Monday 8 February 2021

महादेवी वर्मा

 







अलि अब सपने की बात





अलि अब सपने की बात -

हो गया है वह मधु का प्रात !


जब मुरली का मृदु पंचम स्वर,

कर जाता मन पुलकित अस्थिर,

कंपित हो उठता सुख से भर,

नव लतिका सा गात !


जब उनकी चितवन का निर्झर,

भर देता मधु से मानस-सर,

स्मित से झरतीं किरणें झर झर,

पीते दृग - जलजात !


मिलन-इंदु बुनता जीवन पर,

विस्मृति के तारों से चादर,

विपुल कल्पनाओं का मंथर -

बहता सुरभित वात !


अब नीरव मानस-अलि गुंजन,

कुसुमित मृदु भावों का स्पंदन,

विरह-वेदना आई है बन -

तम तुषार की रात !







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बिंदा

महादेवी वर्मा




भीत-सी आँखोंवाली उस दुर्बल, छोटी और अपने-आप ही सिमटी-सी बालिका पर दृष्टि डाल कर मैंने सामने बैठे सज्जन को, उनका भरा हुआ प्रवेशपत्र लौटाते हुए कहा - 'आपने आयु ठीक नहीं भरी है। ठीक कर दीजिए, नहीं तो पीछे कठिनाई पड़ेगी।' 'नहीं, यह तो गत आषाढ़ में चौदह की हो चुकी', सुनकर मैने कुछ विस्मित भाव से अपनी उस भावी विद्यार्थिनी को अच्छी तरह देखा, जो नौ वर्षीय बालिका की सरल चंचलता से शून्य थी और चौदह वर्षीय किशोरी के सलज्ज उत्साह से अपरिचित।


उसकी माता के संबंध में मेरी जिज्ञासा स्वगत न रहकर स्पष्ट प्रश्न ही बन गई होगी, क्योंकि दूसरी ओर से कुछ कुंठित उत्तर मिला - 'मेरी दूसरी पत्नी है, और आप तो जानती ही होंगी...' और उनके वाक्य को अधसुना ही छोड़कर मेरा मन स्मृतियों की चित्रशाला में दो युगों से अधिक समय की भूल के नीचे दबे बिंदा या विंध्येश्वरी के धुँधले चित्र पर उँगली रखकर कहने लगा - ज्ञात है, अवश्य ज्ञात है।


बिंदा मेरी उस समय की बाल्यसखी थी, जब मैंने जीवन और मृत्यु का अमिट अंतर जान नहीं पाया था। अपने नाना और दादी के स्वर्ग-गमन की चर्चा सुनकर मैं बहुत गंभीर मुख और आश्वस्त भाव से घर भर को सूचना दे चुकी थी कि जब मेरा सिर कपड़े रखने की आल्मारी को छूने लगेगा, तब मैं निश्चय ही एक बार उनको देखने जाऊँगी। न मेरे इस पुण्य संकल्प का विरोध करने की किसी को इच्छा हुई और न मैंने एक बार मर कर कभी न लौट सकने का नियम जाना। ऐसी दशा में, छोटे-छोटे असमर्थ बच्चों को छोड़कर मर जाने वाली माँ की कल्पना मेरी बुद्धि में कहाँ ठहरती। मेरा संसार का अनुभव भी बहुत संक्षिप्त-सा था। अज्ञानावस्था से मेरा साथ देने वाली सफेद कुत्ती-सीढ़ियों के नीचे वाली अँधेरी कोठरी में आँख मूँदे पड़े रहने वाले बच्चों की इतनी सतर्क पहरेदार हो उठती थी कि उसका गुर्राना मेरी सारी ममता-भरी मैत्री पर पानी फेर देता था। भूरी पूसी भी अपने चूहे जैसे निःसहाय बच्चों को तीखे पैने दाँतों में ऐसी कोमलता से दबाकर कभी लाती, कभी ले जाती थी कि उनके कहीं एक दाँत भी न चुभ पाता था। ऊपर की छत के कोने पर कबूतरों का और बड़ी तस्वीर के पीछे गौरैया का जो भी घोंसला था, उसमें खुली हुई छोटी-छोटी चोचों और उनमें सावधानी से भरे जाते दोनों और कीड़े-मकोड़ों को भी मैं अनेक बार देख चुकी थी। बछिया को हटाते हुए ही रँभा-रँभा कर घर भर को यह दुखद समाचार सुनाने वाली अपनी श्यामा गाय की व्याकुलता भी मुझसे छिपी न थी। एक बच्चे को कंधे से चिपकाए और एक उँगली पकड़े हुए जो भिखरिन द्वार-द्वार फिरती थी, वह भी तो बच्चों के लिए ही कुछ माँगती रहती थी। अतः मैंने निश्चित रूप से समझ लिया था कि संसार का सारा कारबार बच्चों को खिलाने-पिलाने, सुलाने आदि के लिए ही हो रहा है और इस महत्वपूर्ण कर्तव्य में भूल न होने देने का काम माँ नामधारी जीवों को सौंपा गया है।


और बिंदा के भी तो माँ थी जिन्हें हम पंडिताइन चाची और बिंदा 'नई अम्मा' कहती थी। वे अपनी गोरी, मोटी देह को रंगीन साड़ी से सजे-कसे, चारपाई पर बैठ कर फूले गाल और चिपटी-सी नाक के दोनों ओर नीले काँच के बटन सी चमकती हुई आँखों से युक्त मोहन को तेल मलती रहती थी। उनकी विशेष कारीगरी से सँवारी पाटियों के बीच में लाल स्याही की मोटी लकीर-सा सिंदूर उनींदी-सी आँखों में काले डोरे के समान लगने वाला काजल, चमकीले कर्णफूल, गले की माला, नगदार रंग-बिरंगी चूड़ियाँ और घुँघरूदार बिछुए मुझे बहुत भाते थे, क्योंकि यह सब अलंकार उन्हें गुड़िया की समानता दे देते थे।


यह सब तो ठीक था; पर उनका व्यवहार विचित्र-सा जान पड़ता था। सर्दी के दिनों में जब हमें धूप निकलने पर जगाया जाता था, गर्म पानी से हाथ मुँह धुलाकर मोजे, जूते और ऊनी कपड़ों से सजाया जाता था और मना-मनाकर गुनगुना दूध पिलाया जाता था, तब पड़ोस के घर में पंडिताइन चाची का स्वर उच्च से उच्चतर होता रहता था। यदि उस गर्जन-तर्जन का कोई अर्थ समझ में न आता, तो मैं उसे श्याम के रँभाने के समान स्नेह का प्रदर्शन भी समझ सकती थी; परंतु उसकी शब्दावली परिचित होने के कारण ही कुछ उलझन पैदा करने वाली थी। 'उठती है या आऊँ', 'बैल के-से दीदे क्या निकाल रही है', मोहन का दूध कब गर्म होगा', 'अभागी मरती भी नहीं', आदि वाक्यों में जो कठोरता की धारा बहती रहती थी, उसे मेरा अबोध मन भी जान ही लेता था।


कभी-कभी जब मैं ऊपर की छत पर जाकर उस घर की कथा समझने का प्रयास करती, तब मुझे मैली धोती लपेटे हुए बिंदा ही आँगन से चौके तक फिरकनी-सी नाचती दिखाई देती। उसका कभी झाड़ू देना, कभी आग जलाना, कभी आँगन के नल से कलसी में पानी लाना, कभी नई अम्मा को दूध का कटोरा देने जाना, मुझे बाजीगर के तमाशा जैसे लगता था; क्योंकि मेरे लिए तो वे सब कार्य असंभव-से थे। पर जब उस विस्मित कर देने वाले कौतुक की उपेक्षा कर पंडिताइन चाची का कठोर स्वर गूँजने लगता, जिसमें कभी-कभी पंडित जी की घुड़की का पुट भी रहता था, तब न जाने किस दुख की छाया मुझे घेरने लगती थी। जिसकी सुशीलता का उदाहरण देकर मेरे नटखटपन को रोका जाता था, वहीं बिंदा घर में चुपके-चुपके कौन-सा नटखटपन करती रहती है, इसे बहुत प्रयत्न करके भी मैं न समझ पाती थी। मैं एक भी काम नहीं करती थी और रात-दिन ऊधम मचाती रहती; पर मुझे तो माँ ने न मर जाने की आज्ञा दी और न आँखें निकाल लेने का भय दिखाया। एक बार मैंने पूछा भी - 'क्या पंडिताइन चाची तुमरी तरह नहीं है?' माँ ने मेरी बात का अर्थ कितना समझा यह तो पता नहीं, उनके संक्षिप्त 'हैं' से न बिंदा की समस्या का समाधान हो सका और न मेरी उलझन सुलझ पाई।


बिंदा मुझसे कुछ बड़ी ही रही होगी; परंतु उसका नाटापन देखकर ऐसा लगता था, मानों किसी ने ऊपर से दबाकर उसे कुछ छोटा कर दिया हो। दो पैसों में आने वाली खँजड़ी के ऊपर चढ़ी हुई झिल्ली के समान पतले चर्म से मढ़े और भीतर की हरी-हरी नसों की झलक देने वाले उसके दुबले हाथ-पैर न जाने किस अज्ञात भय से अवसन्न रहते थे। कहीं से कुछ आहट होते ही उसका विचित्र रूप से चौंक पड़ना और पंडिताइन चाची का स्वर कान में पड़ते ही उसके सारे शरीर का थरथरा उठना, मेरे विस्मय को बढ़ा ही नहीं देता था, प्रत्युत उसे भय में बदल देता था। और बिंदा की आँखें तो मुझे पिंजड़े में बंद चिड़िया की याद दिलाती थीं।


एक बार जब दो-तीन करके तारे गिनते-गिनते उसने एक चमकीले तारे की ओर उँगली उठाकर कहा - 'वह रही मेरी अम्मा', तब तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। क्या सबकी एक अम्मा तारों में होती है ओर एक घर में? पूछने पर बिंदा ने अपने ज्ञान-कोष में से कुछ कण मुझे दिए और तब मैंने समझा कि जिस अम्मा को ईश्वर बुला लेता है, वह तारा बनकर ऊपर से बच्चों को देखती रहती है और जो बहुत सजधज से घर में आती है, वह बिंदा की नई अम्मा जैसी होती है। मेरी बुद्धि सहज ही पराजय स्वीकार करना नहीं जानती, इसी से मैंने सोचकर कहा - 'तुम नई अम्मा को पुरानी अम्मा क्यों नहीं कहती, फिर वे न नई रहेंगी और न डाँटेंगी।'


बिंदा को मेरा उपाय कुछ जँचा नहीं, क्योंकि वह तो अपनी पुरानी अम्मा को खुली पालकी में लेटकर जाते और नई को बंद पालकी में बैठकर आते देख चुकी थी, अतः किसी को भी पदच्युत करना उसके लिए कठिन था।


पर उसकी कथा से मेरा मन तो सचमुच आकुल हो उठा, अतः उसी रात को मैंने माँ से बहुत अनुनयपूर्वक कहा - 'तुम कभी तारा न बनना, चाहे भगवान कितना ही चमकीला तारा बनावें।' माँ बेचारी मेरी विचित्र मुद्रा पर विस्मित होकर कुछ बोल भी न पाई थी कि मैंने अकुंठित भाव से अपना आशय प्रकट कर दिया - 'नहीं तो, पंडिताइन चाची जैसी नई अम्मा पालकी में बैठकर आ जाएगी और फिर मेरा दूध, बिस्कुट, जलेबी सब बंद हो जाएगी - और मुझे बिंदा बनना पड़ेगा।' माँ का उत्तर तो मुझे स्मरण नहीं, पर इतना याद है कि उस रात उसकी धोती का छोर मुट्ठी में दबाकर ही मैं सो पाई थी।


बिंदा के अपराध तो मेरे लिए अज्ञात थे; पर पंडिताइन चाची के न्यायालय से मिलने वाले दंड के सब रूपों से मैं परिचित हो चुकी थी। गर्मी की दोपहर में मैंने बिंदा को आँगन की जलती धरती पर बार-बार पैर उठाते ओर रखते हुए घंटों खड़े देखा था, चौके के खंभे से दिन-दिन भर बँधा पाया था और भूश से मुरझाए मुख के साथ पहरों नई अम्मा ओर खटोले में सोते मोहन पर पंखा झलते देखा था। उसे अपराध का ही नहीं, अपराध के अभाव का भी दंड सहना पड़ता था, इसी से पंडित जी की थाली में पंडिताइन चाची का ही काला मोटा और घुँघराला बाल निकलने पर भी दंड बिंदा को मिला। उसके छोटे-छोटे हाथों से धुल न सकने वाले, उलझे, तेलहीन बाल भी अपने स्वाभाविक भूरेपन ओर कोमलता के कारण मुझे बड़े अच्छे लगते थे। जब पंडिताइन चाची की कैंची ने उन्हें कूड़े के ढेर पर, बिखरा कर उनके स्थान को बिल्ली की काली धारियों जैसी रेखाओं से भर दिया तो मुझे रुलाई आने लगी; पर बिंदा ऐसे बैठी रही, मानों सिर और बाल दोनों नई अम्मा के ही हों।


और एक दिन याद आता है। चूल्हे पर चढ़ाया दूध उफना जा रहा था। बिंदा ने नन्हें-नन्हें हाथों से दूध की पतीली उतारी अवश्य; पर वह उसकी उँगलियों से छूट कर गिर पड़ी। खौलते दूध से जले पैरों के साथ दरवाजे पर खड़ी बिंदा का रोना देख मैं तो हतबुद्धि-सी हो रही। पंडिताइन चाची से कह कर वह दवा क्यों नहीं लगवा लेती, यह समझाना मेरे लिए कठिन था। उस पर जब बिंदा मेरा हाथ अपने जोर से धड़कते हुए हृदय से लगाकर कहीं छिपा देने की आवश्यकता बताने लगी, तब तो मेरे लिए सब कुछ रहस्यमय हो उठा।


उसे मैं अपने घर में खींच लाई अवश्य; पर न ऊपर के खंड में माँ के पास ले जा सकी और न छिपाने का स्थान खोज सकी। इतने में दीवारें लाँघ कर आने वाले, पंडिताइन चाची के उग्र स्वर ने भय से हमारी दिशाएँ रूँध दीं, इसी से हड़बडाहट में हम दोनों उस कोठरी में जा घुसीं, जिसमें गाय के लिए घास भरी जाती थी। मुझे तो घास की पत्तियाँ भी चुभ रही थीं, कोठरी का अंधकार भी कष्ट दे रहा था; पर बिंदा अपने जले पैरों को घास में छिपाए और दोनों ठंडे हाथों से मेरा हाथ दबाए ऐसे बैठी थी, मानों घास का चुभता हुआ ढेर रेशमी बिछोना बन गया हो।


मैं तो शायद सो गई थी; क्योंकि जब घास निकालने के लिए आया हुआ गोपी इस अभूतपूर्व दृश्य की घोषणा करने के लिए कोलाहल मचाने लगा, तब मैंने आँखें मलते हुए पूछा, 'क्या सबेरा हो गया?'


माँ ने बिंदा के पैरों पर तिल का तेल और चूने का पानी लगाकर जब अपने विशेष संदेशवाहक के साथ उसे घर भिजवा दिया, तब उसकी क्या दशा हुई, यह बताना कठिन है; पर इतना तो मैं जानती हूँ कि पंडिताइन चाची के न्याय विधान में न क्षमता का स्थान था, न अपील का अधिकार।


फिर कुछ दिनों तक मैंने बिंदा को घर-आँगन में काम करते नहीं देखा। उसके घर जाने से माँ ने मुझे रोक दिया था; पर वे प्रायः कुछ अंगूर और सेब लेकर वहाँ हो आती थीं। बहुत खुशामद करने पर रुकिया ने बताया कि उस घर में महारानी आई हैं। 'क्या वे मुझसे नहीं मिल सकती' पूछने पर वह मुँह में कपड़ा ठूँस कर हँसी रोकने लगी। जब मेरे मन का कोई समाधान न हो सका, तब मैं एक दिन दोपहर को सभी की आँख बचाकर बिंदा के घर पहुँची। नीचे के सुनसान खंड में बिंदा अकेली एक खाट पर पड़ी थी। आँखें गड्ढे में धँस गई थीं, मुख दानों से भर कर न जाने कैसा हो गया था और मैली-सी सादर के नीचे छिपा शरीर बिछौने से भिन्न ही नहीं जान पड़ता था। डाक्टर, दवा की शीशियाँ, सिर पर हाथ फेरती हुई माँ और बिछौने के चारों चक्कर काटते हुए बाबूजी के बिना भी बीमारी का अस्तित्व है, यह मैं नहीं जानती थी, इसी से उस अकेली बिंदा के पास खड़ी होकर मैं चकित-सी चारों ओर देखती रह गई। बिंदा ने ही कुछ संकेत और कुछ अस्पष्ट शब्दों में बताया कि नई अम्मा मोहन के साथ ऊपर खंड में रहती हैं, शायद चेचक के डर से। सबेरे-शाम बरौनी आकर उसका काम कर जाती है।


फिर तो बिंदा को दुखना संभव न हो सका; क्योंकि मेरे इस आज्ञा उल्लंघन से माँ बहुत चिंतित हो उठी थीं।


एक दिन सबेरे ही रुकिया ने उनसे न जाने क्या कहा कि वे रामायण बंद कर बार-बार आँखें पोंछती हुई बिंदा के घर चल दीं। जाते-जाते वे मुझे बाहर न निकलने का आदेश देना नहीं भूली थीं, इसी से इधर-उधर से झाँककर देखना आवश्यक हो गया। रुकिया मेरे लिए त्रिकालदर्शी से कम न थी; परंतु वह विशेष अनुनय-विनय के बिना कुछ बताती ही नहीं थी और उससे अनुनय-विनय करना मेरे आत्म-सम्मान के विरुद्ध पड़ता था। अतः खिड़की से झाँककर मैं बिंदा के दरवाजे पर जमा हुए आदमियों के अतिरिक्त और कुछ न देख सकी और इस प्रकार की भीड़ से विवाह और बारात का जो संबंध है, उसे मैं जानती थी। तब क्या उस घर में विवाह हो रहा है, और हो रहा है तो किसका? आदि प्रश्न मेरी बुद्धि की परीक्षा लेने लगे। पंडित जी का विवाह तो तब होगा, जब दूसरी पंडिताइन चाची भी मर कर तारा बन जाएँगी और बैठ न सकने वाले मोहन का विवाह संभव नहीं, यही सोच-विचार कर मैं इस परिणाम तक पहुँची कि बिंदा का विवाह हो रहा है ओर उसने मुझे बुलाया तक नहीं। इस अचिंत्य अपमान से आहत मेरा मन सब गुड़ियों को साक्षी बनाकर बिंदा को किसी भी शुभ कार्य में न बुलाने की प्रतिज्ञा करने लगा।


कई दिन तक बिंदा के घर झाँक-झाँककर जब मैंने माँ से उसके ससुराल से लौटने के संबंध में प्रश्न किया, तब पता चला कि वह तो अपनी आकाश-वासिनी अम्मा के पास चली गई। उस दिन से मैं प्रायः चमकीले तारे के आस-पास फैले छोटे तारों में बिंदा को ढूँढ़ती रहती; पर इतनी दूर से पहचानना क्या संभव था?


तब से कितना समय बीत चुका है, पर बिंदा ओर उसकी नई अम्मा की कहानी शेष नहीं हुई। कभी हो सकेगी या नहीं, इसे कौन बता सकता है?





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अश्रु मेरे माँगने जब

महादेवी वर्मा




अश्रु मेरे माँगने जब

नींद में वह पास आया !

स्वप्न सा हँस पास आया !


हो गया दिव की हँसी से

शून्य में सुरचाप अंकित;

रश्मि-रोमों में हुआ

निस्पंद तम भी सिहर पुलकित;


अनुसरण करता अमा का

चाँदनी का हास आया !


वेदना का अग्निकण जब

मोम से उर में गया बस,

मृत्यु-अंजलि में दिया भर

विश्व ने जीवन-सुधा-रस !


माँगने पतझार से

हिम-बिंदु तब मधुमास आया !


अमर सुरभित साँस देकर,

मिट गए कोमल कुसुम झर;

रविकरों में जल हुए फिर,

जलद में साकार सीकर;


अंक में तब नाश को

लेने अनंत विकास आया !


(सांध्य गीत से)





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आज क्यों तेरी वीणा मौन ?

महादेवी वर्मा




आज क्यों तेरी वीणा मौन ?


शिथिल शिथिल तन थकित हुए कर,

स्पंदन भी भूला जाता उर,


मधुर कसक सा आज हृदय में

आन समाया कौन?

आज क्यों तेरी वीणा मौन ?


झुकती आती पलकें निश्चल,

चित्रित निद्रित से तारक चल;


सोता पारावार दृगों में

भर भर लाया कौन ?

आज क्यों तेरी वीणा मौन ?


बाहर घन-तम; भीतर दुख-तम,

नभ में विद्युत तुझ में प्रियतम,


जीवन पावस-रात बनाने

सुधि बन छाया कौन ?

आज क्यों तेरी वीणा मौन ?


(नीरजा से)

 


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ओ पागल संसार!

महादेवी वर्मा




ओ पागल संसार !

माँग न तू हे शीतल तममय

जलने का उपहार !


करता दीपशिखा का चुंबन,

पल में ज्वाला का उन्मीलन;

छूते ही करना होगा

जल मिटने का व्यापार !

ओ पागल संसार !


दीपक जल देता प्रकाश भर,

दीपक को छू जल जाता घर,

जलने दे एकाकी मत आ

हो जावेगा क्षार !

ओ पागल संसार !


जलना ही प्रकाश उसमें सुख

बुझना ही तम है तम में दुख;

तुझमें चिर दुख, मुझमें चिर सुख

कैसे होगा प्यार !

ओ पागल संसार !


शलभ अन्य की ज्वाला से मिल,

झुलस कहाँ हो पाया उज्जवल !

कब कर पाया वह लघु तन से

नव आलोक-प्रसार !

ओ पागल संसार !


अपना जीवन-दीप मृदुलतर,

वर्ती कर निज स्नेह-सिक्त उर;

फिर जो जल पावे हँस-हँस कर

हो आभा साकार !

ओ पागल संसार !


(नीरजा से)

 



       


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क्या न तुमने दीप बाला ?

महादेवी वर्मा




क्या न तुमने दीप बाला ?

क्या न इसके शीत अधरों -

से लगाई अमर ज्वाला ?


अगम निशि हो यह अकेला,

तुहिन-पतझर-वात-बेला,

उन करों की सजल सुधि में

पहनता अंगार-माला !


स्नेह माँगा औ’ न बाती,

नींद कब, कब क्लांति भाती !

वर इसे दो एक कह दो

मिलन के क्षण का उजाला !


झर इसी से अग्नि के कण,

बन रहे हैं वेदना-घन,

प्राण में इसने विरह का

मोम सा मृदु शलभ पाला ?


यह जला निज धूम पीकर,

जीत डाली मृत्यु जी कर,

रत्न सा तम में तुम्हारा

अंक मृदु पद का सँभाला !


यह न झंझा से बुझेगा,

बन मिटेगा मिट बनेगा,

भय इसे है हो न जावे

प्रिय तुम्हारा पंथ काला !


(सांध्य गीत से)





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क्या न तुमने दीप बाला ?

महादेवी वर्मा




क्या न तुमने दीप बाला ?

क्या न इसके शीत अधरों -

से लगाई अमर ज्वाला ?


अगम निशि हो यह अकेला,

तुहिन-पतझर-वात-बेला,

उन करों की सजल सुधि में

पहनता अंगार-माला !


स्नेह माँगा औ’ न बाती,

नींद कब, कब क्लांति भाती !

वर इसे दो एक कह दो

मिलन के क्षण का उजाला !


झर इसी से अग्नि के कण,

बन रहे हैं वेदना-घन,

प्राण में इसने विरह का

मोम सा मृदु शलभ पाला ?


यह जला निज धूम पीकर,

जीत डाली मृत्यु जी कर,

रत्न सा तम में तुम्हारा

अंक मृदु पद का सँभाला !


यह न झंझा से बुझेगा,

बन मिटेगा मिट बनेगा,

भय इसे है हो न जावे

प्रिय तुम्हारा पंथ काला !


(सांध्य गीत से)






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क्यों वह प्रिय आता पार नहीं !

महादेवी वर्मा




क्यों वह प्रिय आता पार नहीं !


शशि के दर्पण देख देख,

मैंने सुलझाए तिमिर-केश;

गूँथे चुन तारक-पारिजात,

अवगुंठन कर किरणें अशेष;


क्यों आज रिझा पाया उसको

मेरा अभिनव शृंगार नहीं ?


स्मित से कर फीके अधर अरुण,

गति के जावक से चरण लाल,

स्वप्नों से गीली पलक आँज,

सीमंत सजा ली अश्रु-माल;


स्पंदन मिस प्रतिपल भेज रही

क्या युग युग से मनुहार नहीं ?


मैं आज चुपा आई चातक,

मैं आज सुला आई कोकिल;

कंटकित मौलश्री हरसिंगार,

रोके हैं अपने श्वास शिथिल !


सोया समीर नीरव जग पर

स्मृतियों का भी मृदु भार नहीं !


रूँधे हैं, सिहरा सा दिगंत,

नत पाटलदल से मृदु बादल;

उस पार रुका आलोक-यान,

इस पार प्राण का कोलाहल !


बेसुध निद्रा है आज बुने -

जाते श्वासों के तार नहीं !


दिन-रात पथिक थक गए लौट,

फिर गए मना कर निमिष हार;

पाथेय मुझे सुधि मधुर एक,

है विरह पंथ सूना अपार !


फिर कौन कह रहा है सूना

अब तक मेरा अभिसार नहीं ?


(सांध्य गीत से)

 




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कितनी रातों की मैंने

महादेवी वर्मा




कितनी रातों की मैंने

नहलाई है अँधियारी,

धो डाली है संध्या के

पीले सेंदुर से लाली;


नभ के धुँधले कर डाले

अपलक चमकीले तारे,

इन आहों पर तैरा कर

रजनीकर पार उतारे !


वह गई क्षितिज की रेखा

मिलती है कहीं न हेरे,

भूला सा मत्त समीरण

पागल सा देता फे रे!


अपने उस पर सोने से

लिखकर कुछ प्रेम कहानी,

सहते हैं रोते बादल

तूफानों की मनमानी !


इन बूँदों के दर्पण में

करुणा क्या झाँक रही है ?

क्या सागर की धड़कन में

लहरें बढ़ आँक रहीं हैं ?


पीड़ा मेरे मानस से

भीगे पट सी लिपटी है,

डूबी सी यह निश्वासें

ओठों में आ सिमटीं हैं।


मुझ में विक्षिप्त झकोरे !

उन्माद मिला दो अपना,

हाँ नाच उठे जिसको छू

मेरा नन्हा सा सपना !!


पीड़ा टकराकर फूटे

घूमे विश्राम विकल सा;

तम बढ़े मिटा डाले सब

जीवन काँपे दलदल सा !


फिर भी इस पार न आवे

जो मेरा नाविक निर्मम,

सपनों से बाँध डुबाना

मेरा छोटा सा जीवन !

  

(नीहार से)





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कौन तुम मेरे हृदय में ?

महादेवी वर्मा




कौन तुम मेरे हृदय में ?


कौन मेरी कसक में नित

मधुरता भरता अलक्षित

कौन प्यासे लोचनों में

घुमड़ घिर झरता अपरिचित ?


स्वर्ण-स्वप्नों का चितेरा

नींद के सूने निलय में ?

कौन तुम मेरे हृदय में ?


अनुसरण निश्वास मेरे

कर रहे किसका निरंतर

चूमने पदचिह्न किसके

लौटते यह श्वास फिर फिर ?


कौन बंदी कर मुझे अब

बँध गया अपनी विजय में ?

कौन तुम मेरे हृदय में ?


एक करुण अभाव में चिर -

तृप्ति का संसार संचित;

एक लघु क्षण दे रहा

निर्वाण के वरदान शत शत;


पा लिया मैंने किसे इस

वेदना के मधुर क्रय में ?

कौन तुम मेरे हृदय में ?


गूँजता उर में न जाने

दूर के संगीत सा क्या!

आज खो निज को मुझे

खोया मिला, विपरीत सा क्या ?


क्या नहा आई विरह-निशि

मिलन मधु-दिन के उदय में ?

कौन तुम मेरे हृदय में ?


तिमिर-पारावार में

आलोक-प्रतिमा है अकंपित

आज ज्वाला से बरसता

क्यों मधुर घनसार सुरभित ?


सुन रही हूँ एक ही

झंकार जीवन में, प्रलय में !

कौन तुम मेरे हृदय में ?


मूक सुख दुख कर रहे

मेरा नया शृंगार सा क्या ?

झूम गर्वित स्वर्ग देता -

नत धरा को प्यार सा क्या?


आज पुलकित सृष्टि क्या

करने चली अभिसार लय में ?

कौन तुम मेरे हृदय में ?


(नीरजा से)

 





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चाहता है यह पागल प्यार

महादेवी वर्मा




चाहता है यह पागल प्यार,

अनोखा एक नया संसार !


कलियों के उच्छवास शून्य में तानें एक वितान,

तुहिन-कणों पर मृदु कंपन से सेज बिछा दें गान;


जहाँ सपने हों पहरेदार,

अनोखा एक नया संसार !


करते हों आलोक जहाँ बुझ बुझ कर कोमल प्राण,

जलने में विश्राम जहाँ मिटने में हों निर्वाण;


वेदना मधु मदिरा की धार,

अनोखा एक नया संसार!


मिल जावे उस पार क्षितिज के सीमा सीमाहीन,

गर्वीले नक्षत्र धरा पर लोटें होकर दीन !


उदधि हो नभ का शयनागार,

अनोखा एक नया संसार!


जीवन की अनुभूति तुला पर अरमानों से तोल,

यह अबोध मन मूक व्यथा से ले पागलपन मोल !


करें दृग आँसू का व्यापार,

अनोखा एक नया संसार!

  

(नीहार से)





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चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना !

महादेवी वर्मा




चिर सजग आँखें उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना !

जाग तुझको दूर जाना !


अचल हिमगिरि के हॄदय में आज चाहे कंप हो ले !

या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले;

आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया

जाग या विद्युत शिखाओं में निठुर तूफान बोले !

पर तुझे है नाश पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना !

जाग तुझको दूर जाना !


बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले ?

पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रँगीले ?

विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,

क्या डुबो देंगे तुझे यह फूल दे दल ओस गीले ?

तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना !

जाग तुझको दूर जाना !


वज्र का उर एक छोटे अश्रु कण में धो गलाया,

दे किसे जीवन-सुधा दो घूँट मदिरा माँग लाया !

सो गई आँधी मलय की बात का उपधान ले क्या ?

विश्व का अभिशाप क्या अब नींद बनकर पास आया ?

अमरता सुत चाहता क्यों मृत्यु को उर में बसाना ?

जाग तुझको दूर जाना !


कह न ठंडी साँस में अब भूल वह जलती कहानी,

आग हो उर में तभी दृग में सजेगा आज पानी;

हार भी तेरी बनेगी माननी जय की पताका,

राख क्षणिक पतंग की है अमर दीपक की निशानी !

है तुझे अंगार-शय्या पर मृदुल कलियाँ बिछाना !

जाग तुझको दूर जाना!

 





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जब यह दीप थके

महादेवी वर्मा




जब यह दीप थके तब आना।


यह चंचल सपने भोले हैं,

दृग-जल पर पाले मैंने, मृदु

पलकों पर तोले हैं;

दे सौरभ के पंख इन्हें सब नयनों में पहुँचाना !


साधें करुणा-अंक ढली हैं,

सांध्य गगन-सी रंगमयी पर

पावस की सजला बदली हैं;

विद्युत के दे चरण इन्हें उर-उर की राह बताना !


यह उड़ते क्षण पुलक-भरे हैं,

सुधि से सुरभित स्नेह-धुले,

ज्वाला के चुंबन से निखरे हैं;

दे तारों के प्राण इन्हीं से सूने श्वास बसाना !


यह स्पंदन हैं अंक-व्यथा के

चिर उज्ज्वल अक्षर जीवन की

बिखरी विस्मृत क्षार-कथा के;

कण का चल इतिहास इन्हीं से लिख-लिख अजर बनाना !


लौ ने वर्ती को जाना है

वर्ती ने यह स्नेह, स्नेह ने

रज का अंचल पहचाना है;

चिर बंधन में बाँध इन्हें धुलने का वर दे जाना !




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जो तुम आ जाते एक बार

महादेवी वर्मा




जो तुम आ जाते एक बार !


कितनी करुणा कितने संदेश

पथ में बिछ जाते बन पराग

गाता प्राणों का तार तार

अनुराग भरा उन्माद राग

आँसू लेते वे पथ पखार !

जो तुम आ जाते एक बार !


हँस उठते पल में आद्र नयन

धुल जाता होठों से विषाद

छा जाता जीवन में बसंत

लुट जाता चिर संचित विराग

आँखें देतीं सर्वस्व वार !

जो तुम आ जाते एक बार !

 






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जो मुखरित कर जाती थीं

महादेवी वर्मा




जो मुखरित कर जाती थीं

मेरा नीरव आवाहन,

मैं ने दुर्बल प्राणों की

वह आज सुला दी कंपन !

थिरकन अपनी पुतली की

भारी पलकों में बाँधी,

निस्पंद पड़ी हैं आँखें

बरसाने वाली आँधी !


जिसके निष्फल जीवन ने

जल जल कर देखीं राहें !

निर्वाण हुआ है देखो

वह दीप लुटा कर चाहें !

निर्घोष घटाओं में छिप

तड़पन चपला की सोती,

झंझा के उन्मादों में

घुलती जाती बेहोशी !


करुणामय को भाता है

तम के परदों में आना,

हे नभ की दीपावलियों !

तुम पल भर को बुझ जाना !


(नीहार से)







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ढुलकते आँसू सा सुकुमार

महादेवी वर्मा




ढुलकते आँसू सा सुकुमार

बिखरते सपनों सा अज्ञात,

चुरा कर अरुणा का सिंदूर

मुस्कराया जब मेरा प्रात,


छिपा कर लाली में चुपचाप

सुनहला प्याला लाया कौन ?


हँस उठे छूकर टूटे तार

प्राण में मँडराया उन्माद,

व्यथा मीठी ले प्यारी प्यास

सो गया बेसुध अंतर्नाद,


घूँट में थी साकी की साध

सुना फिर फिर जाता है कौन ?

  

(नीहार से)

 




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तुम मुझमें प्रिय ! फिर परिचय क्या ?

महादेवी वर्मा




तुम मुझमें प्रिय ! फिर परिचय क्या ?


तारक में छवि, प्राणों में स्मृति,

पलकों में नीरव पद की गति,

लघु उर में पुलकों की संसृति,


भर लाई हूँ तेरी चंचल

और करूँ जग में संचय क्या !


तेरा मुख सहास अरुणोदय,

परछाई रजनी विषादमय

वह जागृति वह नींद स्वप्नमय,


खेल खेल थक थक सोने दे

मैं समझूँगी सृष्टि प्रलय क्या !


तेरा अधर विचुंबित प्याला,

तेरी ही स्मित-मिश्रित हाला,

तेरा ही मानस मधुशाला


फिर पूछूँ क्या मेरे साकी

देते हो मधुमय विषमय क्या !


रोम रोम में नंदन पुलकित,

साँस साँस में जीवन शतशत,

स्वप्न स्वप्न में विश्व अपरिचित,


मुझमें नित बनते मिटते प्रिय

स्वर्ग मुझे क्या निष्क्रिय लय क्या !


हारूँ तो खोऊँ अपनापन,

पाऊँ प्रियतम में निर्वासन,

जीत बनूँ तेरा ही बंधन,


भर लाऊँ सीपी में सागर

प्रिय मेरी अब हार विजय क्या !


चित्रित तू मैं हूँ रेखा-क्रम,

मधुर राग तू मैं स्वर-संगम,

तू असीम मैं सीमा का भ्रम,


काया छाया में रहस्यमय

प्रेयसि प्रियतम का अभिनय क्या !


(नीरजा से)









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तुम्हें बाँध पाती सपने में !

महादेवी वर्मा




तुम्हें बाँध पाती सपने में !

तो चिरजीवन-प्यास बुझा

लेती उस छोटे क्षण अपने में !


पावस-घन सी उमड़ बिखरती,

शरद-दिशा सी नीरव घिरती,

धो लेती जग का विषाद

ढुलते लघु आँसू-कण अपने में !


मधुर राग बन विश्व सुलाती

सौरभ बन कण कण बस जाती,

भरती मैं संसृति का क्रंदन

हँस जर्जर जीवन अपने में!


सब की सीमा बन सागर सी,

हो असीम आलोक-लहर सी,

तारोंमय आकाश छिपा

रखती चंचल तारक अपने में!


शाप मुझे बन जाता वर सा,

पतझर मधु का मास अजर सा,

रचती कितने स्वर्ग एक

लघु प्राणों के स्पंदन अपने में !


साँसें कहतीं अमर कहानी,

पल पल बनता अमिट निशानी,

प्रिय! मैं लेती बाँध मुक्ति

सौ सौ, लघुपत बंधन अपने में !

तुम्हें बाँध पाती सपने में!


(नीरजा से)

 





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तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना

महादेवी वर्मा




तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना


कंपित कंपित,

पुलकित पुलकित,

परछा‌ईं मेरी से चित्रित,

रहने दो रज का मंजु मुकुर,

इस बिन शृंगार-सदन सूना !

तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना !


सपने औ' स्मित,

जिसमें अंकित,

सुख दुख के डोरों से निर्मित;

अपनेपन की अवगुंठन बिन

मेरा अपलक आनन सूना !

तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना !


जिनका चुंबन

चौंकाता मन,

बेसुधपन में भरता जीवन,

भूलों के सूलों बिन नूतन,

उर का कुसुमित उपवन सूना !

तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना !


दृग-पुलिनों पर

हिम से मृदुतर,

करुणा की लहरों में बह कर,

जो आ जाते मोती, उन बिन,

नवनिधियोंमय जीवन सूना !

तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना !


जिसका रोदन,

जिसकी किलकन,

मुखरित कर देते सूनापन,

इन मिलन-विरह-शिशु‌ओं के बिन

विस्तृत जग का आँगन सूना !

तेरी सुधि बिन क्षण क्षण सूना !








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तुहिन के पुलिनों पर छबिमान

महादेवी वर्मा




तुहिन के पुलिनों पर छबिमान,

किसी मधुदिन की लहर समान;

स्वप्न की प्रतिमा पर अनजान,

वेदना का ज्यों छाया-दान;


विश्व में यह भोला जीवन -

स्वप्न जागृति का मूक मिलन,

बाँध अंचल में विस्मृतिधन,

कर रहा किसका अन्वेषण ?


धूलि के कण में नभ सी चाह,

बिंदु में दुख का जलधि अथाह,

एक स्पंदन में स्वप्न अपार,

एक पल असफलता का भार;


साँस में अनुतापों का दाह,

कल्पना का अविराम प्रवाह;

यही तो हैं इसके लघु प्राण,

शाप वरदानों के संधान !


भरे उर में छबि का मधुमास,

दृगों में अश्रु अधर में हास,

ले रहा किसका पावस प्यार,

विपुल लघु प्राणों में अवतार ?


नील नभ का असीम विस्तार,

अनल के धूमिल कण दो चार,

सलिल से निर्भर वीचि-विलास

मंद मलयानिल से उच्छ्वास,


धरा से ले परमाणु उधार,

किया किसने मानव साकार ?


दृगों में सोते हैं अज्ञात

निदाघों के दिन पावस-रात;

सुधा का मधु हाला का राग,

व्यथा के घन अतृप्ति की आग।


छिपे मानस में पवि नवनीत,

निमिष की गति निर्झर के गीत,

अश्रु की उर्म्मि हास का वात,

कुहू का तम माधव का प्रात।


हो गए क्या उर में वपुमान,

क्षुद्रता रज की नभ का मान,

स्वर्ग की छबि रौरव की छाँह,

शीत हिम की बाड़व का दाह ?


और - यह विस्मय का संसार,

अखिल वैभव का राजकुमार,

धूलि में क्यों खिलकर नादान,

उसी में होता अंतर्धान ?


काल के प्याले में अभिनव,

ढाल जीवन का मधु आसव,

नाश के हिम अधरों से, मौन,

लगा देता है आकर कौन ?


बिखर कर कन कन के लघुप्राण,

गुनगुनाते रहते यह तान,

“अमरता है जीवन का ह्रास,

मृत्यु जीवन का परम विकास”।


दूर है अपना लक्ष्य महान,

एक जीवन पग एक समान;

अलक्षित परिवर्तन की डोर,

खींचती हमें इष्ट की ओर।


छिपा कर उर में निकट प्रभात,

गहनतम होती पिछली रात;

सघन वारिद अंबर से छूट,

सफल होते जल-कण में फूट।


स्निग्ध अपना जीवन कर क्षार,

दीप करता आलोक-प्रसार;

गला कर मृतपिंडों में प्राण,

बीज करता असंख्य निर्माण।


सृष्टि का है यह अमिट विधान,

एक मिटने में सौ वरदान,

नष्ट कब अणु का हुआ प्रयास,

विफलता में है पूर्ति-विकास।


(रश्मि से)

 


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थकीं पलकें सपनों पर डाल

महादेवी वर्मा




थकीं पलकें सपनों पर डाल

व्यथा में सोता हो आकाश,

छलकता जाता हो चुपचाप

बादलों के उर से अवसाद;

वेदना की वीणा पर देव

शून्य गाता हो नीरव राग,

मिलाकर निश्वासों के तार

गूँथती हो जब तारे रात;


उन्हीं तारक फूलों में देव

गूँथना मेरे पागल प्राण

हठीले मेरे छोटे प्राण !


किसी जीवन की मीठी याद

लुटाता हो मतवाला प्रात,

कली अलसाई आँखें खोल

सुनाती हो सपने की बात;

खोजते हों खोया उन्माद

मंद मलयानिल के उच्छवास,

माँगती हो आँसू के बिंदु

मूक फूलों की सोती प्यास;


पिला देना धीरे से देव

उसे मेरे आँसू सुकुमार

सजीले ये आँसू के हार !


मचलते उद्गारों से खेल

उलझते हों किरणों के जाल,

किसी की छूकर ठंडी साँस

सिहर जाती हों लहरें बाल;

चकित सा सूने में संसार

गिन रहा हो प्राणों के दाग,

सुनहली प्याली में दिनमान

किसी का पीता हो अनुराग;


ढाल देना उसमें अनजान

देव मेरा चिर संचित राग

अरे यह मेरा मादक राग !


मत्त हो स्वप्निल हाला ढाल

महानिद्रा में पारावार,

उसी की धड़कन में तूफान

मिलाता हो अपनी झंकार;

झकोरों से मोहक संदेश

कह रहा हो छाया का मौन,

सुप्त आहों का दीन विषाद

पूछता हो आता है कौन ?


बहा देना आकर चुपचाप

तभी यह मेरा जीवन फूल

सुभग मेरा मुरझाया फूल !

  

(नीहार से)

 





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धूप सा तन दीप सी मैं

महादेवी वर्मा




धूप सा तन दीप सी मैं !


उड़ रहा नित एक सौरभ-धूम-लेखा में बिखर तन,

खो रहा निज को अथक आलोक-साँसों में पिघल मन

अश्रु से गीला सृजन-पल,

औ' विसर्जन पुलक-उज्ज्वल,

आ रही अविराम मिट मिट

स्वजन ओर समीप सी मैं !


सघन घन का चल तुरंगम चक्र झंझा के बनाए,

रश्मि विद्युत ले प्रलय-रथ पर भले तुम श्रांत आए,

पंथ में मृदु स्वेद-कण चुन,

छाँह से भर प्राण उन्मन,

तम-जलधि में नेह का मोती

रचूँगी सीप सी मैं !


धूप-सा तन दीप सी मैं !


(दीपशिखा से)

 





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धीरे धीरे उतर क्षितिज से

महादेवी वर्मा




धीरे धीरे उतर क्षितिज से

आ वसंत-रजनी!


तारकमय नव वेणीबंधन

शीश-फूल कर शशि का नूतन,

रश्मि-वलय सित घन-अवगुंठन,


मुक्ताहल अभिराम बिछा दे

चितवन से अपनी !

पुलकती आ वसंत-रजनी !


मर्मर की सुमधुर नूपुर-ध्वनि,

अलि-गुंजित पद्मों की किंकिणि,

भर पद-गति में अलस तरंगिणि,


तरल रजत की धार बहा दे

मृदु स्मित से सजनी !

विहँसती आ वसंत-रजनी !


पुलकित स्वप्नों की रोमावलि,

कर में हो स्मृतियों की अंजलि,

मलयानिल का चल दुकूल अलि !


चिर छाया-सी श्याम, विश्व को

आ अभिसार बनी !

सकुचती आ वसंत-रजनी !


सिहर सिहर उठता सरिता-उर,

खुल खुल पड़ते सुमन सुधा-भर,

मचल मचल आते पल फिर फिर,


सुन प्रिय की पद-चाप हो गई

पुलकित यह अवनी !

सिहरती आ वसंत-रजनी !


(नीरजा से)

 




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निशा की, धो देता राकेश

महादेवी वर्मा




निशा की, धो देता राकेश

चाँदनी में जब अलकें खोल,

कली से कहता था मधुमास

बता दो मधुमदिरा का मोल;


बिछाती थी सपनों के जाल

तुम्हारी वह करुणा की कोर,

गई वह अधरों की मुस्कान

मुझे मधुमय पीड़ा में बोर;


झटक जाता था पागल वात

धूलि में तुहिन कणों के हार;

सिखाने जीवन का संगीत

तभी तुम आए थे इस पार!


गए तब से कितने युग बीत

हुए कितने दीपक निर्वाण !

नहीं पर मैंने पाया सीख

तुम्हारा सा मनमोहन गान।


भूलती थी मैं सीखे राग

बिछलते थे कर बारंबार,

तुम्हें तब आता था करुणेश !

उन्हीं मेरी भूलों पर प्यार!


नहीं अब गाया जाता देव !

थकी अँगुली हैं ढी़ले तार

विश्ववीणा में अपनी आज

मिला लो यह अस्फुट झंकार !


(नीहार से)





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पंकज-कली!

महादेवी वर्मा




क्या तिमिर कह जाता करुण ?

क्या मधुर दे जाती किरण ?

किस प्रेममय दुख से हृदय में

अश्रु में मिश्री घुली ?


किस मलय-सुरभित अंक रह -

आया विदेशी गंधवह ?

उन्मुक्त उर अस्तित्व खो

क्यों तू भुजभर मिली ?


रवि से झुलसते मौन दृग,

जल में सिहरते मृदुल पग;

किस व्रतव्रती तू तापसी

जाती न सुख दुख से छली ?


मधु से भरा विधुपात्र है,

मद से उनींदी रात है,

किस विरह में अवनतमुखी

लगती न उजियाली भली ?


यह देख ज्वाला में पुलक,

नभ के नयन उठते छलक !

तू अमर होने नभधरा के

वेदना-पय से पली !


पंकज-कली! पंकज-कली!


(सांध्य गीत से)






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पथ देख बिता दी रैन

महादेवी वर्मा




पथ देख बिता दी रैन

मैं प्रिय पहचानी नहीं !


तम ने धोया नभ-पंथ

सुवासित हिमजल से;

सूने आँगन में दीप

जला दिए झिल-मिल से;

आ प्रात बुझा गया कौन

अपरिचित, जानी नहीं !

मैं प्रिय पहचानी नहीं !


धर कनक-थाल में मेघ

सुनहला पाटल सा,

कर बालारुण का कलश

विहग-रव मंगल सा,

आया प्रिय-पथ से प्रात -

सुनाई कहानी नहीं !

मैं प्रिय पहचानी नहीं !


नव इंद्रधनुष सा चीर

महावर अंजन ले,

अलि-गुंजित मीलित पंकज -

- नूपुर रुनझुन ले,

फिर आई मनाने साँझ

मैं बेसुध मानी नहीं !

मैं प्रिय पहचानी नहीं !


इन श्वासों का इतिहास

आँकते युग बीते;

रोमों में भर भर पुलक

लौटते पल रीते;

यह ढुलक रही है याद

नयन से पानी नहीं !

मैं प्रिय पहचानी नहीं !


अलि कुहरा सा नभ विश्व

मिटे बुद्‌बुद्‌‌-जल सा;

यह दुख का राज्य अनंत

रहेगा निश्चल सा;

हूँ प्रिय की अमर सुहागिनि

पथ की निशानी नहीं !

मैं प्रिय पहचानी नहीं !

 





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प्रिय इन नयनों का अश्रु-नीर !

महादेवी वर्मा




प्रिय इन नयनों का अश्रु-नीर!


दुख से आविल सुख से पंकिल,

बुदबुद् से स्वप्नों से फेनिल,

बहता है युग-युग अधीर !


जीवन-पथ का दुर्गमतम तल

अपनी गति से कर सजल सरल,

शीतल करता युग तृषित तीर !


इसमें उपजा यह नीरज सित,

कोमल कोमल लज्जित मीलित;

सौरभ सी लेकर मधुर पीर !


इसमें न पंक का चिह्न शेष,

इसमें न ठहरता सलिल-लेश,

इसको न जगाती मधुप-भीर !


तेरे करुणा-कण से विलसित,

हो तेरी चितवन में विकसित,

छू तेरी श्वासों का समीर !


(नीरजा से)




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प्रिय मेरे गीले नयन

महादेवी वर्मा




प्रिय मेरे गीले नयन बनेंगे आरती !


श्वासों में सपने कर गुंफित,

बंदनवार     वेदना-चर्चित,

भर दुख से जीवन का घट नित,

मूक क्षणों में मधुर भरूँगी भारती !


दृग मेरे यह दीपक झिलमिल,

भर आँसू का स्नेह रहा ढुल,

सुधि तेरी अविराम रही जल,

पद-ध्वनि पर आलोक रहूँगी वारती !


यह लो प्रिय ! निधियोंमय जीवन,

जग की अक्षय स्मृतियों का धन,

सुख-सोना करुणा-हीरक-कण,

तुमसे जीता, आज तुम्हीं को हारती !


(सांध्य गीत से)





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प्रिय! सांध्य गगन

महादेवी वर्मा




प्रिय ! सांध्य गगन

मेरा जीवन !


यह क्षितिज बना धुँधला विराग,

नव अरुण अरुण मेरा सुहाग,

छाया सी काया वीतराग,

सुधिभीने स्वप्न रँगीले घन !


साधों का आज सुनहलापन,

घिरता विषाद का तिमिर सघन,

संध्या का नभ से मूक मिलन,

यह अश्रुमती हँसती चितवन !


लाता भर श्वासों का समीर,

जग से स्मृतियों का गंध धीर,

सुरभित हैं जीवन-मृत्यु-तीर,

रोमों में पुलकित कैरव-वन !


अब आदि अंत दोनों मिलते,

रजनी-दिन-परिणय से खिलते,

आँसू मिस हिम के कण ढुलते,

ध्रुव आज बना स्मृति का चल क्षण !


इच्छाओं के सोने से शर,

किरणों से द्रुत झीने सुंदर,

सूने असीम नभ में चुभकर -

बन बन आते नक्षत्र-सुमन !


घर आज चले सुख-दुख विहग !

तम पोंछ रहा मेरा अग जग;

छिप आज चला वह चित्रित मग,

उतरो अब पलकों में पाहुन !


(सांध्य गीत से)








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प्रिय-पथ के यह शूल मुझे अति प्यारे ही हैं !

महादेवी वर्मा




प्रिय-पथ के यह मुझे अति प्यारे ही हैं !


हीरक सी वह याद

बनेगा जीवन सोना,

जल जल तप तप किंतु

खरा इसको है होना !

चल ज्वाला के देश जहाँ अंगारे ही हैं !


तम-तमाल ने फूल

गिरा दिन पलकें खोलीं

मैंने दुख में प्रथम

तभी सुख-मिश्री घोली !

ठहरें पल भर देव अश्रु यह खारे ही हैं !


ओढे मेरी छाँह

राज देती उजियाला,

रजकण मृदु-पद चूम

हुए मुकुलों की माला !

मेरा चिर इतिहास चमकते तारे ही हैं !


आकुलता ही आज

हो गई तन्मय राधा,

विरह बना आराध्य

द्वैत क्या कैसी बाधा !

खोना पाना हुआ जीत वे हारे ही हैं !


(सांध्य गीत से)






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बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ !

महादेवी वर्मा




बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ !


नींद थी मेरी अचल निस्पंद कण कण में,

प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पंदन में,

प्रलय में मेरा पता पदचिह्न जीवन में,

शाप हूँ जो बन गया वरदान बंधन में,

कूल भी हूँ कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ !


नयन में जिसके जलद वह तुषित चातक हूँ,

शलभ जिसके प्राण में वह ठिठुर दीपक हूँ,

फूल को उर में छिपाए विकल बुलबुल हूँ,

एक हो कर दूर तन से छाँह वह चल हूँ;

दूर तुमसे हूँ अखंड सुहागिनी भी हूँ !


आग हूँ जिससे ढुलकते बिंदु हिमजल के,

शून्य हूँ जिसको बिछे हैं पाँवड़े पल के,

पुलक हूँ वह जो पला है कठिन प्रस्तर में,

हूँ वही प्रतिबिंब जो आधार के उर में;

नील घन भी हूँ सुनहली दामिनी भी हूँ !


नाश भी हूँ मैं अनंत विकास का क्रम भी,

त्याग का दिन भी चरम आसक्ति का तम भी

तार भी आघात भी झंकार की गति भी

पात्र भी मधु भी मधुप भी मधुर विस्मृत भी हूँ;

अधर भी हूँ और स्मित की चाँदनी भी हूँ !


(नीरजा से)

 






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पुलक पुलक उर, सिहर सिहर तन

महादेवी वर्मा




पुलक पुलक उर, सिहर सिहर तन,

आज नयन आते क्यों भर-भर !


सकुच सलज खिलती शेफाली,

अलस मौलश्री डाली डाली;

बुनते नव प्रवाल कुंजों में,

रजत श्याम तारों से जाली;

शिथिल मधु-पवन गिन-गिन मधु-कण,

हरसिंगार झरते हैं झर झर !

आज नयन आते क्यों भर भर ?


पिक की मधुमय वंशी बोली,

नाच उठी सुन अलिनी भोली;

अरुण सजल पाटल बरसाता

तम पर मृदु पराग की रोली;

मृदुल अंक धर, दर्पण सा सर,

आज रही निशि दृग-इंदीवर !

आज नयन आते क्यों भर भर ?


आँसू बन बन तारक आते,

सुमन हृदय में सेज बिछाते;

कंपित वानीरों के बन भी,

रह हर करुण विहाग सुनाते,

निद्रा उन्मन, कर कर विचरण,

लौट रही सपने संचित कर !

आज नयन आते क्यों भर भर ?


जीवन-जल-कण से निर्मित सा,

चाह-इंद्रधनु से चित्रित सा,

सजल मेघ सा धूमिल है जग,

चिर नूतन सकरुण पुलकित सा;

तुम विद्युत बन, आओ पाहुन !

मेरी पलकों में पग धर धर !

आज नयन आते क्यों भर भर ?


(नीरजा से)






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मैं अनंत पथ में लिखती जो

महादेवी वर्मा




मैं अनंत पथ में लिखती जो

सस्मित सपनों की बातें,

उनको कभी न धो पाएँगी

अपने आँसू से रातें !


उड़ उड़ कर जो धूल करेगी

मेघों का नभ में अभिषेक,

अमिट रहेगी उसके अंचल

में मेरी पीड़ा की रेख !


तारों में प्रतिबिंबित हो

मुस्काएँगीं अनंत आँखें,

होकर सीमाहीन, शून्य में

मंड़राएँगी अभिलाषें !


वीणा होगी मूक बजाने

वाला होगा अंतर्धान,

विस्मृति के चरणों पर आकर

लौटेंगे सौ सौ निर्वाण !


जब असीम से हो जाएगा

मेरी लघु सीमा का मेल,

देखोगे तुम देव ! अमरता

खेलेगी मिटने का खेल !

  

(नीहार से)






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मैं नीर भरी दुख की बदली

महादेवी वर्मा




मैं नीर भरी दुख की बदली !


स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,

क्रंदन में आहत विश्व हँसा,

नयनों में दीपक से जलते,

पलकों में निर्झरिणी मचली !


मेरा पग-पग संगीत भरा,

श्वासों में स्वप्न पराग झरा,

नभ के नव रंग बुनते दुकूल,

छाया में मलय बयार पली !


मैं क्षितिज भृकुटि पर घिर धूमिल,

चिंता का भार बनी अविरल,

रज-कण पर जल-कण हो बरसी,

नव जीवन अंकुर बन निकली !


पथ को न मलिन करता आना,

पद चिह्न न दे जाता जाना,

सुधि मेरे आगम की जग में,

सुख की सिहरन बन अंत खिली !


विस्तृत नभ का कोई कोना,

मेरा न कभी अपना होना,

परिचय इतना इतिहास यही

उमड़ी कल थी मिट आज चली !







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मैं बनी मधुमास आली !

महादेवी वर्मा




मैं बनी मधुमास आली !


आज मधुर विषाद की घिर करुण आई यामिनी,

बरस सुधि के इंदु से छिटकी पुलक की चाँदनी

उमड़ आई री, दृगों में

सजनि, कालिंदी निराली !


रजत स्वप्नों में उदित अपलक विरल तारावली,

जाग सुक-पिक ने अचानक मदिर पंचम तान लीं;

बह चली निश्वास की मृदु

वात मलय-निकुंज-वाली !


सजल रोमों में बिछे है पाँवड़े मधुस्नात से,

आज जीवन के निमिष भी दूत हैं अज्ञात से;

क्या न अब प्रिय की बजेगी

मुरलिका मधुराग वाली ?


मैं बनी मधुमास आली !

 








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मधुरिमा के, मधु के अवतार

महादेवी वर्मा




मधुरिमा के, मधु के अवतार

सुधा से, सुषमा से, छविमान,

आँसुओं में सहमे अभिराम

तारकों से हे मूक अजान !

सीख कर मुस्काने की बान

कहाँ आए हो कोमल प्राण !


स्निग्ध रजनी से लेकर हास

रूप से भर कर सारे अंग,

नए पल्लव का घूँघट डाल

अछूता ले अपना मकरंद,

ढूँढ़ पाया कैसे यह देश ?

स्वर्ग के हे मोहक संदेश !


रजत किरणों से नैन पखार

अनोखा ले सौरभ का भार,

छ्लकता लेकर मधु का कोष

चले आए एकाकी पार;

कहो क्या आए हो पथ भूल ?

मंजु छोटे मुस्काते फूल !


उषा के छू आरक्त कपोल

किलक पडता तेरा उन्माद,

देख तारों के बुझते प्राण

न जाने क्या आ जाता याद?

हेरती है सौरभ की हाट

कहो किस निर्मोही की बाट ?


चाँदनी का शृंगार समेट

अधखुली आँखों की यह कोर,

लुटा अपना यौवन अनमोल

ताकती किस अतीत की ओर ?

जानते हो यह अभिनव प्यार

किसी दिन होगा कारागार ?


कौन है वह सम्मोहन राग

खींच लाया तुमको सुकुमार ?

तुम्हें भेजा जिसने इस देश

कौन वह है निष्ठुर करतार ?

हँसो पहनो काँटों के हार

मधुर भोलेपन का संसार !








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रे पपीहे पी कहाँ ?

महादेवी वर्मा




रे पपीहे पी कहाँ ?


खोजता तू इस क्षितिज से उस क्षितिज तक शून्य अंबर,

लघु परों से नाप सागर;

नाप पाता प्राण मेरे

प्रिय समा कर भी कहाँ ?


हँस डुबा देगा युगों की प्यास का संसार भर तू,

कंठगत लघु बिंदु कर तू !

प्यास ही जीवन, सकूँगी

तृप्ति में मैं जी कहाँ ?


चपल बन बन कर मिटेगी झूम तेरी मेघवाला !

मैं स्वयं जल और ज्वाला !

दीप सी जलती न तो यह

सजलता रहती कहाँ ?


साथ गति के भर रही हूँ विरति या आसक्ति के स्वर,

मैं बनी प्रिय-चरण-नूपुर !

प्रिय बसा उर में सुभग !

सुधि खोज की बसती कहाँ ?


(सांध्य गीत से)







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रजतकरों की मृदुल तूलिका

महादेवी वर्मा




रजतकरों की मृदुल तूलिका

से ले तुहिन-बिंदु सुकुमार,

कलियों पर जब आँक रहा था

करुण कथा अपनी संसार;


तरल हृदय की उच्छ्वास

जब भोले मेघ लुटा जाते,

अंधकार दिन की चोटों पर

अंजन बरसाने आते !


मधु की बूँदों में छ्लके जब

तारक लोकों के शुचि फूल,

विधुर हृदय की मृदु कंपन सा

सिहर उठा वह नीरव कूल;


मूक प्रणय से, मधुर व्यथा से

स्वप्न लोक के से आह्वान,

वे आए चुपचाप सुनाने

तब मधुमय मुरली की तान।


चल चितवन के दूत सुना

उनके, पल में रहस्य की बात,

मेरे निर्निमेष पलकों में

मचा गए क्या क्या उत्पात !


जीवन है उन्माद तभी से

निधियाँ प्राणों के छाले,

माँग रहा है विपुल वेदना

के मन प्याले पर प्याले !


पीड़ा का साम्राज्य बस गया

उस दिन दूर क्षितिज के पार,

मिटना था निर्वाण जहाँ

नीरव रोदन था पहरेदार !


कैसे कहती हो सपना है

अलि ! उस मूक मिलन की बात ?

भरे हुए अब तक फूलों में

मेरे आँसू उनके हास !

  

(नीहार से)







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रजतरश्मियों की छाया में धूमिल घन सा वह आता

महादेवी वर्मा




रजतरश्मियों की छाया में धूमिल घन सा वह आता;

इस निदाघ के मानस में करुणा के स्रोत बहा जाता !


उसमें मर्म छिपा जीवन का,

एक तार अगणित कंपन का,

एक सूत्र सबके बंधन का,

संसृति के सूने पृष्ठों में करुणकाव्य वह लिख जाता !


वह उर में आता बन पाहुन,

कहता मन से, अब न कृपण बन,

मानस की निधियाँ लेता गिन,

दृग-द्वारों को खोल विश्वभिक्षुक पर, हँस बरसा आता !


यह जग है विस्मय से निर्मित,

मूक पथिक आते जाते नित,

नहीं प्राण प्राणों से परिचित,

यह उनका संकेत नहीं जिसके बिन विनिमय हो पाता !


मृगमरीचिका के चिर पथ पर,

सुख आता प्यासों के पग धर,

रुद्ध हृदय के पट लेता कर,

गर्वित कहता ‘मैं मधु हूँ मुझसे क्या पतझर का नाता’ !


दुख के पद छू बहते झर झर,

कण कण से आँसू के निर्झर,

हो उठता जीवन मृदु उर्वर,

लघु मानस में वह असीम जग को आमंत्रित कर लाता !


(रश्मि से)

 








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रूपसि तेरा घन-केश पाश !

महादेवी वर्मा




रूपसि तेरा घन-केश पाश!

श्यामल श्यामल कोमल कोमल,

लहराता सुरभित केश-पाश !


नभगंगा की रजत धार में,

धो आई क्या इन्हें रात ?

कंपित हैं तेरे सजल अंग,

सिहरा सा तन हे सद्यस्नात !

भीगी अलकों के छोरों से

चूती बूँदे कर विविध लास !

रूपसि तेरा घन-केश पाश !


सौरभ भीना झीना गीला

लिपटा मृदु अंजन सा दुकूल;

चल अंचल से झर झर झरते

पथ में जुगनू के स्वर्ण-फूल;

दीपक से देता बार बार

तेरा उज्जवल चितवन-विलास !

रूपसि तेरा घन-केश पाश !


उच्छ्वसित वक्ष पर चंचल है

बक-पाँतों का अरविंद-हार;

तेरी निश्वासें छू भू को

बन बन जाती मलयज बयार;

केकी-रव की नूपुर-ध्वनि सुन

जगती जगती की मूक प्यास !

रूपसि तेरा घन-केश पाश !


इन स्निग्ध लटों से छा दे तन,

पुलकित अंगों से भर विशाल;

झुक सस्मित शीतल चुंबन से

अंकित कर इसका मृदुल भाल;

दुलरा देना बहला देना,

यह तेरा शिशु जग है उदास !

रूपसि तेरा घन-केश पाश !


(नीरजा से)







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रागभीनी तू सजनि निश्वास भी तेरे रँगीले !

महादेवी वर्मा




रागभीनी तू सजनि निश्वास भी तेरे रँगीले !

लोचनों में क्या मदिर नव ?

देख जिसकी नीड़ की सुधि फूट निकली बन मधुर रव !


झूलते चितवन गुलाबी -

में चले घर खग हठीले !

रागभीनी तू सजनि निश्वास भी तेरे रँगीले !


छोड़ किस पाताल का पुर ?

राग से बेसुध, चपल सजीले नयन में भर,

रात नभ के फूल लाई,

आँसुओं से कर सजीले !

रागभीनी तू सजनि निश्वास भी तेरे रँगीले !


आज इन तंद्रिल पलों में !

उलझती अलकें सुनहली असित निशि के कुंतलों में !

सजनि नीलमरज भरे

रँग चूनरी के अरुण पीले !

रागभीनी तू सजनि निश्वास भी तेरे रँगीले !


रेख सी लघु तिमिर लहरी,

चरण छू तेरे हुई है सिंधु सीमाहीन गहरी !

गीत तेरे पार जाते

बादलों की मृदु तरी ले !

रागभीनी तू सजनि निश्वास भी तेरे रँगीले !


कौन छायालोक की स्मृति,

कर रही रंगीन प्रिय के द्रुत पदों की अंक-संसृति,

सिहरती पलकें किए -

देती विहँसते अधर गीले !

रागभीनी तू सजनि निश्वास भी तेरे रँगीले !


(सांध्य गीत से)

 







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वे मधुदिन जिनकी स्मृतियों की

महादेवी वर्मा




वे मधुदिन जिनकी स्मृतियों की

धुँधली रेखायें खोईं,

चमक उठेंगे इंद्रधनुष से

मेरे विस्मृति के घन में।


झंझा की पहली नीरवता -

सी नीरव मेरी साधें,

भर देंगी उन्माद प्रलय का

मानस की लघु कंपन में।


सोते जो असंख्य बुदबुद से

बेसुध सुख मेरे सुकुमार,

फूट पड़ेंगे दुखसागर की

सिहरी धीमी स्पंदन में।


मूक हुआ जो शिशिर-निशा में

मेरे जीवन का संगीत,

मधु-प्रभात में भर देगा वह

अंतहीन लय कण कण में।


(रश्मि से)






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विरह का जलजात जीवन

महादेवी वर्मा




विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात !

वेदना में जन्म करुणा में मिला आवास;

अश्रु चुनता दिवस इसका, अश्रु गिनती रात !

जीवन विरह का जलजात !


आँसुओं का कोष उर, दृगु अश्रु की टकसाल;

तरल जल-कण से बने घन सा क्षणिक मृदु गात !

जीवन विरह का जलजात !


अश्रु से मधुकण लुटाता आ यहाँ मधुमास !

अश्रु ही की हाट बन आती करुण बरसात !

जीवन विरह का जलजात !


काल इसको दे गया पल-आँसुओं का हार;

पूछता इसकी कथा निश्वास ही में वात !

जीवन विरह का जलजात !


जो तुम्हारा हो सके लीलाकमल यह आज,

खिल उठे निरुपम तुम्हारी देख स्मित का प्रात !

जीवन विरह का जलजात !


(नीरजा से)

 







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विरह की घड़ियाँ हुई अलि

महादेवी वर्मा




विरह की घड़ियाँ हुई अलि मधुर मधु की यामिनी सी !


दूर के नक्षत्र लगते पुतलियों से पास प्रियतर,

शून्य नभ की मूकता में गूँजता आह्वान का स्वर,

आज है निःसीमता

लघु प्राण की अनुगामिनी सी !


एक स्पंदन कह रहा है अकथ युग युग की कहानी;

हो गया स्मित से मधुर इन लोचनों का क्षार पानी;

मूक प्रतिनिश्वास है

नव स्वप्न की अनुरागिनी सी !


सजनि ! अंतर्हित हुआ है ‘आज में धुँधला विफल ‘कल’

हो गया है मिलन एकाकार मेरे विरह में मिल;

राह मेरी देखतीं

स्मृति अब निराश पुजारिनी सी !


फैलते हैं सांध्य नभ में भाव ही मेरे रँगीले;

तिमिर की दीपावली हैं रोम मेरे पुलक-गीले;

बंदिनी बनकर हुई

मैं बंधनों की स्वामिनी सी !


(सांध्य गीत से)







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शृंगार कर ले री सजनि !

महादेवी वर्मा




शृंगार कर ले री सजनि !

नव क्षीरनिधि की उर्म्मियों से

रजत झीने मेघ सित,

मृदु फेनमय मुक्तावली से

तैरते तारक अमित;

सखि ! सिहर उठती रश्मियों का

पहिन अवगुंठन अवनि !


हिम-स्नात कलियों पर जलाए

जुगनुओं ने दीप से;

ले मधु-पराग समीर ने

वनपथ दिए हैं लीप से;

गाती कमल के कक्ष में

मधु-गीत मतवाली अलिनि !


तू स्वप्न-सुमनों से सजा तन

विरह का उपहार ले;

अगणित युगों की प्यास का

अब नयन अंजन सार ले?

अलि ! मिलन-गीत बने मनोरम

नूपुरों की मदिर ध्वनि!


इस पुलिन के अणु आज हैं

भूली हुई पहचान से;

आते चले जाते निमिष

मनुहार से, वरदान से;

अज्ञात पथ, है दूर प्रिय चल

भीगती मधु की रजनि !

शृंगार कर ले री सजनि ?


(नीरजा से)








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शून्य मंदिर में बनूँगी

महादेवी वर्मा




शून्य मंदिर में बनूँगी आज मैं प्रतिमा तुम्हारी !


अर्चना हों शूल भोले,

क्षार दृग-जल अर्घ्य हो ले,

आज करुणा-स्नात उजला

दुख  हो  मेरा  पुजारी !


नूपुरों का मूक छूना,

सरद कर दे विश्व सूना,

यह अगम आकाश उतरे

कंपनों का हो भिखारी !


लोल तारक भी अचंचल,

चल न मेरी एक कुंतल,

अचल रोमों में समाई

मुग्ध हो गति आज सारी !


राग मद की दूर लाली,

साध भी इसमें न पाली,

शून्य चितवन में बसेगी

मूक हो गाथा तुम्हारी !


(सांध्य गीत से)

 








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शून्यता में निद्रा की बन

महादेवी वर्मा




शून्यता में निद्रा की बन,

उमड़ आते ज्यों स्वप्निल घन;

पूर्णता कलिका की सुकुमार,

छलक मधु में होती साकार;


हुआ त्यों सूनेपन का भान,

प्रथम किसके उर में अम्लान ?

और किस शिल्पी ने अनजान,

विश्व प्रतिमा कर दी निर्माण ?


काल सीमा के संगम पर,

मोम सी पीड़ा उज्ज्वल कर।

उसे पहनाई अवगुंठन,

हास औ’ रोदन से बुन-बुन !


कनक से दिन मोती सी रात,

सुनहली साँझ गुलाबी प्रात;

मिटाता रँगता बारंबार,

कौन जग का यह चित्राधार ?


शून्य नभ में तम का चुंबन,

जला देता असंख्य उडुगण;

बुझा क्यों उनको जाती मूक,

भोर ही उजियाले की फूँक?


रजतप्याले में निद्रा ढाल,

बाँट देती जो रजनी बाल;

उसे कलियों में आँसू घोल,

चुकाना पड़ता किसको मोल ?


पोंछती जब हौले से वात,

इधर निशि के आँसू अवदात;

उधर क्यों हँसता दिन का बाल,

अरुणिमा से रंजित कर गाल ?


कली पर अलि का पहला गान,

थिरकता जब बन मृदु मुस्कान,

विफल सपनों के हार पिघल,

ढुलकते क्यों रहते प्रतिपल ?


गुलालों से रवि का पथ लीप,

जला पश्चिम में पहला दीप,

विहँसती संध्या भरी सुहाग,

दृगों से झरता स्वर्ण पराग;


उसे तम की बढ़ एक झकोर,

उड़ा कर ले जाती किस ओर ?

अथक सुषमा का सृजन विनाश,

यही क्या जग का श्वासोच्छवास ?


किसी की व्यथासिक्त चितवन,

जगाती कण कण में स्पंदन;

गूँथ उनकी साँसों के गीत,

कौन रचता विराट संगीत ?


प्रलय बनकर किसका अनुताप,

डुबा जाता उसको चुपचाप,

आदि में छिप जाता अवसान,

अंत में बनता नव्य विधान;


सूत्र ही है क्या यह संसार,

गुँथे जिसमें सुख-दुख जयहार ?


(रश्मि से)

 








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शलभ मैं शापमय वर हूँ!

महादेवी वर्मा




शलभ मैं शापमय वर हूँ !

किसी का दीप निष्ठुर हूँ !


ताज है जलती शिखा

चिनगारियाँ शृंगारमाला;

ज्वाल अक्षय कोष सी

अंगार मेरी रंगशाला;

नाश में जीवित किसी की साध सुंदर हूँ !


नयन में रह किंतु जलती

पुतलियाँ आगार होंगी;

प्राण मैं कैसे बसाऊँ

कठिन अग्नि-समाधि होगी;

फिर कहाँ पालूँ तुझे मैं मृत्यु-मंदिर हूँ!


हो रहे झर कर दृगों से

अग्नि-कण भी क्षार शीतल;

पिघलते उर से निकल

निश्वास बनते धूम श्यामल;

एक ज्वाला के बिना मैं राख का घर हूँ !


कौन आया था न जाना

स्वप्न में मुझको जगाने;

याद में उन अँगुलियों के

है मुझे पर युग बिताने;

रात के उर में दिवस की चाह का शर हूँ !


शून्य मेरा जन्म था

अवसान है मूझको सबेरा;

प्राण आकुल के लिए

संगी मिला केवल अँधेरा;

मिलन का मत नाम ले मैं विरह में चिर हूँ !


(सांध्य गीत से)






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