Thursday, 9 January 2020

शब्दों का जाल - short beautiful story - eye opening story

शब्दों का जाल

एक सम्राट के द्वार पर एक कवि ने एक दिन सुबह आकर सम्राट की प्रशंसा में कुछ गीत कहे, कुछ कविताएं कहीं।


फिर कवि तो रुकते नहीं शब्दों का महल बनाने में।

वे तो कुशल होते हैं। उस कवि ने सम्राट को सूरज बना दिया, सारे जगत का प्रकाश बना दिया।

उस कवि ने सम्राट को जमीन से उठा कर आकाश पर बिठा दिया, उसने अपनी कविता में जितनी प्रशंसा कर सकता था, की।

सम्राट ने उससे कहाः धन्य हुआ तुम्हारे गीत सुन कर। बहुत प्रभावित हुआ। एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं कल सुबह तुम्हें भेंट कर दी जाएंगी।

कवि तो दीवाना हो गया। सोचा भी न था कि एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं मिल जाएंगी! आनंद-विभोर घर लौटा, रात भर सो नहीं सका। बार-बार खयाल आने लगा, एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं! क्या करूंगा? न मालूम कितनी योजनाएं बना लीं।

कवि था, शब्दों का मालिक था। बहुत शब्द जोड़ लिए। सारा भविष्य स्वर्णमय हो गया, सारा भविष्य एक सपना हो गया। जीवन एक धन्यता मालूम होने लगी।



सुबह जल्दी ही, सूरज निकल भी नहीं पाया कि द्वार पर पहुंच गया राजा के।

सम्राट ने बिठाया और थोड़ी देर बाद पूछाः कैसे आए हैं?

उस कवि ने सोचा, कहीं भूल तो नहीं गया सम्राट? पूछता है कैसे आए हैं?

उसने कहा कि पूछते हैं कैसे आया हूं, रात भर सो नहीं सका, क्या पूछते हैं आप? कल कहा था आपने की एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं भेंट करेंगे।

सम्राट हंसने लगा, कहा, बड़े नासमझ हैं आप। आपने शब्दों से मुझे प्रसन्न किया था, मैंने भी शब्दों से आपको प्रसन्न किया था, इसमें लेने-देने का कहां सवाल आता है? कैसी एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं? आपने कुछ शब्द कहे थे, कुछ शब्द मैंने कहे थे। शब्द के उत्तर में शब्द ही मिल सकते हैं। स्वर्ण-मुद्राएं कैसी?



तब कवि को पता चला कि शब्द अपने में थोथे हैं, उनके भीतर कोई कंटेंट नहीं हैं। शब्द अपने आप में पानी पर खींची गई लकीरों से ज्यादा नहीं हैं। लेकिन हमारे पास क्या है? शब्दों के अतिरिक्त कुछ और है?
हमने सारी समस्याओं को शब्दों से हल करने की कोशिश की है। इसलिए समस्याएं तो वहीं की वहीं है, आदमी शब्दों में उलझ कर नष्ट हुआ जा रहा है। आदमी के ऊपर जो सबसे बड़ा दुर्भाग्य है, वह शब्दों के ऊपर विश्वास सबसे बड़ा दुर्भाग्य है, जिसके कारण जीवन की कोई समस्या हल नहीं हो पाती।


शब्दों पर हम जीते और लड़ते भी हैं। मैं कहता हूं, मैं हिंदू हूं। मैं कहता हूं, मैं मुसलमान हूं। कोई कैसे मुसलमान हो गया, कोई कैसे हिंदू हो गया?

कुछ शब्द हैं जो कुरान से लिए गए हैं, कुछ शब्द हैं जो गीता से लिए गए हैं। कुछ शब्द हैं जो इस मुल्क में पैदा हुए है, कुछ शब्द है जो उस मुल्क में पैदा हुए हैं। और शब्दों को हमने इकट्ठा कर लिया, तो एक तरह के शब्द मुसलमान बना लेते हैं, दूसरे तरह के शब्द हिंदू बना देते हैं, तीसरे तरह के शब्द जैन बना देते हैं। क्योंकि किसी के भीतर कुरान है, किसी के भीतर बाइबिल है, किसी के भीतर गीता है। शब्दों के अतिरिक्त हमारी संपदा क्या है? और इन कोरे शब्दों पर हम लड़ते भी हैं और जीवित आदमी की छाती में तलवार भी भोंक सकते हैं, मंदिर भी जला सकते हैं, मस्जिद में आग भी लगा सकते हैं। क्योंकि मेरे शब्द अलग हैं, आपके शब्द अलग हैं।

हमारे हाथ में क्या है? आत्मा, परमात्मा, मोक्ष, जन्म, जीवन, प्रेम, आनंद हमारे पास शब्दों के अतिरिक्त और क्या है? लेकिन शब्द से जरूर भ्रम पैदा होता है। छोटा सा बच्चा स्कूल में पढ़ता है, सी ए टी कैट, कैट यानी बिल्ली। बार-बार पढ़ता है, सी ए टी कैट, कैट यानी बिल्ली। सी ए टी कैट, कैट यानी बिल्ली। सीख जाता है, फिर वह कहता है कि मैं जान गया–कैट यानी बिल्ली। लेकिन उसने जाना क्या है? उसने दो शब्द जाने।


कैट भी एक शब्द है, बिल्ली भी एक शब्द है। बिल्ली को जाना उसने? बिल्ली जो जीवंत है, वह जो जीवित बिल्ली है उसको जाना उसने? लेकिन वह कहता है कि मैंने जान लिया–कैट यानी बिल्ली।


उसने दो शब्द जान लिए, दोनों शब्दों का अर्थ जान लिया। शब्द भी शब्द है, अर्थ भी शब्द है। और बिल्ली पीछे छूट गई, वह जो जीवंत प्राण है बिल्ली का। उसे उसने बिलकुल नहीं जाना, लेकिन वह कहेगा कि मैं जानता हूं कैट यानी बिल्ली।

लेकिन बिल्ली को पता भी नहीं होगा कि मैं कैट हूं या बिल्ली हूं। बिल्ली को पता भी नहीं होगा कि आदमी ने मुझे क्या शब्द दे रखे हैं।

और आदमी जमीन पर न हो, तो बिल्ली का क्या नाम होगा? कोई भी नाम नहीं होगा। लेकिन बिल्ली फिर भी होगी।

शब्द कोई भी न होगा, बिल्ली फिर भी होगी। आकाश में तारे होंगे, शब्द कोई न होगा। आदमी नहीं होगा तो सूरज उगेगा लेकिन शब्द कोई भी नहीं होगा। वृक्षों में फूल खिलेंगे लेकिन कोई फूल गुलाब का नहीं होगा, कोई जूही का नहीं होगा, कोई चमेली का नहीं होगा।
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