभी सजीव,

हुआ ऐसा मन में अनुमान।


भाग-2


तपस्वी क्यों हो इतने क्लांत?

वेदना का यह कैसा वेग?

आह!तुम कितने अधिक हताश-

बताओ यह कैसा उद्वेग?


हृदय में क्या है नहीं अधीर-

लालसा की निश्शेष?

कर रहा वंचित कहीं न त्याग तुम्हें,

मन में घर सुंदर वेश


दुख के डर से तुम अज्ञात

जटिलताओं का कर अनुमान,

काम से झिझक रहे हो आज़

भविष्य से बनकर अनजान,


कर रही लीलामय आनंद-

महाचिति सजग हुई-सी व्यक्त,

विश्व का उन्मीलन अभिराम-

इसी में सब होते अनुरक्त।


काम-मंगल से मंडित श्रेय,

सर्ग इच्छा का है परिणाम,

तिरस्कृत कर उसको तुम भूल

बनाते हो असफल भवधाम"


"दुःख की पिछली रजनी बीच

विकसता सुख का नवल प्रभात,

एक परदा यह झीना नील

छिपाये है जिसमें सुख गात।


जिसे तुम समझे हो अभिशाप,

जगत की ज्वालाओं का मूल-

ईश का वह रहस्य वरदान,

कभी मत इसको जाओ भूल।


विषमता की पीडा से व्यक्त हो रहा

स्पंदित विश्व महान,

यही दुख-सुख विकास का सत्य

यही भूमा का मधुमय दान।


नित्य समरसता का अधिकार

उमडता कारण-जलधि समान,

व्यथा से नीली लहरों बीच

बिखरते सुख-मणिगण-द्युतिमान।"


लगे कहने मनु सहित विषाद-

"मधुर मारूत-से ये उच्छ्वास

अधिक उत्साह तरंग अबाध

उठाते मानस में सविलास।


किंतु जीवन कितना निरूपाय!

लिया है देख, नहीं संदेह,

निराशा है जिसका कारण,

सफलता का वह कल्पित गेह।"


कहा आगंतुक ने सस्नेह- "अरे,

तुम इतने हुए अधीर

हार बैठे जीवन का दाँव,

जीतते मर कर जिसको वीर।


तप नहीं केवल जीवन-सत्य

करुण यह क्षणिक दीन अवसाद,

तरल आकांक्षा से है भरा-

सो रहा आशा का आल्हाद।


प्रकृति के यौवन का श्रृंगार

करेंगे कभी न बासी फूल,

मिलेंगे वे जाकर अति शीघ्र

आह उत्सुक है उनकी धूल।


पुरातनता का यह निर्मोक

सहन करती न प्रकृति पल एक,

नित्य नूतनता का आंनद

किये है परिवर्तन में टेक।


युगों की चट्टानों पर सृष्टि

डाल पद-चिह्न चली गंभीर,

देव,गंधर्व,असुर की पंक्ति

अनुसरण करती उसे अधीर।"


"एक तुम, यह विस्तृत भू-खंड

प्रकृति वैभव से भरा अमंद,

कर्म का भोग, भोग का कर्म,

यही जड़ का चेतन-आनन्द।


अकेले तुम कैसे असहाय

यजन कर सकते? तुच्छ विचार।

तपस्वी! आकर्षण से हीन

कर सके नहीं आत्म-विस्तार।


दब रहे हो अपने ही बोझ

खोजते भी नहीं कहीं अवलंब,

तुम्हारा सहचर बन कर क्या न

उऋण होऊँ मैं बिना विलंब?


समर्पण लो-सेवा का सार,

सजल संसृति का यह पतवार,

आज से यह जीवन उत्सर्ग

इसी पद-तल में विगत-विकार


दया, माया, ममता लो आज,

मधुरिमा लो, अगाध विश्वास,

हमारा हृदय-रत्न-निधि

स्वच्छ तुम्हारे लिए खुला है पास।


बनो संसृति के मूल रहस्य,

तुम्हीं से फैलेगी वह बेल,

विश्व-भर सौरभ से भर जाय

सुमन के खेलो सुंदर खेल।"


"और यह क्या तुम सुनते नहीं

विधाता का मंगल वरदान-

'शक्तिशाली हो, विजयी बनो'

विश्व में गूँज रहा जय-गान।


डरो मत, अरे अमृत संतान

अग्रसर है मंगलमय वृद्धि,

पूर्ण आकर्षण जीवन केंद्र

खिंची आवेगी सकल समृद्धि।


देव-असफलताओं का ध्वंस

प्रचुर उपकरण जुटाकर आज,

पड़ा है बन मानव-सम्पत्ति

पूर्ण हो मन का चेतन-राज।


चेतना का सुंदर इतिहास-

अखिल मानव भावों का सत्य,

विश्व के हृदय-पटल पर

दिव्य अक्षरों से अंकित हो नित्य।


विधाता की कल्याणी सृष्टि,

सफल हो इस भूतल पर पूर्ण,

पटें सागर, बिखरे ग्रह-पुंज

और ज्वालामुखियाँ हों चूर्ण।


उन्हें चिंगारी सदृश सदर्प

कुचलती रहे खडी सानंद,

आज से मानवता की कीर्ति

अनिल, भू, जल में रहे न बंद।


जलधि के फूटें कितने उत्स-

द्वीफ-कच्छप डूबें-उतरायें।

किन्तु वह खड़ी रहे दृढ-मूर्ति

अभ्युदय का कर रही उपाय।


विश्व की दुर्बलता बल बने,

पराजय का बढ़ता व्यापार-

हँसाता रहे उसे सविलास

शक्ति का क्रीडामय संचार।


शक्ति के विद्युत्कण जो व्यस्त

विकल बिखरे हैं, हो निरूपाय,

समन्वय उसका करे समस्त

विजयिनी मानवता हो जाय"।

काम सर्ग भाग-1

"मधुमय वसंत जीवन-वन के,

बह अंतरिक्ष की लहरों में,

कब आये थे तुम चुपके से

रजनी के पिछले पहरों में?


क्या तुम्हें देखकर आते यों

मतवाली कोयल बोली थी?

उस नीरवता में अलसाई

कलियों ने आँखे खोली थी?


जब लीला से तुम सीख रहे

कोरक-कोने में लुक करना,

तब शिथिल सुरभि से धरणी में

बिछलन न हुई थी? सच कहना


जब लिखते थे तुम सरस हँसी

अपनी, फूलों के अंचल में

अपना कल कंठ मिलाते थे

झरनों के कोमल कल-कल में।


निश्चित आह वह था कितना,

उल्लास, काकली के स्वर में

आनन्द प्रतिध्वनि गूँज रही

जीवन दिगंत के अंबर में।


शिशु चित्रकार! चंचलता में,

कितनी आशा चित्रित करते!

अस्पष्ट एक लिपि ज्योतिमयी-

जीवन की आँखों में भरते।


लतिका घूँघट से चितवन की वह

कुसुम-दुग्ध-सी मधु-धारा,

प्लावित करती मन-अजिर रही-

था तुच्छ विश्व वैभव सारा।


वे फूल और वह हँसी रही वह

सौरभ, वह निश्वास छना,

वह कलरव, वह संगीत अरे

वह कोलाहल एकांत बना"


कहते-कहते कुछ सोच रहे

लेकर निश्वास निराशा की-

मनु अपने मन की बात,

रूकी फिर भी न प्रगति अभिलाषा की।


"ओ नील आवरण जगती के!

दुर्बोध न तू ही है इतना,

अवगुंठन होता आँखों का

आलोक रूप बनता जितना।


चल-चक्र वरूण का ज्योति भरा

व्याकुल तू क्यों देता फेरी?

तारों के फूल बिखरते हैं

लुटती है असफलता तेरी।


नव नील कुंज हैं झूम रहे

कुसुमों की कथा न बंद हुई,

है अतंरिक्ष आमोद भरा हिम-

कणिका ही मकरंद हुई।


इस इंदीवर से गंध भरी

बुनती जाली मधु की धारा,

मन-मधुकर की अनुरागमयी

बन रही मोहिनी-सी कारा।


अणुओं को है विश्राम कहाँ

यह कृतिमय वेग भरा कितना

अविराम नाचता कंपन है,

उल्लास सजीव हुआ कितना?


उन नृत्य-शिथिल-निश्वासों की

कितनी है मोहमयी माया?

जिनसे समीर छनता-छनता

बनता है प्राणों की छाया।


आकाश-रंध्र हैं पूरित-से

यह सृष्टि गहन-सी होती है

आलोक सभी मूर्छित सोते

यह आँख थकी-सी रोती है।


सौंदर्यमयी चंचल कृतियाँ

बनकर रहस्य हैं नाच रही,

मेरी आँखों को रोक वहीं

आगे बढने में जाँच रही।


मैं देख रहा हूँ जो कुछ भी

वह सब क्या छाया उलझन है?

सुंदरता के इस परदे में

क्या अन्य धरा कोई धन है?


मेरी अक्षय निधि तुम क्या हो

पहचान सकूँगा क्या न तुम्हें?

उलझन प्राणों के धागों की

सुलझन का समझूं मान तुम्हें।


माधवी निशा की अलसाई

अलकों में लुकते तारा-सी,

क्या हो सूने-मरु अंचल में

अंतःसलिला की धारा-सी,


श्रुतियों में चुपके-चुपके से कोई

मधु-धारा घोल रहा,

इस नीरवता के परदे में

जैसे कोई कुछ बोल रहा।


है स्पर्श मलय के झिलमिल सा

संज्ञा को और सुलाता है,

पुलकित हो आँखे बंद किये

तंद्रा को पास बुलाता है।


व्रीडा है यह चंचल कितनी

विभ्रम से घूँघट खींच रही,

छिपने पर स्वयं मृदुल कर से

क्यों मेरी आँखे मींच रही?


उद्बुद्ध क्षितिज की श्याम छटा

इस उदित शुक्र की छाया में,

ऊषा-सा कौन रहस्य लिये

सोती किरनों की काया में।


उठती है किरनों के ऊपर

कोमल किसलय की छाजन-सी,

स्वर का मधु-निस्वन रंध्रों में-

जैसे कुछ दूर बजे बंसी।


सब कहते हैं- 'खोलो खोलो,

छवि देखूँगा जीवन धन की'

आवरन स्वयं बनते जाते हैं

भीड़ लग रही दर्शन की।


चाँदनी सदृश खुल जाय कहीं

अवगुंठत आज सँवरता सा,

जिसमें अनंत कल्लोल भरा

लहरों में मस्त विचरता सा-


अपना फेनिल फन पटक रहा

मणियों का जाल लुटाता-सा,

उनिन्द्र दिखाई देता हो

उन्मत्त हुआ कुछ गाता-सा।"


"जो कुछ हो, मैं न सम्हालूँगा

इस मधुर भार को जीवन के,

आने दो कितनी आती हैं

बाधायें दम-संयम बन के।


नक्षत्रों, तुम क्या देखोगे-

इस ऊषा की लाली क्या है?

संकल्प भरा है उनमें

संदेहों की जाली क्या है?


कौशल यह कोमल कितना है

सुषमा दुर्भेद्य बनेगी क्या?

चेतना इद्रंयों कि मेरी,

मेरी ही हार बनेगी क्या?


"पीता हूँ, हाँ मैं पीता हूँ-यह

स्पर्श,रूप, रस गंध भरा मधु,

लहरों के टकराने से

ध्वनि में है क्या गुंजार भरा।


तारा बनकर यह बिखर रहा

क्यों स्वप्नों का उन्माद अरे

मादकता-माती नींद लिये

सोऊँ मन में अवसाद भरे।


चेतना शिथिल-सी होती है

उन अधंकार की लहरों में-"

मनु डूब चले धीरे-धीरे

रजनी के पिछले पहरों में।


उस दूर क्षितिज में सृष्टि बनी

स्मृतियों की संचित छाया से,

इस मन को है विश्राम कहाँ

चंचल यह अपनी माया से।


भाग-2


जागरण-लोक था भूल चला

स्वप्नों का सुख-संचार हुआ,

कौतुक सा बन मनु के मन का

वह सुंदर क्रीड़ागार हुआ।


था व्यक्ति सोचता आलस में

चेतना सजग रहती दुहरी,

कानों के कान खोल करके

सुनती थी कोई ध्वनि गहरी-


"प्यासा हूँ, मैं अब भी प्यासा

संतुष्ट ओध से मैं न हुआ,

आया फिर भी वह चला गया

तृष्णा को तनिक न चैन हुआ।


देवों की सृष्टि विलिन हुई

अनुशीलन में अनुदिन मेरे,

मेरा अतिचार न बंद हुआ

उन्मत्त रहा सबको घेरे।


मेरी उपासना करते वे

मेरा संकेत विधान बना,

विस्तृत जो मोह रहा मेरा वह

देव-विलास-वितान तना।


मैं काम, रहा सहचर उनका

उनके विनोद का साधन था,

हँसता था और हँसाता था

उनका मैं कृतिमय जीवन था।


जो आकर्षण बन हँसती थी

रति थी अनादि-वासना वही,

अव्यक्त-प्रकृति-उन्मीलन के

अंतर में उसकी चाह रही।


हम दोनों का अस्तित्व रहा

उस आरंभिक आवर्त्तन-सा।

जिससे संसृति का बनता है

आकार रूप के नर्त्तन-सा।


उस प्रकृति-लता के यौवन में

उस पुष्पवती के माधव का-

मधु-हास हुआ था वह पहला

दो रूप मधुर जो ढाल सका।"


"वह मूल शक्ति उठ खड़ी हुई

अपने आलस का त्याग किये,

परमाणु बल सब दौड़ पड़े

जिसका सुंदर अनुराग लिये।


कुंकुम का चूर्ण उड़ाते से

मिलने को गले ललकते से,

अंतरिक्ष में मधु-उत्सव के

विद्युत्कण मिले झलकते से।


वह आकर्षण, वह मिलन हुआ

प्रारंभ माधुरी छाया में,

जिसको कहते सब सृष्टि,

बनी मतवाली माया में।


प्रत्येक नाश-विश्लेषण भी

संश्लिष्ट हुए, बन सृष्टि रही,

ऋतुपति के घर कुसुमोत्सव था-

मादक मरंद की वृष्टि रही।


भुज-लता पड़ी सरिताओं की

शैलों के गले सनाथ हुए,

जलनिधि का अंचल व्यजन बना

धरणी के दो-दो साथ हुए।


कोरक अंकुर-सा जन्म रहा

हम दोनों साथी झूल चले,

उस नवल सर्ग के कानन में

मृदु मलयानिल के फूल चले,


हम भूख-प्यास से जाग उठे

आकांक्षा-तृप्ति समन्वय में,

रति-काम बने उस रचना में जो

रही नित्य-यौवन वय में?"


"सुरबालाओं की सखी रही

उनकी हृत्त्री की लय थी

रति, उनके मन को सुलझाती

वह राग-भरी थी, मधुमय थी।


मैं तृष्णा था विकसित करता,

वह तृप्ति दिखती थी उनकी,

आनन्द-समन्वय होता था

हम ले चलते पथ पर उनको।


वे अमर रहे न विनोद रहा,

चेतना रही, अनंग हुआ,

हूँ भटक रहा अस्तित्व लिये

संचित का सरल प्रंसग हुआ।"


"यह नीड़ मनोहर कृतियों का

यह विश्व कर्म रंगस्थल है,

है परंपरा लग रही यहाँ

ठहरा जिसमें जितना बल है।


वे कितने ऐसे होते हैं

जो केवल साधन बनते हैं,

आरंभ और परिणामों को

संबध सूत्र से बुनते हैं।


ऊषा की सज़ल गुलाली

जो घुलती है नीले अंबर में

वह क्या? क्या तुम देख रहे

वर्णों के मेघाडंबर में?


अंतर है दिन औ' रजनी का यह

साधक-कर्म बिखरता है,

माया के नीले अंचल में

आलोक बिदु-सा झरता है।"


"आरंभिक वात्या-उद्गम मैं

अब प्रगति बन रहा संसृति का,

मानव की शीतल छाया में

ऋणशोध करूँगा निज कृति का।


दोनों का समुचित परिवर्त्तन

जीवन में शुद्ध विकास हुआ,

प्रेरणा अधिक अब स्पष्ट हुई

जब विप्लव में पड़ ह्रास हुआ।


यह लीला जिसकी विकस चली

वह मूल शक्ति थी प्रेम-कला,

उसका संदेश सुनाने को

संसृति में आयी वह अमला।


हम दोनों की संतान वही-

कितनी सुंदर भोली-भाली,

रंगों ने जिनसे खेला हो

ऐसे फूलों की वह डाली।


जड़-चेतनता की गाँठ वही

सुलझन है भूल-सुधारों की।

वह शीतलता है शांतिमयी

जीवन के उष्ण विचारों की।


उसको पाने की इच्छा हो तो

योग्य बनो"-कहती-कहती

वह ध्वनि चुपचाप हुई सहसा

जैसे मुरली चुप हो रहती।


मनु आँख खोलकर पूछ रहे-

"पंथ कौन वहाँ पहुँचाता है?

उस ज्योतिमयी को देव

कहो कैसे कोई नर पाता?"


पर कौन वहाँ उत्तर देता

वह स्वप्न अनोखा भंग हुआ,

देखा तो सुंदर प्राची में

अरूणोदय का रस-रंग हुआ।


उस लता कुंज की झिल-मिल से

हेमाभरश्मि थी खेल रही,

देवों के सोम-सुधा-रस की

मनु के हाथों में बेल रही।

वासना सर्ग भाग-1

चल पड़े कब से हृदय दो,

पथिक-से अश्रांत,

यहाँ मिलने के लिये,

जो भटकते थे भ्रांत।


एक गृहपति, दूसरा था

अतिथि विगत-विकार,

प्रश्न था यदि एक,

तो उत्तर द्वितीय उदार।


एक जीवन-सिंधु था,

तो वह लहर लघु लोल,

एक नवल प्रभात,

तो वह स्वर्ण-किरण अमोल।


एक था आकाश वर्षा

का सजल उद्धाम,

दूसरा रंजित किरण से

श्री-कलित घनश्याम।


नदी-तट के क्षितिज में

नव जलद सांयकाल-

खेलता दो बिजलियों से

ज्यों मधुरिमा-जाल।


लड़ रहे थे अविरत युगल

थे चेतना के पाश,

एक सकता था न

कोई दूसरे को फाँस।


था समर्पण में ग्रहण का

एक सुनिहित भाव,

थी प्रगति, पर अड़ा रहता

था सतत अटकाव।


चल रहा था विजन-पथ पर

मधुर जीवन-खेल,

दो अपरिचित से नियति

अब चाहती थी मेल।


नित्य परिचित हो रहे

तब भी रहा कुछ शेष,

गूढ अंतर का छिपा

रहता रहस्य विशेष।


दूर, जैसे सघन वन-पथ-

अंत का आलोक-

सतत होता जा रहा हो,

नयन की गति रोक।


गिर रहा निस्तेज गोलक

जलधि में असहाय,

घन-पटल में डूबता था

किरण का समुदाय।


कर्म का अवसाद दिन से

कर रहा छल-छंद,

मधुकरी का सुरस-संचय

हो चला अब बंद।


उठ रही थी कालिमा

धूसर क्षितिज से दीन,

भेंटता अंतिम अरूण

आलोक-वैभव-हीन।


यह दरिद्र-मिलन रहा

रच एक करुणा लोक,

शोक भर निर्जन निलय से

बिछुड़ते थे कोक।


मनु अभी तक मनन करते

थे लगाये ध्यान,

काम के संदेश से ही

भर रहे थे कान।


इधर गृह में आ जुटे थे

उपकरण अधिकार,

शस्य, पशु या धान्य

का होने लगा संचार।


नई इच्छा खींच लाती,

अतिथि का संकेत-

चल रहा था सरल-शासन

युक्त-सुरूचि-समेत।


देखते थे अग्निशाला

से कुतुहल-युक्त,

मनु चमत्कृत निज नियति

का खेल बंधन-मुक्त।


एक माया आ रहा था

पशु अतिथि के साथ,

हो रहा था मोह

करुणा से सजीव सनाथ।


चपल कोमल-कर रहा

फिर सतत पशु के अंग,

स्नेह से करता चमर-

उदग्रीव हो वह संग।


कभी पुलकित रोम राजी

से शरीर उछाल,

भाँवरों से निज बनाता

अतिथि सन्निधि जाल।


कभी निज़ भोले नयन से

अतिथि बदन निहार,

सकल संचित-स्नेह

देता दृष्टि-पथ से ढार।


और वह पुचकारने का

स्नेह शबलित चाव,

मंजु ममता से मिला

बन हृदय का सदभाव।


देखते-ही-देखते

दोनों पहुँच कर पास,

लगे करने सरल शोभन

मधुर मुग्ध विलास।


वह विराग-विभूति

ईर्षा-पवन से हो व्यस्त

बिखरती थी और खुलते थे

ज्वलन-कण जो अस्त।


किन्तु यह क्या?

एक तीखी घूँट, हिचकी आह!

कौन देता है हृदय में

वेदनामय डाह?


"आह यह पशु और

इतना सरल सुन्दर स्नेह!

पल रहे मेरे दिये जो

अन्न से इस गेह।


मैं? कहाँ मैं? ले लिया करते

सभी निज भाग,

और देते फेंक मेरा

प्राप्य तुच्छ विराग।


अरी नीच कृतघ्नते!

पिच्छल-शिला-संलग्न,

मलिन काई-सी करेगी

कितने हृदय भग्न?


हृदय का राजस्व अपहृत

कर अधम अपराध,

दस्यु मुझसे चाहते हैं

सुख सदा निर्बाध।


विश्व में जो सरल सुंदर

हो विभूति महान,

सभी मेरी हैं, सभी

करती रहें प्रतिदान।


यही तो, मैं ज्वलित

वाडव-वह्नि नित्य-अशांत,

सिंधु लहरों सा करें

शीतल मुझे सब शांत।"


आ गया फिर पास

क्रीड़ाशील अतिथि उदार,

चपल शैशव सा मनोहर

भूल का ले भार।


कहा "क्यों तुम अभी

बैठे ही रहे धर ध्यान,

देखती हैं आँख कुछ,

सुनते रहे कुछ कान-


मन कहीं, यह क्या हुआ है ?

आज कैसा रंग? "

नत हुआ फण दृप्त

ईर्षा का, विलीन उमंग।


और सहलाने लागा कर-

कमल कोमल कांत,

देख कर वह रूप -सुषमा

मनु हुए कुछ शांत।


कहा " अतिथि! कहाँ रहे

तुम किधर थे अज्ञात?

और यह सहचर तुम्हारा

कर रहा ज्यों बात-


किसी सुलभ भविष्य की,

क्यों आज अधिक अधीर?

मिल रहा तुमसे चिरंतन

स्नेह सा गंभीर?


कौन हो तुम खींचते यों

मुझे अपनी ओर

ओर ललचाते स्वयं

हटते उधर की ओर


ज्योत्स्ना-निर्झर ठहरती

ही नहीं यह आँख,

तुम्हें कुछ पहचानने की

खो गयी-सी साख।


कौन करुण रहस्य है

तुममें छिपा छविमान?

लता वीरूध दिया करते

जिसमें छायादान।


पशु कि हो पाषाण

सब में नृत्य का नव छंद,

एक आलिगंन बुलाता

सभा का सानंद।


राशि-राशि बिखर पड़ा

है शांत संचित प्यार,

रख रहा है उसे ढोकर

दीन विश्व उधार।


देखता हूँ चकित जैसे

ललित लतिका-लास,

अरूण घन की सजल

छाया में दिनांत निवास-


और उसमें हो चला

जैसे सहज सविलास,

मदिर माधव-यामिनी का

धीर-पद-विन्यास।


आह यह जो रहा

सूना पड़ा कोना दीन-

ध्वस्त मंदिर का,

बसाता जिसे कोई भी न-


उसी में विश्राम माया का

अचल आवास,

अरे यह सुख नींद कैसी,

हो रहा हिम-हास!


वासना की मधुर छाया!

स्वास्थ्य, बल, विश्राम!

हदय की सौंदर्य-प्रतिमा!

कौन तुम छविधाम?


कामना की किरण का

जिसमें मिला हो ओज़,

कौन हो तुम, इसी

भूले हृदय की चिर-खोज़?


कुंद-मंदिर-सी हँसी

ज्यों खुली सुषमा बाँट,

क्यों न वैसे ही खुला

यह हृदय रुद्ध-कपाट?


कहा हँसकर "अतिथि हूँ मैं,

और परिचय व्यर्थ,

तुम कभी उद्विग्न

इतने थे न इसके अर्थ।


चलो, देखो वह चला

आता बुलाने आज-

सरल हँसमुख विधु जलद-

लघु-खंड-वाहन साज़।


भाग-2


कालिमा धुलने लगी

घुलने लगा आलोक,

इसी निभृत अनंत में

बसने लगा अब लोक।


इस निशामुख की मनोहर

सुधामय मुसक्यान,

देख कर सब भूल जायें

दुख के अनुमान।


देख लो, ऊँचे शिखर का

व्योम-चुबंन-व्यस्त-

लौटना अंतिम किरण का

और होना अस्त।


चलो तो इस कौमुदी में

देख आवें आज,

प्रकृति का यह स्वप्न-शासन,

साधना का राज़।"


सृष्टि हँसने लगी

आँखों में खिला अनुराग,

राग-रंजित चंद्रिका थी,

उड़ा सुमन-पराग।


और हँसता था अतिथि

मनु का पकड़कर हाथ,

चले दोनों स्वप्न-पथ में,

स्नेह-संबल साथ।


देवदारु निकुंज गह्वर

सब सुधा में स्नात,

सब मनाते एक उत्सव

जागरण की रात।


आ रही थी मदिर भीनी

माधवी की गंध,

पवन के घन घिरे पड़ते थे

बने मधु-अंध।


शिथिल अलसाई पड़ी

छाया निशा की कांत-

सो रही थी शिशिर कण की

सेज़ पर विश्रांत।


उसी झुरमुट में हृदय की

भावना थी भ्रांत,

जहाँ छाया सृजन करती

थी कुतूहल कांत।


कहा मनु ने "तुम्हें देखा

अतिथि! कितनी बार,

किंतु इतने तो न थे

तुम दबे छवि के भार!


पूर्व-जन्म कहूँ कि था

स्पृहणीय मधुर अतीत,

गूँजते जब मदिर घन में

वासना के गीत।


भूल कर जिस दृश्य को

मैं बना आज़ अचेत,

वही कुछ सव्रीड,

सस्मित कर रहा संकेत।


"मैं तुम्हारा हो रहा हूँ"

यही सुदृढ विचार,

चेतना का परिधि

बनता घूम चक्राकार।


मधु बरसती विधु किरण

है काँपती सुकुमार?

पवन में है पुलक,

मथंर चल रहा मधु-भार।


तुम समीप, अधीर

इतने आज क्यों हैं प्राण?

छक रहा है किस सुरभी से

तृप्त होकर घ्राण?


आज क्यों संदेह होता

रूठने का व्यर्थ,

क्यों मनाना चाहता-सा

बन रहा था असमर्थ।


धमनियों में वेदना-

सा रक्त का संचार,

हृदय में है काँपती

धड़कन, लिये लघु भार


चेतना रंगीन ज्वाला

परिधि में सांनद,

मानती-सी दिव्य-सुख

कुछ गा रही है छंद।


अग्निकीट समान जलती

है भरी उत्साह,

और जीवित हैं,

न छाले हैं न उसमें दाह।


कौन हो तुम-माया-

कुहुक-सी साकार,

प्राण-सत्ता के मनोहर

भेद-सी सुकुमार!


हृदय जिसकी कांत छाया

में लिये निश्वास,

थके पथिक समान करता

व्यजन ग्लानि विनाश।"


श्याम-नभ में मधु-किरण-सा

फिर वही मृदु हास,

सिंधु की हिलकोर

दक्षिण का समीर-विलास!


कुंज में गुंजरित

कोई मुकुल सा अव्यक्त-

लगा कहने अतिथि,

मनु थे सुन रहे अनुरक्त-


"यह अतृप्ति अधीर मन की,

क्षोभयुक्त उन्माद,

सखे! तुमुल-तरंग-सा

उच्छवासमय संवाद।


मत कहो, पूछो न कुछ,

देखो न कैसी मौन,

विमल राका मूर्ति बन कर

स्तब्ध बैठा कौन?


विभव मतवाली प्रकृति का

आवरण वह नील,

शिथिल है, जिस पर बिखरता

प्रचुर मंगल खील,


राशि-राशि नखत-कुसुम की

अर्चना अश्रांत

बिखरती है, तामरस

सुंदर चरण के प्रांत।"


मनु निखरने लगे

ज्यों-ज्यों यामिनी का रूप,

वह अनंत प्रगाढ

छाया फैलती अपरूप,


बरसता था मदिर कण-सा

स्वच्छ सतत अनंत,

मिलन का संगीत

होने लगा था श्रीमंत।


छूटती चिनगारियाँ

उत्तेजना उद्भ्रांत।

धधकती ज्वाला मधुर,

था वक्ष विकल अशांत।


वातचक्र समान कुछ

था बाँधता आवेश,

धैर्य का कुछ भी न

मनु के हृदय में था लेश।


कर पकड़ उन्मुक्त से

हो लगे कहने "आज,

देखता हूँ दूसरा कुछ

मधुरिमामय साज!


वही छवि! हाँ वही जैसे!

किंतु क्या यह भूल?

रही विस्मृति-सिंधु में

स्मृति-नाव विकल अकूल।


जन्म संगिनी एक थी

जो कामबाला नाम-

मधुर श्रद्धा था,

हमारे प्राण को विश्राम-


सतत मिलता था उसी से,

अरे जिसको फूल

दिया करते अर्ध में

मकरंद सुषमा-मूल।


प्रलय मे भी बच रहे हम

फिर मिलन का मोद

रहा मिलने को बचा,

सूने जगत की गोद।


ज्योत्स्ना सी निकल आई!

पार कर नीहार,

प्रणय-विधु है खड़ा

नभ में लिये तारक हार।


कुटिल कुतंक से बनाती

कालमाया जाल-

नीलिमा से नयन की

रचती तमिसा माल।


नींद-सी दुर्भेद्य तम की,

फेंकती यह दृष्टि,

स्वप्न-सी है बिखर जाती

हँसी की चल-सृष्टि।


हुई केंद्रीभूत-सी है

साधना की स्फूर्त्ति,

दृढ-सकल सुकुमारता में

रम्य नारी-मूर्त्ति।


दिवाकर दिन या परिश्रम

का विकल विश्रांत

मैं पुरूष, शिशु सा भटकता

आज तक था भ्रांत।


चंद्र की विश्राम राका

बालिका-सी कांत,

विजयनी सी दीखती

तुम माधुरी-सी शांत।


पददलित सी थकी

व्रज्या ज्यों सदा आक्रांत,

शस्य-श्यामल भूमि में

होती समाप्त अशांत।


आह! वैसा ही हृदय का

बन रहा परिणाम,

पा रहा आज देकर

तुम्हीं से निज़ काम।


आज ले लो चेतना का

यह समर्पण दान।

विश्व-रानी! सुंदरी नारी!

जगत की मान!"


धूम-लतिका सी गगन-तरू

पर न चढती दीन,

दबी शिशिर-निशीथ में

ज्यों ओस-भार नवीन।


झुक चली सव्रीड

वह सुकुमारता के भार,

लद गई पाकर पुरूष का

नर्ममय उपचार।


और वह नारीत्व का जो

मूल मधु अनुभाव,

आज जैसे हँस रहा

भीतर बढ़ाता चाव।


मधुर व्रीडा-मिश्र

चिंता साथ ले उल्लास,

हृदय का आनंद-कूज़न

लगा करने रास।


गिर रहीं पलकें,

झुकी थी नासिका की नोक,

भ्रूलता थी कान तक

चढ़ती रही बेरोक।


स्पर्श करने लगी लज्जा

ललित कर्ण कपोल,

खिला पुलक कदंब सा

था भरा गदगद बोल।


किन्तु बोली "क्या

समर्पण आज का हे देव!

बनेगा-चिर-बंध-

नारी-हृदय-हेतु-सदैव।


आह मैं दुर्बल, कहो

क्या ले सकूँगी दान!

वह, जिसे उपभोग करने में

विकल हों प्रान?"

लज्जा सर्ग भाग-1

"कोमल किसलय के अंचल में

नन्हीं कलिका ज्यों छिपती-सी,

गोधूली के धूमिल पट में

दीपक के स्वर में दिपती-सी।


मंजुल स्वप्नों की विस्मृति में

मन का उन्माद निखरता ज्यों-

सुरभित लहरों की छाया में

बुल्ले का विभव बिखरता ज्यों-


वैसी ही माया में लिपटी

अधरों पर उँगली धरे हुए,

माधव के सरस कुतूहल का

आँखों में पानी भरे हुए।


नीरव निशीथ में लतिका-सी

तुम कौन आ रही हो बढ़ती?

कोमल बाँहे फैलाये-सी

आलिगंन का जादू पढ़ती?


किन इंद्रजाल के फूलों से

लेकर सुहाग-कण-राग-भरे,

सिर नीचा कर हो गूँथ रही माला

जिससे मधु धार ढरे?


पुलकित कदंब की माला-सी

पहना देती हो अंतर में,

झुक जाती है मन की डाली

अपनी फल भरता के डर में।


वरदान सदृश हो डाल रही

नीली किरणों से बुना हुआ,

यह अंचल कितना हलका-सा

कितना सौरभ से सना हुआ।


सब अंग मोम से बनते हैं

कोमलता में बल खाती हूँ,

मैं सिमिट रही-सी अपने में

परिहास-गीत सुन पाती हूँ।


स्मित बन जाती है तरल हँसी

नयनों में भरकर बाँकपना,

प्रत्यक्ष देखती हूँ सब जो

वह बनता जाता है सपना।


मेरे सपनों में कलरव का संसार

आँख जब खोल रहा,

अनुराग समीरों पर तिरता था

इतराता-सा डोल रहा।


अभिलाषा अपने यौवन में

उठती उस सुख के स्वागत को,

जीवन भर के बल-वैभव से

सत्कृत करती दूरागत को।


किरणों का रज्जु समेट लिया

जिसका अवलंबन ले चढ़ती,

रस के निर्झर में धँस कर मैं

आनन्द-शिखर के प्रति बढ़ती।


छूने में हिचक, देखने में

पलकें आँखों पर झुकती हैं,

कलरव परिहास भरी गूजें

अधरों तक सहसा रूकती हैं।


संकेत कर रही रोमाली

चुपचाप बरजती खड़ी रही,

भाषा बन भौंहों की काली-रेखा-सी

भ्रम में पड़ी रही।


तुम कौन! हृदय की परवशता?

सारी स्वतंत्रता छीन रही,

स्वच्छंद सुमन जो खिले रहे

जीवन-वन से हो बीन रही"


संध्या की लाली में हँसती,

उसका ही आश्रय लेती-सी,

छाया प्रतिमा गुनगुना उठी

श्रद्धा का उत्तर देती-सी।


"इतना न चमत्कृत हो बाले

अपने मन का उपकार करो,

मैं एक पकड़ हूँ जो कहती

ठहरो कुछ सोच-विचार करो।


अंबर-चुंबी हिम-श्रंगों से

कलरव कोलाहल साथ लिये,

विद्युत की प्राणमयी धारा

बहती जिसमें उन्माद लिये।


मंगल कुंकुम की श्री जिसमें

निखरी हो ऊषा की लाली,

भोला सुहाग इठलाता हो

ऐसी हो जिसमें हरियाली।


हो नयनों का कल्याण बना

आनन्द सुमन सा विकसा हो,

वासंती के वन-वैभव में

जिसका पंचम स्वर पिक-सा हो,


जो गूँज उठे फिर नस-नस में

मूर्छना समान मचलता-सा,

आँखों के साँचे में आकर

रमणीय रूप बन ढलता-सा,


नयनों की नीलम की घाटी

जिस रस घन से छा जाती हो,

वह कौंध कि जिससे अंतर की

शीतलता ठंडक पाती हो,


हिल्लोल भरा हो ऋतुपति का

गोधूली की सी ममता हो,

जागरण प्रात-सा हँसता हो

जिसमें मध्याह्न निखरता हो,


हो चकित निकल आई

सहसा जो अपने प्राची के घर से,

उस नवल चंद्रिका-से बिछले जो

मानस की लहरों पर-से,


भाग-2


फूलों की कोमल पंखुडियाँ

बिखरें जिसके अभिनंदन में,

मकरंद मिलाती हों अपना

स्वागत के कुंकुम चंदन में,


कोमल किसलय मर्मर-रव-से

जिसका जयघोष सुनाते हों,

जिसमें दुख-सुख मिलकर

मन के उत्सव आनंद मनाते हों,


उज्ज्वल वरदान चेतना का

सौंदर्य जिसे सब कहते हैं।

जिसमें अनंत अभिलाषा के

सपने सब जगते रहते हैं।


मैं उसी चपल की धात्री हूँ,

गौरव महिमा हूँ सिखलाती,

ठोकर जो लगने वाली है

उसको धीरे से समझाती,


मैं देव-सृष्टि की रति-रानी

निज पंचबाण से वंचित हो,

बन आवर्जना-मूर्त्ति दीना

अपनी अतृप्ति-सी संचित हो,


अवशिष्ट रह गई अनुभव में

अपनी अतीत असफलता-सी,

लीला विलास की खेद-भरी

अवसादमयी श्रम-दलिता-सी,


मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ

मैं शालीनता सिखाती हूँ,

मतवाली सुंदरता पग में

नूपुर सी लिपट मनाती हूँ,


लाली बन सरल कपोलों में

आँखों में अंजन सी लगती,

कुंचित अलकों सी घुंघराली

मन की मरोर बनकर जगती,


चंचल किशोर सुंदरता की मैं

करती रहती रखवाली,

मैं वह हलकी सी मसलन हूँ

जो बनती कानों की लाली।"


"हाँ, ठीक, परंतु बताओगी

मेरे जीवन का पथ क्या है?

इस निविड़ निशा में संसृति की

आलोकमयी रेखा क्या है?


यह आज समझ तो पाई हूँ

मैं दुर्बलता में नारी हूँ,

अवयव की सुंदर कोमलता

लेकर मैं सबसे हारी हूँ।


पर मन भी क्यों इतना ढीला

अपना ही होता जाता है,

घनश्याम-खंड-सी आँखों में क्यों

सहसा जल भर आता है?


सर्वस्व-समर्पण करने की

विश्वास-महा-तरू-छाया में,

चुपचाप पड़ी रहने की क्यों

ममता जगती है माया में?


छायापथ में तारक-द्युति सी

झिलमिल करने की मधु-लीला,

अभिनय करती क्यों इस मन में

कोमल निरीहता श्रम-शीला?


निस्संबल होकर तिरती हूँ

इस मानस की गहराई में,

चाहती नहीं जागरण कभी

सपने की इस सुधराई में।


नारी जीवन का चित्र यही क्या?

विकल रंग भर देती हो,

अस्फुट रेखा की सीमा में

आकार कला को देती हो।


रूकती हूँ और ठहरती हूँ

पर सोच-विचार न कर सकती,

पगली सी कोई अंतर में

बैठी जैसे अनुदिन बकती।


मैं जब भी तोलने का करती

उपचार स्वयं तुल जाती हूँ

भुजलता फँसा कर नर-तरू से

झूले सी झोंके खाती हूँ।


इस अर्पण में कुछ और नहीं

केवल उत्सर्ग छलकता है,

मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ,

इतना ही सरल झलकता है।"


" क्या कहती हो ठहरो नारी!

संकल्प अश्रु-जल-से-अपने-

तुम दान कर चुकी पहले ही

जीवन के सोने-से सपने।


नारी! तुम केवल श्रद्धा हो

विश्वास-रजत-नग पगतल में,

पीयूष-स्रोत-सी बहा करो

जीवन के सुंदर समतल में।


देवों की विजय, दानवों की

हारों का होता-युद्ध रहा,

संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित

रह नित्य-विरूद्ध रहा।


आँसू से भींगे अंचल पर मन का

सब कुछ रखना होगा-

तुमको अपनी स्मित रेखा से

यह संधिपत्र लिखना होगा।

कर्म सर्ग भाग-1

कर्मसूत्र-संकेत सदृश थी

सोम लता तब मनु को

चढ़ी शिज़नी सी, खींचा फिर

उसने जीवन धनु को।


हुए अग्रसर से मार्ग में

छुटे-तीर-से-फिर वे,

यज्ञ-यज्ञ की कटु पुकार से

रह न सके अब थिर वे।


भरा कान में कथन काम का

मन में नव अभिलाषा,

लगे सोचने मनु-अतिरंज़ित

उमड़ रही थी आशा।


ललक रही थी ललित लालसा

सोमपान की प्यासी,

जीवन के उस दीन विभव में

जैसे बनी उदासी।


जीवन की अभिराम साधना

भर उत्साह खड़ी थी,

ज्यों प्रतिकूल पवन में

तरणी गहरे लौट पड़ी थी।


श्रद्धा के उत्साह वचन,

फिर काम प्रेरणा-मिल के

भ्रांत अर्थ बन आगे आये

बने ताड़ थे तिल के।


बन जाता सिद्धांत प्रथम

फिर पुष्टि हुआ करती है,

बुद्धि उसी ऋण को सबसे

ले सदा भरा करती है।


मन जब निश्चित सा कर लेता

कोई मत है अपना,

बुद्धि दैव-बल से प्रमाण का

सतत निरखता सपना।


पवन वही हिलकोर उठाता

वही तरलता जल में।

वही प्रतिध्वनि अंतर तम की

छा जाती नभ थल में।


सदा समर्थन करती उसकी

तर्कशास्त्र की पीढ़ी

"ठीक यही है सत्य!

यही है उन्नति सुख की सीढ़ी।


और सत्य ! यह एक शब्द

तू कितना गहन हुआ है?

मेघा के क्रीड़ा-पंज़र का

पाला हुआ सुआ है।


सब बातों में ख़ोज़ तुम्हारी

रट-सी लगी हुई है,

किन्तु स्पर्श से तर्क-करो

कि बनता 'छुईमुई' है।


असुर पुरोहित उस विपल्व से

बचकर भटक रहे थे,

वे किलात-आकुलि थे

जिसने कष्ट अनेक सहे थे।


देख-देख कर मनु का पशु,

जो व्याकुल चंचल रहती-

उनकी आमिष-लोलुप-रसना

आँखों से कुछ कहती।


'क्यों किलात ! खाते-खाते तृण

और कहाँ तक जीऊँ,

कब तक मैं देखूँ जीवित

पशु घूँट लहू का पीऊँ ?


क्या कोई इसका उपाय

ही नहीं कि इसको खाऊँ?

बहुत दिनों पर एक बार तो

सुख की बीन बज़ाऊँ।'


आकुलि ने तब कहा-

'देखते नहीं साथ में उसके

एक मृदुलता की, ममता की

छाया रहती हँस के।


अंधकार को दूर भगाती वह

आलोक किरण-सी,

मेरी माया बिंध जाती है

जिससे हलके घन-सी।


तो भी चलो आज़ कुछ

करके तब मैं स्वस्थ रहूँगा,

या जो भी आवेंगे सुख-दुख

उनको सहज़ सहूँगा।'


यों हीं दोनों कर विचार

उस कुंज़ द्वार पर आये,

जहाँ सोचते थे मनु बैठे

मन से ध्यान लगाये।


"कर्म-यज्ञ से जीवन के

सपनों का स्वर्ग मिलेगा,

इसी विपिन में मानस की

आशा का कुसुम खिलेगा।


किंतु बनेगा कौन पुरोहित

अब यह प्रश्न नया है,

किस विधान से करूँ यज्ञ

यह पथ किस ओर गया है?


श्रद्धा पुण्य-प्राप्य है मेरी

वह अनंत अभिलाषा,

फिर इस निर्ज़न में खोज़े

अब किसको मेरी आशा।


कहा असुर मित्रों ने अपना

मुख गंभीर बनाये-

जिनके लिये यज्ञ होगा

हम उनके भेजे आये।


यज़न करोगे क्या तुम?

फिर यह किसको खोज़ रहे हो?

अरे पुरोहित की आशा में

कितने कष्ट सहे हो।


इस जगती के प्रतिनिधि

जिनसे प्रकट निशीथ सवेरा-

"मित्र-वरुण जिनकी छाया है

यह आलोक-अँधेरा।


वे पथ-दर्शक हों सब

विधि पूरी होगी मेरी,

चलो आज़ फिर से वेदी पर

हो ज्वाला की फेरी।"


"परंपरागत कर्मों की वे

कितनी सुंदर लड़ियाँ,

जिनमें-साधन की उलझी हैं

जिसमें सुख की घड़ियाँ,


जिनमें है प्रेरणामयी-सी

संचित कितनी कृतियाँ,

पुलकभरी सुख देने वाली

बन कर मादक स्मृतियाँ।


साधारण से कुछ अतिरंजित

गति में मधुर त्वरा-सी

उत्सव-लीला, निर्ज़नता की

जिससे कटे उदासी।


एक विशेष प्रकार का कुतूहल

होगा श्रद्धा को भी।"

प्रसन्नता से नाच उठा

मन नूतनता का लोभी।


यज्ञ समाप्त हो चुका तो भी

धधक रही थी ज्वाला,

दारुण-दृश्य रुधिर के छींटे

अस्थि खंड की माला।


वेदी की निर्मम-प्रसन्नता,

पशु की कातर वाणी,

सोम-पात्र भी भरा,

धरा था पुरोडाश भी आगे।


"जिसका था उल्लास निरखना

वही अलग जा बैठी,

यह सब क्यों फिर दृप्त वासना

लगी गरज़ने ऐंठी।


जिसमें जीवन का संचित

सुख सुंदर मूर्त बना है,

हृदय खोलकर कैसे उसको

कहूँ कि वह अपना है।


वही प्रसन्न नहीं रहस्य कुछ

इसमें सुनिहित होगा,

आज़ वही पशु मर कर भी

क्या सुख में बाधक होगा।


श्रद्धा रूठ गयी तो फिर

क्या उसे मनाना होगा,

या वह स्वंय मान जायेगी,

किस पथ जाना होगा।"


पुरोडाश के साथ सोम का

पान लगे मनु करने,

लगे प्राण के रिक्त अंश को

मादकता से भरने।


संध्या की धूसर छाया में

शैल श्रृंग की रेखा,

अंकित थी दिगंत अंबर में

लिये मलिन शशि-लेखा।


श्रद्धा अपनी शयन-गुहा में

दुखी लौट कर आयी,

एक विरक्ति-बोझ सी ढोती

मन ही मन बिलखायी।


सूखी काष्ठ संधि में पतली

अनल शिखा जलती थी,

उस धुँधले गुह में आभा से,

तामस को छलती सी।


किंतु कभी बुझ जाती पाकर

शीत पवन के झोंके,

कभी उसी से जल उठती

तब कौन उसे फिर रोके?


कामायनी पड़ी थी अपना

कोमल चर्म बिछा के,

श्रम मानो विश्राम कर रहा

मृदु आलस को पा के।


धीरे-धीरे जगत चल रहा

अपने उस ऋज़ुपथ में,

धीरे-धीर खिलते तारे

मृग जुतते विधुरथ में।


अंचल लटकाती निशीथिनी

अपना ज्योत्स्ना-शाली,

जिसकी छाया में सुख पावे

सृष्टि वेदना वाली।


उच्च शैल-शिखरों पर हँसती

प्रकृति चंचल बाला,

धवल हँसी बिखराती

अपना फैला मधुर उजाला।


जीवन की उद्धाम लालसा

उलझी जिसमें व्रीड़ा,

एक तीव्र उन्माद और

मन मथने वाली पीड़ा।


मधुर विरक्ति-भरी आकुलता,

घिरती हृदय- गगन में,

अंतर्दाह स्नेह का तब भी

होता था उस मन में।


वे असहाय नयन थे

खुलते-मुँदते भीषणता में,

आज़ स्नेह का पात्र खड़ा था

स्पष्ट कुटिल कटुता में।


"कितना दुख जिसे मैं चाहूँ

वह कुछ और बना हो,

मेरा मानस-चित्र खींचना

सुंदर सा सपना हो।


जाग उठी है दारुण-ज्वाला

इस अनंत मधुबन में,

कैसे बुझे कौन कह देगा

इस नीरव निर्ज़न में?


यह अंनत अवकाश नीड़-सा

जिसका व्यथित बसेरा,

वही वेदना सज़ग पलक में

भर कर अलस सवेरा।


काँप रहें हैं चरण पवन के,

विस्तृत नीरवता सी-

धुली जा रही है दिशि-दिशि की

नभ में मलिन उदासी।


अंतरतम की प्यास

विकलता से लिपटी बढ़ती है,

युग-युग की असफलता का

अवलंबन ले चढ़ती है।


विश्व विपुल-आंतक-त्रस्त है

अपने ताप विषम से,

फैल रही है घनी नीलिमा

अंतर्दाह परम-से।


उद्वेलित है उदधि,

लहरियाँ लौट रहीं व्याकुल सी

चक्रवाल की धुँधली रेखा

मानों जाती झुलसी।


सघन घूम कुँड़ल में

कैसी नाच रही ये ज्वाला,

तिमिर फणी पहने है

मानों अपने मणि की माला।


जगती तल का सारा क्रदंन

यह विषमयी विषमता,

चुभने वाला अंतरग छल

अति दारुण निर्ममता।


भाग-2


जीवन के वे निष्ठुर दंशन

जिनकी आतुर पीड़ा,

कलुष-चक्र सी नाच रही है

बन आँखों की क्रीड़ा।


स्खलन चेतना के कौशल का

भूल जिसे कहते हैं,

एक बिंदु जिसमें विषाद के

नद उमड़े रहते हैं।


आह वही अपराध,

जगत की दुर्बलता की माया,

धरणी की वर्ज़ित मादकता,

संचित तम की छाया।


नील-गरल से भरा हुआ

यह चंद्र-कपाल लिये हो,

इन्हीं निमीलित ताराओं में

कितनी शांति पिये हो।


अखिल विश्च का विष पीते हो

सृष्टि जियेगी फिर से,

कहो अमरता शीतलता इतनी

आती तुम्हें किधर से?


अचल अनंत नील लहरों पर

बैठे आसन मारे,

देव! कौन तुम,

झरते तन से श्रमकण से ये तारे


इन चरणों में कर्म-कुसुम की

अंजलि वे दे सकते,

चले आ रहे छायापथ में

लोक-पथिक जो थकते,


किंतु कहाँ वह दुर्लभ उनको

स्वीकृति मिली तुम्हारी

लौटाये जाते वे असफल

जैसे नित्य भिखारी।


प्रखर विनाशशील नर्त्तन में

विपुल विश्व की माया,

क्षण-क्षण होती प्रकट

नवीना बनकर उसकी काया।


सदा पूर्णता पाने को

सब भूल किया करते क्या?

जीवन में यौवन लाने को

जी-जी कर मरते क्या?


यह व्यापार महा-गतिशाली

कहीं नहीं बसता क्या?

क्षणिक विनाशों में स्थिर मंगल

चुपके से हँसता क्या?


यह विराग संबंध हृदय का

कैसी यह मानवता!

प्राणी को प्राणी के प्रति

बस बची रही निर्ममता


जीवन का संतोष अन्य का

रोदन बन हँसता क्यों?

एक-एक विश्राम प्रगति को

परिकर सा कसता क्यों?


दुर्व्यवहार एक का

कैसे अन्य भूल जावेगा,

कौ उपाय गरल को कैसे

अमृत बना पावेगा"


जाग उठी थी तरल वासना

मिली रही मादकता,

मनु क कौन वहाँ आने से

भला रोक अब सकता।


खुले मृषण भुज़-मूलों से

वह आमंत्रण थ मिलता,

उन्नत वक्षों में आलिंगन-सुख

लहरों-सा तिरता।


नीचा हो उठता जो

धीमे-धीमे निस्वासों में,

जीवन का ज्यों ज्वार उठ रहा

हिमकर के हासों में।


जागृत था सौंदर्य यद्यपि

वह सोती थी सुकुमारी

रूप-चंद्रिका में उज्ज़वल थी

आज़ निशा-सी नारी।


वे मांसल परमाणु किरण से

विद्युत थे बिखराते,

अलकों की डोरी में जीवन

कण-कण उलझे जाते।


विगत विचारों के श्रम-सीकर

बने हुए थे मोती,

मुख मंडल पर करुण कल्पना

उनको रही पिरोती।


छूते थे मनु और कटंकित

होती थी वह बेली,

स्वस्थ-व्यथा की लहरों-सी

जो अंग लता सी फैली।


वह पागल सुख इस जगती का

आज़ विराट बना था,

अंधकार- मिश्रित प्रकाश का

एक वितान तना था।


कामायनी जगी थी कुछ-कुछ

खोकर सब चेतनता,

मनोभाव आकार स्वयं हो

रहा बिगड़ता बनता।


जिसके हृदय सदा समीप है

वही दूर जाता है,

और क्रोध होता उस पर ही

जिससे कुछ नाता है।


प्रिय कि ठुकरा कर भी

मन की माया उलझा लेती,

प्रणय-शिला प्रत्यावर्त्तन में

उसको लौटा देती।


जलदागम-मारुत से कंपित

पल्लव सदृश हथेली,

श्रद्धा की, धीरे से मनु ने

अपने कर में ले ली।


अनुनय वाणी में,

आँखों में उपालंभ की छाया,

कहने लगे- "अरे यह कैसी

मानवती की माया।


स्वर्ग बनाया है जो मैंने

उसे न विफल बनाओ,

अरी अप्सरे! उस अतीत के

नूतन गान सुनाओ।


इस निर्ज़न में ज्योत्स्ना-पुलकित

विद्युत नभ के नीचे,

केवल हम तुम, और कौन?

रहो न आँखे मींचे।


आकर्षण से भरा विश्व यह

केवल भोग्य हमारा,

जीवन के दोनों कूलों में

बहे वासना धारा।


श्रम की, इस अभाव की जगती

उसकी सब आकुलता,

जिस क्षण भूल सकें हम

अपनी यह भीषण चेतनता।


वही स्वर्ग की बन अनंतता

मुसक्याता रहता है,

दो बूँदों में जीवन का

रस लो बरबस बहता है।


देवों को अर्पित मधु-मिश्रित

सोम, अधर से छू लो,

मादकता दोला पर प्रेयसी!

आओ मिलकर झूलो।"


श्रद्धा जाग रही थी

तब भी छाई थी मादकता,

मधुर-भाव उसके तन-मन में

अपना हो रस छकता।


बोली एक सहज़ मुद्रा से

"यह तुम क्या कहते हो,

आज़ अभी तो किसी भाव की

धारा में बहते हो।


कल ही यदि परिवर्त्तन होगा

तो फिर कौन बचेगा।

क्या जाने कोइ साथी

बन नूतन यज्ञ रचेगा।


और किसी की फिर बलि होगी

किसी देव के नाते,

कितना धोखा ! उससे तो हम

अपना ही सुख पाते।


ये प्राणी जो बचे हुए हैं

इस अचला जगती के,

उनके कुछ अधिकार नहीं

क्या वे सब ही हैं फीके?


मनु ! क्या यही तुम्हारी होगी

उज्ज्वल मानवता।

जिसमें सब कुछ ले लेना हो

हंत बची क्या शवता।"


"तुच्छ नहीं है अपना सुख भी

श्रद्धे ! वह भी कुछ है,

दो दिन के इस जीवन का तो

वही चरम सब कुछ है।


इंद्रिय की अभिलाषा

जितनी सतत सफलता पावे,

जहाँ हृदय की तृप्ति-विलासिनी

मधुर-मधुर कुछ गावे।


रोम-हर्ष हो उस ज्योत्स्ना में

मृदु मुसक्यान खिले तो,

आशाओं पर श्वास निछावर

होकर गले मिले तो।


विश्व-माधुरी जिसके सम्मुख

मुकुर बनी रहती हो

वह अपना सुख-स्वर्ग नहीं है

यह तुम क्या कहती हो?


जिसे खोज़ता फिरता मैं

इस हिमगिरि के अंचल में,

वही अभाव स्वर्ग बन

हँसता इस जीवन चंचल में।


वर्तमान जीवन के सुख से

योग जहाँ होता है,

छली-अदृष्ट अभाव बना

क्यों वहीं प्रकट होता है।


किंतु सकल कृतियों की

अपनी सीमा है हम ही तो,

पूरी हो कामना हमारी

विफल प्रयास नहीं तो"


एक अचेतनता लाती सी

सविनय श्रद्धा बोली,

"बचा जान यह भाव सृष्टि ने

फिर से आँखे खोली।


भेद-बुद्धि निर्मम ममता की

समझ, बची ही होगी,

प्रलय-पयोनिधि की लहरें भी

लौट गयी ही होंगी।


अपने में सब कुछ भर

कैसे व्यक्ति विकास करेगा,

यह एकांत स्वार्थ भीषण है

अपना नाश करेगा।


औरों को हँसता देखो

मनु-हँसो और सुख पाओ,

अपने सुख को विस्तृत कर लो

सब को सुखी बनाओ।


रचना-मूलक सृष्टि-यज्ञ

यह यज्ञ पुरूष का जो है,

संसृति-सेवा भाग हमारा

उसे विकसने को है।


सुख को सीमित कर

अपने में केवल दुख छोड़ोगे,

इतर प्राणियों की पीड़ा

लख अपना मुहँ मोड़ोगे


ये मुद्रित कलियाँ दल में

सब सौरभ बंदी कर लें,

सरस न हों मकरंद बिंदु से

खुल कर, तो ये मर लें।


सूखे, झड़े और तब कुचले

सौरभ को पाओगे,

फिर आमोद कहाँ से मधुमय

वसुधा पर लाओगे।


सुख अपने संतोष के लिये

संग्रह मूल नहीं है,

उसमें एक प्रदर्शन

जिसको देखें अन्य वही है।


निर्ज़न में क्या एक अकेले

तुम्हें प्रमोद मिलेगा?

नहीं इसी से अन्य हृदय का

कोई सुमन खिलेगा।


सुख समीर पाकर,

चाहे हो वह एकांत तुम्हारा

बढ़ती है सीमा संसृति की

बन मानवता-धारा।"


हृदय हो रहा था उत्तेज़ित

बातें कहते-कहते,

श्रद्धा के थे अधर सूखते

मन की ज्वाला सहते।


उधर सोम का पात्र लिये मनु,

समय देखकर बोले-

"श्रद्धे पी लो इसे बुद्धि के

बंधन को जो खोले।


वही करूँगा जो कहती हो सत्य,

अकेला सुख क्या?"

यह मनुहार रूकेगा

प्याला पीने से फिर मुख क्या?


आँखे प्रिय आँखों में,

डूबे अरुण अधर थे रस में।

हृदय काल्पनिक-विज़य में

सुखी चेतनता नस-नस में।


छल-वाणी की वह प्रवंचना

हृदयों की शिशुता को,

खेल दिखाती, भुलवाती जो

उस निर्मल विभुता को,


जीनव का उद्देश्य लक्ष्य की

प्रगति दिशा को पल में

अपने एक मधुर इंगित से

बदल सके जो छल में।


वही शक्ति अवलंब मनोहर

निज़ मनु को थी देती

जो अपने अभिनय से

मन को सुख में उलझा लेती।

"श्रद्धे, होगी चन्द्रशालिनी

यह भव रज़नी भीमा,

तुम बन जाओ इस ज़ीवन के

मेरे सुख की सीमा।


लज्जा का आवरण प्राण को

ढक लेता है तम से

उसे अकिंचन कर देता है

अलगाता 'हम तुम' से


कुचल उठा आनन्द,

यही है, बाधा, दूर हटाओ,

अपने ही अनुकूल सुखों को

मिलने दो मिल जाओ।"


और एक फिर व्याकुल चुम्बन

रक्त खौलता जिसमें,

शीतल प्राण धधक उठता है

तृषा तृप्ति के मिस से।


दो काठों की संधि बीच

उस निभृत गुफा में अपने,

अग्नि शिखा बुझ गयी,

जागने पर जैसे सुख सपने।

ईर्ष्या सर्ग भाग-1

पल भर की उस चंचलता ने

खो दिया हृदय का स्वाधिकार।

श्रद्धा की अब वह मधुर निशा

फैलाती निष्फल अंधकार।


मनु को अब मृगया छोड़, नहीं

रह गया और था अधिक काम।

लग गया रक्त था उस मुख में

हिंसा-सुख लाली से ललाम।


हिंसा ही नहीं, और भी कुछ

वह खोज रहा था मन अधीर।

अपने प्रभुत्व की सुख सीमा

जो बढ़ती हो अवसाद चीर।


जो कुछ मनु के करतलगत था

उसमें न रहा कुछ भी नवीन।

श्रद्धा का सरल विनोद नहीं

रुचता अब था बन रहा दीन।


उठती अंतस्तल से सदैव

दुर्ललित लालसा जो कि कांत।

वह इंद्रचाप-सी झिलमिल हो

दब जाती अपने आप शांत।


"निज उद्गम का मुख बंद किये

कब तक सोयेंगे अलस प्राण।

जीवन की चिर चंचल पुकार

रोये कब तक, है कहाँ त्राण।


श्रद्धा का प्रणय और उसकी

आरंभिक सीधी अभिव्यक्ति।

जिसमें व्याकुल आलिंगन का

अस्तित्व न तो है कुशल सूक्ति।


भावनामयी वह स्फूर्त्ति नहीं

नव-नव स्मित रेखा में विलीन।

अनुरोध न तो उल्लास नहीं

कुसुमोद्गम-सा कुछ भी नवीन।


आती है वाणी में न कभी

वह चाव भरी लीला-हिलोर।

जिसमें नूतनता नृत्यमयी

इठलाती हो चंचल मरोर।


जब देखो बैठी हुई वहीं

शालियाँ बीन कर नहीं श्रांत।

या अन्न इकट्ठे करती है

होती न तनिक सी कभी क्लांत।


बीजों का संग्रह और इधर

चलती है तकली भरी गीत।

सब कुछ लेकर बैठी है वह,

मेरा अस्तित्व हुआ अतीत"


लौटे थे मृगया से थक कर

दिखलाई पडता गुफा-द्वार।

पर और न आगे बढने की

इच्छा होती, करते विचार।


मृग डाल दिया, फिर धनु को भी,

मनु बैठ गये शिथिलित शरीर।

बिखरे ते सब उपकरण वहीं

आयुध, प्रत्यंचा, श्रृंग, तीर।


" पश्चिम की रागमयी संध्या

अब काली है हो चली, किंतु।

अब तक आये न अहेरी वे

क्या दूर ले गया चपल जंतु।


" यों सोच रही मन में अपने

हाथों में तकली रही घूम।

श्रद्धा कुछ-कुछ अनमनी चली

अलकें लेती थीं गुल्फ चूम।


केतकी-गर्भ-सा पीला मुँह

आँखों में आलस भरा स्नेह।

कुछ कृशता नई लजीली थी

कंपित लतिका-सी लिये देह।


मातृत्व-बोझ से झुके हुए

बँध रहे पयोधर पीन आज।

कोमल काले ऊनों की

नवपट्टिका बनाती रुचिर साज।


सोने की सिकता में मानों

कालिंदी बहती भर उसाँस।

स्वर्गंगा में इंदीवर की या

एक पंक्ति कर रही हास।


कटि में लिपटा था नवल-वसन

वैसा ही हलका बुना नील।

दुर्भर थी गर्भ-मधुर पीडा

झेलती जिसे जननी सलील।


श्रम-बिंदु बना सा झलक रहा

भावी जननी का सरस गर्व।

बन कुसुम बिखरते थे भू पर

आया समीप था महापर्व।


मनु ने देखा जब श्रद्धा का

वह सहज-खेद से भरा रूप।

अपनी इच्छा का दृढ विरोध

जिसमें वे भाव नहीं अनूप।


वे कुछ भी बोले नहीं, रहे

चुपचाप देखते साधिकार।

श्रद्धा कुछ कुछ मुस्करा उठी

ज्यों जान गई उनका विचार।


'दिन भर थे कहाँ भटकते तुम'

बोली श्रद्धा भर मधुर स्नेह-

"यह हिंसा इतनी है प्यारी

जो भुलवाती है देह-देह।


मैं यहाँ अकेली देख रही पथ

सुनती-सी पद-ध्वनि नितांत।

कानन में जब तुम दौड़ रहे

मृग के पीछे बन कर अशांत


ढल गया दिवस पीला पीला

तुम रक्तारुण वन रहे घूम।

देखों नीडों में विहग-युगल

अपने शिशुओं को रहे चूम।


उनके घर में कोलाहल है

मेरा सूना है गुफा-द्वार।

तुमको क्या ऐसी कमी रही

जिसके हित जाते अन्य-द्वार?'


" श्रद्धे तुमको कुछ कमी नहीं

पर मैं तो देख रहा अभाव।

भूली-सी कोई मधुर वस्तु

जैसे कर देती विकल घाव।


चिर-मुक्त-पुरुष वह कब इतने

अवरुद्ध श्वास लेगा निरीह।

गतिहीन पंगु-सा पड़ा-पड़ा

ढह कर जैसे बन रहा डीह।


जब जड़-बंधन-सा एक मोह

कसता प्राणों का मृदु शरीर।

आकुलता और जकड़ने की

तब ग्रंथि तोडती हो अधीर।


हँस कर बोले, बोलते हुए

निकले मधु-निर्झर-ललित-गान।

गानों में उल्लास भरा

झूमें जिसमें बन मधुर प्रान।


वह आकुलता अब कहाँ रही

जिसमें सब कुछ ही जाय भूल।

आशा के कोमल तंतु-सदृश

तुम तकली में हो रही झूल।


यह क्यों, क्या मिलते नहीं

तुम्हें शावक के सुंदर मृदुल चर्म?

तुम बीज बीनती क्यों? मेरा

मृगया का शिथिल हुआ न कर्म।


तिस पर यह पीलापन कैसा

यह क्यों बुनने का श्रम सखेद?

यह किसके लिए, बताओ तो

क्या इसमें है छिप रहा भेद?"


" अपनी रक्षा करने में जो

चल जाय तुम्हारा कहीं अस्त्र।

वह तो कुछ समझ सकी हूँ मैं

हिंसक से रक्षा करे शस्त्र।


पर जो निरीह जीकर भी कुछ

उपकारी होने में समर्थ।

वे क्यों न जियें, उपयोगी बन

इसका मैं समझ सकी न अर्थ।


भाग २


"चमड़े उनके आवरण रहे

ऊनों से चले मेरा काम।

वे जीवित हों मांसल बनकर

हम अमृत दुहें-वे दुग्धधाम।


वे द्रोह न करने के स्थल हैं

जो पाले जा सकते सहेतु।

पशु से यदि हम कुछ ऊँचे हैं

तो भव-जलनिधि में बनें सेतु।"


"मैं यह तो मान नहीं सकता

सुख-सहज लब्ध यों छूट जायँ।

जीवन का जो संघर्ष चले

वह विफल रहे हम चल जायँ।


काली आँखों की तारा में

मैं देखूँ अपना चित्र धन्य।

मेरा मानस का मुकुर रहे

प्रतिबिबित तुमसे ही अनन्य।


श्रद्धे यह नव संकल्प नहीं

चलने का लघु जीवन अमोल।

मैं उसको निश्चय भोग चलूँ

जो सुख चलदल सा रहा डोल।


देखा क्या तुमने कभी नहीं

स्वर्गीय सुखों पर प्रलय-नृत्य?

फिर नाश और चिर-निद्रा है

तब इतना क्यों विश्वास सत्य?


यह चिर-प्रशांत-मंगल की

क्यों अभिलाषा इतनी रही जाग?

यह संचित क्यों हो रहा स्नेह

किस पर इतनी हो सानुराग?


यह जीवन का वरदान-मुझे

दे दो रानी-अपना दुलार।

केवल मेरी ही चिंता का

तव-चित्त वहन कर रहे भार।


मेरा सुंदर विश्राम बना सृजता

हो मधुमय विश्व एक।

जिसमें बहती हो मधु-धारा

लहरें उठती हों एक-एक।"


"मैंने तो एक बनाया है

चल कर देखो मेरा कुटीर।"

यों कहकर श्रद्धा हाथ पकड़

मनु को वहाँ ले चली अधीर।


उस गुफा समीप पुआलों की

छाजन छोटी सी शांति-पुंज।

कोमल लतिकाओं की डालें

मिल सघन बनाती जहाँ कुंज।


थे वातायन भी कटे हुए

प्राचीर पर्णमय रचित शुभ्र।

आवें क्षण भर तो चल जायँ

रूक जायँ कहीं न समीर, अभ्र।


उसमें था झूला वेतसी-

लता का सुरूचिपूर्ण,

बिछ रहा धरातल पर चिकना

सुमनों का कोमल सुरभि-चूर्ण।


कितनी मीठी अभिलाषायें

उसमें चुपके से रहीं घूम।

कितने मंगल के मधुर गान

उसके कानों को रहे चूम।


मनु देख रहे थे चकित नया यह

गृहलक्ष्मी का गृह-विधान।

पर कुछ अच्छा-सा नहीं लगा

'यह क्यों'? किसका सुख साभिमान?'



चुप थे पर श्रद्धा ही बोली

"देखो यह तो बन गया नीड़।

पर इसमें कलरव करने को

आकुल न हो रही अभी भीड़।


तुम दूर चले जाते हो जब

तब लेकर तकली, यहाँ बैठ।

मैं उसे फिराती रहती हूँ

अपनी निर्जनता बीच पैठ।


मैं बैठी गाती हूँ तकली के

प्रतिवर्त्तन में स्वर विभोर।

'चल री तकली धीरे-धीरे

प्रिय गये खेलने को अहेर'।


जीवन का कोमल तंतु बढ़े

तेरी ही मंजुलता समान।

चिर-नग्न प्राण उनमें लिपटे

सुंदरता का कुछ बढ़े मान।


किरनों-सी तू बुन दे उज्ज्वल

मेरे मधु-जीवन का प्रभात।

जिसमें निर्वसना प्रकृति सरल

ढँक ले प्रकाश से नवल गात।


वासना भरी उन आँखों पर

आवरण डाल दे कांतिमान।

जिसमें सौंदर्य निखर आवे

लतिका में फुल्ल-कुसुम-समान।


अब वह आगंतुक गुफा बीच

पशु सा न रहे निर्वसन-नग्न।

अपने अभाव की जड़ता में वह

रह न सकेगा कभी मग्न।


सूना रहेगा मेरा यह लघु-

विश्व कभी जब रहोगे न।

मैं उसके लिये बिछाऊँगी

फूलों के रस का मृदुल फेन।


झूले पर उसे झुलाऊँगी

दुलरा कर लूँगी बदन चूम।

मेरी छाती से लिपटा इस

घाटी में लेगा सहज घूम।


वह आवेगा मृदु मलयज-सा

लहराता अपने मसृण बाल।

उसके अधरों से फैलेगी

नव मधुमय स्मिति-लतिका-प्रवाल।


अपनी मीठी रसना से वह

बोलेगा ऐसे मधुर बोल।

मेरी पीड़ा पर छिड़केगी जो

कुसुम-धूलि मकरंद घोल।


मेरी आँखों का सब पानी

तब बन जायेगा अमृत स्निग्ध।

उन निर्विकार नयनों में जब

देखूँगी अपना चित्र मुग्ध।"


"तुम फूल उठोगी लतिका सी

कंपित कर सुख सौरभ तरंग।

मैं सुरभि खोजता भटकूँगा

वन-वन बन कस्तूरी कुरंग।


यह जलन नहीं सह सकता मैं

चाहिये मुझे मेरा ममत्व।

इस पंचभूत की रचना में मैं

रमण करूँ बन एक तत्त्व।


यह द्वैत, अरे यह विधा तो

है प्रेम बाँटने का प्रकार।

भिक्षुक मैं ना, यह कभी नहीं

मैं लौटा लूँगा निज विचार।


तुम दानशीलता से अपनी बन

सजल जलद बितरो न बिन्दु।

इस सुख-नभ में मैं विचरूँगा

बन सकल कलाधर शरद-इंदु।


भूले कभी निहारोगी कर

आकर्षणमय हास एक।

मायाविनि मैं न उसे लूँगा

वरदान समझ कर-जानु टेक।


इस दीन अनुग्रह का मुझ पर

तुम बोझ डालने में समर्थ।

अपने को मत समझो श्रद्धे

होगा प्रयास यह सदा व्यर्थ।


तुम अपने सुख से सुखी रहो

मुझको दुख पाने दो स्वतंत्र।

'मन की परवशता महा-दुःख'

मैं यही जपूँगा महामंत्र।


लो चला आज मैं छोड़ यहीं

संचित संवेदन-भार-पुंज।

मुझको काँटे ही मिलें धन्य

हो सफल तुम्हें ही कुसुम-कुंज।"


कह, ज्वलनशील अंतर लेकर

मनु चले गये, था शून्य प्रांत।

"रुक जा, सुन ले ओ निर्मोही"

वह कहती रही अधीर श्रांत।

इड़ा सर्ग भाग-1

"किस गहन गुहा से अति अधीर

झंझा-प्रवाह-सा निकला

यह जीवन विक्षुब्ध महासमीर

ले साथ विकल परमाणु-पुंज।


नभ, अनिल, अनल,

भयभीत सभी को भय देता।

भय की उपासना में विलीन

प्राणी कटुता को बाँट रहा।


जगती को करता अधिक दीन

निर्माण और प्रतिपद-विनाश में।

दिखलाता अपनी क्षमता

संघर्ष कर रहा-सा सब से।


सब से विराग सब पर ममता

अस्तित्व-चिरंतन-धनु से कब।

यह छूट पड़ा है विषम तीर

किस लक्ष्य भेद को शून्य चीर?




जो अचल हिमानी से रंजित

देखे मैंने वे शैल-श्रृंग।

अपने जड़-गौरव के प्रतीक

उन्मुक्त, उपेक्षा भरे तुंग।




वसुधा का कर अभिमान भंग

अपनी समाधि में रहे सुखी,

बह जाती हैं नदियाँ अबोध

कुछ स्वेद-बिंदु उसके लेकर,


वह स्मित-नयन गत शोक-क्रोध

स्थिर-मुक्ति, प्रतिष्ठा मैं वैसी

चाहता नहीं इस जीवन की

मैं तो अबाध गति मरुत-सदृश,


हूँ चाह रहा अपने मन की

जो चूम चला जाता अग-जग।

प्रति-पग में कंपन की तरंग

वह ज्वलनशील गतिमय पतंग।


अपनी ज्वाला से कर प्रकाश

जब छोड़ चला आया सुंदर

प्रारंभिक जीवन का निवास

वन, गुहा, कुंज, मरू-अंचल में हूँ


खोज रहा अपना विकास

पागल मैं, किस पर सदय रहा-

क्या मैंने ममता ली न तोड़

किस पर उदारता से रीझा-


किससे न लगा दी कड़ी होड़?

इस विजन प्रांत में बिलख रही

मेरी पुकार उत्तर न मिला

लू-सा झुलसाता दौड़ रहा-


कब मुझसे कोई फूल खिला?

मैं स्वप्न देखत हूँ उजड़ा-

कल्पना लोक में कर निवास

देख कब मैंने कुसुम हास


इस दुखमय जीवन का प्रकाश

नभ-नील लता की डालों में

उलझा अपने सुख से हताश

कलियाँ जिनको मैं समझ रहा


वे काँटे बिखरे आस-पास

कितना बीहड़-पथ चला और

पड़ रहा कहीं थक कर नितांत

उन्मुक्त शिखर हँसते मुझ पर-


रोता मैं निर्वासित अशांत

इस नियति-नटी के अति भीषण

अभिनय की छाया नाच रही

खोखली शून्यता में प्रतिपद-


असफलता अधिक कुलाँच रही

पावस-रजनी में जुगनू गण को

दौड़ पकड़ता मैं निराश

उन ज्योति कणों का कर विनाश


जीवन-निशीथ के अंधकार

तू, नील तुहिन-जल-निधि बन कर

फैला है कितना वार-पार

कितनी चेतनता की किरणें हैं


डूब रहीं ये निर्विकार

कितना मादकतम, निखिल भुवन

भर रहा भूमिका में अबंग

तू, मूर्त्तिमान हो छिप जाता


प्रतिपल के परिवर्त्तन अनंग

ममता की क्षीण अरुण रेख

खिलती है तुझमें ज्योति-कला

जैसे सुहागिनी की ऊर्मिल


अलकों में कुंकुमचूर्ण भला

रे चिरनिवास विश्राम प्राण के

मोह-जलद-छया उदार

मायारानी के केशभार


जीवन-निशीथ के अंधकार

तू घूम रहा अभिलाषा के

नव ज्वलन-धूम-सा दुर्निवार

जिसमें अपूर्ण-लालसा, कसक


चिनगारी-सी उठती पुकार

यौवन मधुवन की कालिंदी

बह रही चूम कर सब दिंगत

मन-शिशु की क्रीड़ा नौकायें


बस दौड़ लगाती हैं अनंत

कुहुकिनि अपलक दृग के अंजन

हँसती तुझमें सुंदर छलना

धूमिल रेखाओं से सजीव


चंचल चित्रों की नव-कलना

इस चिर प्रवास श्यामल पथ में

छायी पिक प्राणों की पुकार-

बन नील प्रतिध्वनि नभ अपार


उजड़ा सूना नगर-प्रांत

जिसमें सुख-दुख की परिभाषा

विध्वस्त शिल्प-सी हो नितांत

निज विकृत वक्र रेखाओं से,


प्राणी का भाग्य बनी अशांत

कितनी सुखमय स्मृतियाँ,

अपूर्णा रूचि बन कर मँडराती विकीर्ण

इन ढेरों में दुखभरी कुरूचि


दब रही अभी बन पात्र जीर्ण

आती दुलार को हिचकी-सी

सूने कोनों में कसक भरी।

इस सूखर तरु पर मनोवृति


आकाश-बेलि सी रही हरी

जीवन-समाधि के खँडहर पर जो

जल उठते दीपक अशांत

फिर बुझ जाते वे स्वयं शांत।


यों सोच रहे मनु पड़े श्रांत

श्रद्धा का सुख साधन निवास

जब छोड़ चले आये प्रशांत

पथ-पथ में भटक अटकते वे


आये इस ऊजड़ नगर-प्रांत

बहती सरस्वती वेग भरी

निस्तब्ध हो रही निशा श्याम

नक्षत्र निरखते निर्मिमेष


वसुधा को वह गति विकल वाम

वृत्रघ्नी का व जनाकीर्ण

उपकूल आज कितना सूना

देवेश इंद्र की विजय-कथा की


स्मृति देती थी दुख दूना

वह पावन सारस्वत प्रदेश

दुस्वप्न देखता पड़ा क्लांत

फैला था चारों ओर ध्वांत।


"जीवन का लेकर नव विचार

जब चला द्वंद्व था असुरों में

प्राणों की पूजा का प्रचार

उस ओर आत्मविश्वास-निरत


सुर-वर्ग कह रहा था पुकार-

मैं स्वयं सतत आराध्य आत्म-

मंगल उपासना में विभोर

उल्लासशीलता मैं शक्ति-केन्द्र,


किसकी खोजूँ फिर शरण और

आनंद-उच्छलित-शक्ति-स्त्रोत

जीवन-विकास वैचित्र्य भरा

अपना नव-नव निर्माण किये


रखता यह विश्व सदैव हरा,

प्राणों के सुख-साधन में ही,

संलग्न असुर करते सुधार

नियमों में बँधते दुर्निवार


था एक पूजता देह दीन

दूसरा अपूर्ण अहंता में

अपने को समझ रहा प्रवीण

दोनों का हठ था दुर्निवार,



दोनों ही थे विश्वास-हीन-

फिर क्यों न तर्क को शस्त्रों से

वे सिद्ध करें-क्यों हि न युद्ध

उनका संघर्ष चला अशांत


वे भाव रहे अब तक विरुद्ध

मुझमें ममत्वमय आत्म-मोह

स्वातंत्र्यमयी उच्छृंखलता

हो प्रलय-भीत तन रक्षा में


पूजन करने की व्याकुलता

वह पूर्व द्वंद्व परिवर्त्तित हो

मुझको बना रहा अधिक दीन-

सचमुच मैं हूँ श्रद्धा-विहीन।"


मनु तुम श्रद्धाको गये भूल

उस पूर्ण आत्म-विश्वासमयी को

उडा़ दिया था समझ तूल

तुमने तो समझा असत् विश्व


जीवन धागे में रहा झूल

जो क्षण बीतें सुख-साधन में

उनको ही वास्तव लिया मान

वासना-तृप्ति ही स्वर्ग बनी,


यह उलटी मति का व्यर्थ-ज्ञान

तुम भूल गये पुरुषत्त्व-मोह में

कुछ सत्ता है नारी की

समरसता है संबंध बनी


अधिकार और अधिकारी की।"

जब गूँजी यह वाणी तीखी

कंपित करती अंबर अकूल

मनु को जैसे चुभ गया शूल।


"यह कौन? अरे वही काम

जिसने इस भ्रम में है डाला

छीना जीवन का सुख-विराम?

प्रत्यक्ष लगा होने अतीत


जिन घड़ियों का अब शेष नाम

वरदान आज उस गतयुग का

कंपित करता है अंतरंग

अभिशाप ताप की ज्वाला से


जल रहा आज मन और अंग-"

बोले मनु-" क्या भ्रांत साधना

में ही अब तक लगा रहा

क्ा तुमने श्रद्धा को पाने


के लिए नहीं सस्नेह कहा?

पाया तो, उसने भी मुझको

दे दिया हृदय निज अमृत-धाम

फिर क्यों न हुआ मैं पूर्ण-काम?"


"मनु उसने त कर दिया दान

वह हृदय प्रणय से पूर्ण सरल

जिसमें जीवन का भरा मान

जिसमें चेतना ही केवल


निज शांत प्रभा से ज्योतिमान

पर तुमने तो पाया सदैव

उसकी सुंदर जड़ देह मात्र

सौंदर्य जलधि से भर लाये


केवल तुम अपना गरल पात्र

तुम अति अबोध, अपनी अपूर्णता को

न स्वयं तुम समझ सके

परिणय जिसको पूरा करता


उससे तुम अपने आप रुके

कुछ मेरा हो' यह राग-भाव

संकुचित पूर्णता है अजान

मानस-जलनिधि का क्षुद्र-यान।


हाँ अब तुम बनने को स्वतंत्र

सब कलुष ढाल कर औरों पर

रखते हो अपना अलग तंत्र

द्वंद्वों का उद्गम तो सदैव


शाश्वत रहता वह एक मंत्र

डाली में कंटक संग कुसुम

खिलते मिलते भी हैं नवीन

अपनी रुचि से तुम बिधे हुए


जिसको चाहे ले रहे बीन

तुमने तो प्राणमयी ज्वाला का

प्रणय-प्रकाश न ग्रहण किया

हाँ, जलन वासना को जीवन


भ्रम तम में पहला स्थान दिया-

अब विकल प्रवर्त्तन हो ऐसा जो

नियति-चक्र का बने यंत्र

हो शाप भरा तव प्रजातंत्र।



यह अभिनव मानव प्रजा सृष्टि

द्वयता मेम लगी निरंतर ही

वर्णों की करति रहे वृष्टि

अनजान समस्यायें गढती


रचती हों अपनी विनिष्टि

कोलाहल कलह अनंत चले,

एकता नष्ट हो बढे भेद

अभिलषित वस्तु तो दूर रहे,


हाँ मिले अनिच्छित दुखद खेद

हृदयों का हो आवरण सदा

अपने वक्षस्थल की जड़ता

पहचान सकेंगे नहीं परस्पर


चले विश्व गिरता पड़ता

सब कुछ भी हो यदि पास भरा

पर दूर रहेगी सदा तुष्टि

दुख देगी यह संकुचित दृष्टि।


अनवरत उठे कितनी उमंग

चुंबित हों आँसू जलधर से

अभिलाषाओं के शैल-श्रृंग

जीवन-नद हाहाकार भरा-


हो उठती पीड़ा की तरंग

लालसा भरे यौवन के दिन

पतझड़ से सूखे जायँ बीत

संदेह नये उत्पन्न रहें


उनसे संतप्त सदा सभीत

फैलेगा स्वजनों का विरोध

बन कर तम वाली श्याम-अमा

दारिद्रय दलित बिलखाती हो यह


शस्यश्यामला प्रकृति-रमा

दुख-नीरद में बन इंद्रधनुष

बदले नर कितने नये रंग-

बन तृष्णा-ज्वाला का पतंग।


भाग 2


वह प्रेम न रह जाये पुनीत

अपने स्वार्थों से आवृत

हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत

सारी संसृति हो विरह भरी,


गाते ही बीतें करुण गीत

आकांक्षा-जलनिधि की सीमा हो

क्षितिज निराशा सदा रक्त

तुम राग-विराग करो सबसे


अपने को कर शतशः विभक्त

मस्तिष्क हृदय के हो विरुद्ध,

दोनों में हो सद्भाव नहीं

वह चलने को जब कहे कहीं


तब हृदय विकल चल जाय कहीं

रोकर बीते सब वर्त्तमान

क्षण सुंदर अपना हो अतीत

पेंगों में झूलें हार-जीत।


संकुचित असीम अमोघ शक्ति

जीवन को बाधा-मय पथ पर

ले चले मेद से भरी भक्ति

या कभी अपूर्ण अहंता में हो


रागमयी-सी महासक्ति

व्यापकता नियति-प्रेरणा बन

अपनी सीमा में रहे बंद

सर्वज्ञ-ज्ञान का क्षुद्र-अशं


विद्या बनकर कुछ रचे छंद

करत्तृत्व-सकल बनकर आवे

नश्वर-छाया-सी ललित-कला

नित्यता विभाजित हो पल-पल में


काल निरंतर चले ढला

तुम समझ न सको, बुराई से

शुभ-इच्छा की है बड़ी शक्ति

हो विफल तर्क से भरी युक्ति।


जीवन सारा बन जाये युद्ध

उस रक्त, अग्नि की वर्षा में

बह जायँ सभी जो भाव शुद्ध

अपनी शंकाओं से व्याकुल तुम


अपने ही होकर विरूद्ध

अपने को आवृत किये रहो

दिखलाओ निज कृत्रिम स्वरूप

वसुधा के समतल पर उन्नत


चलता फिरता हो दंभ-स्तूप

श्रद्धा इस संसृति की रहस्य-

व्यापक, विशुद्ध, विश्वासमयी

सब कुछ देकर नव-निधि अपनी


तुमसे ही तो वह छली गयी

हो वर्त्तमान से वंचित तुम

अपने भविष्य में रहो रुद्ध

सारा प्रपंच ही हो अशुद्ध।


तुम जरा मरण में चिर अशांत

जिसको अब तक समझे थे

सब जीवन परिवर्त्तन अनंत

अमरत्व, वही भूलेगा तुम


व्याकुल उसको कहो अंत

दुखमय चिर चिंतन के प्रतीक

श्रद्धा-वमचक बनकर अधीर

मानव-संतति ग्रह-रश्मि-रज्जु से


भाग्य बाँध पीटे लकीर

'कल्याण भूमि यह लोक'

यही श्रद्धा-रहस्य जाने न प्रजा।

अतिचारी मिथ्या मान इसे


परलोक-वंचना से भरा जा

आशाओं में अपने निराश

निज बुद्धि विभव से रहे भ्रांत

वह चलता रहे सदैव श्रांत।"


अभिशाप-प्रतिध्वनि हुई लीन

नभ-सागर के अंतस्तल में

जैसे छिप जाता महा मीन

मृदु-मरूत्-लहर में फेनोपम


तारागण झिलमिल हुए दीन

निस्तब्ध मौन था अखिल लोक

तंद्रालस था वह विजन प्रांत

रजनी-तम-पूंजीभूत-सदृश


मनु श्वास ले रहे थे अशांत

वे सोच रहे थे" आज वही

मेरा अदृष्ट बन फिर आया

जिसने डाली थी जीवन पर


पहले अपनी काली छाया

लिख दिया आज उसने भविष्य

यातना चलेगी अंतहीन

अब तो अवशिष्ट उपाय भी न।"


करती सरस्वती मधुर नाद

बहती थी श्यामल घाटी में

निर्लिप्त भाव सी अप्रमाद

सब उपल उपेक्षित पड़े रहे


जैसे वे निष्ठुर जड़ विषाद

वह थी प्रसन्नता की धारा

जिसमें था केवल मधुर गान

थी कर्म-निरंतरता-प्रतीक


चलता था स्ववश अनंत-ज्ञान

हिम-शीतल लहरों का रह-रह

कूलों से टकराते जाना

आलोक अरुण किरणों का उन पर


अपनी छाया बिखराना-

अदभुत था निज-निर्मित-पथ का

वह पथिक चल रहा निर्विवाद

कहता जाता कुछ सुसंवाद।


प्राची में फैला मधुर राग

जिसके मंडल में एक कमल

खिल उठा सुनहला भर पराग

जिसके परिमल से व्याकुल हो


श्यामल कलरव सब उठे जाग

आलोक-रश्मि से बुने उषा-

अंचल में आंदोलन अमंद

करता प्रभात का मधुर पवन


सब ओर वितरने को मरंद

उस रम्य फलक पर नवल चित्र सी

प्रकट हुई सुंदर बाला

वह नयन-महोत्सव की प्रतीक


अम्लान-नलिन की नव-माला

सुषमा का मंडल सुस्मित-सा

बिखरता संसृति पर सुराग

सोया जीवन का तम विराग।


वह विश्व मुकुट सा उज्जवलतम

शशिखंड सदृश था स्पष्ट भाल

दो पद्म-पलाश चषक-से दृग

देते अनुराग विराग ढाल


गुंजरित मधुप से मुकुल सदृश

वह आनन जिसमें भरा गान

वक्षस्थल पर एकत्र धरे

संसृति के सब विज्ञान ज्ञान


था एक हाथ में कर्म-कलश

वसुधा-जीवन-रस-सार लिये

दूसरा विचारों के नभ को था

मधुर अभय अवलंब दिये


त्रिवली थी त्रिगुण-तरंगमयी,

आलोक-वसन लिपटा अराल

चरणों में थी गति भरी ताल।

नीरव थी प्राणों की पुकार


मूर्छित जीवन-सर निस्तरंग

नीहार घिर रहा था अपार

निस्तब्ध अलस बन कर सोयी

चलती न रही चंचल बयार


पीता मन मुकुलित कंज आप

अपनी मधु बूँदे मधुर मौन

निस्वन दिगंत में रहे रुद्ध

सहसा बोले मनु " अरे कौन-


आलोकमयी स्मिति-चेतना

आयी यह हेमवती छाया'

तंद्रा के स्वप्न तिरोहित थे

बिखरी केवल उजली माया


वह स्पर्श-दुलार-पुलक से भर

बीते युग को उठता पुकार

वीचियाँ नाचतीं बार-बार।

प्रतिभा प्रसन्न-मुख सहज खोल


वह बोली-" मैं हूँ इड़ा, कहो

तुम कौन यहाँ पर रहे डोल"

नासिका नुकीली के पतले पुट

फरक रहे कर स्मित अमोल


" मनु मेरा नाम सुनो बाले

मैं विश्व पथिक स रहा क्लेश।"

" स्वागत पर देख रहे हो तुम

यह उजड़ा सारस्वत प्रदेश


भौति हलचल से यह

चंचल हो उठा देश ही था मेरा

इसमें अब तक हूँ पड़ी

इस आशा से आये दिन मेरा।"


" मैं तो आया हूँ- देवि बता दो

जीवन का क्या सहज मोल

भव के भविष्य का द्वार खोल

इस विश्वकुहर में इंद्रजाल


जिसने रच कर फैलाया है

ग्रह, तारा, विद्युत, नखत-माल

सागर की भीषणतम तरंग-सा

खेल रहा वह महाकाल


तब क्या इस वसुधा के

लघु-लघु प्राणी को करने को सभीत

उस निष्ठुर की रचना कठोर

केवल विनाश की रही जीत


तब मूर्ख आज तक क्यों समझे हैं

सृष्टि उसे जो नाशमयी

उसका अधिपति होगा कोई,

जिस तक दुख की न पुकार गयी


सुख नीड़ों को घेरे रहता

अविरत विषाद का चक्रवाल

किसने यह पट है दिया डाल

शनि का सुदूर वह नील लोक


जिसकी छाया-फैला है

ऊपर नीचे यह गगन-शोक

उसके भी परे सुना जाता

कोई प्रकाश का महा ओक


वह एक किरण अपनी देकर

मेरी स्वतंत्रता में सहाय

क्या बन सकता है? नियति-जाल से

मुक्ति-दान का कर उपाय।"



कोई भी हो वह क्या बोले,

पागल बन नर निर्भर न करे

अपनी दुर्बलता बल सम्हाल

गंतव्य मार्ग पर पैर धरे-



मत कर पसार-निज पैरों चल,

चलने की जिसको रहे झोंक

उसको कब कोई सके रोक?

हाँ तुम ही हो अपने सहाय?


जो बुद्धि कहे उसको न मान कर

फिर किसकी नर शरण जाय

जितने विचार संस्कार रहे

उनका न दूसरा है उपाय


यह प्रकृति, परम रमणीय

अखिल-ऐश्वर्य-भरी शोधक विहीन

तुम उसका पटल खोलने में परिकर

कस कर बन कर्मलीन


सबका नियमन शासन करते

बस बढ़ा चलो अपनी क्षमता

तुम ही इसके निर्णायक हो,

हो कहीं विषमता या समता


तुम जड़ा को चैतन्या करो

विज्ञान सहज साधन उपाय

यश अखिल लोक में रहे छाय।"

हँस पड़ा गगन वह शून्य लोक


जिसके भीतर बस कर उजड़े

कितने ही जीवन मरण शोक

कितने हृदयों के मधुर मिलन

क्रंदन करते बन विरह-कोक


ले लिया भार अपने सिर पर

मनु ने यह अपना विषम आज

हँस पड़ी उषा प्राची-नभ में

देखे नर अपना राज-काज


चल पड़ी देखने वह कौतुक

चंचल मलयाचल की बाला

लख लाली प्रकृति कपोलों में

गिरता तारा दल मतवाला


उन्निद्र कमल-कानन में

होती थी मधुपों की नोक-झोंक

वसुधा विस्मृत थी सकल-शोक।

"जीवन निशीथ का अधंकार


भग रहा क्षितिज के अंचल में

मुख आवृत कर तुमको निहार

तुम इड़े उषा-सी आज यहाँ

आयी हो बन कितनी उदार


कलरव कर जाग पड़े

मेरे ये मनोभाव सोये विहंग

हँसती प्रसन्नता चाव भरी

बन कर किरनों की सी तरंग


अवलंब छोड़ कर औरों का

जब बुद्धिवाद को अपनाया

मैं बढा सहज, तो स्वयं

बुद्धि को मानो आज यहाँ पाया


मेरे विकल्प संकल्प बनें,

जीवन ही कर्मों की पुकार

सुख साधन का हो खुला द्वार।"

स्वप्न सर्ग भाग-1

संध्या अरुण जलज केसर ले

अब तक मन थी बहलाती,

मुरझा कर कब गिरा तामरस,

उसको खोज कहाँ पाती


क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता

मलिन कालिमा के कर से,

कोकिल की काकली वृथा ही

अब कलियों पर मँडराती।


कामायनी-कुसुम वसुधा पर पड़ी,

न वह मकरंद रहा,

एक चित्र बस रेखाओं का,

अब उसमें है रंग कहाँ


वह प्रभात का हीनकला शशि-

किरन कहाँ चाँदनी रही,

वह संध्या थी-रवि, शशि,तारा

ये सब कोई नहीं जहाँ।


जहाँ तामरस इंदीवर या

सित शतदल हैं मुरझाये-

अपने नालों पर, वह सरसी

श्रद्धा थी, न मधुप आये,


वह जलधर जिसमें चपला

या श्यामलता का नाम नहीं,

शिशिर-कला की क्षीण-स्रोत

वह जो हिमचल में जम जाये।


एक मौन वेदना विजन की,

झिल्ली की झनकार नहीं,

जगती अस्पष्ट-उपेक्षा,

एक कसक साकार रही।


हरित-कुंज की छाया भर-थी

वसुधा-आलिगंन करती,

वह छोटी सी विरह-नदी थी

जिसका है अब पार नहीं।


नील गगन में उडती-उडती

विहग-बालिका सी किरनें,

स्वप्न-लोक को चलीं थकी सी

नींद-सेज पर जा गिरने।


किंतु, विरहिणी के जीवन में

एक घड़ी विश्राम नहीं-

बिजली-सी स्मृति चमक उठी तब,

लगे जभी तम-घन घिरने।


संध्या नील सरोरूह से जो

श्याम पराग बिखरते थे,

शैल-घाटियों के अंचल को

वो धीरे से भरते थे-


तृण-गुल्मों से रोमांचित नग

सुनते उस दुख की गाथा,

श्रद्धा की सूनी साँसों से

मिल कर जो स्वर भरते थे-


"जीवन में सुख अधिक या कि दुख,

मंदाकिनि कुछ बोलोगी?

नभ में नखत अधिक,

सागर में या बुदबुद हैं गिन दोगी?


प्रतिबिंब हैं तारा तुम में

सिंधु मिलन को जाती हो,

या दोनों प्रतिबिंबित एक के

इस रहस्य को खोलोगी


इस अवकाश-पटी पर

जितने चित्र बिगडते बनते हैं,

उनमें कितने रंग भरे जो

सुरधनु पट से छनते हैं,


किंतु सकल अणु पल में घुल कर

व्यापक नील-शून्यता सा,

जगती का आवरण वेदना का

धूमिल-पट बुनते हैं।


दग्ध-श्वास से आह न निकले

सजल कुहु में आज यहाँ

कितना स्नेह जला कर जलता

ऐसा है लघु-दीप कहाँ?


बुझ न जाय वह साँझ-किरन सी

दीप-शिखा इस कुटिया की,

शलभ समीप नहीं तो अच्छा,

सुखी अकेले जले यहाँ


आज सुनूँ केवल चुप होकर,

कोकिल जो चाहे कह ले,

पर न परागों की वैसी है

चहल-पहल जो थी पहले।


इस पतझड़ की सूनी डाली

और प्रतीक्षा की संध्या,

काकायनि तू हृदय कडा कर

धीरे-धीरे सब सह ले


बिरल डालियों के निकुंज

सब ले दुख के निश्वास रहे,

उस स्मृति का समीर चलता है

मिलन कथा फिर कौन कहे?


आज विश्व अभिमानी जैसे

रूठ रहा अपराध बिना,

किन चरणों को धोयेंगे जो

अश्रु पलक के पार बहे


अरे मधुर है कष्ट पूर्ण भी

जीवन की बीती घडियाँ-

जब निस्सबंल होकर कोई

जोड़ रहा बिखरी कड़ियाँ।


वही एक जो सत्य बना था

चिर-सुंदरता में अपनी,

छिपा कहीं, तब कैसे सुलझें

उलझी सुख-दुख की लड़ियाँ


विस्मृत हों बीती बातें,

अब जिनमें कुछ सार नहीं,

वह जलती छाती न रही

अब वैसा शीतल प्यार नहीं


सब अतीत में लीन हो चलीं

आशा, मधु-अभिलाषायें,

प्रिय की निष्ठुर विजय हुई,

पर यह तो मेरी हार नहीं


वे आलिंगन एक पाश थे,

स्मिति चपला थी, आज कहाँ?

और मधुर विश्वास अरे वह

पागल मन का मोह रहा


वंचित जीवन बना समर्पण

यह अभिमान अकिंचन का,

कभी दे दिया था कुछ मैंने,

ऐसा अब अनुमान रहा।


विनियम प्राणों का यह कितना

भयसंकुल व्यापार अरे

देना हो जितना दे दे तू,

लेना कोई यह न करे


परिवर्त्तन की तुच्छ प्रतीक्षा

पूरी कभी न हो सकती,

संध्या रवि देकर पाती है

इधर-उधर उडुगन बिखरे


वे कुछ दिन जो हँसते आये

अंतरिक्ष अरुणाचल से,

फूलों की भरमार स्वरों का

कूजन लिये कुहक बल से।


फैल गयी जब स्मिति की माया,

किरन-कली की क्रीड़ा से,

चिर-प्रवास में चले गये

वे आने को कहकर छल से


जब शिरीष की मधुर गंध से

मान-भरी मधुऋतु रातें,

रूठ चली जातीं रक्तिम-मुख,

न सह जागरण की घातें,


दिवस मधुर आलाप कथा-सा

कहता छा जाता नभ में,

वे जगते-सपने अपने तब

तारा बन कर मुसक्याते।"


वन बालाओं के निकुंज सब

भरे वेणु के मधु स्वर से

लौट चुके थे आने वाले

सुन पुकार हपने घर से,


किन्तु न आया वह परदेसी-

युग छिप गया प्रतीक्षा में,

रजनी की भींगी पलकों से

तुहिन बिंदु कण-कण बरसे


मानस का स्मृति-शतदल खिलता,

झरते बिंदु मरंद घने,

मोती कठिन पारदर्शी ये,

इनमें कितने चित्र बने


आँसू सरल तरल विद्युत्कण,

नयनालोक विरह तम में,

प्रान पथिक यह संबल लेकर

लगा कल्पना-जग रचने।


अरूण जलज के शोण कोण थे

नव तुषार के बिंदु भरे,

मुकुर चूर्ण बन रहे, प्रतिच्छवि

कितनी साथ लिये बिखरे


वह अनुराग हँसी दुलार की

पंक्ति चली सोने तम में,

वर्षा-विरह-कुहू में जलते

स्मृति के जुगनू डरे-डरे।


सूने गिरि-पथ में गुंजारित

श्रृंगनाद की ध्वनि चलती,

आकांक्षा लहरी दुख-तटिनी

पुलिन अंक में थी ढलती।


जले दीप नभ के, अभिलाषा-

शलभ उड़े, उस ओर चले,

भरा रह गया आँखों में जल,

बुझी न वह ज्वाला जलती।


"माँ"-फिर एक किलक दूरागत,

गूँज उठी कुटिया सूनी,

माँ उठ दौड़ी भरे हृदय में

लेकर उत्कंठा दूनी।


लुटरी खुली अलक, रज-धूसर

बाँहें आकर लिपट गयीं,

निशा-तापसी की जलने को

धधक उठो बुझती धूनी


कहाँ रहा नटखट तू फिरता

अब तक मेरा भाग्य बना

अरे पिता के प्रतिनिधि

तूने भी सुख-दुख तो दिया घना,


चंचल तू, बनचर-मृग बन कर

भरता है चौकड़ी कहीं,

मैं डरती तू रूठ न जाये

करती कैसे तुझे मना"


"मैं रूठूँ माँ और मना तू,

कितनी अच्छी बात कही

ले मैं अब सोता हूँ जाकर,

बोलूँगा मैं आज नहीं,


पके फलों से पेट भरा है

नींद नहीं खुलने वाली।"

श्रद्धा चुबंन ले प्रसन्न

कुछ-कुछ विषाद से भरी रही


जल उठते हैं लघु जीवन के

मधुर-मधुर वे पल हलके,

मुक्त उदास गगन के उर में

छाले बन कर जा झलके।


दिवा-श्रांत-आलोक-रश्मियाँ

नील-निलय में छिपी कहीं,

करुण वही स्वर फिर उस

संसृति में बह जाता है गल के।


प्रणय किरण का कोमल बंधन

मुक्ति बना बढ़ता जाता,

दूर, किंतु कितना प्रतिपल

वह हृदय समीप हुआ जाता


मधुर चाँदनी सी तंद्रा

जब फैली मूर्छित मानस पर,

तब अभिन्न प्रेमास्पद उसमें

अपना चित्र बना जाता।


भाग 2


कामायनी सकल अपना सुख

स्वप्न बना-सा देख रही,

युग-युग की वह विकल प्रतारित

मिटी हुई बन लेख रही-


जो कुसुमों के कोमल दल से

कभी पवन पर अकिंत था,

आज पपीहा की पुकार बन-

नभ में खिंचती रेख रही।


इड़ा अग्नि-ज्वाला-सी

आगे जलती है उल्लास भरी,

मनु का पथ आलोकित करती

विपद-नदी में बनी तरी,


उन्नति का आरोहण, महिमा

शैल-श्रृंग सी श्रांति नहीं,

तीव्र प्रेरणा की धारा सी

बही वहाँ उत्साह भरी।


वह सुंदर आलोक किरन सी

हृदय भेदिनी दृष्टि लिये,

जिधर देखती-खुल जाते हैं

तम ने जो पथ बंद किये।


मनु की सतत सफलता की

वह उदय विजयिनी तारा थी,

आश्रय की भूखी जनता ने

निज श्रम के उपहार दिये


मनु का नगर बसा है सुंदर

सहयोगी हैं सभी बने,

दृढ़ प्राचीरों में मंदिर के

द्वार दिखाई पड़े घने,



वर्षा धूप शिशिर में छाया

के साधन संपन्न हुये,

खेतों में हैं कृषक चलाते हल

प्रमुदित श्रम-स्वेद सने।


उधर धातु गलते, बनते हैं

आभूषण औ' अस्त्र नये,

कहीं साहसी ले आते हैं

मृगया के उपहार नये,


पुष्पलावियाँ चुनती हैं बन-

कुसुमों की अध-विकच कली,

गंध चूर्ण था लोध्र कुसुम रज,

जुटे नवीन प्रसाधन ये।


घन के आघातों से होती जो

प्रचंड ध्वनि रोष भरी,

तो रमणी के मधुर कंठ से

हृदय मूर्छना उधर ढरी,


अपने वर्ग बना कर श्रम का

करते सभी उपाय वहाँ,

उनकी मिलित-प्रयत्न-प्रथा से

पुर की श्री दिखती निखरी।


देश का लाघव करते

वे प्राणी चंचल से हैं,

सुख-साधन एकत्र कर रहे

जो उनके संबल में हैं,


बढे़ ज्ञान-व्यवसाय, परिश्रम,

बल की विस्मृत छाया में,

नर-प्रयत्न से ऊपर आवे

जो कुछ वसुधा तल में है।


सृष्टि-बीज अंकुरित, प्रफुल्लित

सफल हो रहा हरा भरा,

प्रलय बीव भी रक्षित मनु से

वह फैला उत्साह भरा,


आज स्वचेतन-प्राणी अपनी

कुशल कल्पनायें करके,

स्वावलंब की दृढ़ धरणी

पर खड़ा, नहीं अब रहा डरा।


श्रद्धा उस आश्चर्य-लोक में

मलय-बालिका-सी चलती,

सिंहद्वार के भीतर पहुँची,

खड़े प्रहरियों को छलती,


ऊँचे स्तंभों पर वलभी-युत

बने रम्य प्रासाद वहाँ,

धूप-धूप-सुरभित-गृह,

जिनमें थी आलोक-शिखा जलती।


स्वर्ण-कलश-शोभित भवनों से

लगे हुए उद्यान बने,

ऋजु-प्रशस्त, पथ बीव-बीच में,

कहीं लता के कुंज घने,


जिनमें दंपति समुद विहरते,

प्यार भरे दे गलबाहीं,

गूँज रहे थे मधुप रसीले,

मदिरा-मोद पराग सने।


देवदारू के वे प्रलंब भुज,

जिनमें उलझी वायु-तरंग,

मिखरित आभूषण से कलरव

करते सुंदर बाल-विहंग,


आश्रय देता वेणु-वनों से

निकली स्वर-लहरी-ध्वनि को,

नाग-केसरों की क्यारी में

अन्य सुमन भी थे बहुरंग


नव मंडप में सिंहासन

सम्मुख कितने ही मंच तहाँ,

एक ओर रखे हैं सुन्दर मढ़ें

चर्म से सुखद जहाँ,


आती है शैलेय-अगुरु की

धूम-गंध आमोद-भरी,

श्रद्धा सोच रही सपने में

'यह लो मैं आ गयी कहाँ'


और सामने देखा निज

दृढ़ कर में चषक लिये,

मनु, वह क्रतुमय पुरुष वही

मुख संध्या की लालिमा पिये।


मादक भाव सामने, सुंदर

एक चित्र सा कौन यहाँ,

जिसे देखने को यह जीवन

मर-मर कर सौ बार जिये-


इड़ा ढालती थी वह आसव,

जिसकी बुझती प्यास नहीं,

तृषित कंठ को, पी-पीकर भी

जिसमें है विश्वास नहीं,


वह-वैश्वानर की ज्वाला-सी-

मंच वेदिका पर बैठी,

सौमनस्य बिखराती शीतल,

जड़ता का कुछ भास नहीं।


मनु ने पूछा "और अभी कुछ

करने को है शेष यहाँ?"

बोली इड़ा "सफल इतने में

अभी कर्म सविशेष कहाँ


क्या सब साधन स्ववश हो चुके?"

नहीं अभी मैं रिक्त रहा-

देश बसाया पर उज़ड़ा है

सूना मानस-देश यहाँ।


सुंदर मुख, आँखों की आशा,

किंतु हुए ये किसके हैं,

एक बाँकपन प्रतिपद-शशि का,

भरे भाव कुछ रिस के हैं,


कुछ अनुरोध मान-मोचन का

करता आँखों में संकेत,

बोल अरी मेरी चेतनते

तू किसकी, ये किसके हैं?"


"प्रजा तुम्हारी, तुम्हें प्रजापति

सबका ही गुनती हूँ मैं,

वह संदेश-भरा फिर कैसा

नया प्रश्न सुनती हूँ मैं"


"प्रजा नहीं, तुम मेरी रानी

मुझे न अब भ्रम में डालो,

मधुर मराली कहो 'प्रणय के

मोती अब चुनती हूँ मैं'



मेरा भाग्य-गगन धुँधला-सा,

प्राची-पट-सी तुम उसमें,

खुल कर स्वयं अचानक कितनी

प्रभापूर्ण हो छवि-यश में


मैं अतृप्त आलोक-भिखारी

ओ प्रकाश-बालिके बता,

कब डूबेगी प्यास हमारी

इन मधु-अधरों के रस में?


'ये सुख साधन और रुपहली-

रातों की शीतल-छाया,

स्वर-संचरित दिशायें, मन है

उन्मद और शिथिल काया,


तब तुम प्रजा बनो मत रानी"

नर-पशु कर हुंकार उठा,

उधर फैलती मदिर घटा सी

अंधकार की घन-माया।


आलिंगन फिर भय का क्रदंन

वसुधा जैसे काँप उठी

वही अतिचारी, दुर्बल नारी-

परित्राण-पथ नाप उठी


अंतरिक्ष में हुआ रुद्र-हुंकार

भयानक हलचल थी,

अरे आत्मजा प्रजा पाप की

परिभाषा बन शाप उठी।


उधर गगन में क्षुब्ध हुई

सब देव शक्तियाँ क्रोध भरी,

रुद्र-नयन खुल गया अचानक-

व्याकुल काँप रही नगरी,


अतिचारी था स्वयं प्रजापति,

देव अभी शिव बने रहें

नहीं, इसी से चढ़ी शिजिनी

अजगव पर प्रतिशोध भरी।


प्रकृति त्रस्त थी, भूतनाथ ने

नृत्य विकंपित-पद अपना-

उधर उठाया, भूत-सृष्टि सब

होने जाती थी सपना


आश्रय पाने को सब व्याकुल,

स्वयं-कलुष में मनु संदिग्ध,

फिर कुछ होगा, यही समझ कर

वसुधा का थर-थर कँपना।


काँप रहे थे प्रलयमयी

क्रीड़ा से सब आशंकित जंतु,

अपनी-अपनी पड़ी सभी को,

छिन्न स्नेह को कोमल तंतु,


आज कहाँ वह शासन था

जो रक्षा का था भार लिये,

इड़ा क्रोध लज्जा से भर कर

बाहर निकल चली थि किंतु।


देखा उसने, जनता व्याकुल

राजद्वार कर रुद्ध रही,

प्रहरी के दल भी झुक आये

उनके भाव विशुद्ध नहीं,


नियमन एक झुकाव दबा-सा

टूटे या ऊपर उठ जाय

प्रजा आज कुछ और सोचती

अब तक तो अविरुद्ध रही


कोलाहल में घिर, छिप बैठे

मनु कुछ सोच विचार भरे,

द्वार बंद लख प्रजा त्रस्त-सी,

कैसे मन फिर धैर्य्य धरे


शक्त्ति-तरंगों में आन्दोलन,

रुद्र-क्रोध भीषणतम था,

महानील-लोहित-ज्वाला का

नृत्य सभी से उधर परे।


वह विज्ञानमयी अभिलाषा,

पंख लगाकर उड़ने की,

जीवन की असीम आशायें

कभी न नीचे मुड़ने की,


अधिकारों की सृष्टि और

उनकी वह मोहमयी माया,

वर्गों की खाँई बन फैली

कभी नहीं जो जुड़ने की।


असफल मनु कुछ क्षुब्ध हो उठे,

आकस्मिक बाधा कैसी-

समझ न पाये कि यह हुआ क्या,

प्रजा जुटी क्यों आ ऐसी


परित्राण प्रार्थना विकल थी

देव-क्रोध से बन विद्रोह,

इड़ा रही जब वहाँ स्पष्ट ही

वह घटना कुचक्र जैसी।


"द्वार बंद कर दो इनको तो

अब न यहाँ आने देना,

प्रकृति आज उत्पाद कर रही,

मुझको बस सोने देना"


कह कर यों मनु प्रकट क्रोध में,

किंतु डरे-से थे मन में,

शयन-कक्ष में चले सोचते

जीवन का लेना-देना।


श्रद्धा काँप उठी सपने में

सहसा उसकी आँख खुली,

यह क्या देखा मैंने? कैसे

वह इतना हो गया छली?


स्वजन-स्नेह में भय की

कितनी आशंकायें उठ आतीं,

अब क्या होगा, इसी सोच में

व्याकुल रजनी बीत चली।

संघर्ष सर्ग भाग-1

श्रद्धा का था स्वप्न

किंतु वह सत्य बना था,

इड़ा संकुचित उधर

प्रजा में क्षोभ घना था।


भौतिक-विप्लव देख

विकल वे थे घबराये,

राज-शरण में त्राण प्राप्त

करने को आये।


किंतु मिला अपमान

और व्यवहार बुरा था,

मनस्ताप से सब के

भीतर रोष भरा था।


क्षुब्ध निरखते वदन

इड़ा का पीला-पीला,

उधर प्रकृति की रुकी

नहीं थी तांड़व-लीला।


प्रागंण में थी भीड़ बढ़ रही

सब जुड़ आये,

प्रहरी-गण कर द्वार बंद

थे ध्यान लगाये।


रा्त्रि घनी-लालिमा-पटी

में दबी-लुकी-सी,

रह-रह होती प्रगट मेघ की

ज्योति झुकी सी।


मनु चिंतित से पड़े

शयन पर सोच रहे थे,

क्रोध और शंका के

श्वापद नोच रहे थे।


" मैं प्रजा बना कर

कितना तुष्ट हुआ था,

किंतु कौन कह सकता

इन पर रुष्ट हुआ था।


कितने जव से भर कर

इनका चक्र चलाया,

अलग-अलग ये एक

हुई पर इनकी छाया।


मैं नियमन के लिए

बुद्धि-बल से प्रयत्न कर,

इनको कर एकत्र,

चलाता नियम बना कर।


किंतु स्वयं भी क्या वह

सब कुछ मान चलूँ मैं,

तनिक न मैं स्वच्छंद,

स्वर्ण सा सदा गलूँ मैं


जो मेरी है सृष्टि

उसी से भीत रहूँ मैं,

क्या अधिकार नहीं कि

कभी अविनीत रहूँ मैं?


श्रद्धा का अधिकार

समर्पण दे न सका मैं,

प्रतिपल बढ़ता हुआ भला

कब वहाँ रुका मैं


इड़ा नियम-परतंत्र

चाहती मुझे बनाना,

निर्वाधित अधिकार

उसी ने एक न माना।


विश्व एक बन्धन

विहीन परिवर्त्तन तो है,

इसकी गति में रवि-

शशि-तारे ये सब जो हैं।


रूप बदलते रहते

वसुधा जलनिधि बनती,

उदधि बना मरूभूमि

जलधि में ज्वाला जलती


तरल अग्नि की दौड़

लगी है सब के भीतर,

गल कर बहते हिम-नग

सरिता-लीला रच कर।


यह स्फुलिग का नृत्य

एक पल आया बीता

टिकने कब मिला

किसी को यहाँ सुभीता?


कोटि-कोटि नक्षत्र

शून्य के महा-विवर में,

लास रास कर रहे

लटकते हुए अधर में।


उठती है पवनों के

स्तर में लहरें कितनी,

यह असंख्य चीत्कार

और परवशता इतनी।


यह नर्त्तन उन्मुक्त

विश्व का स्पंदन द्रुततर,

गतिमय होता चला

जा रहा अपने लय पर।


कभी-कभी हम वही

देखते पुनरावर्त्तन,

उसे मानते नियम

चल रहा जिससे जीवन।


रुदन हास बन किंतु

पलक में छलक रहे है,

शत-शत प्राण विमुक्ति

खोजते ललक रहे हैं।


जीवन में अभिशाप

शाप में ताप भरा है,

इस विनाश में सृष्टि-

कुंज हो रहा हरा है।


'विश्व बँधा है एक नियम से'

यह पुकार-सी,

फैली गयी है इसके मन में

दृढ़ प्रचार-सी।


नियम इन्होंने परखा

फिर सुख-साधन जाना,

वशी नियामक रहे,

न ऐसा मैंने माना।


मैं-चिर-बंधन-हीन

मृत्यु-सीमा-उल्लघंन-

करता सतत चलूँगा

यह मेरा है दृढ़ प्रण।


महानाश की सृष्टि बीच

जो क्षण हो अपना,

चेतनता की तुष्टि वही है

फिर सब सपना।"


प्रगति मन रूका

इक क्षण करवट लेकर,

देखा अविचल इड़ा खड़ी

फिर सब कुछ देकर


और कह रही "किंतु

नियामक नियम न माने,

तो फिर सब कुछ नष्ट

हुआ निश्चय जाने।"


"ऐं तुम फिर भी यहाँ

आज कैसे चल आयी,

क्या कुछ और उपद्रव

की है बात समायी-


मन में, यह सब आज हुआ है

जो कुछ इतना

क्या न हुई तुष्टि?

बच रहा है अब कितना?"



"मनु, सब शासन स्वत्त्व

तुम्हारा सतत निबाहें,

तुष्टि, चेतना का क्षण

अपना अन्य न चाहें


आह प्रजापति यह

न हुआ है, कभी न होगा,

निर्वाधित अधिकार

आज तक किसने भोगा?"


यह मनुष्य आकार

चेतना का है विकसित,

एक विश्व अपने

आवरणों में हैं निर्मित


चिति-केन्द्रों में जो

संघर्ष चला करता है,

द्वयता का जो भाव सदा

मन में भरता है-


वे विस्मृत पहचान

रहे से एक-एक को,

होते सतत समीप

मिलाते हैं अनेक को।


स्पर्धा में जो उत्तम

ठहरें वे रह जावें,

संसृति का कल्याण करें

शुभ मार्ग बतावें।


व्यक्ति चेतना इसीलिए

परतंत्र बनी-सी,

रागपूर्ण, पर द्वेष-पंक में

सतत सनी सी।


नियत मार्ग में पद-पद

पर है ठोकर खाती,

अपने लक्ष्य समीप

श्रांत हो चलती जाती।


यह जीवन उपयोग,

यही है बुद्धि-साधना,

पना जिसमें श्रेय

यही सुख की अ'राधना।


लोक सुखी हों आश्रय लें

यदि उस छाया में,

प्राण सदृश तो रमो

राष्ट्र की इस काया में।


देश कल्पना काल

परिधि में होती लय है,

काल खोजता महाचेतना

में निज क्षय है।


वह अनंत चेतन

नचता है उन्मद गति से,

तुम भी नाचो अपनी

द्वयता में-विस्मृति में।



क्षितिज पटी को उठा

बढो ब्रह्मांड विवर में,

गुंजारित घन नाद सुनो

इस विश्व कुहर में।


ताल-ताल पर चलो

नहीं लय छूटे जिसमें,

तुम न विवादी स्वर

छेडो अनजाने इसमें।


"अच्छा यह तो फिर न

तुम्हें समझाना है अब,

तुम कितनी प्रेरणामयी

हो जान चुका सब।


किंतु आज ही अभी

लौट कर फिर हो आयी,

कैसे यह साहस की

मन में बात समायी


आह प्रजापति होने का

अधिकार यही क्या

अभिलाषा मेरी अपूर्णा

ही सदा रहे क्या?


मैं सबको वितरित करता

ही सतत रहूँ क्या?

कुछ पाने का यह प्रयास

है पाप, सहूँ क्या?


तुमने भी प्रतिदिन दिया

कुछ कह सकती हो?

मुझे ज्ञान देकर ही

जीवित रह सकती हो?


जो मैं हूँ चाहता वही

जब मिला नहीं है,

तब लौटा लो व्यर्थ

बात जो अभी कही है।"


"इड़े मुझे वह वस्तु

चाहिये जो मैं चाहूँ,

तुम पर हो अधिकार,

प्रजापति न तो वृथा हूँ।


तुम्हें देखकर बंधन ही

अब टूट रहा सब,

शासन या अधिकार

चाहता हूँ न तनिक अब।


देखो यह दुर्धर्ष

प्रकृति का इतना कंपन

मेरे हृदय समक्ष क्षुद्र

है इसका स्पंदन


इस कठोर ने प्रलय

खेल है हँस कर खेला

किंतु आज कितना

कोमल हो रहा अकेला?


तुम कहती हो विश्व

एक लय है, मैं उसमें

लीन हो चलूँ? किंतु

धरा है क्या सुख इसमें।


क्रंदन का निज अलग

एक आकाश बना लूँ,

उस रोदन में अट्टाहास

हो तुमको पा लूँ।


फिर से जलनिधि उछल

बहे मर्य्यादा बाहर,

फिर झंझा हो वज्र-

प्रगति से भीतर बाहर,


फिर डगमड हो नाव

लहर ऊपर से भागे,

रवि-शशि-तारा

सावधान हों चौंके जागें,


किंतु पास ही रहो

बालिके मेरी हो, तुम,

मैं हूँ कुछ खिलवाड

नहीं जो अब खेलो तुम?"


भाग 2


आह न समझोगे क्या

मेरी अच्छी बातें,

तुम उत्तेजित होकर

अपना प्राप्य न पाते।


प्रजा क्षुब्ध हो शरण

माँगती उधर खडी है,

प्रकृति सतत आतंक

विकंपित घडी-घडी है।


साचधान, में शुभाकांक्षिणी

और कहूँ क्या

कहना था कह चुकी

और अब यहाँ रहूँ क्या"


"मायाविनि, बस पाली

तमने ऐसे छुट्टी,

लडके जैसे खेलों में

कर लेते खुट्टी।


मूर्तिमयी अभिशाप बनी

सी सम्मुख आयी,

तुमने ही संघर्ष

भूमिका मुझे दिखायी।


रूधिर भरी वेदियाँ

भयकरी उनमें ज्वाला,

विनयन का उपचार

तुम्हीं से सीख निकाला।


चार वर्ण बन गये

बँटा श्रम उनका अपना

शस्त्र यंत्र बन चले,

न देखा जिनका सपना।


आज शक्ति का खेल

खेलने में आतुर नर,

प्रकृति संग संघर्ष

निरंतर अब कैसा डर?


बाधा नियमों की न

पास में अब आने दो

इस हताश जीवन में

क्षण-सुख मिल जाने दो।


राष्ट्र-स्वामिनी, यह लो

सब कुछ वैभव अपना,

केवल तुमको सब उपाय से

कह लूँ अपना।


यह सारस्वत देश या कि

फिर ध्वंस हुआ सा

समझो, तुम हो अग्नि

और यह सभी धुआँ सा?"



"मैंने जो मनु, किया

उसे मत यों कह भूलो,

तुमको जितना मिला

उसी में यों मत फूलो।


प्रकृति संग संघर्ष

सिखाया तुमको मैंने,

तुमको केंद्र बनाकर

अनहित किया न मैंने


मैंने इस बिखरी-बिभूति

पर तुमको स्वामी,

सहज बनाया, तुम

अब जिसके अंतर्यामी।


किंतु आज अपराध

हमारा अलग खड़ा है,

हाँ में हाँ न मिलाऊँ

तो अपराध बडा है।


मनु देखो यह भ्रांत

निशा अब बीत रही है,

प्राची में नव-उषा

तमस् को जीत रही है।


अभी समय है मुझ पर

कुछ विश्वास करो तो।'

बनती है सब बात

तनिक तुम धैर्य धरो तो।"


और एक क्षण वह,

प्रमाद का फिर से आया,

इधर इडा ने द्वार ओर

निज पैर बढाया।


किंतु रोक ली गयी

भुजाओं की मनु की वह,

निस्सहाय ही दीन-दृष्टि

देखती रही वह।


"यह सारस्वत देश

तुम्हारा तुम हो रानी।

मुझको अपना अस्त्र

बना करती मनमानी।


यह छल चलने में अब

पंगु हुआ सा समझो,

मुझको भी अब मुक्त

जाल से अपने समझो।


शासन की यह प्रगति

सहज ही अभी रुकेगी,

क्योंकि दासता मुझसे

अब तो हो न सकेगी।


मैं शासक, मैं चिर स्वतंत्र,

तुम पर भी मेरा-

हो अधिकार असीम,

सफल हो जीवन मेरा।


छिन्न भिन्न अन्यथा

हुई जाती है पल में,

सकल व्यवस्था अभी

जाय डूबती अतल में।


देख रहा हूँ वसुधा का

अति-भय से कंपन,

और सुन रहा हूँ नभ का

यह निर्मम-क्रंदन


किंतु आज तुम

बंदी हो मेरी बाँहों में,

मेरी छाती में,"-फिर

सब डूबा आहों में


सिंहद्वार अरराया

जनता भीतर आयी,

"मेरी रानी" उसने

जो चीत्कार मचायी।


अपनी दुर्बलता में

मनु तब हाँफ रहे थे,

स्खलन विकंपित पद वे

अब भी काँप रहे थे।


सजग हुए मनु वज्र-

खचित ले राजदंड तब,

और पुकारा "तो सुन लो-

जो कहता हूँ अब।


"तुम्हें तृप्तिकर सुख के

साधन सकल बताया,

मैंने ही श्रम-भाग किया

फिर वर्ग बनाया।


अत्याचार प्रकृति-कृत

हम सब जो सहते हैं,

करते कुछ प्रतिकार

न अब हम चुप रहते हैं


आज न पशु हैं हम,

या गूँगे काननचारी,

यह उपकृति क्या

भूल गये तुम आज हमारी"


वे बोले सक्रोध मानसिक

भीषण दुख से,

"देखो पाप पुकार उठा

अपने ही सुख से


तुमने योगक्षेम से

अधिक संचय वाला,

लोभ सिखा कर इस

विचार-संकट में डाला।


हम संवेदनशील हो चले

यही मिला सुख,

कष्ट समझने लगे बनाकर

निज कृत्रिम दुख


प्रकृत-शक्ति तुमने यंत्रों

से सब की छीनी

शोषण कर जीवनी

बना दी जर्जर झीनी


और इड़ा पर यह क्या

अत्याचार किया है?

इसीलिये तू हम सब के

बल यहाँ जिया है?


आज बंदिनी मेरी

रानी इड़ा यहाँ है?

ओ यायावर अब

मेरा निस्तार कहाँ है?"


"तो फिर मैं हूँ आज

अकेला जीवन रभ में,

प्रकृति और उसके

पुतलों के दल भीषण में।


आज साहसिक का पौरुष

निज तन पर खेलें,

राजदंड को वज्र बना

सा सचमुच देखें।"


यों कह मनु ने अपना

भीषण अस्त्र सम्हाला,

देव 'आग' ने उगली

त्यों ही अपनी ज्वाला।


छूट चले नाराच धनुष

से तीक्ष्ण नुकीले,

टूट रहे नभ-धूमकेतु

अति नीले-पीले।


अंधड थ बढ रहा,

प्रजा दल सा झुंझलाता,

रण वर्षा में शस्त्रों सा

बिजली चमकाता।


किंतु क्रूर मनु वारण

करते उन बाणों को,

बढे कुचलते हुए खड्ग से

जन-प्राणों को।


तांडव में थी तीव्र प्रगति,

परमाणु विकल थे,

नियति विकर्षणमयी,

त्रास से सब व्याकुल थे।


मनु फिर रहे अलात-

चक्र से उस घन-तम में,

वह रक्तिम-उन्माद

नाचता कर निर्मम में।


उठ तुमुल रण-नाद,

भयानक हुई अवस्था,

बढा विपक्ष समूह

मौन पददलित व्यवस्था।


आहत पीछे हटे, स्तंभ से

टिक कर मनु ने,

श्वास लिया, टंकार किया

दुर्लक्ष्यी धनु ने।


बहते विकट अधीर

विषम उंचास-वात थे,

मरण-पर्व था, नेता

आकुलि औ' किलात थे।


ललकारा, "बस अब

इसको मत जाने देना"

किंतु सजग मनु पहुँच

गये कह "लेना लेना"।


"कायर, तुम दोनों ने ही

उत्पात मचाया,

अरे, समझकर जिनको

अपना था अपनाया।


तो फिर आओ देखो

कैसे होती है बलि,

रण यह यज्ञ, पुरोहित

ओ किलात औ' आकुलि।


और धराशायी थे

असुर-पुरोहित उस क्षण,

इड़ा अभी कहती जाती थी

"बस रोको रण।


भीषन जन संहार

आप ही तो होता है,

ओ पागल प्राणी तू

क्यों जीवन खोता है


क्यों इतना आतंक

ठहर जा ओ गर्वीले,

जीने दे सबको फिर

तू भी सुख से जी ले।"


किंतु सुन रहा कौण

धधकती वेदी ज्वाला,

सामूहिक-बलि का

निकला था पंथ निराला।


रक्तोन्मद मनु का न

हाथ अब भी रुकता था,

प्रजा-पक्ष का भी न

किंतु साहस झुकता था।


वहीं धर्षिता खड़ी

इड़ा सारस्वत-रानी,

वे प्रतिशोध अधीर,

रक्त बहता बन पानी।


धूंकेतु-सा चला

रुद्र-नाराच भयंकर,

लिये पूँछ में ज्वाला

अपनी अति प्रलयंकर।


अंतरिक्ष में महाशक्ति

हुंकार कर उठी

सब शस्त्रों की धारें

भीषण वेग भर उठीं।


और गिरीं मनु पर,

मुमूर्व वे गिरे वहीं पर,

रक्त नदी की बाढ-

फैलती थी उस भू पर।

निर्वेद सर्ग भाग-1

वह सारस्वत नगर पडा था क्षुब्द्ध,

मलिन, कुछ मौन बना,

जिसके ऊपर विगत कर्म का

विष-विषाद-आवरण तना।


उल्का धारी प्रहरी से ग्रह-

तारा नभ में टहल रहे,

वसुधा पर यह होता क्या है

अणु-अणु क्यों है मचल रहे?


जीवन में जागरण सत्य है

या सुषुप्ति ही सीमा है,

आती है रह रह पुकार-सी

'यह भव-रजनी भीमा है।'


निशिचारी भीषण विचार के

पंख भर रहे सर्राटे,

सरस्वती थी चली जा रही

खींच रही-सी सन्नाटे।


अभी घायलों की सिसकी में

जाग रही थी मर्म-व्यथा,

पुर-लक्ष्मी खगरव के मिस

कुछ कह उठती थी करुण-कथा।


कुछ प्रकाश धूमिल-सा उसके

दीपों से था निकल रहा,

पवन चल रहा था रुक-रुक कर

खिन्न, भरा अवसाद रहा।


भयमय मौन निरीक्षक-सा था

सजग सतत चुपचाप खडा,

अंधकार का नील आवरण

दृश्य-जगत से रहा बडा।


मंडप के सोपान पडे थे सूने,

कोई अन्य नहीं,

स्वयं इडा उस पर बैठी थी

अग्नि-शिखा सी धधक रही।


शून्य राज-चिह्नों से मंदिर

बस समाधि-सा रहा खडा,

क्योंकि वही घायल शरीर

वह मनु का था रहा पडा।


इडा ग्लानि से भरी हुई

बस सोच रही बीती बातें,

घृणा और ममता में ऐसी

बीत चुकीं कितनी रातें।


नारी का वह हृदय हृदय में-

सुधा-सिंधु लहरें लेता,

बाडव-ज्वलन उसी में जलकर

कँचन सा जल रँग देता।


मधु-पिगल उस तरल-अग्नि में

शीतलता संसृति रचती,

क्षमा और प्रतिशोध आह रे

दोनों की माया नचती।


"उसने स्नेह किया था मुझसे

हाँ अनन्य वह रहा नहीं,

सहज लब्ध थी वह अनन्यता

पडी रह सके जहाँ कहीं।


बाधाओं का अतिक्रमण कर

जो अबाध हो दौड चले,

वही स्नेह अपराध हो उठा

जो सब सीमा तोड चले।


"हाँ अपराध, किंतु वह कितना

एक अकेले भीम बना,

जीवन के कोने से उठकर

इतना आज असीम बना


और प्रचुर उपकार सभी वह

सहृदयता की सब माया,

शून्य-शून्य था केवल उसमें

खेल रही थी छल छाया


"कितना दुखी एक परदेशी बन,

उस दिन जो आया था,

जिसके नीचे धारा नहीं थी

शून्य चतुर्दिक छाया था।


वह शासन का सूत्रधार था

नियमन का आधार बना,

अपने निर्मित नव विधान से

स्वयं दंड साकार बना।


"सागर की लहरों से उठकर

शैल-श्रृंग पर सहज चढा,

अप्रतिहत गति, संस्थानों से

रहता था जो सदा बढा।


आज पडा है वह मुमूर्ष सा

वह अतीत सब सपना था,

उसके ही सब हुए पराये

सबका ही जो अपना था।


"किंतु वही मेरा अपराधी

जिसका वह उपकारी था,

प्रकट उसी से दोष हुआ है

जो सबको गुणकारी था।


अरे सर्ग-अकुंर के दोनों

पल्लव हैं ये भले बुरे,

एक दूसरे की सीमा है

क्यों न युगल को प्यार करें?



"अपना हो या औरों का सुख

बढा कि बस दुख बना वहीं,

कौन बिंदु है रुक जाने का

यह जैसे कुछ ज्ञात नहीं।


प्राणी निज-भविष्य-चिंता में

वर्त्तमान का सुख छोडे,

दौड चला है बिखराता सा

अपने ही पथ में रोडे।"


"इसे दंड दने मैं बैठी

या करती रखवाली मैं,

यह कैसी है विकट पहेली

कितनी उलझन वाली मैं?


एक कल्पना है मीठी यह

इससे कुछ सुंदर होगा,

हाँ कि, वास्तविकता से अच्छी

सत्य इसी को वर देगा।"


चौंक उठी अपने विचार से

कुछ दूरागत-ध्वनि सुनती,

इस निस्तब्ध-निशा में कोई

चली आ रही है कहती-


"अरे बता दो मुझे दया कर

कहाँ प्रवासी है मेरा?

उसी बावले से मिलने को

डाल रही हूँ मैं फेरा।


रूठ गया था अपनेपन से

अपना सकी न उसको मैं,

वह तो मेरा अपना ही था

भला मनाती किसको मैं


यही भूल अब शूल-सदृश

हो साल रही उर में मेरे

कैसे पाऊँगी उसको मैं

कोई आकर कह दे रे"


इडा उठी, दिख पडा राजपथ

धुँधली सी छाया चलती,

वाणी में थी करूणा-वेदना

वह पुकार जैसे जलती।


शिथिल शरीर, वसन विश्रृंखल

कबरी अधिक अधीर खुली,

छिन्नपत्र मकरंद लुटी सी

ज्यों मुरझायी हुयी कली।


नव कोमल अवलंब साथ में

वय किशोर उँगली पकडे,

चला आ रहा मौन धैर्य सा

अपनी माता को पकडे।


थके हुए थे दुखी बटोही

वे दोनों ही माँ-बेटे,

खोज रहे थे भूले मनु को

जो घायल हो कर लेटे।


इडा आज कुछ द्रवित हो रही

दुखियों को देखा उसने,

पहुँची पास और फिर पूछा

"तुमको बिसराया किसने?


इस रजनी में कहाँ भटकती

जाओगी तुम बोलो तो,

बैठो आज अधिक चंचल हूँ

व्यथा-गाँठ निज खोलो तो।


जीवन की लम्बी यात्रा में

खोये भी हैं मिल जाते,

जीवन है तो कभी मिलन है

कट जाती दुख की रातें।"


श्रद्धा रुकी कुमार श्रांत था

मिलता है विश्राम यहीं,

चली इडा के साथ जहाँ पर

वह्नि शिखा प्रज्वलित रही।


सहसा धधकी वेदी ज्वाला

मंडप आलोकित करती,

कामायनी देख पायी कुछ

पहुँची उस तक डग भरती।


और वही मनु घायल सचमुच

तो क्या सच्चा स्वप्न रहा?

आह प्राणप्रिय यह क्या?

तुम यों घुला ह्रदय,बन नीर बहा।


इडा चकित, श्रद्धा आ बैठी

वह थी मनु को सहलाती,

अनुलेपन-सा मधुर स्पर्श था

व्यथा भला क्यों रह जाती?


उस मूर्छित नीरवता में

कुछ हलके से स्पंदन आये।

आँखे खुलीं चार कोनों में

चार बिदु आकर छाये।


उधर कुमार देखता ऊँचे

मंदिर, मंडप, वेदी को,

यह सब क्या है नया मनोहर

कैसे ये लगते जी को?


माँ ने कहा 'अरे आ तू भी

देख पिता हैं पडे हुए,'

'पिता आ गया लो' यह

कहते उसके रोयें खडे हुए।


"माँ जल दे, कुछ प्यासे होंगे

क्या बैठी कर रही यहाँ?"

मुखर हो गया सूना मंडप

यह सजीवता रही यहाँ?"



आत्मीयता घुली उस घर में

छोटा सा परिवार बना,

छाया एक मधुर स्वर उस पर

श्रद्धा का संगीत बना।


"तुमुल कोलाहल कलह में

मैं ह्रदय की बात रे मन

विकल होकर नित्य चचंल,

खोजती जब नींद के पल,


चेतना थक-सी रही तब,

मैं मलय की बात रे मन

चिर-विषाद-विलीन मन की,

इस व्यथा के तिमिर-वन की लृ


मैं उषा-सी ज्योति-रेखा,

कुसुम-विकसित प्रात रे मन

जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,

चातकी कन को तरसती,



उन्हीं जीवन-घाटियों की,

मैं सरस बरसात रे मन

पवन की प्राचीर में रुक

जला जीवन जी रहा झुक,


इस झुलसते विश्व-दिन की

मैं कुसुम-श्रृतु-रात रे मन

चिर निराशा नीरधार से,

प्रतिच्छायित अश्रु-सर में,


मधुप-मुखर मरंद-मुकुलित,

मैं सजल जलजात रे मन"

उस स्वर-लहरी के अक्षर

सब संजीवन रस बने घुले।


भाग 2


उधर प्रभात हुआ प्राची में

मनु के मुद्रित-नयन खुले।

श्रद्धा का अवलंब मिला

फिर कृतज्ञता से हृदय भरे,


मनु उठ बैठे गदगद होकर

बोले कुछ अनुराग भरे।

"श्रद्धा तू आ गयी भला तो-

पर क्या था मैं यहीं पडा'


वही भवन, वे स्तंभ, वेदिका

बिखरी चारों ओर घृणा।

आँखें बंद कर लिया क्षोभ से

"दूर-दूर ले चल मुझको,


इस भयावने अधंकार में

खो दूँ कहीं न फिर तुझको।

हाथ पकड ले, चल सकता हूँ-

हाँ कि यही अवलंब मिले,


वह तू कौन? परे हट, श्रद्धे आ कि

हृदय का कुसुम खिले।"

श्रद्धा नीरव सिर सहलाती

आँखों में विश्वास भरे,


मानो कहती "तुम मेरे हो

अब क्यों कोई वृथा डरे?"

जल पीकर कुछ स्वस्थ हुए से

लगे बहुत धीरे कहने,


"ले चल इस छाया के बाहर

मुझको दे न यहाँ रहने।

मुक्त नील नभ के नीचे

या कहीं गुहा में रह लेंगे,


अरे झेलता ही आया हूँ-

जो आवेगा सह लेंगे"

"ठहरो कुछ तो बल आने दो

लिवा चलूँगी तुरंत तुम्हें,


इतने क्षण तक" श्रद्धा बोली-

"रहने देंगी क्या न हमें?"

इडा संकुचित उधर खडी थी

यह अधिकार न छीन सकी,


श्रद्धा अविचल, मनु अब बोले

उनकी वाणी नहीं रुकी।

"जब जीवन में साध भरी थी

उच्छृंखल अनुरोध भरा,


अभिलाषायें भरी हृदय में

अपनेपन का बोध भरा।

मैं था, सुंदर कुसुमों की वह

सघन सुनहली छाया थी,


मलयानिल की लहर उठ रही

उल्लासों की माया थी।

उषा अरुण प्याला भर लाती

सुरभित छाया के नीचे


मेरा यौवन पीता सुख से

अलसाई आँखे मींचे।

ले मकरंद नया चू पडती

शरद-प्रात की शेफाली,


बिखराती सुख ही, संध्या की

सुंदर अलकें घुँघराली।

सहसा अधंकार की आँधी

उठी क्षितिज से वेग भरी,


हलचल से विक्षुब्द्ध विश्व-थी

उद्वेलित मानस लहरी।

व्यथित हृदय उस नीले नभ में

छाया पथ-सा खुला तभी,


अपनी मंगलमयी मधुर-स्मिति

कर दी तुमने देवि जभी।

दिव्य तुम्हारी अमर अमिट

छवि लगी खेलने रंग-रली,


नवल हेम-लेखा सी मेरे हृदय-

निकष पर खिंची भली।

अरुणाचल मन मंदिर की वह

मुग्ध-माधुरी नव प्रतिमा,


गी सिखाने स्नेह-मयी सी

सुंदरता की मृदु महिमा।

उस दिन तो हम जान सके थे

सुंदर किसको हैं कहते


तब पहचान सके, किसके हित

प्राणी यह दुख-सुख सहते।

जीवन कहता यौवन से

"कुछ देखा तूने मतवाले"


यौवन कहता साँस लिये

चल कुछ अपना संबल पाले"

हृदय बन रहा था सीपी सा

तुम स्वाती की बूँद बनी,


मानस-शतदल झूम उठा

जब तुम उसमें मकरंद बनीं।

तुमने इस सूखे पतझड में

भर दी हरियाली कितनी,


मैंने समझा मादकता है

तृप्ति बन गयी वह इतनी

विश्व, कि जिसमें दुख की

आँधी पीडा की लहरी उठती,


जिसमें जीवन मरण बना था

बुदबुद की माया नचती।

वही शांत उज्जवल मंगल सा

दिखता था विश्वास भरा,


वर्षा के कदंब कानन सा

सृष्टि-विभव हो उठा हरा।

भगवती वह पावन मधु-धारा

देख अमृत भी ललचाये,


वही, रम्य सौंदर्य्य-शैल से

जिसमें जीवन धुल जाये

संध्या अब ले जाती मुझसे

ताराओं की अकथ कथा,


नींद सहज ही ले लेती थी

सारे श्रमकी विकल व्यथा।

सकल कुतूहल और कल्पना

उन चरणों से उलझ पडी,


कुसुम प्रसन्न हुए हँसते से

जीवन की वह धन्य घडी।

स्मिति मधुराका थी, शवासों से

पारिजात कानन खिलता,


गति मरंद-मथंर मलयज-सी

स्वर में वेणु कहाँ मिलता

श्वास-पवन पर चढ कर मेरे

दूरागत वंशी-रत्न-सी,


गूँज उठीं तुम, विश्व कुहर में

दिव्य-रागिनी-अभिनव-सी

जीवन-जलनिधि के तल से

जो मुक्ता थे वे निकल पडे,


जग-मंगल-संगीत तुम्हारा

गाते मेरे रोम खडे।

आशा की आलोक-किरन से

कुछ मानस से ले मेरे,


लघु जलधर का सृजन हुआ था

जिसको शशिलेखा घेरे-

उस पर बिजली की माला-सी

झूम पडी तुम प्रभा भरी,


और जलद वह रिमझिम

बरसा मन-वनस्थली हुई हरी

तुमने हँस-हँस मुझे सिखाया

विश्व खेल है खेल चलो,


तुमने मिलकर मुझे बताया

सबसे करते मेल चलो।

यह भी अपनी बिजली के से

विभ्रम से संकेत किया,


अपना मन है जिसको चाहा

तब इसको दे दान दिया।

तुम अज्रस वर्षा सुहाग की

और स्नेह की मधु-रजनी,


विर अतृप्ति जीवन यदि था

तो तुम उसमें संतोष बनी।

कितना है उपकार तुम्हारा

आशिररात मेरा प्रणय हुआ


आकितना आभारी हूँ, इतना

संवेदनमय हृदय हुआ।

किंतु अधम मैं समझ न पाया

उस मंगल की माया को,


और आज भी पकड रहा हूँ

हर्ष शोक की छाया को,

मेरा सब कुछ क्रोध मोह के

उपादान से गठित हुआ,


ऐसा ही अनुभव होता है

किरनों ने अब तक न छुआ।

शापित-सा मैं जीवन का यह

ले कंकाल भटकता हूँ,


उसी खोखलेपन में जैसे

कुछ खोजता अटकता हूँ।

अंध-तमस है, किंतु प्रकृति का

आकर्षण है खींच रहा,



सब पर, हाँ अपने पर भी

मैं झुँझलाता हूँ खीझ रहा।

नहीं पा सका हूँ मैं जैसे

जो तुम देना चाह रही,


क्षुद्र पात्र तुम उसमें कितनी

मधु-धारा हो ढाल रही।

सब बाहर होता जाता है

स्वगत उसे मैं कर न सका,


बुद्धि-तर्क के छिद्र हुए थे

हृदय हमारा भर न सका।

यह कुमार-मेरे जीवन का

उच्च अंश, कल्याण-कला


कितना बडा प्रलोभन मेरा

हृदय स्नेह बन जहाँ ढला।

सुखी रहें, सब सुखी रहें बस

छोडो मुझ अपराधी को"


श्रद्धा देख रही चुप मनु के

भीतर उठती आँधी को।

दिन बीता रजनी भी आयी

तंद्रा निद्रा संग लिये,


इडा कुमार समीप पडी थी

मन की दबी उमंग लिये।

श्रद्धा भी कुछ खिन्न थकी सी

हाथों को उपधान किये,


पडी सोचती मन ही मन कुछ,

मनु चुप सब अभिशाप पिये-

सोच रहे थे, "जीवन सुख है?

ना, यह विकट पहेली है,


भाग अरे मनु इंद्रजाल से

कितनी व्यथा न झेली है?

यह प्रभात की स्वर्ण किरन सी

झिलमिल चंचल सी छाया,


श्रद्धा को दिखलाऊँ कैसे

यह मुख या कलुषित काया।

और शत्रु सब, ये कृतघ्न फिर

इनका क्या विश्वास करूँ,


प्रतिहिंसा प्रतिशोध दबा कर

मन ही मन चुपचाप मरूँ।

श्रद्धा के रहते यह संभव

नहीं कि कुछ कर पाऊँगा


तो फिर शांति मिलेगी मुझको

जहाँ खोजता जाऊँगा।"

जगे सभी जब नव प्रभात में

देखें तो मनु वहाँ नहीं,


'पिता कहाँ' कह खोज रहा था

यह कुमार अब शांत नहीं।

इडा आज अपने को सबसे

अपराधी है समझ रही,


कामायनी मौन बैठी सी

अपने में ही उलझ रही।

दर्शन सर्ग भाग-1

वह चंद्रहीन थी एक रात,

जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात लृ

उजले-उजले तारक झलमल,

प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल,


धारा बह जाती बिंब अटल,

खुलता था धीरे पवन-पटल

चुपचाप खडी थी वृक्ष पाँत

सुनती जैसे कुछ निजी बात।


धूमिल छायायें रहीं घूम,

लहरी पैरों को रही चूम,

"माँ तू चल आयी दूर इधर,

सन्ध्या कब की चल गयी उधर,


इस निर्जन में अब कया सुंदर-

तू देख रही, माँ बस चल घर

उसमें से उठता गंध-धूम"

श्रद्धाने वह मुख लिया चूम।


"माँ क्यों तू है इतनी उदास,

क्या मैं हूँ नहीं तेरे पास,

तू कई दिनों से यों चुप रह,

क्या सोच रही? कुछ तो कह,


यह कैसा तेरा दुख-दुसह,

जो बाहर-भीतर देता दह,

लेती ढीली सी भरी साँस,

जैसी होती जाती हताश।"


वह बोली "नील गगन अपार,

जिसमें अवनत घन सजल भार,

आते जाते, सुख, दुख, दिशि, पल

शिशु सा आता कर खेल अनिल,


फिर झलमल सुंदर तारक दल,

नभ रजनी के जुगुनू अविरल,

यह विश्व अरे कितना उदार,

मेरा गृह रे उन्मुक्त-द्वार।


यह लोचन-गोचर-सकल-लोक,

संसृति के कल्पित हर्ष शोक,

भावादधि से किरनों के मग,

स्वाती कन से बन भरते जग,


उत्थान-पतनमय सतत सजग,

झरने झरते आलिगित नग,

उलझन मीठी रोक टोक,

यह सब उसकी है नोंक झोंक।


जग, जगता आँखे किये लाल,

सोता ओढे तम-नींद-जाल,

सुरधनु सा अपना रंग बदल,

मृति, संसृति, नति, उन्नति में ढल,


अपनी सुषमा में यह झलमल,

इस पर खिलता झरता उडुदल,

अवकाश-सरोवर का मराल,

कितना सुंदर कितना विशाल


इसके स्तर-स्तर में मौन शांति,

शीतल अगाध है, ताप-भ्रांति,

परिवर्त्तनमय यह चिर-मंगल,

मुस्क्याते इसमें भाव सकल,


हँसता है इसमें कोलाहल,

उल्लास भरा सा अंतस्तल,

मेरा निवास अति-मधुर-काँति,

यह एक नीड है सुखद शांति


"अबे फिर क्यों इतना विराग,

मुझ पर न हुई क्यों सानुराग?"

पीछे मुड श्रद्धा ने देखा,

वह इडा मलिन छवि की रेखा,



ज्यों राहुग्रस्त-सी शशि-लेखा,

जिस पर विषाद की विष-रेखा,

कुछ ग्रहण कर रहा दीन त्याग,

सोया जिसका है भाग्य, जाग।


बोली "तुमसे कैसी विरक्ति,

तुम जीवन की अंधानुरक्ति,

मुझसे बिछुडे को अवलंबन,

देकर, तुमने रक्खा जीवन,


तुम आशामयि चिर आकर्षण,

तुम मादकता की अवनत धन,

मनु के मस्तककी चिर-अतृप्ति,

तुम उत्तेजित चंचला-शक्ति


मैं क्या तुम्हें दे सकती मोल,

यह हृदय अरे दो मधुर बोल,

मैं हँसती हूँ रो लेती हूँ,

मैं पाती हूँ खो देती हूँ,


इससे ले उसको देती हूँ,

मैं दुख को सुख कर लेती हूँ,

अनुराग भरी हूँ मधुर घोल,

चिर-विस्मृति-सी हूँ रही डोल।


यह प्रभापूर्ण तव मुख निहार,

मनु हत-चेतन थे एक बार,

नारी माया-ममता का बल,

वह शक्तिमयी छाया शीतल,


फिर कौन क्षमा कर दे निश्छल,

जिससे यह धन्य बने भूतल,

'तुम क्षमा करोगी' यह विचार

मैं छोडूँ कैसे साधिकार।"


"अब मैं रह सकती नहीं मौन,

अपराधी किंतु यहाँ न कौन?

सुख-दुख जीवन में सब सहते,

पर केव सुख अपना कहते,


अधिकार न सीमा में रहते।

पावस-निर्झर-से वे बहते,

रोके फिर उनको भला कौन?

सब को वे कहते-शत्रु हो न"


अग्रसर हो रही यहाँ फूट,

सीमायें कृत्रिम रहीं टूट,

श्रम-भाग वर्ग बन गया जिन्हें,

अपने बल का है गर्व उन्हें,


नियमों की करनी सृष्टि जिन्हें,

विप्लव की करनी वृष्टि उन्हें,

सब पिये मत्त लालसा घूँट,

मेरा साहस अब गया छूट।


मैं जनपद-कल्याणी प्रसिद्ध,

अब अवनति कारण हूँ निषिद्ध,

मेरे सुविभाजन हुए विषम,

टूटते, नित्य बन रहे नियम


नाना केंद्रों में जलधर-सम,

घिर हट, बरसे ये उपलोपम

यह ज्वाला इतनी है समिद्ध,

आहुति बस चाह रही समृद्ध।


तो क्या मैं भ्रम में थी नितांत,

संहार-बध्य असहाय दांत,

प्राणी विनाश-मुख में अविरल,

चुपचाप चले होकर निर्बल


संघर्ष कर्म का मिथ्या बल,

ये शक्ति-चिन्ह, ये यज्ञ विफल,

भय की उपासना प्रणाति भ्रांत

अनिशासन की छाया अशांत


तिस पर मैंने छीना सुहाग,

हे देवि तुम्हारा दिव्य-राग,

मैम आज अकिंचन पाती हूँ,

अपने को नहीं सुहाती हूँ,


मैं जो कुछ भी स्वर गाती हूँ,

वह स्वयं नहीं सुन पाती हूँ,

दो क्षमा, न दो अपना विराग,

सोयी चेतनता उठे जाग।"


"है रुद्र-रोष अब तक अशांत"

श्रद्धा बोली, " बन विषम ध्वांत

सिर चढी रही पाया न हृदय

तू विकल कर रही है अभिनय,


अपनापन चेतन का सुखमय

खो गया, नहीं आलोक उदय,

सब अपने पथ पर चलें श्रांत,

प्रत्येक विभाजन बना भ्रांत।


जीवन धारा सुंदर प्रवाह,

सत्, सतत, प्रकाश सुखद अथाह,

ओ तर्कमयी तू गिने लहर,

प्रतिबिंबित तारा पकड, ठहर,


तू रुक-रुक देखे आठ पहर,

वह जडता की स्थिति, भूल न कर,

सुख-दुख का मधुमय धूप-छाँह,

तू ने छोडी यह सरल राह।


चेतनता का भौतिक विभाग-

कर, जग को बाँट दिया विराग,

चिति का स्वरूप यह नित्य-जगत,

वह रूप बदलता है शत-शत,


कण विरह-मिलन-मय-नृत्य-निरत

उल्लासपूर्ण आनंद सतत

तल्लीन-पूर्ण है एक राग,

झंकृत है केवल 'जाग जाग'


मैं लोक-अग्नि में तप नितांत,

आहुति प्रसन्न देती प्रशांत,

तू क्षमा न कर कुछ चाह रही,

जलती छाती की दाह रही,


तू ले ले जो निधि पास रही,

मुझको बस अपनी राह रही,

रह सौम्य यहीं, हो सुखद प्रांत,

विनिमय कर दे कर कर्म कांत।


तुम दोनों देखो राष्ट्र-नीति,

शासक बन फैलाओ न भीती,

मैं अपने मनु को खोज चली,

सरिता, मरु, नग या कुंज-गली,


वह भोला इतना नहीं छली

मिल जायेगा, हूँ प्रेम-पली,

तब देखूँ कैसी चली रीति,

मानव तेरी हो सुयश गीति।"


बोला बालक " ममता न तोड,

जननी मुझसे मुँह यों न मोड,

तेरी आज्ञा का कर पालन,

वह स्नेह सदा करता लालन।


भाग 2


मैं मरूँ जिऊँ पर छूटे न प्रन,

वरदान बने मेरा जीवन

जो मुझको तू यों चली छोड,

तो मुझे मिले फिर यही क्रोड"


"हे सौम्य इडा का शुचि दुलार,

हर लेगा तेरा व्यथा-भार,

यह तर्कमयी तू श्रद्धामय,

तू मननशील कर कर्म अभय,


इसका तू सब संताप निचय,

हर ले, हो मानव भाग्य उदय,

सब की समरसता कर प्रचार,

मेरे सुत सुन माँ की पुकार।"



"अति मधुर वचन विश्वास मूल,

मुझको न कभी ये जायँ भूल

हे देवि तुम्हारा स्नेह प्रबल,

बन दिव्य श्रेय-उदगम अविरल,


आकर्षण घन-सा वितरे जल,

निर्वासित हों संताप सकल"

कहा इडा प्रणत ले चरण धूल,

पकडा कुमार-कर मृदुल फूल।


वे तीनों ही क्षण एक मौन-

विस्मृत से थे, हम कहाँ कौन

विच्छेद बाह्य, था आलिगंन-

वह हृदयों का, अति मधुर-मिलन,


मिलते आहत होकर जलकन,

लहरों का यह परिणत जीवन,

दो लौट चले पुर ओर मौन,

जब दूर हुए तब रहे दो न।


निस्तब्ध गगन था, दिशा शांत,

वह था असीम का चित्र कांत।

कुछ शून्य बिंदु उर के ऊपर,

व्यथिता रजनी के श्रमसींकर,


झलके कब से पर पडे न झर,

गंभीर मलिन छाया भू पर,

सरिता तट तरु का क्षितिज प्रांत,

केवल बिखेरता दीन ध्वांत।


शत-शत तारा मंडित अनंत,

कुसुमों का स्तबक खिला बसंत,

हँसता ऊपर का विश्व मधुर,

हलके प्रकाश से पूरित उर,


बहती माया सरिता ऊपर,

उठती किरणों की लोल लहर,

निचले स्तर पर छाया दुरंत,

आती चुपके, जाती तुरंत।


सरिता का वह एकांत कूल,

था पवन हिंडोले रहा झूल,

धीरे-धीरे लहरों का दल,

तट से टकरा होता ओझल,


छप-छप का होता शब्द विरल,

थर-थर कँप रहती दीप्ति तरल

संसृति अपने में रही भूल,

वह गंध-विधुर अम्लान फूल।


तब सरस्वती-सा फेंक साँस,

श्रद्धा ने देखा आस-पास,

थे चमक रहे दो फूल नयन,

ज्यों शिलालग्न अनगढे रतन,


वह क्या तम में करता सनसन?

धारा का ही क्या यह निस्वन

ना, गुहा लतावृत एक पास,

कोई जीवित ले रहा साँस।


वह निर्जन तट था एक चित्र,

कितना सुंदर, कितना पवित्र?

कुछ उन्नत थे वे शैलशिखर,

फिर भी ऊँचा श्रद्धा का सिर,


वह लोक-अग्नि में तप गल कर,

थी ढली स्वर्ण-प्रतिमा बन कर,

मनु ने देखा कितना विचित्र

वह मातृ-मूर्त्ति थी विश्व-मित्र।


बोले "रमणी तुम नहीं आह

जिसके मन में हो भरी चाह,

तुमने अपना सब कुछ खोकर,

वंचिते जिसे पाया रोकर,


मैं भगा प्राण जिनसे लेकर,

उसको भी, उन सब को देकर,

निर्दय मन क्या न उठा कराह?

अद्भुत है तब मन का प्रवाह


ये श्वापद से हिंसक अधीर,

कोमल शावक वह बाल वीर,

सुनता था वह प्राणी शीतल,

कितना दुलार कितना निर्मल


कैसा कठोर है तव हृत्तल

वह इडा कर गयी फिर भी छल,

तुम बनी रही हो अभी धीर,

छुट गया हाथ से आह तीर।"



"प्रिय अब तक हो इतने सशंक,

देकर कुछ कोई नहीं रंक,

यह विनियम है या परिवर्त्तन,

बन रहा तुम्हारा ऋण अब धन,


अपराध तुम्हारा वह बंधन-

लो बना मुक्ति, अब छोड स्वजन-

निर्वासित तुम, क्यों लगे डंक?

दो लो प्रसन्न, यह स्पष्ट अंक।"


"तुम देवि आह कितनी उदार,

यह मातृमूर्ति है निर्विकार,

हे सर्वमंगले तुम महती,

सबका दुख अपने पर सहती,


कल्याणमयी वाणी कहती,

तुम क्षमा निलय में हो रहती,

मैं भूला हूँ तुमको निहार-

नारी सा ही, वह लघु विचार।


मैं इस निर्जन तट में अधीर,

सह भूख व्यथा तीखा समीर,

हाँ भावचक्र में पिस-पिस कर,

चलता ही आया हूँ बढ कर,


इनके विकार सा ही बन कर,

मैं शून्य बना सत्ता खोकर,

लघुता मत देखो वक्ष चीर,

जिसमें अनुशय बन घुसा तीर।"



"प्रियतम यह नत निस्तब्ध रात,

है स्मरण कराती विगत बात,

वह प्रलय शांति वह कोलाहल,

जब अर्पित कर जीवन संबल,


मैं हुई तुम्हारी थी निश्छल,

क्या भूलूँ मैं, इतनी दुर्बल?

तब चलो जहाँ पर शांति प्रात,

मैं नित्य तुम्हारी, सत्य बात।


इस देव-द्वंद्व का वह प्रतीक-

मानव कर ले सब भूल ठीक,

यह विष जो फैला महा-विषम,

निज कर्मोन्नति से करते सम,


सब मुक्त बनें, काटेंगे भ्रम,

उनका रहस्य हो शुभ-संयम,

गिर जायेगा जो है अलीक,

चल कर मिटती है पडी लीक।"


वह शून्य असत या अंधकार,

अवकाश पटल का वार पार,

बाहर भीतर उन्मुक्त सघन,

था अचल महा नीला अंजन,


भूमिका बनी वह स्निग्ध मलिन,

थे निर्निमेष मनु के लोचन,

इतना अनंत था शून्य-सार,

दीखता न जिसके परे पार।


सत्ता का स्पंदन चला डोल,

आवरण पटल की ग्रंथि खोल,

तम जलनिधि बन मधुमंथन,

ज्योत्स्ना सरिता का आलिंगन,


वह रजत गौर, उज्जवल जीवन,

आलोक पुरुष मंगल चेतन

केवल प्रकाश का था कलोल,

मधु किरणों की थी लहर लोल।


बन गया तमस था अलक जाल,

सर्वांग ज्योतिमय था विशाल,

अंतर्निनाद ध्वनि से पूरित,

थी शून्य-भेदिनी-सत्ता चित्त,


नटराज स्वयं थे नृत्य-निरत,

था अंतरिक्ष प्रहसित मुखरित,

स्वर लय होकर दे रहे ताल,

थे लुप्त हो रहे दिशाकाल।


लीला का स्पंदित आह्लाद,

वह प्रभा-पुंज चितिमय प्रसाद,

आनन्द पूर्ण तांडव सुंदर,

झरते थे उज्ज्वल श्रम सीकर,


बनते तारा, हिमकर, दिनकर

उड रहे धूलिकण-से भूधर,

संहार सृजन से युगल पाद-

गतिशील, अनाहत हुआ नाद।


बिखरे असंख्य ब्रह्मांड गोल,

युग ग्रहण कर रहे तोल,

विद्यत कटाक्ष चल गया जिधर,

कंपित संसृति बन रही उधर,


चेतन परमाणु अनंथ बिखर,

बनते विलीन होते क्षण भर

यह विश्व झुलता महा दोल,

परिवर्त्तन का पट रहा खोल।


उस शक्ति-शरीरी का प्रकाश,

सब शाप पाप का कर विनाश-

नर्त्तन में निरत, प्रकृति गल कर,

उस कांति सिंधु में घुल-मिलकर


अपना स्वरूप धरती सुंदर,

कमनीय बना था भीषणतर,

हीरक-गिरी पर विद्युत-विलास,

उल्लसित महा हिम धवल हास।


देखा मनु ने नर्त्तित नटेश,

हत चेत पुकार उठे विशेष-

"यह क्या श्रद्धे बस तू ले चल,

उन चरणों तक, दे निज संबल,


सब पाप पुण्य जिसमें जल-जल,

पावन बन जाते हैं निर्मल,

मिटतते असत्य-से ज्ञान-लेश,

समरस, अखंड, आनंद-वेश"।

रहस्य सर्ग भाग-1

उर्ध्व देश उस नील तमस में,

स्तब्ध हि रही अचल हिमानी,

पथ थककर हैं लीन चतुर्दिक,

देख रहा वह गिरि अभिमानी,


दोनों पथिक चले हैं कब से,

ऊँचे-ऊँचे चढते जाते,

श्रद्धा आगे मनु पीछे थे,

साहस उत्साही से बढते।


पवन वेग प्रतिकूल उधर था,

कहता-'फिर जा अरे बटोही

किधर चला तू मुझे भेद कर

प्राणों के प्रति क्यों निर्मोही?


छूने को अंबर मचली सी

बढी जा रही सतत उँचाई

विक्षत उसके अंग, प्रगट थे

भीषण खड्ड भयकारी खाँई।


रविकर हिमखंडों पर पड कर

हिमकर कितने नये बनाता,

दुततर चक्कर काट पवन थी

फिर से वहीं लौट आ जाता।


नीचे जलधर दौड रहे थे

सुंदर सुर-धनु माला पहने,

कुंजर-कलभ सदृश इठलाते,

चपला के गहने।


प्रवहमान थे निम्न देश में

शीतल शत-शत निर्झर ऐसे

महाश्वेत गजराज गंड से

बिखरीं मधु धारायें जैसे।


हरियाली जिनकी उभरी,

वे समतल चित्रपटी से लगते,

प्रतिकृतियों के बाह्य रेख-से स्थिर,

नद जो प्रति पल थे भगते।


लघुतम वे सब जो वसुधा पर

ऊपर महाशून्य का घेरा,

ऊँचे चढने की रजनी का,

यहाँ हुआ जा रहा सबेरा,



"कहाँ ले चली हो अब मुझको,

श्रद्धे मैं थक चला अधिक हूँ,

साहस छूट गया है मेरा,

निस्संबल भग्नाश पथिक हूँ,


लौट चलो, इस वात-चक्र से मैं,

दुर्बल अब लड न सकूँगा,

श्वास रुद्ध करने वाले,

इस शीत पवन से अड न सकूँगा।


मेरे, हाँ वे सब मेरे थे,

जिन से रूठ चला आया हूँ।"

वे नीचे छूटे सुदूर,

पर भूल नहीं उनको पाया हूँ।"


वह विश्वास भरी स्मिति निश्छल,

श्रद्धा-मुख पर झलक उठी थी।

सेवा कर-पल्लव में उसके,

कुछ करने को ललक उठी थी।


दे अवलंब, विकल साथी को,

कामायनी मधुर स्वर बोली,

"हम बढ दूर निकल आये,

अब करने का अवसर न ठिठोली।


दिशा-विकंपित, पल असीम है,

यह अनंत सा कुछ ऊपर है,

अनुभव-करते हो, बोलो क्या,

पदतल में, सचमुच भूधर है?


निराधार हैं किंतु ठहरना,

हम दोनों को आज यहीं है

नियति खेल देखूँ न, सुनो

अब इसका अन्य उपाय नहीं है।


झाँई लगती, वह तुमको,

ऊपर उठने को है कहती,

इस प्रतिकूल पवन धक्के को,

झोंक दूसरी ही आ सहती।


श्रांत पक्ष, कर नेत्र बंद बस,

विहग-युगल से आज हम रहें,

शून्य पवन बन पंख हमारे,

हमको दें आधारा, जम रहें।


घबराओ मत यह समतल है,

देखो तो, हम कहाँ आ गये"

मनु ने देखा आँख खोलकर,

जैसे कुछ त्राण पा गये।


ऊष्मा का अभिनव अनुभव था,

ग्रह, तारा, नक्षत्र अस्त थे,

दिवा-रात्रि के संधिकाल में,

ये सब कोई नहीं व्यस्त थे।


ऋतुओं के स्तर हुये तिरोहित,

भू-मंडल रेखा विलीन-सी

निराधार उस महादेश में,

उदित सचेतनता नवीन-सी।


त्रिदिक विश्व, आलोक बिंदु भी,

तीन दिखाई पडे अलग व,

त्रिभुवन के प्रतिनिधि थे मानो वे,

अनमिल थे किंतु सजग थे।


मनु ने पूछा, "कौन नये,

ग्रह ये हैं श्रद्धे मुझे बताओ?

मैं किस लोक बीच पहुँचा,

इस इंद्रजाल से मुझे बचाओ"


"इस त्रिकोण के मध्य बिंदु,

तुम शक्ति विपुल क्षमता वाले ये,

एक-एक को स्थिर हो देखो,

इच्छा ज्ञान, क्रिया वाले ये।


वह देखो रागारुण है जो,

उषा के कंदुक सा सुंदर,

छायामय कमनीय कलेवर,

भाव-मयी प्रतिमा का मंदिर।


शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध की,

पारदर्शिनी सुघड पुतलियाँ,

चारों ओर नृत्य करतीं ज्यों,

रूपवती रंगीन तितलियाँ


इस कुसुमाकर के कानन के,

अरुण पराग पटल छाया में,

इठलातीं सोतीं जगतीं ये,

अपनी भाव भरी माया में।


वह संगीतात्मक ध्वनि इनकी,

कोमल अँगडाई है लेती,

मादकता की लहर उठाकर,

अपना अंबर तर कर देती।


आलिगंन सी मधुर प्रेरणा,

छू लेती, फिर सिहरन बनती,

नव-अलंबुषा की व्रीडा-सी,

खुल जाती है, फिर जा मुँदती।


यह जीवन की मध्य-भूमि,

है रस धारा से सिंचित होती,

मधुर लालसा की लहरों से,

यह प्रवाहिका स्पंदित होती।


जिसके तट पर विद्युत-कण से।

मनोहारिणी आकृति वाले,

छायामय सुषमा में विह्वल,

विचर रहे सुंदर मतवाले।


सुमन-संकुलित भूमि-रंध्र-से,

मधुर गंध उठती रस-भीनी,

वाष्प अदृश फुहारे इसमें,

छूट रहे, रस-बूँदे झीनी।


घूम रही है यहाँ चतुर्दिक,

चलचित्रों सी संसृति छाया,

जिस आलोक-विदु को घेरे,

वह बैठी मुसक्याती माया।


भाव चक्र यह चला रही है,

इच्छा की रथ-नाभि घूमती,

नवरस-भरी अराएँ अविरल,

चक्रवाल को चकित चूमतीं।


यहाँ मनोमय विश्व कर रहा,

रागारुण चेतन उपासना,

माया-राज्य यही परिपाटी,

पाश बिछा कर जीव फाँसना।


ये अशरीरी रूप, सुमन से,

केवल वर्ण गंध में फूले,

इन अप्सरियों की तानों के,

मचल रहे हैं सुंदर झूले।


भाव-भूमिका इसी लोक की,

जननी है सब पुण्य-पाप की।

ढलते सब, स्वभाव प्रतिकृति,

बन गल ज्वाला से मधुर ताप की।


नियममयी उलझन लतिका का,

भाव विटपि से आकर मिलना,

जीवन-वन की बनी समस्या,

आशा नभकुसुमों का खिलना।


भाग 2


चिर-वसंत का यह उदगम है,

पतझर होता एक ओर है,

अमृत हलाहल यहाँ मिले है,

सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।"


"सुदंर यह तुमने दिखलाया,

किंतु कौन वह श्याम देश है?

कामायनी बताओ उसमें,

क्या रहस्य रहता विशेष है"


"मनु यह श्यामल कर्म लोक है,

धुँधला कुछ-कुछ अधंकार-सा

सघन हो रहा अविज्ञात

यह देश, मलिन है धूम-धार सा।


कर्म-चक्र-सा घूम रहा है,

यह गोलक, बन नियति-प्रेरणा,

सब के पीछे लगी हुई है,

कोई व्याकुल नयी एषणा।


श्रममय कोलाहल, पीडनमय,

विकल प्रवर्तन महायंत्र का,

क्षण भर भी विश्राम नहीं है,

प्राण दास हैं क्रिया-तंत्र का।


भाव-राज्य के सकल मानसिक,

सुख यों दुख में बदल रहे हैं,

हिंसा गर्वोन्नत हारों में ये,

अकडे अणु टहल रहे हैं।


ये भौतिक संदेह कुछ करके,

जीवित रहना यहाँ चाहते,

भाव-राष्ट्र के नियम यहाँ पर,

दंड बने हैं, सब कराहते।


करते हैं, संतोष नहीं है,

जैसे कशाघात-प्रेरित से-

प्रति क्षण करते ही जाते हैं,

भीति-विवश ये सब कंपित से।


नियाते चलाती कर्म-चक्र यह,

तृष्णा-जनित ममत्व-वासना,

पाणि-पादमय पंचभूत की,

यहाँ हो रही है उपासना।


यहाँ सतत संघर्ष विफलता,

कोलाहल का यहाँ राज है,

अंधकार में दौड लग रही

मतवाला यह सब समाज है।


स्थूल हो रहे रूप बनाकर,

कर्मों की भीषण परिणति है,

आकांक्षा की तीव्र पिपाशा

ममता की यह निर्मम गति है।


यहाँ शासनादेश घोषणा,

विजयों की हुंकार सुनाती,

यहाँ भूख से विकल दलित को,

पदतल में फिर फिर गिरवाती।


यहाँ लिये दायित्व कर्म का,

उन्नति करने के मतवाले,

जल-जला कर फूट पड रहे

ढुल कर बहने वाले छाले।


यहाँ राशिकृत विपुल विभव सब,

मरीचिका-से दीख पड रहे,

भाग्यवान बन क्षणिक भोग के वे,

विलीन, ये पुनः गड रहे।


बडी लालसा यहाँ सुयश की,

अपराधों की स्वीकृति बनती,

अंध प्रेरणा से परिचालित,

कर्ता में करते निज गिनती।


प्राण तत्त्व की सघन साधना जल,

हिम उपल यहाँ है बनता,

पयासे घायल हो जल जाते,

मर-मर कर जीते ही बनता


यहाँ नील-लोहित ज्वाला कुछ,

जला-जला कर नित्य ढालती,

चोट सहन कर रुकने वाली धातु,

न जिसको मृत्यु सालती।


वर्षा के घन नाद कर रहे,

तट-कूलों को सहज गिराती,

प्लावित करती वन कुंजों को,

लक्ष्य प्राप्ति सरिता बह जाती।"


"बस अब ओर न इसे दिखा तू,

यह अति भीषण कर्म जगत है,

श्रद्धे वह उज्ज्वल कैसा है,

जैसे पुंजीभूत रजत है।"


"प्रियतम यह तो ज्ञान क्षेत्र है,

सुख-दुख से है उदासीनत,

यहाँ न्याय निर्मम, चलता है,

बुद्धि-चक्र, जिसमें न दीनता।


अस्ति-नास्ति का भेद, निरंकुश करते,

ये अणु तर्क-युक्ति से,

ये निस्संग, किंतु कर लेते,

कुछ संबंध-विधान मुक्ति से।


यहाँ प्राप्य मिलता है केवल,

तृप्ति नहीं, कर भेद बाँटती,

बुद्धि, विभूति सकल सिकता-सी,

प्यास लगी है ओस चाटती।


न्याय, तपस्, ऐश्वर्य में पगे ये,

प्राणी चमकीले लगते,

इस निदाघ मरु में, सूखे से,

स्रोतों के तट जैसे जगते।


मनोभाव से काय-कर्म के

समतोलन में दत्तचित्त से,

ये निस्पृह न्यायासन वाले,

चूक न सकते तनिक वित्त से


अपना परिमित पात्र लिये,

ये बूँद-बूँद वाले निर्झर से,

माँग रहे हैं जीवन का रस,

बैठ यहाँ पर अजर-अमर-से।


यहाँ विभाजन धर्म-तुला का,

अधिकारों की व्याख्या करता,

यह निरीह, पर कुछ पाकर ही,

अपनी ढीली साँसे भरता।


उत्तमता इनका निजस्व है,

अंबुज वाले सर सा देखो,

जीवन-मधु एकत्र कर रही,

उन सखियों सा बस लेखो।


यहाँ शरद की धवल ज्योत्स्ना,

अंधकार को भेद निखरती,

यह अनवस्था, युगल मिले से,

विकल व्यवस्था सदा बिखरती।


देखो वे सब सौम्य बने हैं,

किंतु सशंकित हैं दोषों से,

वे संकेत दंभ के चलते,

भू-वालन मिस परितोषों से।


यहाँ अछूत रहा जीवन रस,

छूओ मत, संचित होने दो।

बस इतना ही भाग तुम्हारा,

तृष्णा मृषा, वंचित होने दो।


सामंजस्य चले करने ये,

किंतु विषमता फैलाते हैं,

मूल-स्वत्व कुछ और बताते,

इच्छाओं को झुठलाते हैं।


स्वयं व्यस्त पर शांत बने-से,

शास्त्र शस्त्र-रक्षा में पलते,

ये विज्ञान भरे अनुशासन,

क्षण क्षण परिवर्त्तन में ढलते।


यही त्रिपुर है देखा तुमने,

तीन बिंदु ज्योतोर्मय इतने,

अपने केन्द्र बने दुख-सुख में,

भिन्न हुए हैं ये सब कितने


ज्ञान दूर कुछ, क्रिया भिन्न है,

इच्छा क्यों पूरी हो मन की,

एक दूसरे से न मिल सके,

यह विडंबना है जीवन की।"


महाज्योति-रेख सी बनकर,

श्रद्धा की स्मिति दौडी उनमें,

वे संबद्ध हुए फर सहसा,

जाग उठी थी ज्वाला जिनमें।


नीचे ऊपर लचकीली वह,

विषम वायु में धधक रही सी,

महाशून्य में ज्वाल सुनहली,

सबको कहती 'नहीं नहीं सी।


शक्ति-तंरग प्रलय-पावक का,

उस त्रिकोण में निखर-उठा-सा।

चितिमय चिता धधकती अविरल,

महाकाल का विषय नृत्य था,


विश्व रंध्र ज्वाला से भरकर,

करता अपना विषम कृत्य था,

स्वप्न, स्वाप, जागरण भस्म हो,

इच्छा क्रिया ज्ञान मिल लय थे,


दिव्य अनाहत पर-निनाद में,

श्रद्धायुत मनु बस तन्मय थे।

आनंद सर्ग भाग-1

चलता था-धीरे-धीरे

वह एक यात्रियों का दल,

सरिता के रम्य पुलिन में

गिरिपथ से, ले निज संबल।


या सोम लता से आवृत वृष

धवल, धर्म का प्रतिनिधि,

घंटा बजता तालों में

उसकी थी मंथर गति-विधि।


वृष-रज्जु वाम कर में था

दक्षिण त्रिशूल से शोभित,

मानव था साथ उसी के

मुख पर था तेज़ अपरिमित।


केहरि-किशोर से अभिनव

अवयव प्रस्फुटित हुए थे,

यौवन गम्भीर हुआ था

जिसमें कुछ भाव नये थे।


चल रही इड़ा भी वृष के

दूसरे पार्श्व में नीरव,

गैरिक-वसना संध्या सी

जिसके चुप थे सब कलरव।


उल्लास रहा युवकों का

शिशु गण का था मृदु कलकल।

महिला-मंगल गानों से

मुखरित था वह यात्री दल।


चमरों पर बोझ लदे थे

वे चलते थे मिल आविरल,

कुछ शिशु भी बैठ उन्हीं पर

अपने ही बने कुतूहल।


माताएँ पकडे उनको

बातें थीं करती जातीं,

'हम कहाँ चल रहे' यह सब

उनको विधिवत समझातीं।


कह रहा एक था" तू तो

कब से ही सुना रही है

अब आ पहुँची लो देखो

आगे वह भूमि यही है।


पर बढती ही चलती है

रूकने का नाम नहीं है,

वह तीर्थ कहाँ है कह तो

जिसके हित दौड़ रही है।"


"वह अगला समतल जिस पर

है देवदारू का कानन,

घन अपनी प्याली भरते ले

जिसके दल से हिमकन।


हाँ इसी ढालवें को जब बस

सहज उतर जावें हम,

फिर सन्मुख तीर्थ मिलेगा

वह अति उज्ज्वल पावनतम"


वह इड़ा समीप पहुँच कर

बोला उसको रूकने को,

बालक था, मचल गया था

कुछ और कथा सुनने को।


वह अपलक लोचन अपने

पादाग्र विलोकन करती,

पथ-प्रदर्शिका-सी चलती

धीरे-धीरे डग भरती।


बोली, "हम जहाँ चले हैं

वह है जगती का पावन

साधना प्रदेश किसी का

शीतल अति शांत तपोवन।"


"कैसा? क्यों शांत तपोवन?

विस्तृत क्यों न बताती"

बालक ने कहा इडा से

वह बोली कुछ सकुचाती


"सुनती हूँ एक मनस्वी था

वहाँ एक दिन आया,

वह जगती की ज्वाला से

अति-विकल रहा झुलसाया।


उसकी वह जलन भयानक

फैली गिरि अंचल में फिर,

दावाग्नि प्रखर लपटों ने

कर लिया सघन बन अस्थिर।


थी अर्धांगिनी उसी की

जो उसे खोजती आयी,

यह दशा देख, करूणा की

वर्षा दृग में भर लायी।


वरदान बने फिर उसके आँसू,

करते जग-मंगल,

सब ताप शांत होकर,

बन हो गया हरित, सुख शीतल।


गिरि-निर्झर चले उछलते

छायी फिर हरियाली,

सूखे तरू कुछ मुसकराये

फूटी पल्लव में लाली।


वे युगल वहीं अब बैठे

संसृति की सेवा करते,

संतोष और सुख देकर

सबकी दुख ज्वाला हरते।


हैं वहाँ महाह्नद निर्मल

जो मन की प्यास बुझाता,

मानस उसको कहते हैं

सुख पाता जो है जाता।


"तो यह वृष क्यों तू यों ही

वैसे ही चला रही है,

क्यों बैठ न जाती इस पर

अपने को थका रही है?"


"सारस्वत-नगर-निवासी

हम आये यात्रा करने,

यह व्यर्थ, रिक्त-जीवन-घट

पीयूष-सलिल से भरने।


इस वृषभ धर्म-प्रतिनिधि को

उत्सर्ग करेंगे जाकर,

चिर मुक्त रहे यह निर्भय

स्वच्छंद सदा सुख पाकर।"


सब सम्हल गये थे

आगे थी कुछ नीची उतराई,

जिस समतल घाटी में,

वह थी हरियाली से छाई।


श्रम, ताप और पथ पीडा

क्षण भर में थे अंतर्हित,

सामने विराट धवल-नग

अपनी महिमा से विलसित।


उसकी तलहटी मनोहर

श्यामल तृण-वीरूध वाली,

नव-कुंज, गुहा-गृह सुंदर

ह्रद से भर रही निराली।


वह मंजरियों का कानन

कुछ अरूण पीत हरियाली,

प्रति-पर्व सुमन-सुंकुल थे

छिप गई उन्हीं में डाली।


यात्री दल ने रूक देखा

मानस का दृश्य निराला,

खग-मृग को अति सुखदायक

छोटा-सा जगत उजाला।


मरकत की वेदी पर ज्यों

रक्खा हीरे का पानी,

छोटा सा मुकुर प्रकृति

या सोयी राका रानी।


दिनकर गिरि के पीछे अब

हिमकर था चढा गगन में,

कैलास प्रदोष-प्रभा में स्थिर

बैठा किसी लगन में।


संध्या समीप आयी थी

उस सर के, वल्कल वसना,

तारों से अलक गुँथी थी

पहने कदंब की रशना।


खग कुल किलकार रहे थे,

कलहंस कर रहे कलरव,

किन्नरियाँ बनी प्रतिध्वनि

लेती थीं तानें अभिनव।


मनु बैठे ध्यान-निरत थे

उस निर्मल मानस-तट में,

सुमनों की अंजलि भर कर

श्रद्धा थी खडी निकट में।


श्रद्धा ने सुमन बिखेरा

शत-शत मधुपों का गुंजन,

भर उठा मनोहर नभ में

मनु तन्मय बैठे उन्मन।


पहचान लिया था सबने

फिर कैसे अब वे रूकते,

वह देव-द्वंद्व द्युतिमय था

फिर क्यों न प्रणति में झुकते।


भाग 2


तब वृषभ सोमवाही भी

अपनी घंटा-ध्वनि करता,

बढ चला इडा के पीछे

मानव भी था डग भरता।


हाँ इडा आज भूली थी

पर क्षमा न चाह रही थी,

वह दृश्य देखने को निज

दृग-युगल सराह रही थी


चिर-मिलित प्रकृति से पुलकित

वह चेतन-पुरूष-पुरातन,

निज-शक्ति-तरंगायित था

आनंद-अंबु-निधि शोभन।


भर रहा अंक श्रद्धा का

मानव उसको अपना कर,

था इडा-शीश चरणों पर

वह पुलक भरी गदगद स्वर


बोली-"मैं धन्य हुई जो

यहाँ भूलकर आयी,

हे देवी तुम्हारी ममता

बस मुझे खींचती लायी।


भगवति, समझी मैं सचमुच

कुछ भी न समझ थी मुझको।

सब को ही भुला रही थी

अभ्यास यही था मुझको।


हम एक कुटुम्ब बनाकर

यात्रा करने हैं आये,

सुन कर यह दिव्य-तपोवन

जिसमें सब अघ छुट जाये।"


मनु ने कुछ-कुछ मुस्करा कर

कैलास ओर दिखालाया,

बोले- "देखो कि यहाँ

कोई भी नहीं पराया।


हम अन्य न और कुटुंबी

हम केवल एक हमीं हैं,

तुम सब मेरे अवयव हो

जिसमें कुछ नहीं कमीं है।


शापित न यहाँ है कोई

तापित पापी न यहाँ है,

जीवन-वसुधा समतल है

समरस है जो कि जहाँ है।


चेतन समुद्र में जीवन

लहरों सा बिखर पडा है,

कुछ छाप व्यक्तिगत,

अपना निर्मित आकार खडा है।


इस ज्योत्स्ना के जलनिधि में

बुदबुद सा रूप बनाये,

नक्षत्र दिखाई देते

अपनी आभा चमकाये।


वैसे अभेद-सागर में

प्राणों का सृष्टि क्रम है,

सब में घुल मिल कर रसमय

रहता यह भाव चरम है।


अपने दुख सुख से पुलकित

यह मूर्त-विश्व सचराचर

चिति का विराट-वपु मंगल

यह सत्य सतत चित सुंदर।


सबकी सेवा न परायी

वह अपनी सुख-संसृति है,

अपना ही अणु अणु कण-कण

द्वयता ही तो विस्मृति है।


मैं की मेरी चेतनता

सबको ही स्पर्श किये सी,

सब भिन्न परिस्थितियों की है

मादक घूँट पिये सी।


जग ले ऊषा के दृग में

सो ले निशी की पलकों में,

हाँ स्वप्न देख ले सुदंर

उलझन वाली अलकों में


चेतन का साक्षी मानव

हो निर्विकार हंसता सा,

मानस के मधुर मिलन में

गहरे गहरे धँसता सा।


सब भेदभाव भुलवा कर

दुख-सुख को दृश्य बनाता,

मानव कह रे यह मैं हूँ,

यह विश्व नीड बन जाता"


श्रद्धा के मधु-अधरों की

छोटी-छोटी रेखायें,

रागारूण किरण कला सी

विकसीं बन स्मिति लेखायें।


वह कामायनी जगत की

मंगल-कामना-अकेली,

थी-ज्योतिष्मती प्रफुल्लित

मानस तट की वन बेली।


वह विश्व-चेतना पुलकित थी

पूर्ण-काम की प्रतिमा,

जैसे गंभीर महाह्नद हो

भरा विमल जल महिमा।


जिस मुरली के निस्वन से

यह शून्य रागमय होता,

वह कामायनी विहँसती अग

जग था मुखरित होता।


क्षण-भर में सब परिवर्तित

अणु-अणु थे विश्व-कमल के,

पिगल-पराग से मचले

आनंद-सुधा रस छलके।


अति मधुर गंधवह बहता

परिमल बूँदों से सिंचित,

सुख-स्पर्श कमल-केसर का

कर आया रज से रंजित।


जैसे असंख्य मुकुलों का

मादन-विकास कर आया,

उनके अछूत अधरों का

कितना चुंबन भर लाया।


रूक-रूक कर कुछ इठलाता

जैसे कुछ हो वह भूला,

नव कनक-कुसुम-रज धूसर

मकरंद-जलद-सा फूला।


जैसे वनलक्ष्मी ने ही

बिखराया हो केसर-रज,

या हेमकूट हिम जल में

झलकाता परछाई निज।


संसृति के मधुर मिलन के

उच्छवास बना कर निज दल,

चल पडे गगन-आँगन में

कुछ गाते अभिनव मंगल।


वल्लरियाँ नृत्य निरत थीं,

बिखरी सुगंध की लहरें,

फिर वेणु रंध्र से उठ कर

मूर्च्छना कहाँ अब ठहरे।


गूँजते मधुर नूपुर से

मदमाते होकर मधुकर,

वाणी की वीणा-धवनि-सी

भर उठी शून्य में झिल कर।


उन्मद माधव मलयानिल

दौडे सब गिरते-पडते,

परिमल से चली नहा कर

काकली, सुमन थे झडते।


सिकुडन कौशेय वसन की थी

विश्व-सुन्दरी तन पर,

या मादन मृदुतम कंपन

छायी संपूर्ण सृजन पर।


सुख-सहचर दुख-विदुषक

परिहास पूर्ण कर अभिनय,

सब की विस्मृति के पट में

छिप बैठा था अब निर्भय।


थे डाल डाल में मधुमय

मृदु मुकुल बने झालर से,

रस भार प्रफुल्ल सुमन

सब धीरे-धीरे से बरसे।


हिम खंड रश्मि मंडित हो

मणि-दीप प्रकाश दिखता,

जिनसे समीर टकरा कर

अति मधुर मृदंग बजाता।


संगीत मनोहर उठता

मुरली बजती जीवन की,

सकेंत कामना बन कर

बतलाती दिशा मिलन की।


रस्मियाँ बनीं अप्सरियाँ

अतंरिक्ष में नचती थीं,

परिमल का कन-कन लेकर

निज रंगमंच रचती थी।


मांसल-सी आज हुई थी

हिमवती प्रकृति पाषाणी,

उस लास-रास में विह्वल

थी हँसती सी कल्याणी।


वह चंद्र किरीट रजत-नग

स्पंदित-सा पुरष पुरातन,

देखता मानसि गौरी

लहरों का कोमल नत्तर्न


प्रतिफलित हुई सब आँखें

उस प्रेम-ज्योति-विमला से,

सब पहचाने से लगते

अपनी ही एक कला से।


समरस थे जड़ या चेतन

सुन्दर साकार बना था,

चेतनता एक विलसती

आनंद अखंड घना था।

 

 




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