Friday 28 February 2020

परम सत्य प्रेम भाव - प्रेम का वास्तविक रूप- real love - short story

परम सत्य प्रेम भाव प्रेम का वास्तविक रूप real love - short story




जहां बैठावै तित ही बैठूं, बेचैं तो बिक जाऊं।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलि जाऊं।
जहां बैठावै तित ही बैठूं...

मीरा कहती है: अब तो वह जहां आज्ञा कर देता है वहीं। उसकी आज्ञा--बस मेरा जीवन है। जहां बिठा देता है वहां बैठ जाती हूं। जहां से उठा देता है वहां से उठ जाती हूं। अब मेरी अपने तरफ से कोई विचार और निर्णय की व्यवस्था नहीं रही। अब वह बात समाप्त हो गई है।

यही समर्पण-भाव है: जहां बिठा दे! और जिसने यह कला सीख ली, उसे इस जगत में फिर कोई अड़चन नहीं है। उसे कष्ट आते ही नहीं। कष्ट आते ही इसलिए हैं कि तुम उससे राजी नहीं होते। तुम्हारे भीतर वासना सरकती रहती है...कि मुझे ऐसी जगह बिठाओ, मुझे ऐसा बनाओ। और अगर वैसे तुम नहीं बन पाते तो नाराजगी पकड़ती है। नाराजगी पकड़ती है तो परमात्मा से संबंध टूट जाता है। क्रोध पकड़ता है, तो संबंध टूट जाता है।

एक आदमी ने मुझ से आकर कहा कि मेरा लड़का बीमार था और मैंने जाकर प्रार्थना की। हनुमानजी का भक्त था। और मैंने समय भी दे दिया उनको, अल्टीमेटम दे दिया।


किसी फैक्टरी में काम करता था तो हड़ताली शब्द सीख गया होगा: अल्टीमेटम!

अल्टीमेटम दे दिया हनुमानजी को, कि अगर पंद्रह दिन के भीतर लड़का ठीक नहीं हुआ तो बस समझ लेना, फिर मुझे पक्का हो जाएगा कि कोई भगवान इत्यादि नहीं है। सब बकवास है।

लड़का ठीक हो गया तो वह मेरे पास आया कि हनुमानजी ने मेरी लाज रख ली। मैंने कहा: तुम्हारी रखी लाज कि अपनी रखी? अल्टीमेटम तुमने दिया था कि हनुमानजी ने दिया था?

और मैंने कहा: अब दुबारा मत देना अल्टीमेटम, नहीं तो उनकी लाज बार-बार वे न रख पाएंगे। यह तो संयोग की बात कि लड़का बच गया। अब दुबारा भूल कर मत करना, नहीं तो नास्तिक हो जाओगे।

यह तुम्हारी आस्तिकता बहुत कमजोर है। लड़का मर जाता तो? तो लड़का नहीं मरता, हनुमानजी मरते। तो लड़के की अरथी नहीं निकलती, हनुमानजी की अरथी निकलती। अब यह भूल कर तुम दुबारा मत करना।

उसने कहा: आप यह क्या कहते हैं? मुझे तो एक कुंजी हाथ लग गई।
तो मैंने कहा: तुम्हारी मर्जी। जल्दी ही तुम पाओगे कि झंझट में पड़े।

और दो महीने बाद वह आया।

उसने कहा: आप ठीक कहते थे। सब श्रद्धा, आस्था नष्ट हो गई। मेरे बड़े लड़के की नौकरी नहीं लग रही थी, मैं अल्टीमेटम दे आया। पंद्रह दिन निकल गए, कुछ नहीं हुआ।

फिर मैंने कहा कि चलो पंद्रह दिन और दो। वे पंद्रह दिन भी निकल गए, फिर भी कुछ नहीं हुआ। अब मुझे अश्रद्धा पैदा हो रही है।

मैंने कहा: भई पंद्रह दिन और दे। अब तू झंझट में तो पड़ेगा ही। क्योंकि अब तेरी एक वासना है; वह अगर परमात्मा पूरी करे तो उनका होना न होना, इसी पर निर्भर है।

यह कोई श्रद्धा थोड़े ही है; यह सुविधा है। यह तो तुम परमात्मा का भी उपयोग करने लगे।
नहीं, उठा ले परमात्मा तो भी राजी हो जाना। जैसा रखे वैसे से राजी होना। अपनी कोई शर्त ही न हो।

एक डा.शुक्ल थे । उसकी पत्नी चल बसी। उनका नाम मीरा था। अब वे दुखी हैं; बेचैन हैं।

स्वभावतः उन्होंने बहुत लगाव से अपनी पत्नी को रखा था, उनका बड़ा मोह था। अब पत्नी चली गई तो अब वे बिलकुल दीवाने हैं। अब वे कहते हैं: मैं अकेला कैसे रहूं? कोई बच्चा भी नहीं है; घर सूना है।
और वर्षों से दोनों साथ थे; अब बड़ी बेचैनी है, बड़ी तड़पन है। स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि परमात्मा की मर्जी थी, तो इसमें भी कुछ लाभ ही होगा; कुछ कल्याण ही होगा।

कौन जाने परमात्मा ने इसीलिए मीरा को उठा लिया कि डा. अब चौंको, कब तक मीरा से उलझे रहोगे! अब गोपाल की सुध लो!...नहीं तो वे बिलकुल छाया बन गए थे। उन्हें लग रहा था कि सब ठीक हो गया है; इससे अन्यथा और क्या चाहिए। शायद इसीलिए मीरा को हटा लिया गया, ताकि यह जो प्रेम क्षणभंगुर में लग गया था, यह शाश्वत की तरफ उठे।

भक्त ऐसा ही सोचेगा। भक्त सदा मार्ग खोज लेगा कि प्रभु ने चाहा है तो कुछ अर्थ होगा। अगर प्रेमी को छीन लिया है तो इसीलिए छीना है कि अब एक नये प्रेम की शुरुआत हो; एक नये प्रेम का जन्म हो।

देह तो गई। देह से प्रेम किया था, वह टूट गया; अब अदेही से प्रेम करो।

अब ऐसे से प्रेम करो, जो कभी नहीं मरेगा। मरने वालों से तो बहुत प्रेम किया जन्मों-जन्मों में, और हर बार तकलीफ हुई; हर बार वही बेचैनी। यह कोई डाक्टर को पहली दफे थोड़े हो गई है; कितनी-कितनी बार नहीं हुई होगी!

चौंको! जागो! सजग हो जाओ! अब एक नये प्रेम की शुरुआत करो। एक नया प्रेम--जो शाश्वत से है; जिसकी कोई मृत्यु नहीं होती।

मेरी उनकी प्रीत पुराणी, उन बिन पल न रहाऊं।
जहां बैठावे तित ही बैठूं, बेचैं तो बिक जाऊं।

और यह भाव होना चाहिए कि बेच दे तो बिकने को राजी; ना-नूच जरा भी नहीं। नहीं उठेगी ही नहीं। बेच दे तो बिकने को राजी।

पद घूंघरू बांध--(प्रवचन--03)





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