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Bhakt Kabir Ji
भक्त कबीर जी
भक्त कबीर जी (१३੯८-१५१८) संत कबीर के नाम के साथ भी प्रसिद्ध हैं। वह रहस्यवादी कवि थे और उन का भक्ति आंदोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन की वाणी सिक्खों के धार्मिक ग्रंथ (गुरू ग्रंथ साहब) में भी दर्ज की गई है। उन के पैरोकारों को कबीर शिष्य के तौर पर जाना जाता है। उन की प्रमुख रचनायें बीजक, साखी ग्रंथ, कबीर ग्रंथावली और अनुराग सागर हैं। वह निडर और बहादुर समाज सुधारक थे। उन्होंने अपनी रचना आम लोगों की बोली में रची।
भक्त कबीर जी की रचनाएँ
शब्दसलोकदोहेपदसंपूर्ण वाणी-गुरू ग्रंथ साहिब जी
भक्त कबीर जी के शब्द, पद
अगम द्रुगम गड़ि रचिओ बासअनभउ किनै न देखिआ बैरागीअड़ेअमलु सिरानो लेखा देनाअलहु एकु मसीति बसतु है अवरु मुलखु किसु केराअवर मूए किआ सोगु करीजैअवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदेअंतरि मैलु जे तीरथ नावैआकासि गगनु पातालि गगनु है चहु दिसि गगनु रहाइलेआपे पावकु आपे पवनाइन्हि माइआ जगदीस गुसाई तुम्हरे चरन बिसारेइसु तन मन मधे मदन चोरइहु धनु मेरे हरि को नाउइंद्र लोक सिव लोकहि जैबोउदक समुंद सलल की साखिआ नदी तरंग समावहिगेउलटि जाति कुल दोऊ बिसारीउसतति निंदा दोऊ बिबरजित तजहु मानु अभिमानाऐसो इहु संसारु पेखना रहनु न कोऊ पईहै रेओइ जु दीसहि अम्बरि तारेकाहू दीन्हे पाट पट्मबर काहू पलघ निवाराकाम क्रोध त्रिसना के लीने गति नही एकै जानीकहा नर गरबसि थोरी बातकहा सुआन कउ सिम्रिति सुनाएकरवतु भला न करवट तेरीकउनु को पूतु पिता को का कोकिआ जपु किआ तपु किआ ब्रत पूजाकिआ पड़ीऐ किआ गुनीऐकोरी को काहू मरमु न जानांकवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआकिउ लीजै गढु बंका भाईकोटि सूर जा कै परगासकूटनु सोइ जु मन कउ कूटैकोऊ हरि समानि नही राजाकाइआ कलालनि लाहनि मेलउ गुर का सबदु गुड़ु कीनु रेकिनही बनजिआ कांसी तांबा किनही लउग सुपारीखसमु मरै तउ नारि न रोवैगगन नगरि इक बूंद न बरखै नादु कहा जु समानागज साढे तै तै धोतीआगुड़ु करि गिआनु धिआनु करि महूआ भउ भाठी मन धारागुर सेवा ते भगति कमाईग्रिहि सोभा जा कै रे नाहिगंगा कै संगि सलिता बिगरीगंग गुसाइनि गहिर ग्मभीरगरभ वास महि कुलु नही जातीग्रिहु तजि बन खंड जाईऐ चुनि खाईऐ कंदाचारि दिन अपनी नउबति चले बजाइचारि पाव दुइ सिंग गुंग मुख तब कैसे गुन गईहैचरन कमल जा कै रिदै बसहि सो जनु किउ डोलै देवचंदु सूरजु दुइ जोति सरूपुजउ तुम्ह मो कउ दूरि करत हउ तउ तुम मुकति बतावहुजनम मरन का भ्रमु गइआ गोबिद लिव लागीजैसे मंदर महि बलहर ना ठाहरैजिह सिमरनि होइ मुकति दुआरुजल महि मीन माइआ के बेधेजोइ खसमु है जाइआजब जरीऐ तब होइ भसम तनु रहै किरम दल खाईजब लगु मेरी मेरी करैजब लगु तेलु दीवे मुखि बातीजा के निगम दूध के ठाटाजलि है सूतकु थलि है सूतकुजननी जानत सुतु बडा होतु हैजीवत पितर न मानै कोऊजिह बाझु न जीआ जाईजिह कुलि पूतु न गिआन बीचारीजिह मुख बेदु गाइत्री निकसै सो किउ ब्रहमनु बिसरु करैजिह सिरि रचि रचि बाधत पागजिनि गड़ कोट कीए कंचन के छोडि गइआ सो रावनुजो जनु भाउ भगति कछु जानै ता कउ अचरजु काहोजो जन लेहि खसम का नाउझगरा एकु निबेरहु रामटेढी पाग टेढे चले लागे बीरे खानडंडा मुंद्रा खिंथा आधारीतरवरु एकु अनंत डार साखा पुहप पत्र रस भरीआतूं मेरो मेरु परबतु सुआमी ओट गही मै तेरीतूटे तागे निखुटी पानिथाके नैन स्रवन सुनि थाके थाकी सुंदरि काइआदीनु बिसारिओ रे दिवाने दीनु बिसारिओ रेदेही गावा जीउ धर महतउ बसहि पंच किरसानादेइ मुहार लगामु पहिरावउदेखौ भाई ग्यान की आई आंधीदिन ते पहर पहर ते घरीआं आव घटै तनु छीजैदुइ दुइ लोचन पेखादरमादे ठाढे दरबारिदुनीआ हुसीआर बेदार जागत मुसीअत हउ रे भाईधंनु गुपाल धंनु गुरदेवनाइकु एकु बनजारे पाचनांगे आवनु नांगे जानानगन फिरत जौ पाईऐ जोगुना इहु मानसु ना इहु देउनरू मरै नरु कामि न आवैनिंदउ निंदउ मो कउ लोगु निंदउनिरधन आदरु कोई न देइनित उठि कोरी गागरि आनै लीपत जीउ गइओपाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउपडीआ कवन कुमति तुम लागेपंडित जन माते पड़्हि पुरानप्रहलाद पठाए पड़न सालबंधचि बंधनु पाइआबहु परपंच करि पर धनु लिआवैबनहि बसे किउ पाईऐ जउ लउ मनहु न तजहि बिकारबारह बरस बालपन बीतेबेद कतेब इफतरा भाई दिल का फिकरु न जाइबेद कतेब कहहु मत झूठे झूठा जो न बिचारैबेद की पुत्री सिम्रिति भाईबेद पुरान सभै मत सुनि कै करी करम की आसाबिदिआ न परउ बादु नही जानउबुत पूजि पूजि हिंदू मूए तुरक मूए सिरु नाईभुजा बांधि भिला करि डारिओभूखे भगति न कीजैमाथे तिलकु हथि माला बानांमैला ब्रहमा मैला इंदुमनु करि मका किबला करि देहीमन रे छाडहु भरमु प्रगट होइमाता जूठी पिता भी जूठा जूठे ही फल लागेमउली धरती मउलिआ अकासुमुंद्रा मोनि दइआ करि झोली पत्र का करहु बीचारु रेमुसि मुसि रोवै कबीर की माईराजन कउनु तुमारै आवैराजास्रम मिति नही जानी तेरीराम जपउ जीअ ऐसे ऐसेराम सिमरि राम सिमरि राम सिमरि भाईरे जीअ निलज लाज तोहि नाहीरे मन तेरो कोइ नही खिंचि लेइ जिनि भारुराखि लेहु हम ते बिगरीरिधि सिधि जा कउ फुरी तब काहू सिउ किआ काजरामु सिमरु पछुताहिगा मनरी कलवारि गवारि मूढ मति उलटो पवनु फिरावउरोजा धरै मनावै अलहु सुआदति जीअ संघारैलख चउरासीह जीअ जोनि महि भ्रमत नंदु बहु थाको रेलंका सा कोटु समुंद सी खाईसभु कोई चलन कहत है ऊहांसनक सनंद महेस समानांसंतु मिलै किछु सुनीऐ कहीऐसंतहु मन पवनै सुखु बनिआसरपनी ते ऊपरि नही बलीआसो मुलां जो मन सिउ लरैसुंन संधिआ तेरी देव देवाकर अधपति आदि समाईसुरग बासु न बाछीऐ डरीऐ न नरकि निवासुसुतु अपराध करत है जेतेसरीर सरोवर भीतरे आछै कमल अनूपसंता मानउ दूता डानउ इह कुटवारी मेरीसिव की पुरी बसै बुधि सारुसतरि सैइ सलार है जा केसुरह की जैसी तेरी चालहज हमारी गोमती तीरहम घरि सूतु तनहि नित ताना कंठि जनेऊ तुमारेहम मसकीन खुदाई बंदे तुम राजसु मनि भावैहरि बिनु कउनु सहाई मन काहरि जसु सुनहि न हरि गुन गावहिहिंदू तुरक कहा ते आएह्रिदै कपटु मुख गिआनी
Bhakt Kabir Ji Hindi Poetry
Shabd/ShabadShlok/SalokDohePadBani-Guru Granth Sahib Ji
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Hindi Kavita
हिंदी कविता
Shabad Bhakt Kabir Ji in Hindi
शब्द भक्त कबीर जी
भक्त कबीर जी के शब्द, पद
1. जननी जानत सुतु बडा होतु है
जननी जानत सुतु बडा होतु है इतना कु न जानै जि दिन दिन अवध घटतु है ॥
मोर मोर करि अधिक लाडु धरि पेखत ही जमराउ हसै ॥१॥
ऐसा तैं जगु भरमि लाइआ ॥
कैसे बूझै जब मोहिआ है माइआ ॥१॥ रहाउ ॥
कहत कबीर छोडि बिखिआ रस इतु संगति निहचउ मरणा ॥
रमईआ जपहु प्राणी अनत जीवण बाणी इन बिधि भव सागरु तरणा ॥२॥
जां तिसु भावै ता लागै भाउ ॥
भरमु भुलावा विचहु जाइ ॥
उपजै सहजु गिआन मति जागै ॥
गुर प्रसादि अंतरि लिव लागै ॥३॥
इतु संगति नाही मरणा ॥
हुकमु पछाणि ता खसमै मिलणा ॥१॥ रहाउ दूजा ॥91॥
2. नगन फिरत जौ पाईऐ जोगु
नगन फिरत जौ पाईऐ जोगु ॥
बन का मिरगु मुकति सभु होगु ॥१॥
किआ नागे किआ बाधे चाम ॥
जब नही चीनसि आतम राम ॥१॥ रहाउ ॥
मूड मुंडाए जौ सिधि पाई ॥
मुकती भेड न गईआ काई ॥२॥
बिंदु राखि जौ तरीऐ भाई ॥
खुसरै किउ न परम गति पाई ॥३॥
कहु कबीर सुनहु नर भाई ॥
राम नाम बिनु किनि गति पाई ॥४॥४॥324॥
3. किआ जपु किआ तपु किआ ब्रत पूजा
किआ जपु किआ तपु किआ ब्रत पूजा ॥
जा कै रिदै भाउ है दूजा ॥१॥
रे जन मनु माधउ सिउ लाईऐ ॥
चतुराई न चतुरभुजु पाईऐ ॥ रहाउ ॥
परहरु लोभु अरु लोकाचारु ॥
परहरु कामु क्रोधु अहंकारु ॥२॥
करम करत बधे अहमेव ॥
मिलि पाथर की करही सेव ॥३॥
कहु कबीर भगति करि पाइआ ॥
भोले भाइ मिले रघुराइआ ॥४॥६॥324॥
4. गरभ वास महि कुलु नही जाती
गरभ वास महि कुलु नही जाती ॥
ब्रहम बिंदु ते सभ उतपाती ॥१॥
कहु रे पंडित बामन कब के होए ॥
बामन कहि कहि जनमु मत खोए ॥१॥ रहाउ ॥
जौ तूं ब्राहमणु ब्रहमणी जाइआ ॥
तउ आन बाट काहे नही आइआ ॥२॥
तुम कत ब्राहमण हम कत सूद ॥
हम कत लोहू तुम कत दूध ॥३॥
कहु कबीर जो ब्रहमु बीचारै ॥
सो ब्राहमणु कहीअतु है हमारै ॥४॥७॥324॥
5. अवर मूए किआ सोगु करीजै
अवर मूए किआ सोगु करीजै ॥
तउ कीजै जउ आपन जीजै ॥१॥
मै न मरउ मरिबो संसारा ॥
अब मोहि मिलिओ है जीआवनहारा ॥१॥ रहाउ ॥
इआ देही परमल महकंदा ॥
ता सुख बिसरे परमानंदा ॥२॥
कूअटा एकु पंच पनिहारी ॥
टूटी लाजु भरै मति हारी ॥३॥
कहु कबीर इक बुधि बीचारी ॥
ना ओहु कूअटा ना पनिहारी ॥४॥१२॥325॥
6. जिह कुलि पूतु न गिआन बीचारी
जिह कुलि पूतु न गिआन बीचारी ॥
बिधवा कस न भई महतारी ॥१॥
जिह नर राम भगति नहि साधी ॥
जनमत कस न मुओ अपराधी ॥१॥ रहाउ ॥
मुचु मुचु गरभ गए कीन बचिआ ॥
बुडभुज रूप जीवे जग मझिआ ॥२॥
कहु कबीर जैसे सुंदर सरूप ॥
नाम बिना जैसे कुबज कुरूप ॥३॥२५॥328॥
7. जो जन लेहि खसम का नाउ
जो जन लेहि खसम का नाउ ॥
तिन कै सद बलिहारै जाउ ॥१॥
सो निरमलु निरमल हरि गुन गावै ॥
सो भाई मेरै मनि भावै ॥१॥ रहाउ ॥
जिह घट रामु रहिआ भरपूरि ॥
तिन की पग पंकज हम धूरि ॥२॥
जाति जुलाहा मति का धीरु ॥
सहजि सहजि गुण रमै कबीरु ॥३॥२६॥328॥
8. ओइ जु दीसहि अम्बरि तारे
ओइ जु दीसहि अम्बरि तारे ॥
किनि ओइ चीते चीतनहारे ॥१॥
कहु रे पंडित अम्बरु का सिउ लागा ॥
बूझै बूझनहारु सभागा ॥१॥ रहाउ ॥
सूरज चंदु करहि उजीआरा ॥
सभ महि पसरिआ ब्रहम पसारा ॥२॥
कहु कबीर जानैगा सोइ ॥
हिरदै रामु मुखि रामै होइ ॥३॥२९॥329॥
9. बेद की पुत्री सिम्रिति भाई
बेद की पुत्री सिम्रिति भाई ॥
सांकल जेवरी लै है आई ॥१॥
आपन नगरु आप ते बाधिआ ॥
मोह कै फाधि काल सरु सांधिआ ॥१॥ रहाउ ॥
कटी न कटै तूटि नह जाई ॥
सा सापनि होइ जग कउ खाई ॥२॥
हम देखत जिनि सभु जगु लूटिआ ॥
कहु कबीर मै राम कहि छूटिआ ॥३॥३०॥329॥
10. देइ मुहार लगामु पहिरावउ
देइ मुहार लगामु पहिरावउ ॥
सगल त जीनु गगन दउरावउ ॥१॥
अपनै बीचारि असवारी कीजै ॥
सहज कै पावड़ै पगु धरि लीजै ॥१॥ रहाउ ॥
चलु रे बैकुंठ तुझहि ले तारउ ॥
हिचहि त प्रेम कै चाबुक मारउ ॥२॥
कहत कबीर भले असवारा ॥
बेद कतेब ते रहहि निरारा ॥३॥३१॥329॥
11. आपे पावकु आपे पवना
आपे पावकु आपे पवना ॥
जारै खसमु त राखै कवना ॥१॥
राम जपत तनु जरि की न जाइ ॥
राम नाम चितु रहिआ समाइ ॥१॥ रहाउ ॥
का को जरै काहि होइ हानि ॥
नट वट खेलै सारिगपानि ॥२॥
कहु कबीर अखर दुइ भाखि ॥
होइगा खसमु त लेइगा राखि ॥३॥३३॥329॥
12. जिह सिरि रचि रचि बाधत पाग
जिह सिरि रचि रचि बाधत पाग ॥
सो सिरु चुंच सवारहि काग ॥१॥
इसु तन धन को किआ गरबईआ ॥
राम नामु काहे न द्रिड़्हीआ ॥१॥ रहाउ ॥
कहत कबीर सुनहु मन मेरे ॥
इही हवाल होहिगे तेरे ॥२॥३५॥330॥
13. रे जीअ निलज लाज तोहि नाही
रे जीअ निलज लाज तोहि नाही ॥
हरि तजि कत काहू के जांही ॥१॥ रहाउ ॥
जा को ठाकुरु ऊचा होई ॥
सो जनु पर घर जात न सोही ॥१॥
सो साहिबु रहिआ भरपूरि ॥
सदा संगि नाही हरि दूरि ॥२॥
कवला चरन सरन है जा के ॥
कहु जन का नाही घर ता के ॥३॥
सभु कोऊ कहै जासु की बाता ॥
सो सम्रथु निज पति है दाता ॥४॥
कहै कबीरु पूरन जग सोई ॥
जा के हिरदै अवरु न होई ॥५॥३८॥330॥
14. कउनु को पूतु पिता को का को
कउनु को पूतु पिता को का को ॥
कउनु मरै को देइ संतापो ॥१॥
हरि ठग जग कउ ठगउरी लाई ॥
हरि के बिओग कैसे जीअउ मेरी माई ॥१॥ रहाउ ॥
कउन को पुरखु कउन की नारी ॥
इआ तत लेहु सरीर बिचारी ॥२॥
कहि कबीर ठग सिउ मनु मानिआ ॥
गई ठगउरी ठगु पहिचानिआ ॥३॥३९॥330॥
15. जलि है सूतकु थलि है सूतकु सूतक ओपति होई
जलि है सूतकु थलि है सूतकु सूतक ओपति होई ॥
जनमे सूतकु मूए फुनि सूतकु सूतक परज बिगोई ॥१॥
कहु रे पंडीआ कउन पवीता ॥
ऐसा गिआनु जपहु मेरे मीता ॥१॥ रहाउ ॥
नैनहु सूतकु बैनहु सूतकु सूतकु स्रवनी होई ॥
ऊठत बैठत सूतकु लागै सूतकु परै रसोई ॥२॥
फासन की बिधि सभु कोऊ जानै छूटन की इकु कोई ॥
कहि कबीर रामु रिदै बिचारै सूतकु तिनै न होई ॥३॥४१॥331॥
16. झगरा एकु निबेरहु राम
झगरा एकु निबेरहु राम ॥
जउ तुम अपने जन सौ कामु ॥१॥ रहाउ ॥
इहु मनु बडा कि जा सउ मनु मानिआ ॥
रामु बडा कै रामहि जानिआ ॥१॥
ब्रहमा बडा कि जासु उपाइआ ॥
बेदु बडा कि जहां ते आइआ ॥२॥
कहि कबीर हउ भइआ उदासु ॥
तीरथु बडा कि हरि का दासु ॥३॥४२॥331॥
17. देखौ भाई ग्यान की आई आंधी
देखौ भाई ग्यान की आई आंधी ॥
सभै उडानी भ्रम की टाटी रहै न माइआ बांधी ॥१॥ रहाउ ॥
दुचिते की दुइ थूनि गिरानी मोह बलेडा टूटा ॥
तिसना छानि परी धर ऊपरि दुरमति भांडा फूटा ॥१॥
आंधी पाछे जो जलु बरखै तिहि तेरा जनु भीनां ॥
कहि कबीर मनि भइआ प्रगासा उदै भानु जब चीना ॥२॥४३॥331॥
18. हरि जसु सुनहि न हरि गुन गावहि
हरि जसु सुनहि न हरि गुन गावहि ॥
बातन ही असमानु गिरावहि ॥१॥
ऐसे लोगन सिउ किआ कहीऐ ॥
जो प्रभ कीए भगति ते बाहज तिन ते सदा डराने रहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥
आपि न देहि चुरू भरि पानी ॥
तिह निंदहि जिह गंगा आनी ॥२॥
बैठत उठत कुटिलता चालहि ॥
आपु गए अउरन हू घालहि ॥३॥
छाडि कुचरचा आन न जानहि ॥
ब्रहमा हू को कहिओ न मानहि ॥४॥
आपु गए अउरन हू खोवहि ॥
आगि लगाइ मंदर मै सोवहि ॥५॥
अवरन हसत आप हहि कांने ॥
तिन कउ देखि कबीर लजाने ॥६॥१॥४४॥332॥
19. जीवत पितर न मानै कोऊ मूएं सिराध कराही
जीवत पितर न मानै कोऊ मूएं सिराध कराही ॥
पितर भी बपुरे कहु किउ पावहि कऊआ कूकर खाही ॥१॥
मो कउ कुसलु बतावहु कोई ॥
कुसलु कुसलु करते जगु बिनसै कुसलु भी कैसे होई ॥१॥ रहाउ ॥
माटी के करि देवी देवा तिसु आगै जीउ देही ॥
ऐसे पितर तुमारे कहीअहि आपन कहिआ न लेही ॥२॥
सरजीउ काटहि निरजीउ पूजहि अंत काल कउ भारी ॥
राम नाम की गति नही जानी भै डूबे संसारी ॥३॥
देवी देवा पूजहि डोलहि पारब्रहमु नही जाना ॥
कहत कबीर अकुलु नही चेतिआ बिखिआ सिउ लपटाना ॥४॥१॥४५॥332॥
20. राम जपउ जीअ ऐसे ऐसे
राम जपउ जीअ ऐसे ऐसे ॥
ध्रू प्रहिलाद जपिओ हरि जैसे ॥१॥
दीन दइआल भरोसे तेरे ॥
सभु परवारु चड़ाइआ बेड़े ॥१॥ रहाउ ॥
जा तिसु भावै ता हुकमु मनावै ॥
इस बेड़े कउ पारि लघावै ॥२॥
गुर परसादि ऐसी बुधि समानी ॥
चूकि गई फिरि आवन जानी ॥३॥
कहु कबीर भजु सारिगपानी ॥
उरवारि पारि सभ एको दानी ॥४॥२॥१०॥६१॥337॥
21. सुरग बासु न बाछीऐ डरीऐ न नरकि निवासु
सुरग बासु न बाछीऐ डरीऐ न नरकि निवासु ॥
होना है सो होई है मनहि न कीजै आस ॥१॥
रमईआ गुन गाईऐ ॥
जा ते पाईऐ परम निधानु ॥१॥ रहाउ ॥
किआ जपु किआ तपु संजमो किआ बरतु किआ इसनानु ॥
जब लगु जुगति न जानीऐ भाउ भगति भगवान ॥२॥
स्मपै देखि न हरखीऐ बिपति देखि न रोइ ॥
जिउ स्मपै तिउ बिपति है बिध ने रचिआ सो होइ ॥३॥
कहि कबीर अब जानिआ संतन रिदै मझारि ॥
सेवक सो सेवा भले जिह घट बसै मुरारि ॥४॥१॥१२॥६३॥337॥
22. रे मन तेरो कोइ नही खिंचि लेइ जिनि भारु
रे मन तेरो कोइ नही खिंचि लेइ जिनि भारु ॥
बिरख बसेरो पंखि को तैसो इहु संसारु ॥१॥
राम रसु पीआ रे ॥
जिह रस बिसरि गए रस अउर ॥१॥ रहाउ ॥
अउर मुए किआ रोईऐ जउ आपा थिरु न रहाइ ॥
जो उपजै सो बिनसि है दुखु करि रोवै बलाइ ॥२॥
जह की उपजी तह रची पीवत मरदन लाग ॥
कहि कबीर चिति चेतिआ राम सिमरि बैराग ॥३॥२॥१३॥६४॥337॥
23. मन रे छाडहु भरमु प्रगट होइ नाचहु इआ माइआ के डांडे
मन रे छाडहु भरमु प्रगट होइ नाचहु इआ माइआ के डांडे ॥
सूरु कि सनमुख रन ते डरपै सती कि सांचै भांडे ॥१॥
डगमग छाडि रे मन बउरा ॥
अब तउ जरे मरे सिधि पाईऐ लीनो हाथि संधउरा ॥१॥ रहाउ ॥
काम क्रोध माइआ के लीने इआ बिधि जगतु बिगूता ॥
कहि कबीर राजा राम न छोडउ सगल ऊच ते ऊचा ॥२॥२॥१७॥६८॥338॥
24. लख चउरासीह जीअ जोनि महि भ्रमत नंदु बहु थाको रे
लख चउरासीह जीअ जोनि महि भ्रमत नंदु बहु थाको रे ॥
भगति हेति अवतारु लीओ है भागु बडो बपुरा को रे ॥१॥
तुम्ह जु कहत हउ नंद को नंदनु नंद सु नंदनु का को रे ॥
धरनि अकासु दसो दिस नाही तब इहु नंदु कहा थो रे ॥१॥ रहाउ ॥
संकटि नही परै जोनि नही आवै नामु निरंजन जा को रे ॥
कबीर को सुआमी ऐसो ठाकुरु जा कै माई न बापो रे ॥२॥१९॥७०॥338॥
25. निंदउ निंदउ मो कउ लोगु निंदउ
निंदउ निंदउ मो कउ लोगु निंदउ ॥
निंदा जन कउ खरी पिआरी ॥
निंदा बापु निंदा महतारी ॥१॥ रहाउ ॥
निंदा होइ त बैकुंठि जाईऐ ॥
नामु पदारथु मनहि बसाईऐ ॥
रिदै सुध जउ निंदा होइ ॥
हमरे कपरे निंदकु धोइ ॥१॥
निंदा करै सु हमरा मीतु ॥
निंदक माहि हमारा चीतु ॥
निंदकु सो जो निंदा होरै ॥
हमरा जीवनु निंदकु लोरै ॥२॥
निंदा हमरी प्रेम पिआरु ॥
निंदा हमरा करै उधारु ॥
जन कबीर कउ निंदा सारु ॥
निंदकु डूबा हम उतरे पारि ॥३॥२०॥७१॥339॥
27. हिंदू तुरक कहा ते आए किनि एह राह चलाई
हिंदू तुरक कहा ते आए किनि एह राह चलाई ॥
दिल महि सोचि बिचारि कवादे भिसत दोजक किनि पाई ॥१॥
काजी तै कवन कतेब बखानी ॥
पड़्हत गुनत ऐसे सभ मारे किनहूं खबरि न जानी ॥१॥ रहाउ ॥
सकति सनेहु करि सुंनति करीऐ मै न बदउगा भाई ॥
जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा आपन ही कटि जाई ॥२॥
सुंनति कीए तुरकु जे होइगा अउरत का किआ करीऐ ॥
अरध सरीरी नारि न छोडै ता ते हिंदू ही रहीऐ ॥३॥
छाडि कतेब रामु भजु बउरे जुलम करत है भारी ॥
कबीरै पकरी टेक राम की तुरक रहे पचिहारी ॥४॥८॥477॥
28. जब लगु तेलु दीवे मुखि बाती तब सूझै सभु कोई ॥
जब लगु तेलु दीवे मुखि बाती तब सूझै सभु कोई ॥
तेल जले बाती ठहरानी सूंना मंदरु होई ॥१॥
रे बउरे तुहि घरी न राखै कोई ॥
तूं राम नामु जपि सोई ॥१॥ रहाउ ॥
का की मात पिता कहु का को कवन पुरख की जोई ॥
घट फूटे कोऊ बात न पूछै काढहु काढहु होई ॥२॥
देहुरी बैठी माता रोवै खटीआ ले गए भाई ॥
लट छिटकाए तिरीआ रोवै हंसु इकेला जाई ॥३॥
कहत कबीर सुनहु रे संतहु भै सागर कै ताई ॥
इसु बंदे सिरि जुलमु होत है जमु नही हटै गुसाई ॥४॥९॥478॥
29. सुतु अपराध करत है जेते
सुतु अपराध करत है जेते ॥
जननी चीति न राखसि तेते ॥१॥
रामईआ हउ बारिकु तेरा ॥
काहे न खंडसि अवगनु मेरा ॥१॥ रहाउ ॥
जे अति क्रोप करे करि धाइआ ॥
ता भी चीति न राखसि माइआ ॥२॥
चिंत भवनि मनु परिओ हमारा ॥
नाम बिना कैसे उतरसि पारा ॥३॥
देहि बिमल मति सदा सरीरा ॥
सहजि सहजि गुन रवै कबीरा ॥४॥३॥१२॥478॥
30. हज हमारी गोमती तीर
हज हमारी गोमती तीर ॥
जहा बसहि पीत्मबर पीर ॥१॥
वाहु वाहु किआ खूबु गावता है ॥
हरि का नामु मेरै मनि भावता है ॥१॥ रहाउ ॥
नारद सारद करहि खवासी ॥
पासि बैठी बीबी कवला दासी ॥२॥
कंठे माला जिहवा रामु ॥
सहंस नामु लै लै करउ सलामु ॥३॥
कहत कबीर राम गुन गावउ ॥
हिंदू तुरक दोऊ समझावउ ॥४॥४॥१३॥478॥
31. पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ
पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ ॥
जिसु पाहन कउ पाती तोरै सो पाहन निरजीउ ॥१॥
भूली मालनी है एउ ॥
सतिगुरु जागता है देउ ॥१॥ रहाउ ॥
ब्रहमु पाती बिसनु डारी फूल संकरदेउ ॥
तीनि देव प्रतखि तोरहि करहि किस की सेउ ॥२॥
पाखान गढि कै मूरति कीन्ही दे कै छाती पाउ ॥
जे एह मूरति साची है तउ गड़्हणहारे खाउ ॥३॥
भातु पहिति अरु लापसी करकरा कासारु ॥
भोगनहारे भोगिआ इसु मूरति के मुख छारु ॥४॥
मालिनि भूली जगु भुलाना हम भुलाने नाहि ॥
कहु कबीर हम राम राखे क्रिपा करि हरि राइ ॥५॥१॥१४॥479॥
32. बारह बरस बालपन बीते बीस बरस कछु तपु न कीओ
बारह बरस बालपन बीते बीस बरस कछु तपु न कीओ ॥
तीस बरस कछु देव न पूजा फिरि पछुताना बिरधि भइओ ॥१॥
मेरी मेरी करते जनमु गइओ ॥
साइरु सोखि भुजं बलइओ ॥१॥ रहाउ ॥
सूके सरवरि पालि बंधावै लूणै खेति हथ वारि करै ॥
आइओ चोरु तुरंतह ले गइओ मेरी राखत मुगधु फिरै ॥२॥
चरन सीसु कर क्मपन लागे नैनी नीरु असार बहै ॥
जिहवा बचनु सुधु नही निकसै तब रे धरम की आस करै ॥३॥
हरि जीउ क्रिपा करै लिव लावै लाहा हरि हरि नामु लीओ ॥
गुर परसादी हरि धनु पाइओ अंते चलदिआ नालि चलिओ ॥४॥
कहत कबीर सुनहु रे संतहु अनु धनु कछूऐ लै न गइओ ॥
आई तलब गोपाल राइ की माइआ मंदर छोडि चलिओ ॥५॥२॥१५॥479॥
33. काहू दीन्हे पाट पट्मबर काहू पलघ निवारा
काहू दीन्हे पाट पट्मबर काहू पलघ निवारा ॥
काहू गरी गोदरी नाही काहू खान परारा ॥१॥
अहिरख वादु न कीजै रे मन ॥
सुक्रितु करि करि लीजै रे मन ॥१॥ रहाउ ॥
कुम्हारै एक जु माटी गूंधी बहु बिधि बानी लाई ॥
काहू महि मोती मुकताहल काहू बिआधि लगाई ॥२॥
सूमहि धनु राखन कउ दीआ मुगधु कहै धनु मेरा ॥
जम का डंडु मूंड महि लागै खिन महि करै निबेरा ॥३॥
हरि जनु ऊतमु भगतु सदावै आगिआ मनि सुखु पाई ॥
जो तिसु भावै सति करि मानै भाणा मंनि वसाई ॥४॥
कहै कबीरु सुनहु रे संतहु मेरी मेरी झूठी ॥
चिरगट फारि चटारा लै गइओ तरी तागरी छूटी ॥५॥३॥१६॥479॥
34. हम मसकीन खुदाई बंदे तुम राजसु मनि भावै
हम मसकीन खुदाई बंदे तुम राजसु मनि भावै ॥
अलह अवलि दीन को साहिबु जोरु नही फुरमावै ॥१॥
काजी बोलिआ बनि नही आवै ॥१॥ रहाउ ॥
रोजा धरै निवाज गुजारै कलमा भिसति न होई ॥
सतरि काबा घट ही भीतरि जे करि जानै कोई ॥२॥
निवाज सोई जो निआउ बिचारै कलमा अकलहि जानै ॥
पाचहु मुसि मुसला बिछावै तब तउ दीनु पछानै ॥३॥
खसमु पछानि तरस करि जीअ महि मारि मणी करि फीकी ॥
आपु जनाइ अवर कउ जानै तब होइ भिसत सरीकी ॥४॥
माटी एक भेख धरि नाना ता महि ब्रहमु पछाना ॥
कहै कबीरा भिसत छोडि करि दोजक सिउ मनु माना ॥५॥४॥१७॥480॥
35. गगन नगरि इक बूंद न बरखै नादु कहा जु समाना
गगन नगरि इक बूंद न बरखै नादु कहा जु समाना ॥
पारब्रहम परमेसुर माधो परम हंसु ले सिधाना ॥१॥
बाबा बोलते ते कहा गए देही के संगि रहते ॥
सुरति माहि जो निरते करते कथा बारता कहते ॥१॥ रहाउ ॥
बजावनहारो कहा गइओ जिनि इहु मंदरु कीन्हा ॥
साखी सबदु सुरति नही उपजै खिंचि तेजु सभु लीन्हा ॥२॥
स्रवनन बिकल भए संगि तेरे इंद्री का बलु थाका ॥
चरन रहे कर ढरकि परे है मुखहु न निकसै बाता ॥३॥
थाके पंच दूत सभ तसकर आप आपणै भ्रमते ॥
थाका मनु कुंचर उरु थाका तेजु सूतु धरि रमते ॥४॥
मिरतक भए दसै बंद छूटे मित्र भाई सभ छोरे ॥
कहत कबीरा जो हरि धिआवै जीवत बंधन तोरे ॥५॥५॥१८॥480॥
36. सरपनी ते ऊपरि नही बलीआ
सरपनी ते ऊपरि नही बलीआ ॥
जिनि ब्रहमा बिसनु महादेउ छलीआ ॥१॥
मारु मारु स्रपनी निरमल जलि पैठी ॥
जिनि त्रिभवणु डसीअले गुर प्रसादि डीठी ॥१॥ रहाउ ॥
स्रपनी स्रपनी किआ कहहु भाई ॥
जिनि साचु पछानिआ तिनि स्रपनी खाई ॥२॥
स्रपनी ते आन छूछ नही अवरा ॥
स्रपनी जीती कहा करै जमरा ॥३॥
इह स्रपनी ता की कीती होई ॥
बलु अबलु किआ इस ते होई ॥४॥
इह बसती ता बसत सरीरा ॥
गुर प्रसादि सहजि तरे कबीरा ॥५॥६॥१९॥480॥
37. कहा सुआन कउ सिम्रिति सुनाए
कहा सुआन कउ सिम्रिति सुनाए ॥
कहा साकत पहि हरि गुन गाए ॥१॥
राम राम राम रमे रमि रहीऐ ॥
साकत सिउ भूलि नही कहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥
कऊआ कहा कपूर चराए ॥
कह बिसीअर कउ दूधु पीआए ॥२॥
सतसंगति मिलि बिबेक बुधि होई ॥
पारसु परसि लोहा कंचनु सोई ॥३॥
साकतु सुआनु सभु करे कराइआ ॥
जो धुरि लिखिआ सु करम कमाइआ ॥४॥
अम्रितु लै लै नीमु सिंचाई ॥
कहत कबीर उआ को सहजु न जाई ॥५॥७॥२०॥481॥
38. लंका सा कोटु समुंद सी खाई
लंका सा कोटु समुंद सी खाई ॥
तिह रावन घर खबरि न पाई ॥१॥
किआ मागउ किछु थिरु न रहाई ॥
देखत नैन चलिओ जगु जाई ॥१॥ रहाउ ॥
इकु लखु पूत सवा लखु नाती ॥
तिह रावन घर दीआ न बाती ॥२॥
चंदु सूरजु जा के तपत रसोई ॥
बैसंतरु जा के कपरे धोई ॥३॥
गुरमति रामै नामि बसाई ॥
असथिरु रहै न कतहूं जाई ॥४॥
कहत कबीर सुनहु रे लोई ॥
राम नाम बिनु मुकति न होई ॥५॥८॥२१॥481॥
39. हम घरि सूतु तनहि नित ताना कंठि जनेऊ तुमारे
हम घरि सूतु तनहि नित ताना कंठि जनेऊ तुमारे ॥
तुम्ह तउ बेद पड़हु गाइत्री गोबिंदु रिदै हमारे ॥१॥
मेरी जिहबा बिसनु नैन नाराइन हिरदै बसहि गोबिंदा ॥
जम दुआर जब पूछसि बवरे तब किआ कहसि मुकंदा ॥१॥ रहाउ ॥
हम गोरू तुम गुआर गुसाई जनम जनम रखवारे ॥
कबहूं न पारि उतारि चराइहु कैसे खसम हमारे ॥२॥
तूं बाम्हनु मै कासीक जुलहा बूझहु मोर गिआना ॥
तुम्ह तउ जाचे भूपति राजे हरि सउ मोर धिआना ॥३॥४॥२६॥482॥
40. रोजा धरै मनावै अलहु सुआदति जीअ संघारै
रोजा धरै मनावै अलहु सुआदति जीअ संघारै ॥
आपा देखि अवर नही देखै काहे कउ झख मारै ॥१॥
काजी साहिबु एकु तोही महि तेरा सोचि बिचारि न देखै ॥
खबरि न करहि दीन के बउरे ता ते जनमु अलेखै ॥१॥ रहाउ ॥
साचु कतेब बखानै अलहु नारि पुरखु नही कोई ॥
पढे गुने नाही कछु बउरे जउ दिल महि खबरि न होई ॥२॥
अलहु गैबु सगल घट भीतरि हिरदै लेहु बिचारी ॥
हिंदू तुरक दुहूं महि एकै कहै कबीर पुकारी ॥३॥७॥२९॥483॥
41. करवतु भला न करवट तेरी
करवतु भला न करवट तेरी ॥
लागु गले सुनु बिनती मेरी ॥१॥
हउ वारी मुखु फेरि पिआरे ॥
करवटु दे मो कउ काहे कउ मारे ॥१॥ रहाउ ॥
जउ तनु चीरहि अंगु न मोरउ ॥
पिंडु परै तउ प्रीति न तोरउ ॥२॥
हम तुम बीचु भइओ नही कोई ॥
तुमहि सु कंत नारि हम सोई ॥३॥
कहतु कबीरु सुनहु रे लोई ॥
अब तुमरी परतीति न होई ॥४॥२॥३५॥484॥
42. कोरी को काहू मरमु न जानां
कोरी को काहू मरमु न जानां ॥
सभु जगु आनि तनाइओ तानां ॥१॥ रहाउ ॥
जब तुम सुनि ले बेद पुरानां ॥
तब हम इतनकु पसरिओ तानां ॥१॥
धरनि अकास की करगह बनाई ॥
चंदु सूरजु दुइ साथ चलाई ॥२॥
पाई जोरि बात इक कीनी तह तांती मनु मानां ॥
जोलाहे घरु अपना चीन्हां घट ही रामु पछानां ॥३॥
कहतु कबीरु कारगह तोरी ॥
सूतै सूत मिलाए कोरी ॥४॥३॥३६॥484॥
43. अंतरि मैलु जे तीरथ नावै तिसु बैकुंठ न जानां
अंतरि मैलु जे तीरथ नावै तिसु बैकुंठ न जानां ॥
लोक पतीणे कछू न होवै नाही रामु अयाना ॥१॥
पूजहु रामु एकु ही देवा ॥
साचा नावणु गुर की सेवा ॥१॥ रहाउ ॥
जल कै मजनि जे गति होवै नित नित मेंडुक नावहि ॥
जैसे मेंडुक तैसे ओइ नर फिरि फिरि जोनी आवहि ॥२॥
मनहु कठोरु मरै बानारसि नरकु न बांचिआ जाई ॥
हरि का संतु मरै हाड़्मबै त सगली सैन तराई ॥३॥
दिनसु न रैनि बेदु नही सासत्र तहा बसै निरंकारा ॥
कहि कबीर नर तिसहि धिआवहु बावरिआ संसारा ॥४॥४॥३७॥484॥
44. चारि पाव दुइ सिंग गुंग मुख तब कैसे गुन गईहै
चारि पाव दुइ सिंग गुंग मुख तब कैसे गुन गईहै ॥
ऊठत बैठत ठेगा परिहै तब कत मूड लुकईहै ॥१॥
हरि बिनु बैल बिराने हुईहै ॥
फाटे नाकन टूटे काधन कोदउ को भुसु खईहै ॥१॥ रहाउ ॥
सारो दिनु डोलत बन महीआ अजहु न पेट अघईहै ॥
जन भगतन को कहो न मानो कीओ अपनो पईहै ॥२॥
दुख सुख करत महा भ्रमि बूडो अनिक जोनि भरमईहै ॥
रतन जनमु खोइओ प्रभु बिसरिओ इहु अउसरु कत पईहै ॥३॥
भ्रमत फिरत तेलक के कपि जिउ गति बिनु रैनि बिहईहै ॥
कहत कबीर राम नाम बिनु मूंड धुने पछुतईहै ॥४॥१॥524॥
45. मुसि मुसि रोवै कबीर की माई
मुसि मुसि रोवै कबीर की माई ॥
ए बारिक कैसे जीवहि रघुराई ॥१॥
तनना बुनना सभु तजिओ है कबीर ॥
हरि का नामु लिखि लीओ सरीर ॥१॥ रहाउ ॥
जब लगु तागा बाहउ बेही ॥
तब लगु बिसरै रामु सनेही ॥२॥
ओछी मति मेरी जाति जुलाहा ॥
हरि का नामु लहिओ मै लाहा ॥३॥
कहत कबीर सुनहु मेरी माई ॥
हमरा इन का दाता एकु रघुराई ॥४॥२॥524॥
46. बुत पूजि पूजि हिंदू मूए तुरक मूए सिरु नाई
बुत पूजि पूजि हिंदू मूए तुरक मूए सिरु नाई ॥
ओइ ले जारे ओइ ले गाडे तेरी गति दुहू न पाई ॥१॥
मन रे संसारु अंध गहेरा ॥
चहु दिस पसरिओ है जम जेवरा ॥१॥ रहाउ ॥
कबित पड़े पड़ि कबिता मूए कपड़ केदारै जाई ॥
जटा धारि धारि जोगी मूए तेरी गति इनहि न पाई ॥२॥
दरबु संचि संचि राजे मूए गडि ले कंचन भारी ॥
बेद पड़े पड़ि पंडित मूए रूपु देखि देखि नारी ॥३॥
राम नाम बिनु सभै बिगूते देखहु निरखि सरीरा ॥
हरि के नाम बिनु किनि गति पाई कहि उपदेसु कबीरा ॥४॥१॥654॥
47. जब जरीऐ तब होइ भसम तनु रहै किरम दल खाई
जब जरीऐ तब होइ भसम तनु रहै किरम दल खाई ॥
काची गागरि नीरु परतु है इआ तन की इहै बडाई ॥१॥
काहे भईआ फिरतौ फूलिआ फूलिआ ॥
जब दस मास उरध मुख रहता सो दिनु कैसे भूलिआ ॥१॥ रहाउ ॥
जिउ मधु माखी तिउ सठोरि रसु जोरि जोरि धनु कीआ ॥
मरती बार लेहु लेहु करीऐ भूतु रहन किउ दीआ ॥२॥
देहुरी लउ बरी नारि संगि भई आगै सजन सुहेला ॥
मरघट लउ सभु लोगु कुट्मबु भइओ आगै हंसु अकेला ॥३॥
कहतु कबीर सुनहु रे प्रानी परे काल ग्रस कूआ ॥
झूठी माइआ आपु बंधाइआ जिउ नलनी भ्रमि सूआ ॥४॥२॥654॥
48. बेद पुरान सभै मत सुनि कै करी करम की आसा
बेद पुरान सभै मत सुनि कै करी करम की आसा ॥
काल ग्रसत सभ लोग सिआने उठि पंडित पै चले निरासा ॥१॥
मन रे सरिओ न एकै काजा ॥
भजिओ न रघुपति राजा ॥१॥ रहाउ ॥
बन खंड जाइ जोगु तपु कीनो कंद मूलु चुनि खाइआ ॥
नादी बेदी सबदी मोनी जम के पटै लिखाइआ ॥२॥
भगति नारदी रिदै न आई काछि कूछि तनु दीना ॥
राग रागनी डि्मभ होइ बैठा उनि हरि पहि किआ लीना ॥३॥
परिओ कालु सभै जग ऊपर माहि लिखे भ्रम गिआनी ॥
कहु कबीर जन भए खालसे प्रेम भगति जिह जानी ॥४॥३॥654॥
49. दुइ दुइ लोचन पेखा
दुइ दुइ लोचन पेखा ॥
हउ हरि बिनु अउरु न देखा ॥
नैन रहे रंगु लाई ॥
अब बे गल कहनु न जाई ॥१॥
हमरा भरमु गइआ भउ भागा ॥
जब राम नाम चितु लागा ॥१॥ रहाउ ॥
बाजीगर डंक बजाई ॥
सभ खलक तमासे आई ॥
बाजीगर स्वांगु सकेला ॥
अपने रंग रवै अकेला ॥२॥
कथनी कहि भरमु न जाई ॥
सभ कथि कथि रही लुकाई ॥
जा कउ गुरमुखि आपि बुझाई ॥
ता के हिरदै रहिआ समाई ॥३॥
गुर किंचत किरपा कीनी ॥
सभु तनु मनु देह हरि लीनी ॥
कहि कबीर रंगि राता ॥
मिलिओ जगजीवन दाता ॥४॥४॥655॥
50. जा के निगम दूध के ठाटा
जा के निगम दूध के ठाटा ॥
समुंदु बिलोवन कउ माटा ॥
ता की होहु बिलोवनहारी ॥
किउ मेटै गो छाछि तुहारी ॥१॥
चेरी तू रामु न करसि भतारा ॥
जगजीवन प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ ॥
तेरे गलहि तउकु पग बेरी ॥
तू घर घर रमईऐ फेरी ॥
तू अजहु न चेतसि चेरी ॥
तू जमि बपुरी है हेरी ॥२॥
प्रभ करन करावनहारी ॥
किआ चेरी हाथ बिचारी ॥
सोई सोई जागी ॥
जितु लाई तितु लागी ॥३॥
चेरी तै सुमति कहां ते पाई ॥
जा ते भ्रम की लीक मिटाई ॥
सु रसु कबीरै जानिआ ॥
मेरो गुर प्रसादि मनु मानिआ ॥४॥५॥655॥
51. जिह बाझु न जीआ जाई
जिह बाझु न जीआ जाई ॥
जउ मिलै त घाल अघाई ॥
सद जीवनु भलो कहांही ॥
मूए बिनु जीवनु नाही ॥१॥
अब किआ कथीऐ गिआनु बीचारा ॥
निज निरखत गत बिउहारा ॥१॥ रहाउ ॥
घसि कुंकम चंदनु गारिआ ॥
बिनु नैनहु जगतु निहारिआ ॥
पूति पिता इकु जाइआ ॥
बिनु ठाहर नगरु बसाइआ ॥२॥
जाचक जन दाता पाइआ ॥
सो दीआ न जाई खाइआ ॥
छोडिआ जाइ न मूका ॥
अउरन पहि जाना चूका ॥३॥
जो जीवन मरना जानै ॥
सो पंच सैल सुख मानै ॥
कबीरै सो धनु पाइआ ॥
हरि भेटत आपु मिटाइआ ॥४॥६॥655॥
52. किआ पड़ीऐ किआ गुनीऐ
किआ पड़ीऐ किआ गुनीऐ ॥
किआ बेद पुरानां सुनीऐ ॥
पड़े सुने किआ होई ॥
जउ सहज न मिलिओ सोई ॥१॥
हरि का नामु न जपसि गवारा ॥
किआ सोचहि बारं बारा ॥१॥ रहाउ ॥
अंधिआरे दीपकु चहीऐ ॥ इक बसतु अगोचर लहीऐ ॥
बसतु अगोचर पाई ॥
घटि दीपकु रहिआ समाई ॥२॥
कहि कबीर अब जानिआ ॥
जब जानिआ तउ मनु मानिआ ॥
मन माने लोगु न पतीजै ॥
न पतीजै तउ किआ कीजै ॥३॥७॥655॥
53. ह्रिदै कपटु मुख गिआनी
ह्रिदै कपटु मुख गिआनी ॥
झूठे कहा बिलोवसि पानी ॥१॥
कांइआ मांजसि कउन गुनां ॥
जउ घट भीतरि है मलनां ॥१॥ रहाउ ॥
लउकी अठसठि तीरथ न्हाई ॥
कउरापनु तऊ न जाई ॥२॥
कहि कबीर बीचारी ॥
भव सागरु तारि मुरारी ॥३॥८॥656॥
54. बहु परपंच करि पर धनु लिआवै
बहु परपंच करि पर धनु लिआवै ॥
सुत दारा पहि आनि लुटावै ॥१॥
मन मेरे भूले कपटु न कीजै ॥
अंति निबेरा तेरे जीअ पहि लीजै ॥१॥ रहाउ ॥
छिनु छिनु तनु छीजै जरा जनावै ॥
तब तेरी ओक कोई पानीओ न पावै ॥२॥
कहतु कबीरु कोई नही तेरा ॥
हिरदै रामु की न जपहि सवेरा ॥३॥९॥656॥
55. संतहु मन पवनै सुखु बनिआ
संतहु मन पवनै सुखु बनिआ ॥
किछु जोगु परापति गनिआ ॥ रहाउ ॥
गुरि दिखलाई मोरी ॥
जितु मिरग पड़त है चोरी ॥
मूंदि लीए दरवाजे ॥
बाजीअले अनहद बाजे ॥१॥
कु्मभ कमलु जलि भरिआ ॥
जलु मेटिआ ऊभा करिआ ॥
कहु कबीर जन जानिआ ॥
जउ जानिआ तउ मनु मानिआ ॥२॥१०॥656॥
56. भूखे भगति न कीजै
भूखे भगति न कीजै ॥
यह माला अपनी लीजै ॥
हउ मांगउ संतन रेना ॥
मै नाही किसी का देना ॥१॥
माधो कैसी बनै तुम संगे ॥
आपि न देहु त लेवउ मंगे ॥ रहाउ ॥
दुइ सेर मांगउ चूना ॥
पाउ घीउ संगि लूना ॥
अध सेरु मांगउ दाले ॥
मो कउ दोनउ वखत जिवाले ॥२॥
खाट मांगउ चउपाई ॥
सिरहाना अवर तुलाई ॥
ऊपर कउ मांगउ खींधा ॥
तेरी भगति करै जनु थींधा ॥३॥
मै नाही कीता लबो ॥
इकु नाउ तेरा मै फबो ॥
कहि कबीर मनु मानिआ ॥
मनु मानिआ तउ हरि जानिआ ॥४॥११॥656॥
57. सनक सनंद महेस समानां
सनक सनंद महेस समानां ॥
सेखनागि तेरो मरमु न जानां ॥१॥
संतसंगति रामु रिदै बसाई ॥१॥ रहाउ ॥
हनूमान सरि गरुड़ समानां ॥
सुरपति नरपति नही गुन जानां ॥२॥
चारि बेद अरु सिम्रिति पुरानां ॥
कमलापति कवला नही जानां ॥३॥
कहि कबीर सो भरमै नाही ॥
पग लगि राम रहै सरनांही ॥४॥१॥691॥
58. दिन ते पहर पहर ते घरीआं आव घटै तनु छीजै
दिन ते पहर पहर ते घरीआं आव घटै तनु छीजै ॥
कालु अहेरी फिरै बधिक जिउ कहहु कवन बिधि कीजै ॥१॥
सो दिनु आवन लागा ॥
मात पिता भाई सुत बनिता कहहु कोऊ है का का ॥१॥ रहाउ ॥
जब लगु जोति काइआ महि बरतै आपा पसू न बूझै ॥
लालच करै जीवन पद कारन लोचन कछू न सूझै ॥२॥
कहत कबीर सुनहु रे प्रानी छोडहु मन के भरमा ॥
केवल नामु जपहु रे प्रानी परहु एक की सरनां ॥३॥२॥692॥
59. जो जनु भाउ भगति कछु जानै ता कउ अचरजु काहो
जो जनु भाउ भगति कछु जानै ता कउ अचरजु काहो ॥
जिउ जलु जल महि पैसि न निकसै तिउ ढुरि मिलिओ जुलाहो ॥१॥
हरि के लोगा मै तउ मति का भोरा ॥
जउ तनु कासी तजहि कबीरा रमईऐ कहा निहोरा ॥१॥ रहाउ ॥
कहतु कबीरु सुनहु रे लोई भरमि न भूलहु कोई ॥
किआ कासी किआ ऊखरु मगहरु रामु रिदै जउ होई ॥२॥३॥692॥
60. इंद्र लोक सिव लोकहि जैबो
इंद्र लोक सिव लोकहि जैबो ॥
ओछे तप करि बाहुरि ऐबो ॥१॥
किआ मांगउ किछु थिरु नाही ॥
राम नाम रखु मन माही ॥१॥ रहाउ ॥
सोभा राज बिभै बडिआई ॥
अंति न काहू संग सहाई ॥२॥
पुत्र कलत्र लछमी माइआ ॥
इन ते कहु कवनै सुखु पाइआ ॥३॥
कहत कबीर अवर नही कामा ॥
हमरै मन धन राम को नामा ॥४॥४॥692॥
61. राम सिमरि राम सिमरि राम सिमरि भाई
राम सिमरि राम सिमरि राम सिमरि भाई ॥
राम नाम सिमरन बिनु बूडते अधिकाई ॥१॥ रहाउ ॥
बनिता सुत देह ग्रेह स्मपति सुखदाई ॥
इन्ह मै कछु नाहि तेरो काल अवध आई ॥१॥
अजामल गज गनिका पतित करम कीने ॥
तेऊ उतरि पारि परे राम नाम लीने ॥२॥
सूकर कूकर जोनि भ्रमे तऊ लाज न आई ॥
राम नाम छाडि अम्रित काहे बिखु खाई ॥३॥
तजि भरम करम बिधि निखेध राम नामु लेही ॥
गुर प्रसादि जन कबीर रामु करि सनेही ॥४॥५॥692॥
62. बेद कतेब इफतरा भाई दिल का फिकरु न जाइ
बेद कतेब इफतरा भाई दिल का फिकरु न जाइ ॥
टुकु दमु करारी जउ करहु हाजिर हजूरि खुदाइ ॥१॥
बंदे खोजु दिल हर रोज ना फिरु परेसानी माहि ॥
इह जु दुनीआ सिहरु मेला दसतगीरी नाहि ॥१॥ रहाउ ॥
दरोगु पड़ि पड़ि खुसी होइ बेखबर बादु बकाहि ॥
हकु सचु खालकु खलक मिआने सिआम मूरति नाहि ॥२॥
असमान िम्याने लहंग दरीआ गुसल करदन बूद ॥
करि फकरु दाइम लाइ चसमे जह तहा मउजूदु ॥३॥
अलाह पाकं पाक है सक करउ जे दूसर होइ ॥
कबीर करमु करीम का उहु करै जानै सोइ ॥४॥१॥727॥
63. अमलु सिरानो लेखा देना
अमलु सिरानो लेखा देना ॥
आए कठिन दूत जम लेना ॥
किआ तै खटिआ कहा गवाइआ ॥
चलहु सिताब दीबानि बुलाइआ ॥१॥
चलु दरहालु दीवानि बुलाइआ ॥
हरि फुरमानु दरगह का आइआ ॥१॥ रहाउ ॥
करउ अरदासि गाव किछु बाकी ॥
लेउ निबेरि आजु की राती ॥
किछु भी खरचु तुम्हारा सारउ ॥
सुबह निवाज सराइ गुजारउ ॥२॥
साधसंगि जा कउ हरि रंगु लागा ॥
धनु धनु सो जनु पुरखु सभागा ॥
ईत ऊत जन सदा सुहेले ॥
जनमु पदारथु जीति अमोले ॥३॥
जागतु सोइआ जनमु गवाइआ ॥
मालु धनु जोरिआ भइआ पराइआ ॥
कहु कबीर तेई नर भूले ॥
खसमु बिसारि माटी संगि रूले ॥४॥३॥792॥
64. थाके नैन स्रवन सुनि थाके थाकी सुंदरि काइआ
थाके नैन स्रवन सुनि थाके थाकी सुंदरि काइआ ॥
जरा हाक दी सभ मति थाकी एक न थाकसि माइआ ॥१॥
बावरे तै गिआन बीचारु न पाइआ ॥
बिरथा जनमु गवाइआ ॥१॥ रहाउ ॥
तब लगु प्रानी तिसै सरेवहु जब लगु घट महि सासा ॥
जे घटु जाइ त भाउ न जासी हरि के चरन निवासा ॥२॥
जिस कउ सबदु बसावै अंतरि चूकै तिसहि पिआसा ॥
हुकमै बूझै चउपड़ि खेलै मनु जिणि ढाले पासा ॥३॥
जो जन जानि भजहि अबिगत कउ तिन का कछू न नासा ॥
कहु कबीर ते जन कबहु न हारहि ढालि जु जानहि पासा ॥४॥४॥793॥
65. ऐसो इहु संसारु पेखना रहनु न कोऊ पईहै रे
ऐसो इहु संसारु पेखना रहनु न कोऊ पईहै रे ॥
सूधे सूधे रेगि चलहु तुम नतर कुधका दिवईहै रे ॥१॥ रहाउ ॥
बारे बूढे तरुने भईआ सभहू जमु लै जईहै रे ॥
मानसु बपुरा मूसा कीनो मीचु बिलईआ खईहै रे ॥१॥
धनवंता अरु निरधन मनई ता की कछू न कानी रे ॥
राजा परजा सम करि मारै ऐसो कालु बडानी रे ॥२॥
हरि के सेवक जो हरि भाए तिन्ह की कथा निरारी रे ॥
आवहि न जाहि न कबहू मरते पारब्रहम संगारी रे ॥३॥
पुत्र कलत्र लछिमी माइआ इहै तजहु जीअ जानी रे ॥
कहत कबीरु सुनहु रे संतहु मिलिहै सारिगपानी रे ॥४॥१॥855॥
66. बिदिआ न परउ बादु नही जानउ
बिदिआ न परउ बादु नही जानउ ॥
हरि गुन कथत सुनत बउरानो ॥१॥
मेरे बाबा मै बउरा सभ खलक सैआनी मै बउरा ॥
मै बिगरिओ बिगरै मति अउरा ॥१॥ रहाउ ॥
आपि न बउरा राम कीओ बउरा ॥
सतिगुरु जारि गइओ भ्रमु मोरा ॥२॥
मै बिगरे अपनी मति खोई ॥
मेरे भरमि भूलउ मति कोई ॥३॥
सो बउरा जो आपु न पछानै ॥
आपु पछानै त एकै जानै ॥४॥
अबहि न माता सु कबहु न माता ॥
कहि कबीर रामै रंगि राता ॥५॥२॥855॥
67. ग्रिहु तजि बन खंड जाईऐ चुनि खाईऐ कंदा
ग्रिहु तजि बन खंड जाईऐ चुनि खाईऐ कंदा ॥
अजहु बिकार न छोडई पापी मनु मंदा ॥१॥
किउ छूटउ कैसे तरउ भवजल निधि भारी ॥
राखु राखु मेरे बीठुला जनु सरनि तुम्हारी ॥१॥ रहाउ ॥
बिखै बिखै की बासना तजीअ नह जाई ॥
अनिक जतन करि राखीऐ फिरि फिरि लपटाई ॥२॥
जरा जीवन जोबनु गइआ किछु कीआ न नीका ॥
इहु जीअरा निरमोलको कउडी लगि मीका ॥३॥
कहु कबीर मेरे माधवा तू सरब बिआपी ॥
तुम समसरि नाही दइआलु मोहि समसरि पापी ॥४॥३॥855॥
68. नित उठि कोरी गागरि आनै लीपत जीउ गइओ
नित उठि कोरी गागरि आनै लीपत जीउ गइओ ॥
ताना बाना कछू न सूझै हरि हरि रसि लपटिओ ॥१॥
हमारे कुल कउने रामु कहिओ ॥
जब की माला लई निपूते तब ते सुखु न भइओ ॥१॥ रहाउ ॥
सुनहु जिठानी सुनहु दिरानी अचरजु एकु भइओ ॥
सात सूत इनि मुडींए खोए इहु मुडीआ किउ न मुइओ ॥२॥
सरब सुखा का एकु हरि सुआमी सो गुरि नामु दइओ ॥
संत प्रहलाद की पैज जिनि राखी हरनाखसु नख बिदरिओ ॥३॥
घर के देव पितर की छोडी गुर को सबदु लइओ ॥
कहत कबीरु सगल पाप खंडनु संतह लै उधरिओ ॥४॥४॥856॥
69. संतु मिलै किछु सुनीऐ कहीऐ
संतु मिलै किछु सुनीऐ कहीऐ ॥
मिलै असंतु मसटि करि रहीऐ ॥१॥
बाबा बोलना किआ कहीऐ ॥
जैसे राम नाम रवि रहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥
संतन सिउ बोले उपकारी ॥
मूरख सिउ बोले झख मारी ॥२॥
बोलत बोलत बढहि बिकारा ॥
बिनु बोले किआ करहि बीचारा ॥३॥
कहु कबीर छूछा घटु बोलै ॥
भरिआ होइ सु कबहु न डोलै ॥४॥१॥870॥
70. नरू मरै नरु कामि न आवै
नरू मरै नरु कामि न आवै ॥
पसू मरै दस काज सवारै ॥१॥
अपने करम की गति मै किआ जानउ ॥
मै किआ जानउ बाबा रे ॥१॥ रहाउ ॥
हाड जले जैसे लकरी का तूला ॥
केस जले जैसे घास का पूला ॥२॥
कहु कबीर तब ही नरु जागै ॥
जम का डंडु मूंड महि लागै ॥३॥२॥870॥
71. भुजा बांधि भिला करि डारिओ
भुजा बांधि भिला करि डारिओ ॥
हसती क्रोपि मूंड महि मारिओ ॥
हसति भागि कै चीसा मारै ॥
इआ मूरति कै हउ बलिहारै ॥१॥
आहि मेरे ठाकुर तुमरा जोरु ॥
काजी बकिबो हसती तोरु ॥१॥ रहाउ ॥
रे महावत तुझु डारउ काटि ॥
इसहि तुरावहु घालहु साटि ॥
हसति न तोरै धरै धिआनु ॥
वा कै रिदै बसै भगवानु ॥२॥
किआ अपराधु संत है कीन्हा ॥
बांधि पोट कुंचर कउ दीन्हा ॥
कुंचरु पोट लै लै नमसकारै ॥
बूझी नही काजी अंधिआरै ॥३॥
तीनि बार पतीआ भरि लीना ॥
मन कठोरु अजहू न पतीना ॥
कहि कबीर हमरा गोबिंदु ॥
चउथे पद महि जन की जिंदु ॥४॥१॥४॥870॥
72. ना इहु मानसु ना इहु देउ
ना इहु मानसु ना इहु देउ ॥
ना इहु जती कहावै सेउ ॥
ना इहु जोगी ना अवधूता ॥
ना इसु माइ न काहू पूता ॥१॥
इआ मंदर महि कौन बसाई ॥
ता का अंतु न कोऊ पाई ॥१॥ रहाउ ॥
ना इहु गिरही ना ओदासी ॥
ना इहु राज न भीख मंगासी ॥
ना इसु पिंडु न रकतू राती ॥
ना इहु ब्रहमनु ना इहु खाती ॥२॥
ना इहु तपा कहावै सेखु ॥
ना इहु जीवै न मरता देखु ॥
इसु मरते कउ जे कोऊ रोवै ॥
जो रोवै सोई पति खोवै ॥३॥
गुर प्रसादि मै डगरो पाइआ ॥
जीवन मरनु दोऊ मिटवाइआ ॥
कहु कबीर इहु राम की अंसु ॥
जस कागद पर मिटै न मंसु ॥४॥२॥५॥871॥
73. तूटे तागे निखुटी पानि
तूटे तागे निखुटी पानि ॥
दुआर ऊपरि झिलकावहि कान ॥
कूच बिचारे फूए फाल ॥
इआ मुंडीआ सिरि चढिबो काल ॥१॥
इहु मुंडीआ सगलो द्रबु खोई ॥
आवत जात नाक सर होई ॥१॥ रहाउ ॥
तुरी नारि की छोडी बाता ॥
राम नाम वा का मनु राता ॥
लरिकी लरिकन खैबो नाहि ॥
मुंडीआ अनदिनु धापे जाहि ॥२॥
इक दुइ मंदरि इक दुइ बाट ॥
हम कउ साथरु उन कउ खाट ॥
मूड पलोसि कमर बधि पोथी ॥
हम कउ चाबनु उन कउ रोटी ॥३॥
मुंडीआ मुंडीआ हूए एक ॥
ए मुंडीआ बूडत की टेक ॥
सुनि अंधली लोई बेपीरि ॥
इन्ह मुंडीअन भजि सरनि कबीर ॥४॥३॥६॥871॥
74. धंनु गुपाल धंनु गुरदेव
धंनु गुपाल धंनु गुरदेव ॥
धंनु अनादि भूखे कवलु टहकेव ॥
धनु ओइ संत जिन ऐसी जानी ॥
तिन कउ मिलिबो सारिंगपानी ॥१॥
आदि पुरख ते होइ अनादि ॥
जपीऐ नामु अंन कै सादि ॥१॥ रहाउ ॥
जपीऐ नामु जपीऐ अंनु ॥
अम्भै कै संगि नीका वंनु ॥
अंनै बाहरि जो नर होवहि ॥
तीनि भवन महि अपनी खोवहि ॥२॥
छोडहि अंनु करहि पाखंड ॥
ना सोहागनि ना ओहि रंड ॥
जग महि बकते दूधाधारी ॥
गुपती खावहि वटिका सारी ॥३॥
अंनै बिना न होइ सुकालु ॥
तजिऐ अंनि न मिलै गुपालु ॥
कहु कबीर हम ऐसे जानिआ ॥
धंनु अनादि ठाकुर मनु मानिआ ॥४॥८॥११॥873॥
75. जिह मुख बेदु गाइत्री निकसै सो किउ ब्रहमनु बिसरु करै
जिह मुख बेदु गाइत्री निकसै सो किउ ब्रहमनु बिसरु करै ॥
जा कै पाइ जगतु सभु लागै सो किउ पंडितु हरि न कहै ॥१॥
काहे मेरे बाम्हन हरि न कहहि ॥
रामु न बोलहि पाडे दोजकु भरहि ॥१॥ रहाउ ॥
आपन ऊच नीच घरि भोजनु हठे करम करि उदरु भरहि ॥
चउदस अमावस रचि रचि मांगहि कर दीपकु लै कूपि परहि ॥२॥
तूं ब्रहमनु मै कासीक जुलहा मुहि तोहि बराबरी कैसे कै बनहि ॥
हमरे राम नाम कहि उबरे बेद भरोसे पांडे डूबि मरहि ॥३॥५॥970॥
76. मुंद्रा मोनि दइआ करि झोली पत्र का करहु बीचारु रे
मुंद्रा मोनि दइआ करि झोली पत्र का करहु बीचारु रे ॥
खिंथा इहु तनु सीअउ अपना नामु करउ आधारु रे ॥१॥
ऐसा जोगु कमावहु जोगी ॥
जप तप संजमु गुरमुखि भोगी ॥१॥ रहाउ ॥
बुधि बिभूति चढावउ अपुनी सिंगी सुरति मिलाई ॥
करि बैरागु फिरउ तनि नगरी मन की किंगुरी बजाई ॥२॥
पंच ततु लै हिरदै राखहु रहै निरालम ताड़ी ॥
कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु धरमु दइआ करि बाड़ी ॥३॥७॥970॥
77. पडीआ कवन कुमति तुम लागे
पडीआ कवन कुमति तुम लागे ॥
बूडहुगे परवार सकल सिउ रामु न जपहु अभागे ॥१॥ रहाउ ॥
बेद पुरान पड़े का किआ गुनु खर चंदन जस भारा ॥
राम नाम की गति नही जानी कैसे उतरसि पारा ॥१॥
जीअ बधहु सु धरमु करि थापहु अधरमु कहहु कत भाई ॥
आपस कउ मुनिवर करि थापहु का कउ कहहु कसाई ॥२॥
मन के अंधे आपि न बूझहु काहि बुझावहु भाई ॥
माइआ कारन बिदिआ बेचहु जनमु अबिरथा जाई ॥३॥
नारद बचन बिआसु कहत है सुक कउ पूछहु जाई ॥
कहि कबीर रामै रमि छूटहु नाहि त बूडे भाई ॥४॥१॥1102॥
78. बनहि बसे किउ पाईऐ जउ लउ मनहु न तजहि बिकार
बनहि बसे किउ पाईऐ जउ लउ मनहु न तजहि बिकार ॥
जिह घरु बनु समसरि कीआ ते पूरे संसार ॥१॥
सार सुखु पाईऐ रामा ॥
रंगि रवहु आतमै राम ॥१॥ रहाउ ॥
जटा भसम लेपन कीआ कहा गुफा महि बासु ॥
मनु जीते जगु जीतिआ जां ते बिखिआ ते होइ उदासु ॥२॥
अंजनु देइ सभै कोई टुकु चाहन माहि बिडानु ॥
गिआन अंजनु जिह पाइआ ते लोइन परवानु ॥३॥
कहि कबीर अब जानिआ गुरि गिआनु दीआ समझाइ ॥
अंतरगति हरि भेटिआ अब मेरा मनु कतहू न जाइ ॥४॥२॥1103॥
79. उदक समुंद सलल की साखिआ नदी तरंग समावहिगे
उदक समुंद सलल की साखिआ नदी तरंग समावहिगे ॥
सुंनहि सुंनु मिलिआ समदरसी पवन रूप होइ जावहिगे ॥१॥
बहुरि हम काहे आवहिगे ॥
आवन जाना हुकमु तिसै का हुकमै बुझि समावहिगे ॥१॥ रहाउ ॥
जब चूकै पंच धातु की रचना ऐसे भरमु चुकावहिगे ॥
दरसनु छोडि भए समदरसी एको नामु धिआवहिगे ॥२॥
जित हम लाए तित ही लागे तैसे करम कमावहिगे ॥
हरि जी क्रिपा करे जउ अपनी तौ गुर के सबदि समावहिगे ॥३॥
जीवत मरहु मरहु फुनि जीवहु पुनरपि जनमु न होई ॥
कहु कबीर जो नामि समाने सुंन रहिआ लिव सोई ॥४॥४॥1103॥
80. जिनि गड़ कोट कीए कंचन के छोडि गइआ सो रावनु
जिनि गड़ कोट कीए कंचन के छोडि गइआ सो रावनु ॥१॥
काहे कीजतु है मनि भावनु ॥
जब जमु आइ केस ते पकरै तह हरि को नामु छडावन ॥१॥ रहाउ ॥
कालु अकालु खसम का कीन्हा इहु परपंचु बधावनु ॥
कहि कबीर ते अंते मुकते जिन्ह हिरदै राम रसाइनु ॥२॥६॥1104॥
81. देही गावा जीउ धर महतउ बसहि पंच किरसाना
देही गावा जीउ धर महतउ बसहि पंच किरसाना ॥
नैनू नकटू स्रवनू रसपति इंद्री कहिआ न माना ॥१॥
बाबा अब न बसउ इह गाउ ॥
घरी घरी का लेखा मागै काइथु चेतू नाउ ॥१॥ रहाउ ॥
धरम राइ जब लेखा मागै बाकी निकसी भारी ॥
पंच क्रिसानवा भागि गए लै बाधिओ जीउ दरबारी ॥२॥
कहै कबीरु सुनहु रे संतहु खेत ही करहु निबेरा ॥
अब की बार बखसि बंदे कउ बहुरि न भउजलि फेरा ॥३॥७॥1104॥
82. राजन कउनु तुमारै आवै
राजन कउनु तुमारै आवै ॥
ऐसो भाउ बिदर को देखिओ ओहु गरीबु मोहि भावै ॥१॥ रहाउ ॥
हसती देखि भरम ते भूला स्री भगवानु न जानिआ ॥
तुमरो दूधु बिदर को पान्हो अम्रितु करि मै मानिआ ॥१॥
खीर समानि सागु मै पाइआ गुन गावत रैनि बिहानी ॥
कबीर को ठाकुरु अनद बिनोदी जाति न काहू की मानी ॥२॥९॥1105॥
83. दीनु बिसारिओ रे दिवाने दीनु बिसारिओ रे
दीनु बिसारिओ रे दिवाने दीनु बिसारिओ रे ॥
पेटु भरिओ पसूआ जिउ सोइओ मनुखु जनमु है हारिओ ॥१॥ रहाउ ॥
साधसंगति कबहू नही कीनी रचिओ धंधै झूठ ॥
सुआन सूकर बाइस जिवै भटकतु चालिओ ऊठि ॥१॥
आपस कउ दीरघु करि जानै अउरन कउ लग मात ॥
मनसा बाचा करमना मै देखे दोजक जात ॥२॥
कामी क्रोधी चातुरी बाजीगर बेकाम ॥
निंदा करते जनमु सिरानो कबहू न सिमरिओ रामु ॥३॥
कहि कबीर चेतै नही मूरखु मुगधु गवारु ॥
रामु नामु जानिओ नही कैसे उतरसि पारि ॥४॥१॥1105॥
84. उसतति निंदा दोऊ बिबरजित तजहु मानु अभिमाना
उसतति निंदा दोऊ बिबरजित तजहु मानु अभिमाना ॥
लोहा कंचनु सम करि जानहि ते मूरति भगवाना ॥१॥
तेरा जनु एकु आधु कोई ॥
कामु क्रोधु लोभु मोहु बिबरजित हरि पदु चीन्है सोई ॥१॥ रहाउ ॥
रज गुण तम गुण सत गुण कहीऐ इह तेरी सभ माइआ ॥
चउथे पद कउ जो नरु चीन्है तिन्ह ही परम पदु पाइआ ॥२॥
तीरथ बरत नेम सुचि संजम सदा रहै निहकामा ॥
त्रिसना अरु माइआ भ्रमु चूका चितवत आतम रामा ॥३॥
जिह मंदरि दीपकु परगासिआ अंधकारु तह नासा ॥
निरभउ पूरि रहे भ्रमु भागा कहि कबीर जन दासा ॥४॥१॥1123॥
85. काम क्रोध त्रिसना के लीने गति नही एकै जानी
काम क्रोध त्रिसना के लीने गति नही एकै जानी ॥
फूटी आखै कछू न सूझै बूडि मूए बिनु पानी ॥१॥
चलत कत टेढे टेढे टेढे ॥
असति चरम बिसटा के मूंदे दुरगंध ही के बेढे ॥१॥ रहाउ ॥
राम न जपहु कवन भ्रम भूले तुम ते कालु न दूरे ॥
अनिक जतन करि इहु तनु राखहु रहै अवसथा पूरे ॥२॥
आपन कीआ कछू न होवै किआ को करै परानी ॥
जा तिसु भावै सतिगुरु भेटै एको नामु बखानी ॥३॥
बलूआ के घरूआ महि बसते फुलवत देह अइआने ॥
कहु कबीर जिह रामु न चेतिओ बूडे बहुतु सिआने ॥४॥४॥1123॥
86. टेढी पाग टेढे चले लागे बीरे खान
टेढी पाग टेढे चले लागे बीरे खान ॥
भाउ भगति सिउ काजु न कछूऐ मेरो कामु दीवान ॥१॥
रामु बिसारिओ है अभिमानि ॥
कनिक कामनी महा सुंदरी पेखि पेखि सचु मानि ॥१॥ रहाउ ॥
लालच झूठ बिकार महा मद इह बिधि अउध बिहानि ॥
कहि कबीर अंत की बेर आइ लागो कालु निदानि ॥२॥५॥1124॥
87. चारि दिन अपनी नउबति चले बजाइ
चारि दिन अपनी नउबति चले बजाइ ॥
इतनकु खटीआ गठीआ मटीआ संगि न कछु लै जाइ ॥१॥ रहाउ ॥
दिहरी बैठी मिहरी रोवै दुआरै लउ संगि माइ ॥
मरहट लगि सभु लोगु कुट्मबु मिलि हंसु इकेला जाइ ॥१॥
वै सुत वै बित वै पुर पाटन बहुरि न देखै आइ ॥
कहतु कबीरु रामु की न सिमरहु जनमु अकारथु जाइ ॥२॥६॥1124॥
88. नांगे आवनु नांगे जाना
नांगे आवनु नांगे जाना ॥
कोइ न रहिहै राजा राना ॥१॥
रामु राजा नउ निधि मेरै ॥
स्मपै हेतु कलतु धनु तेरै ॥१॥ रहाउ ॥
आवत संग न जात संगाती ॥
कहा भइओ दरि बांधे हाथी ॥२॥
लंका गढु सोने का भइआ ॥
मूरखु रावनु किआ ले गइआ ॥३॥
कहि कबीर किछु गुनु बीचारि ॥
चले जुआरी दुइ हथ झारि ॥४॥२॥1157॥
89. मैला ब्रहमा मैला इंदु
मैला ब्रहमा मैला इंदु ॥
रवि मैला मैला है चंदु ॥१॥
मैला मलता इहु संसारु ॥
इकु हरि निरमलु जा का अंतु न पारु ॥१॥ रहाउ॥
मैले ब्रहमंडाइ कै ईस ॥
मैले निसि बासुर दिन तीस ॥२॥
मैला मोती मैला हीरु ॥
मैला पउनु पावकु अरु नीरु ॥३॥
मैले सिव संकरा महेस ॥
मैले सिध साधिक अरु भेख ॥४॥
मैले जोगी जंगम जटा सहेति ॥
मैली काइआ हंस समेति ॥५॥
कहि कबीर ते जन परवान ॥
निरमल ते जो रामहि जान ॥६॥३॥1158॥
90. मनु करि मका किबला करि देही
मनु करि मका किबला करि देही ॥
बोलनहारु परम गुरु एही ॥१॥
कहु रे मुलां बांग निवाज ॥
एक मसीति दसै दरवाज ॥१॥ रहाउ ॥
मिसिमिलि तामसु भरमु कदूरी ॥
भाखि ले पंचै होइ सबूरी ॥२॥
हिंदू तुरक का साहिबु एक ॥
कह करै मुलां कह करै सेख ॥३॥
कहि कबीर हउ भइआ दिवाना ॥
मुसि मुसि मनूआ सहजि समाना ॥४॥४॥1158॥
91. गंगा कै संगि सलिता बिगरी
गंगा कै संगि सलिता बिगरी ॥
सो सलिता गंगा होइ निबरी ॥१॥
बिगरिओ कबीरा राम दुहाई ॥
साचु भइओ अन कतहि न जाई ॥१॥ रहाउ ॥
चंदन कै संगि तरवरु बिगरिओ ॥
सो तरवरु चंदनु होइ निबरिओ ॥२॥
पारस कै संगि तांबा बिगरिओ ॥
सो तांबा कंचनु होइ निबरिओ ॥३॥
संतन संगि कबीरा बिगरिओ ॥
सो कबीरु रामै होइ निबरिओ ॥४॥५॥1158॥
92. माथे तिलकु हथि माला बानां
माथे तिलकु हथि माला बानां ॥
लोगन रामु खिलउना जानां ॥१॥
जउ हउ बउरा तउ राम तोरा ॥
लोगु मरमु कह जानै मोरा ॥१॥ रहाउ ॥
तोरउ न पाती पूजउ न देवा ॥
राम भगति बिनु निहफल सेवा ॥२॥
सतिगुरु पूजउ सदा सदा मनावउ ॥
ऐसी सेव दरगह सुखु पावउ ॥३॥
लोगु कहै कबीरु बउराना ॥
कबीर का मरमु राम पहिचानां ॥४॥६॥1158॥
93. उलटि जाति कुल दोऊ बिसारी
उलटि जाति कुल दोऊ बिसारी ॥
सुंन सहज महि बुनत हमारी ॥१॥
हमरा झगरा रहा न कोऊ ॥
पंडित मुलां छाडे दोऊ ॥१॥ रहाउ ॥
बुनि बुनि आप आपु पहिरावउ ॥
जह नही आपु तहा होइ गावउ ॥२॥
पंडित मुलां जो लिखि दीआ ॥
छाडि चले हम कछू न लीआ ॥३॥
रिदै इखलासु निरखि ले मीरा ॥
आपु खोजि खोजि मिले कबीरा ॥४॥७॥1158॥
94. निरधन आदरु कोई न देइ
निरधन आदरु कोई न देइ ॥
लाख जतन करै ओहु चिति न धरेइ ॥१॥ रहाउ ॥
जउ निरधनु सरधन कै जाइ ॥
आगे बैठा पीठि फिराइ ॥१॥
जउ सरधनु निरधन कै जाइ ॥
दीआ आदरु लीआ बुलाइ ॥२॥
निरधनु सरधनु दोनउ भाई ॥
प्रभ की कला न मेटी जाई ॥३॥
कहि कबीर निरधनु है सोई ॥
जा के हिरदै नामु न होई ॥४॥८॥1159॥
95. सो मुलां जो मन सिउ लरै
सो मुलां जो मन सिउ लरै ॥
गुर उपदेसि काल सिउ जुरै ॥
काल पुरख का मरदै मानु ॥
तिसु मुला कउ सदा सलामु ॥१॥
है हजूरि कत दूरि बतावहु ॥
दुंदर बाधहु सुंदर पावहु ॥१॥ रहाउ ॥
काजी सो जु काइआ बीचारै ॥
काइआ की अगनि ब्रहमु परजारै ॥
सुपनै बिंदु न देई झरना ॥
तिसु काजी कउ जरा न मरना ॥२॥
सो सुरतानु जु दुइ सर तानै ॥
बाहरि जाता भीतरि आनै ॥
गगन मंडल महि लसकरु करै ॥
सो सुरतानु छत्रु सिरि धरै ॥३॥
जोगी गोरखु गोरखु करै ॥
हिंदू राम नामु उचरै ॥
मुसलमान का एकु खुदाइ ॥
कबीर का सुआमी रहिआ समाइ ॥४॥३॥११॥1159॥
96. जब लगु मेरी मेरी करै
जब लगु मेरी मेरी करै ॥
तब लगु काजु एकु नही सरै ॥
जब मेरी मेरी मिटि जाइ ॥
तब प्रभ काजु सवारहि आइ ॥१॥
ऐसा गिआनु बिचारु मना ॥
हरि की न सिमरहु दुख भंजना ॥१॥ रहाउ ॥
जब लगु सिंघु रहै बन माहि ॥
तब लगु बनु फूलै ही नाहि ॥
जब ही सिआरु सिंघ कउ खाइ ॥
फूलि रही सगली बनराइ ॥२॥
जीतो बूडै हारो तिरै ॥
गुर परसादी पारि उतरै ॥
दासु कबीरु कहै समझाइ ॥
केवल राम रहहु लिव लाइ ॥३॥६॥१४॥1160॥
97. सभु कोई चलन कहत है ऊहां
सभु कोई चलन कहत है ऊहां ॥
ना जानउ बैकुंठु है कहां ॥१॥ रहाउ ॥
आप आप का मरमु न जानां ॥
बातन ही बैकुंठु बखानां ॥१॥
जब लगु मन बैकुंठ की आस ॥
तब लगु नाही चरन निवास ॥२॥
खाई कोटु न परल पगारा ॥
ना जानउ बैकुंठ दुआरा ॥३॥
कहि कमीर अब कहीऐ काहि ॥
साधसंगति बैकुंठै आहि ॥४॥८॥१६॥1161॥
98. गंग गुसाइनि गहिर ग्मभीर
गंग गुसाइनि गहिर ग्मभीर ॥
जंजीर बांधि करि खरे कबीर ॥१॥
मनु न डिगै तनु काहे कउ डराइ ॥
चरन कमल चितु रहिओ समाइ ॥ रहाउ ॥
गंगा की लहरि मेरी टुटी जंजीर ॥
म्रिगछाला पर बैठे कबीर ॥२॥
कहि क्मबीर कोऊ संग न साथ ॥
जल थल राखन है रघुनाथ ॥३॥१०॥१८॥1162॥
99. मउली धरती मउलिआ अकासु
मउली धरती मउलिआ अकासु ॥
घटि घटि मउलिआ आतम प्रगासु ॥१॥
राजा रामु मउलिआ अनत भाइ ॥
जह देखउ तह रहिआ समाइ ॥१॥ रहाउ ॥
दुतीआ मउले चारि बेद ॥
सिम्रिति मउली सिउ कतेब ॥२॥
संकरु मउलिओ जोग धिआन ॥
कबीर को सुआमी सभ समान ॥३॥१॥1193॥
100. पंडित जन माते पड़्हि पुरान
पंडित जन माते पड़्हि पुरान ॥
जोगी माते जोग धिआन ॥
संनिआसी माते अहमेव ॥
तपसी माते तप कै भेव ॥१॥
सभ मद माते कोऊ न जाग ॥
संग ही चोर घरु मुसन लाग ॥१॥ रहाउ ॥
जागै सुकदेउ अरु अकूरु ॥
हणवंतु जागै धरि लंकूरु ॥
संकरु जागै चरन सेव ॥
कलि जागे नामा जैदेव ॥२॥
जागत सोवत बहु प्रकार ॥
गुरमुखि जागै सोई सारु ॥
इसु देही के अधिक काम ॥
कहि कबीर भजि राम नाम ॥३॥२॥1193॥
101. प्रहलाद पठाए पड़न साल
प्रहलाद पठाए पड़न साल ॥
संगि सखा बहु लीए बाल ॥
मो कउ कहा पड़्हावसि आल जाल ॥
मेरी पटीआ लिखि देहु स्री गोपाल ॥१॥
नही छोडउ रे बाबा राम नाम ॥
मेरो अउर पड़्हन सिउ नही कामु ॥१॥ रहाउ ॥
संडै मरकै कहिओ जाइ ॥
प्रहलाद बुलाए बेगि धाइ ॥
तू राम कहन की छोडु बानि ॥
तुझु तुरतु छडाऊ मेरो कहिओ मानि ॥२॥
मो कउ कहा सतावहु बार बार ॥
प्रभि जल थल गिरि कीए पहार ॥
इकु रामु न छोडउ गुरहि गारि ॥
मो कउ घालि जारि भावै मारि डारि ॥३॥
काढि खड़गु कोपिओ रिसाइ ॥
तुझ राखनहारो मोहि बताइ ॥
प्रभ थ्मभ ते निकसे कै बिसथार ॥
हरनाखसु छेदिओ नख बिदार ॥४॥
ओइ परम पुरख देवाधि देव ॥
भगति हेति नरसिंघ भेव ॥
कहि कबीर को लखै न पार ॥
प्रहलाद उधारे अनिक बार ॥५॥४॥1194॥
102. माता जूठी पिता भी जूठा जूठे ही फल लागे
माता जूठी पिता भी जूठा जूठे ही फल लागे ॥
आवहि जूठे जाहि भी जूठे जूठे मरहि अभागे ॥१॥
कहु पंडित सूचा कवनु ठाउ ॥
जहां बैसि हउ भोजनु खाउ ॥१॥ रहाउ ॥
जिहबा जूठी बोलत जूठा करन नेत्र सभि जूठे ॥
इंद्री की जूठि उतरसि नाही ब्रहम अगनि के लूठे ॥२॥
अगनि भी जूठी पानी जूठा जूठी बैसि पकाइआ ॥
जूठी करछी परोसन लागा जूठे ही बैठि खाइआ ॥३॥
गोबरु जूठा चउका जूठा जूठी दीनी कारा ॥
कहि कबीर तेई नर सूचे साची परी बिचारा ॥४॥१॥७॥1195॥
103. कहा नर गरबसि थोरी बात
कहा नर गरबसि थोरी बात ॥
मन दस नाजु टका चारि गांठी ऐंडौ टेढौ जातु ॥१॥ रहाउ ॥
बहुतु प्रतापु गांउ सउ पाए दुइ लख टका बरात ॥
दिवस चारि की करहु साहिबी जैसे बन हर पात ॥१॥
ना कोऊ लै आइओ इहु धनु ना कोऊ लै जातु ॥
रावन हूं ते अधिक छत्रपति खिन महि गए बिलात ॥२॥
हरि के संत सदा थिरु पूजहु जो हरि नामु जपात ॥
जिन कउ क्रिपा करत है गोबिदु ते सतसंगि मिलात ॥३॥
मात पिता बनिता सुत स्मपति अंति न चलत संगात ॥
कहत कबीरु राम भजु बउरे जनमु अकारथ जात ॥४॥१॥1251॥
104. राजास्रम मिति नही जानी तेरी
राजास्रम मिति नही जानी तेरी ॥
तेरे संतन की हउ चेरी ॥१॥ रहाउ ॥
हसतो जाइ सु रोवतु आवै रोवतु जाइ सु हसै ॥
बसतो होइ होइ सो ऊजरु ऊजरु होइ सु बसै ॥१॥
जल ते थल करि थल ते कूआ कूप ते मेरु करावै ॥
धरती ते आकासि चढावै चढे अकासि गिरावै ॥२॥
भेखारी ते राजु करावै राजा ते भेखारी ॥
खल मूरख ते पंडितु करिबो पंडित ते मुगधारी ॥३॥
नारी ते जो पुरखु करावै पुरखन ते जो नारी ॥
कहु कबीर साधू को प्रीतमु तिसु मूरति बलिहारी ॥४॥२॥1252॥
105. हरि बिनु कउनु सहाई मन का
हरि बिनु कउनु सहाई मन का ॥
मात पिता भाई सुत बनिता हितु लागो सभ फन का ॥१॥ रहाउ ॥
आगे कउ किछु तुलहा बांधहु किआ भरवासा धन का ॥
कहा बिसासा इस भांडे का इतनकु लागै ठनका ॥१॥
सगल धरम पुंन फल पावहु धूरि बांछहु सभ जन का ॥
कहै कबीरु सुनहु रे संतहु इहु मनु उडन पंखेरू बन का ॥२॥१॥९॥1253॥
106. अलहु एकु मसीति बसतु है अवरु मुलखु किसु केरा
अलहु एकु मसीति बसतु है अवरु मुलखु किसु केरा ॥
हिंदू मूरति नाम निवासी दुह महि ततु न हेरा ॥१॥
अलह राम जीवउ तेरे नाई ॥
तू करि मिहरामति साई ॥१॥ रहाउ ॥
दखन देसि हरी का बासा पछिमि अलह मुकामा ॥
दिल महि खोजि दिलै दिलि खोजहु एही ठउर मुकामा ॥२॥
ब्रहमन गिआस करहि चउबीसा काजी मह रमजाना ॥
गिआरह मास पास कै राखे एकै माहि निधाना ॥३॥
कहा उडीसे मजनु कीआ किआ मसीति सिरु नांएं ॥
दिल महि कपटु निवाज गुजारै किआ हज काबै जांएं ॥४॥
एते अउरत मरदा साजे ए सभ रूप तुम्हारे ॥
कबीरु पूंगरा राम अलह का सभ गुर पीर हमारे ॥५॥
कहतु कबीरु सुनहु नर नरवै परहु एक की सरना ॥
केवल नामु जपहु रे प्रानी तब ही निहचै तरना ॥६॥२॥1349॥
107. अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे
अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे ॥
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे ॥१॥
लोगा भरमि न भूलहु भाई ॥
खालिकु खलक खलक महि खालिकु पूरि रहिओ स्रब ठांई ॥१॥ रहाउ ॥
माटी एक अनेक भांति करि साजी साजनहारै ॥
ना कछु पोच माटी के भांडे ना कछु पोच कु्मभारै ॥२॥
सभ महि सचा एको सोई तिस का कीआ सभु कछु होई ॥
हुकमु पछानै सु एको जानै बंदा कहीऐ सोई ॥३॥
अलहु अलखु न जाई लखिआ गुरि गुड़ु दीना मीठा ॥
कहि कबीर मेरी संका नासी सरब निरंजनु डीठा ॥४॥३॥1349॥
108. बेद कतेब कहहु मत झूठे झूठा जो न बिचारै
बेद कतेब कहहु मत झूठे झूठा जो न बिचारै ॥
जउ सभ महि एकु खुदाइ कहत हउ तउ किउ मुरगी मारै ॥१॥
मुलां कहहु निआउ खुदाई ॥
तेरे मन का भरमु न जाई ॥१॥ रहाउ ॥
पकरि जीउ आनिआ देह बिनासी माटी कउ बिसमिलि कीआ ॥
जोति सरूप अनाहत लागी कहु हलालु किआ कीआ ॥२॥
किआ उजू पाकु कीआ मुहु धोइआ किआ मसीति सिरु लाइआ ॥
जउ दिल महि कपटु निवाज गुजारहु किआ हज काबै जाइआ ॥३॥
तूं नापाकु पाकु नही सूझिआ तिस का मरमु न जानिआ ॥
कहि कबीर भिसति ते चूका दोजक सिउ मनु मानिआ ॥४॥४॥1350॥
109. सुंन संधिआ तेरी देव देवाकर अधपति आदि समाई
सुंन संधिआ तेरी देव देवाकर अधपति आदि समाई ॥
सिध समाधि अंतु नही पाइआ लागि रहे सरनाई ॥१॥
लेहु आरती हो पुरख निरंजन सतिगुर पूजहु भाई ॥
ठाढा ब्रहमा निगम बीचारै अलखु न लखिआ जाई ॥१॥ रहाउ ॥
ततु तेलु नामु कीआ बाती दीपकु देह उज्यारा ॥
जोति लाइ जगदीस जगाइआ बूझै बूझनहारा ॥२॥
पंचे सबद अनाहद बाजे संगे सारिंगपानी ॥
कबीर दास तेरी आरती कीनी निरंकार निरबानी ॥३॥५॥1350॥
110. कोऊ हरि समानि नही राजा ॥
कोऊ हरि समानि नही राजा ॥
ए भूपति सभ दिवस चारि के झूठे करत दिवाजा ॥१॥ रहाउ ॥
तेरो जनु होइ सोइ कत डोलै तीनि भवन पर छाजा ॥
हाथु पसारि सकै को जन कउ बोलि सकै न अंदाजा ॥१॥
चेति अचेत मूड़ मन मेरे बाजे अनहद बाजा ॥
कहि कबीर संसा भ्रमु चूको ध्रू प्रहिलाद निवाजा ॥२॥५॥856॥
111. राखि लेहु हम ते बिगरी
राखि लेहु हम ते बिगरी ॥
सीलु धरमु जपु भगति न कीनी हउ अभिमान टेढ पगरी ॥१॥ रहाउ ॥
अमर जानि संची इह काइआ इह मिथिआ काची गगरी ॥
जिनहि निवाजि साजि हम कीए तिसहि बिसारि अवर लगरी ॥१॥
संधिक तोहि साध नही कहीअउ सरनि परे तुमरी पगरी ॥
कहि कबीर इह बिनती सुनीअहु मत घालहु जम की खबरी ॥२॥६॥856॥
112. दरमादे ठाढे दरबारि
दरमादे ठाढे दरबारि ॥
तुझ बिनु सुरति करै को मेरी दरसनु दीजै खोल्हि किवार ॥१॥ रहाउ ॥
तुम धन धनी उदार तिआगी स्रवनन्ह सुनीअतु सुजसु तुम्हार ॥
मागउ काहि रंक सभ देखउ तुम्ह ही ते मेरो निसतारु ॥१॥
जैदेउ नामा बिप सुदामा तिन कउ क्रिपा भई है अपार ॥
कहि कबीर तुम सम्रथ दाते चारि पदारथ देत न बार ॥२॥७॥856॥
113. डंडा मुंद्रा खिंथा आधारी
डंडा मुंद्रा खिंथा आधारी ॥
भ्रम कै भाइ भवै भेखधारी ॥१॥
आसनु पवन दूरि करि बवरे ॥
छोडि कपटु नित हरि भजु बवरे ॥१॥ रहाउ ॥
जिह तू जाचहि सो त्रिभवन भोगी ॥
कहि कबीर केसौ जगि जोगी ॥२॥८॥856॥
114. इन्हि माइआ जगदीस गुसाई तुम्हरे चरन बिसारे
इन्हि माइआ जगदीस गुसाई तुम्हरे चरन बिसारे ॥
किंचत प्रीति न उपजै जन कउ जन कहा करहि बेचारे ॥१॥ रहाउ ॥
ध्रिगु तनु ध्रिगु धनु ध्रिगु इह माइआ ध्रिगु ध्रिगु मति बुधि फंनी ॥
इस माइआ कउ द्रिड़ु करि राखहु बांधे आप बचंनी ॥१॥
किआ खेती किआ लेवा देई परपंच झूठु गुमाना ॥
कहि कबीर ते अंति बिगूते आइआ कालु निदाना ॥२॥९॥857॥
115. सरीर सरोवर भीतरे आछै कमल अनूप
सरीर सरोवर भीतरे आछै कमल अनूप ॥
परम जोति पुरखोतमो जा कै रेख न रूप ॥१॥
रे मन हरि भजु भ्रमु तजहु जगजीवन राम ॥१॥ रहाउ ॥
आवत कछू न दीसई नह दीसै जात ॥
जह उपजै बिनसै तही जैसे पुरिवन पात ॥२॥
मिथिआ करि माइआ तजी सुख सहज बीचारि ॥
कहि कबीर सेवा करहु मन मंझि मुरारि ॥३॥१०॥857॥
116. जनम मरन का भ्रमु गइआ गोबिद लिव लागी
जनम मरन का भ्रमु गइआ गोबिद लिव लागी ॥
जीवत सुंनि समानिआ गुर साखी जागी ॥१॥ रहाउ ॥
कासी ते धुनि ऊपजै धुनि कासी जाई ॥
कासी फूटी पंडिता धुनि कहां समाई ॥१॥
त्रिकुटी संधि मै पेखिआ घट हू घट जागी ॥
ऐसी बुधि समाचरी घट माहि तिआगी ॥२॥
आपु आप ते जानिआ तेज तेजु समाना ॥
कहु कबीर अब जानिआ गोबिद मनु माना ॥३॥११॥857॥
117. चरन कमल जा कै रिदै बसहि सो जनु किउ डोलै देव
चरन कमल जा कै रिदै बसहि सो जनु किउ डोलै देव ॥
मानौ सभ सुख नउ निधि ता कै सहजि सहजि जसु बोलै देव ॥ रहाउ ॥
तब इह मति जउ सभ महि पेखै कुटिल गांठि जब खोलै देव ॥
बारं बार माइआ ते अटकै लै नरजा मनु तोलै देव ॥१॥
जह उहु जाइ तही सुखु पावै माइआ तासु न झोलै देव ॥
कहि कबीर मेरा मनु मानिआ राम प्रीति कीओ लै देव ॥२॥१२॥857॥
118. आकासि गगनु पातालि गगनु है चहु दिसि गगनु रहाइले
आकासि गगनु पातालि गगनु है चहु दिसि गगनु रहाइले ॥
आनद मूलु सदा पुरखोतमु घटु बिनसै गगनु न जाइले ॥१॥
मोहि बैरागु भइओ ॥
इहु जीउ आइ कहा गइओ ॥१॥ रहाउ ॥
पंच ततु मिलि काइआ कीन्ही ततु कहा ते कीनु रे ॥
करम बध तुम जीउ कहत हौ करमहि किनि जीउ दीनु रे ॥२॥
हरि महि तनु है तन महि हरि है सरब निरंतरि सोइ रे ॥
कहि कबीर राम नामु न छोडउ सहजे होइ सु होइ रे ॥३॥३॥870॥
119. खसमु मरै तउ नारि न रोवै
खसमु मरै तउ नारि न रोवै ॥
उसु रखवारा अउरो होवै ॥
रखवारे का होइ बिनास ॥
आगै नरकु ईहा भोग बिलास ॥१॥
एक सुहागनि जगत पिआरी ॥
सगले जीअ जंत की नारी ॥१॥ रहाउ ॥
सोहागनि गलि सोहै हारु ॥
संत कउ बिखु बिगसै संसारु ॥
करि सीगारु बहै पखिआरी ॥
संत की ठिठकी फिरै बिचारी ॥२॥
संत भागि ओह पाछै परै ॥
गुर परसादी मारहु डरै ॥
साकत की ओह पिंड पराइणि ॥
हम कउ द्रिसटि परै त्रखि डाइणि ॥३॥
हम तिस का बहु जानिआ भेउ ॥
जब हूए क्रिपाल मिले गुरदेउ ॥
कहु कबीर अब बाहरि परी ॥
संसारै कै अंचलि लरी ॥४॥४॥७॥871॥
120. ग्रिहि सोभा जा कै रे नाहि
ग्रिहि सोभा जा कै रे नाहि ॥
आवत पहीआ खूधे जाहि ॥
वा कै अंतरि नही संतोखु ॥
बिनु सोहागनि लागै दोखु ॥१॥
धनु सोहागनि महा पवीत ॥
तपे तपीसर डोलै चीत ॥१॥ रहाउ ॥
सोहागनि किरपन की पूती ॥
सेवक तजि जगत सिउ सूती ॥
साधू कै ठाढी दरबारि ॥
सरनि तेरी मो कउ निसतारि ॥२॥
सोहागनि है अति सुंदरी ॥
पग नेवर छनक छनहरी ॥
जउ लगु प्रान तऊ लगु संगे ॥
नाहि त चली बेगि उठि नंगे ॥३॥
सोहागनि भवन त्रै लीआ ॥
दस अठ पुराण तीरथ रस कीआ ॥
ब्रहमा बिसनु महेसर बेधे ॥
बडे भूपति राजे है छेधे ॥४॥
सोहागनि उरवारि न पारि ॥
पांच नारद कै संगि बिधवारि ॥
पांच नारद के मिटवे फूटे ॥
कहु कबीर गुर किरपा छूटे ॥५॥५॥८॥872॥
121. जैसे मंदर महि बलहर ना ठाहरै
जैसे मंदर महि बलहर ना ठाहरै ॥
नाम बिना कैसे पारि उतरै ॥
कु्मभ बिना जलु ना टीकावै ॥
साधू बिनु ऐसे अबगतु जावै ॥१॥
जारउ तिसै जु रामु न चेतै ॥
तन मन रमत रहै महि खेतै ॥१॥ रहाउ ॥
जैसे हलहर बिना जिमी नही बोईऐ ॥
सूत बिना कैसे मणी परोईऐ ॥
घुंडी बिनु किआ गंठि चड़्हाईऐ ॥
साधू बिनु तैसे अबगतु जाईऐ ॥२॥
जैसे मात पिता बिनु बालु न होई ॥
बि्मब बिना कैसे कपरे धोई ॥
घोर बिना कैसे असवार ॥
साधू बिनु नाही दरवार ॥३॥
जैसे बाजे बिनु नही लीजै फेरी ॥
खसमि दुहागनि तजि अउहेरी ॥
कहै कबीरु एकै करि करना ॥
गुरमुखि होइ बहुरि नही मरना ॥४॥६॥९॥872॥
122. कूटनु सोइ जु मन कउ कूटै
कूटनु सोइ जु मन कउ कूटै ॥
मन कूटै तउ जम ते छूटै ॥
कुटि कुटि मनु कसवटी लावै ॥
सो कूटनु मुकति बहु पावै ॥१॥
कूटनु किसै कहहु संसार ॥
सगल बोलन के माहि बीचार ॥१॥ रहाउ ॥
नाचनु सोइ जु मन सिउ नाचै ॥
झूठि न पतीऐ परचै साचै ॥
इसु मन आगे पूरै ताल ॥
इसु नाचन के मन रखवाल ॥२॥
बजारी सो जु बजारहि सोधै ॥
पांच पलीतह कउ परबोधै ॥
नउ नाइक की भगति पछानै ॥
सो बाजारी हम गुर माने ॥३॥
तसकरु सोइ जि ताति न करै ॥
इंद्री कै जतनि नामु उचरै ॥
कहु कबीर हम ऐसे लखन ॥
धंनु गुरदेव अति रूप बिचखन ॥४॥७॥१०॥872॥
123. काइआ कलालनि लाहनि मेलउ गुर का सबदु गुड़ु कीनु रे
काइआ कलालनि लाहनि मेलउ गुर का सबदु गुड़ु कीनु रे ॥
त्रिसना कामु क्रोधु मद मतसर काटि काटि कसु दीनु रे ॥१॥
कोई है रे संतु सहज सुख अंतरि जा कउ जपु तपु देउ दलाली रे ॥
एक बूंद भरि तनु मनु देवउ जो मदु देइ कलाली रे ॥१॥ रहाउ ॥
भवन चतुर दस भाठी कीन्ही ब्रहम अगनि तनि जारी रे ॥
मुद्रा मदक सहज धुनि लागी सुखमन पोचनहारी रे ॥२॥
तीरथ बरत नेम सुचि संजम रवि ससि गहनै देउ रे ॥
सुरति पिआल सुधा रसु अम्रितु एहु महा रसु पेउ रे ॥३॥
निझर धार चुऐ अति निरमल इह रस मनूआ रातो रे ॥
कहि कबीर सगले मद छूछे इहै महा रसु साचो रे ॥४॥१॥968॥
124. गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि महूआ भउ भाठी मन धारा
गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि महूआ भउ भाठी मन धारा ॥
सुखमन नारी सहज समानी पीवै पीवनहारा ॥१॥
अउधू मेरा मनु मतवारा ॥
उनमद चढा मदन रसु चाखिआ त्रिभवन भइआ उजिआरा ॥१॥ रहाउ ॥
दुइ पुर जोरि रसाई भाठी पीउ महा रसु भारी ॥
कामु क्रोधु दुइ कीए जलेता छूटि गई संसारी ॥२॥
प्रगट प्रगास गिआन गुर गमित सतिगुर ते सुधि पाई ॥
दासु कबीरु तासु मद माता उचकि न कबहू जाई ॥३॥२॥968॥
125. तूं मेरो मेरु परबतु सुआमी ओट गही मै तेरी
तूं मेरो मेरु परबतु सुआमी ओट गही मै तेरी ॥
ना तुम डोलहु ना हम गिरते रखि लीनी हरि मेरी ॥१॥
अब तब जब कब तुही तुही ॥
हम तुअ परसादि सुखी सद ही ॥१॥ रहाउ ॥
तोरे भरोसे मगहर बसिओ मेरे तन की तपति बुझाई ॥
पहिले दरसनु मगहर पाइओ फुनि कासी बसे आई ॥२॥
जैसा मगहरु तैसी कासी हम एकै करि जानी ॥
हम निरधन जिउ इहु धनु पाइआ मरते फूटि गुमानी ॥३॥
करै गुमानु चुभहि तिसु सूला को काढन कउ नाही ॥
अजै सु चोभ कउ बिलल बिलाते नरके घोर पचाही ॥४॥
कवनु नरकु किआ सुरगु बिचारा संतन दोऊ रादे ॥
हम काहू की काणि न कढते अपने गुर परसादे ॥५॥
अब तउ जाइ चढे सिंघासनि मिले है सारिंगपानी ॥
राम कबीरा एक भए है कोइ न सकै पछानी ॥६॥३॥969॥
126. संता मानउ दूता डानउ इह कुटवारी मेरी
संता मानउ दूता डानउ इह कुटवारी मेरी ॥
दिवस रैनि तेरे पाउ पलोसउ केस चवर करि फेरी ॥१॥
हम कूकर तेरे दरबारि ॥
भउकहि आगै बदनु पसारि ॥१॥ रहाउ ॥
पूरब जनम हम तुम्हरे सेवक अब तउ मिटिआ न जाई ॥
तेरे दुआरै धुनि सहज की माथै मेरे दगाई ॥२॥
दागे होहि सु रन महि जूझहि बिनु दागे भगि जाई ॥
साधू होइ सु भगति पछानै हरि लए खजानै पाई ॥३॥
कोठरे महि कोठरी परम कोठी बीचारि ॥
गुरि दीनी बसतु कबीर कउ लेवहु बसतु सम्हारि ॥४॥
कबीरि दीई संसार कउ लीनी जिसु मसतकि भागु ॥
अम्रित रसु जिनि पाइआ थिरु ता का सोहागु ॥५॥४॥969॥
127. तरवरु एकु अनंत डार साखा पुहप पत्र रस भरीआ
तरवरु एकु अनंत डार साखा पुहप पत्र रस भरीआ ॥
इह अम्रित की बाड़ी है रे तिनि हरि पूरै करीआ ॥१॥
जानी जानी रे राजा राम की कहानी ॥
अंतरि जोति राम परगासा गुरमुखि बिरलै जानी ॥१॥ रहाउ ॥
भवरु एकु पुहप रस बीधा बारह ले उर धरिआ ॥
सोरह मधे पवनु झकोरिआ आकासे फरु फरिआ ॥२॥
सहज सुंनि इकु बिरवा उपजिआ धरती जलहरु सोखिआ ॥
कहि कबीर हउ ता का सेवकु जिनि इहु बिरवा देखिआ ॥३॥६॥970॥
128. कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ
कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ ॥
भव निधि तरन तारन चिंतामनि इक निमख न इहु मनु लाइआ ॥१॥
गोबिंद हम ऐसे अपराधी ॥
जिनि प्रभि जीउ पिंडु था दीआ तिस की भाउ भगति नही साधी ॥१॥ रहाउ ॥
पर धन पर तन पर ती निंदा पर अपबादु न छूटै ॥
आवा गवनु होतु है फुनि फुनि इहु परसंगु न तूटै ॥२॥
जिह घरि कथा होत हरि संतन इक निमख न कीन्हो मै फेरा ॥
ल्मपट चोर दूत मतवारे तिन संगि सदा बसेरा ॥३॥
काम क्रोध माइआ मद मतसर ए स्मपै मो माही ॥
दइआ धरमु अरु गुर की सेवा ए सुपनंतरि नाही ॥४॥
दीन दइआल क्रिपाल दमोदर भगति बछल भै हारी ॥
कहत कबीर भीर जन राखहु हरि सेवा करउ तुम्हारी ॥५॥८॥970॥
129. जिह सिमरनि होइ मुकति दुआरु
जिह सिमरनि होइ मुकति दुआरु ॥
जाहि बैकुंठि नही संसारि ॥
निरभउ कै घरि बजावहि तूर ॥
अनहद बजहि सदा भरपूर ॥१॥
ऐसा सिमरनु करि मन माहि ॥
बिनु सिमरन मुकति कत नाहि ॥१॥ रहाउ ॥
जिह सिमरनि नाही ननकारु ॥
मुकति करै उतरै बहु भारु ॥
नमसकारु करि हिरदै माहि ॥
फिरि फिरि तेरा आवनु नाहि ॥२॥
जिह सिमरनि करहि तू केल ॥
दीपकु बांधि धरिओ बिनु तेल ॥
सो दीपकु अमरकु संसारि ॥
काम क्रोध बिखु काढीले मारि ॥३॥
जिह सिमरनि तेरी गति होइ ॥
सो सिमरनु रखु कंठि परोइ ॥
सो सिमरनु करि नही राखु उतारि ॥
गुर परसादी उतरहि पारि ॥४॥
जिह सिमरनि नाही तुहि कानि ॥
मंदरि सोवहि पट्मबर तानि ॥
सेज सुखाली बिगसै जीउ ॥
सो सिमरनु तू अनदिनु पीउ ॥५॥
जिह सिमरनि तेरी जाइ बलाइ ॥
जिह सिमरनि तुझु पोहै न माइ ॥
सिमरि सिमरि हरि हरि मनि गाईऐ ॥
इहु सिमरनु सतिगुर ते पाईऐ ॥६॥
सदा सदा सिमरि दिनु राति ॥
ऊठत बैठत सासि गिरासि ॥
जागु सोइ सिमरन रस भोग ॥
हरि सिमरनु पाईऐ संजोग ॥७॥
जिह सिमरनि नाही तुझु भार ॥
सो सिमरनु राम नाम अधारु ॥
कहि कबीर जा का नही अंतु ॥
तिस के आगे तंतु न मंतु ॥८॥९॥871॥
130. बंधचि बंधनु पाइआ
बंधचि बंधनु पाइआ ॥
मुकतै गुरि अनलु बुझाइआ ॥
जब नख सिख इहु मनु चीन्हा ॥
तब अंतरि मजनु कीन्हा ॥१॥
पवनपति उनमनि रहनु खरा ॥
नही मिरतु न जनमु जरा ॥१॥ रहाउ ॥
उलटी ले सकति सहारं ॥
पैसीले गगन मझारं ॥
बेधीअले चक्र भुअंगा ॥
भेटीअले राइ निसंगा ॥२॥
चूकीअले मोह मइआसा ॥
ससि कीनो सूर गिरासा ॥
जब कु्मभकु भरिपुरि लीणा ॥
तह बाजे अनहद बीणा ॥३॥
बकतै बकि सबदु सुनाइआ ॥
सुनतै सुनि मंनि बसाइआ ॥
करि करता उतरसि पारं ॥
कहै कबीरा सारं ॥४॥१॥१०॥971॥
131. चंदु सूरजु दुइ जोति सरूपु
चंदु सूरजु दुइ जोति सरूपु ॥
जोती अंतरि ब्रहमु अनूपु ॥१॥
करु रे गिआनी ब्रहम बीचारु ॥
जोती अंतरि धरिआ पसारु ॥१॥ रहाउ ॥
हीरा देखि हीरे करउ आदेसु ॥
कहै कबीरु निरंजन अलेखु ॥२॥२॥११॥972॥
132. दुनीआ हुसीआर बेदार जागत मुसीअत हउ रे भाई
दुनीआ हुसीआर बेदार जागत मुसीअत हउ रे भाई ॥
निगम हुसीआर पहरूआ देखत जमु ले जाई ॥१॥ रहाउ ॥
नंीबु भइओ आंबु आंबु भइओ नंीबा केला पाका झारि ॥
नालीएर फलु सेबरि पाका मूरख मुगध गवार ॥१॥
हरि भइओ खांडु रेतु महि बिखरिओ हसतीं चुनिओ न जाई ॥
कहि कमीर कुल जाति पांति तजि चीटी होइ चुनि खाई ॥२॥३॥१२॥972॥
133. रिधि सिधि जा कउ फुरी तब काहू सिउ किआ काज
रिधि सिधि जा कउ फुरी तब काहू सिउ किआ काज ॥
तेरे कहने की गति किआ कहउ मै बोलत ही बड लाज ॥१॥
रामु जिह पाइआ राम ॥
ते भवहि न बारै बार ॥१॥ रहाउ ॥
झूठा जगु डहकै घना दिन दुइ बरतन की आस ॥
राम उदकु जिह जन पीआ तिहि बहुरि न भई पिआस ॥२॥
गुर प्रसादि जिह बूझिआ आसा ते भइआ निरासु ॥
सभु सचु नदरी आइआ जउ आतम भइआ उदासु ॥३॥
राम नाम रसु चाखिआ हरि नामा हर तारि ॥
कहु कबीर कंचनु भइआ भ्रमु गइआ समुद्रै पारि ॥४॥३॥1103॥
134. जउ तुम्ह मो कउ दूरि करत हउ तउ तुम मुकति बतावहु
जउ तुम्ह मो कउ दूरि करत हउ तउ तुम मुकति बतावहु ॥
एक अनेक होइ रहिओ सगल महि अब कैसे भरमावहु ॥१॥
राम मो कउ तारि कहां लै जई है ॥
सोधउ मुकति कहा देउ कैसी करि प्रसादु मोहि पाई है ॥१॥ रहाउ ॥
तारन तरनु तबै लगु कहीऐ जब लगु ततु न जानिआ ॥
अब तउ बिमल भए घट ही महि कहि कबीर मनु मानिआ ॥२॥५॥1104॥
135. अनभउ किनै न देखिआ बैरागीअड़े
अनभउ किनै न देखिआ बैरागीअड़े ॥
बिनु भै अनभउ होइ वणाह्मबै ॥१॥
सहु हदूरि देखै तां भउ पवै बैरागीअड़े ॥
हुकमै बूझै त निरभउ होइ वणाह्मबै ॥२॥
हरि पाखंडु न कीजई बैरागीअड़े ॥
पाखंडि रता सभु लोकु वणाह्मबै ॥३॥
त्रिसना पासु न छोडई बैरागीअड़े ॥
ममता जालिआ पिंडु वणाह्मबै ॥४॥
चिंता जालि तनु जालिआ बैरागीअड़े ॥
जे मनु मिरतकु होइ वणाह्मबै ॥५॥
सतिगुर बिनु बैरागु न होवई बैरागीअड़े ॥
जे लोचै सभु कोइ वणाह्मबै ॥६॥
करमु होवै सतिगुरु मिलै बैरागीअड़े ॥
सहजे पावै सोइ वणाह्मबै ॥७॥
कहु कबीर इक बेनती बैरागीअड़े ॥
मो कउ भउजलु पारि उतारि वणाह्मबै ॥८॥१॥८॥1104॥
136. रामु सिमरु पछुताहिगा मन
रामु सिमरु पछुताहिगा मन ॥
पापी जीअरा लोभु करतु है आजु कालि उठि जाहिगा ॥१॥ रहाउ ॥
लालच लागे जनमु गवाइआ माइआ भरम भुलाहिगा ॥
धन जोबन का गरबु न कीजै कागद जिउ गलि जाहिगा ॥१॥
जउ जमु आइ केस गहि पटकै ता दिन किछु न बसाहिगा ॥
सिमरनु भजनु दइआ नही कीनी तउ मुखि चोटा खाहिगा ॥२॥
धरम राइ जब लेखा मागै किआ मुखु लै कै जाहिगा ॥
कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु साधसंगति तरि जांहिगा ॥३॥१॥1106॥
137. किनही बनजिआ कांसी तांबा किनही लउग सुपारी
किनही बनजिआ कांसी तांबा किनही लउग सुपारी ॥
संतहु बनजिआ नामु गोबिद का ऐसी खेप हमारी ॥१॥
हरि के नाम के बिआपारी ॥
हीरा हाथि चड़िआ निरमोलकु छूटि गई संसारी ॥१॥ रहाउ ॥
साचे लाए तउ सच लागे साचे के बिउहारी ॥
साची बसतु के भार चलाए पहुचे जाइ भंडारी ॥२॥
आपहि रतन जवाहर मानिक आपै है पासारी ॥
आपै दह दिस आप चलावै निहचलु है बिआपारी ॥३॥
मनु करि बैलु सुरति करि पैडा गिआन गोनि भरि डारी ॥
कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु निबही खेप हमारी ॥४॥२॥1123॥
138. री कलवारि गवारि मूढ मति उलटो पवनु फिरावउ
री कलवारि गवारि मूढ मति उलटो पवनु फिरावउ ॥
मनु मतवार मेर सर भाठी अम्रित धार चुआवउ ॥१॥
बोलहु भईआ राम की दुहाई ॥
पीवहु संत सदा मति दुरलभ सहजे पिआस बुझाई ॥१॥ रहाउ ॥
भै बिचि भाउ भाइ कोऊ बूझहि हरि रसु पावै भाई ॥
जेते घट अम्रितु सभ ही महि भावै तिसहि पीआई ॥२॥
नगरी एकै नउ दरवाजे धावतु बरजि रहाई ॥
त्रिकुटी छूटै दसवा दरु खूल्है ता मनु खीवा भाई ॥३॥
अभै पद पूरि ताप तह नासे कहि कबीर बीचारी ॥
उबट चलंते इहु मदु पाइआ जैसे खोंद खुमारी ॥४॥३॥1123॥
139. इहु धनु मेरे हरि को नाउ
इहु धनु मेरे हरि को नाउ ॥
गांठि न बाधउ बेचि न खाउ ॥१॥ रहाउ ॥
नाउ मेरे खेती नाउ मेरे बारी ॥
भगति करउ जनु सरनि तुम्हारी ॥१॥
नाउ मेरे माइआ नाउ मेरे पूंजी ॥
तुमहि छोडि जानउ नही दूजी ॥२॥
नाउ मेरे बंधिप नाउ मेरे भाई ॥
नाउ मेरे संगि अंति होइ सखाई ॥३॥
माइआ महि जिसु रखै उदासु ॥
कहि कबीर हउ ता को दासु ॥४॥१॥1157॥
140. गुर सेवा ते भगति कमाई
गुर सेवा ते भगति कमाई ॥
तब इह मानस देही पाई ॥
इस देही कउ सिमरहि देव ॥
सो देही भजु हरि की सेव ॥१॥
भजहु गोबिंद भूलि मत जाहु ॥
मानस जनम का एही लाहु ॥१॥ रहाउ ॥
जब लगु जरा रोगु नही आइआ ॥
जब लगु कालि ग्रसी नही काइआ ॥
जब लगु बिकल भई नही बानी ॥
भजि लेहि रे मन सारिगपानी ॥२॥
अब न भजसि भजसि कब भाई ॥
आवै अंतु न भजिआ जाई ॥
जो किछु करहि सोई अब सारु ॥
फिरि पछुताहु न पावहु पारु ॥३॥
सो सेवकु जो लाइआ सेव ॥
तिन ही पाए निरंजन देव ॥
गुर मिलि ता के खुल्हे कपाट ॥
बहुरि न आवै जोनी बाट ॥४॥
इही तेरा अउसरु इह तेरी बार ॥
घट भीतरि तू देखु बिचारि ॥
कहत कबीरु जीति कै हारि ॥
बहु बिधि कहिओ पुकारि पुकारि ॥५॥१॥९॥1159॥
141. सिव की पुरी बसै बुधि सारु
सिव की पुरी बसै बुधि सारु ॥
तह तुम्ह मिलि कै करहु बिचारु ॥
ईत ऊत की सोझी परै ॥
कउनु करम मेरा करि करि मरै ॥१॥
निज पद ऊपरि लागो धिआनु ॥
राजा राम नामु मोरा ब्रहम गिआनु ॥१॥ रहाउ ॥
मूल दुआरै बंधिआ बंधु ॥
रवि ऊपरि गहि राखिआ चंदु ॥
पछम दुआरै सूरजु तपै ॥
मेर डंड सिर ऊपरि बसै ॥२॥
पसचम दुआरे की सिल ओड़ ॥
तिह सिल ऊपरि खिड़की अउर ॥
खिड़की ऊपरि दसवा दुआरु ॥
कहि कबीर ता का अंतु न पारु ॥३॥२॥१०॥1159॥
142. जल महि मीन माइआ के बेधे
जल महि मीन माइआ के बेधे ॥
दीपक पतंग माइआ के छेदे ॥
काम माइआ कुंचर कउ बिआपै ॥
भुइअंगम भ्रिंग माइआ महि खापे ॥१॥
माइआ ऐसी मोहनी भाई ॥
जेते जीअ तेते डहकाई ॥१॥ रहाउ ॥
पंखी म्रिग माइआ महि राते ॥
साकर माखी अधिक संतापे ॥
तुरे उसट माइआ महि भेला ॥
सिध चउरासीह माइआ महि खेला ॥२॥
छिअ जती माइआ के बंदा ॥
नवै नाथ सूरज अरु चंदा ॥
तपे रखीसर माइआ महि सूता ॥
माइआ महि कालु अरु पंच दूता ॥३॥
सुआन सिआल माइआ महि राता ॥
बंतर चीते अरु सिंघाता ॥
मांजार गाडर अरु लूबरा ॥
बिरख मूल माइआ महि परा ॥४॥
माइआ अंतरि भीने देव ॥
सागर इंद्रा अरु धरतेव ॥
कहि कबीर जिसु उदरु तिसु माइआ ॥
तब छूटे जब साधू पाइआ ॥५॥५॥१३॥1160॥
143. सतरि सैइ सलार है जा के
सतरि सैइ सलार है जा के ॥
सवा लाखु पैकाबर ता के ॥
सेख जु कहीअहि कोटि अठासी ॥
छपन कोटि जा के खेल खासी ॥१॥
मो गरीब की को गुजरावै ॥
मजलसि दूरि महलु को पावै ॥१॥ रहाउ ॥
तेतीस करोड़ी है खेल खाना ॥
चउरासी लख फिरै दिवानां ॥
बाबा आदम कउ किछु नदरि दिखाई ॥
उनि भी भिसति घनेरी पाई ॥२॥
दिल खलहलु जा कै जरद रू बानी ॥
छोडि कतेब करै सैतानी ॥
दुनीआ दोसु रोसु है लोई ॥
अपना कीआ पावै सोई ॥३॥
तुम दाते हम सदा भिखारी ॥
देउ जबाबु होइ बजगारी ॥
दासु कबीरु तेरी पनह समानां ॥
भिसतु नजीकि राखु रहमाना ॥४॥७॥१५॥1161॥
144. किउ लीजै गढु बंका भाई
किउ लीजै गढु बंका भाई ॥
दोवर कोट अरु तेवर खाई ॥१॥ रहाउ ॥
पांच पचीस मोह मद मतसर आडी परबल माइआ ॥
जन गरीब को जोरु न पहुचै कहा करउ रघुराइआ ॥१॥
कामु किवारी दुखु सुखु दरवानी पापु पुंनु दरवाजा ॥
क्रोधु प्रधानु महा बड दुंदर तह मनु मावासी राजा ॥२॥
स्वाद सनाह टोपु ममता को कुबुधि कमान चढाई ॥
तिसना तीर रहे घट भीतरि इउ गढु लीओ न जाई ॥३॥
प्रेम पलीता सुरति हवाई गोला गिआनु चलाइआ ॥
ब्रहम अगनि सहजे परजाली एकहि चोट सिझाइआ ॥४॥
सतु संतोखु लै लरने लागा तोरे दुइ दरवाजा ॥
साधसंगति अरु गुर की क्रिपा ते पकरिओ गढ को राजा ॥५॥
भगवत भीरि सकति सिमरन की कटी काल भै फासी ॥
दासु कमीरु चड़्हिओ गड़्ह ऊपरि राजु लीओ अबिनासी ॥६॥९॥१७॥1161॥
145. अगम द्रुगम गड़ि रचिओ बास
अगम द्रुगम गड़ि रचिओ बास ॥
जा महि जोति करे परगास ॥
बिजुली चमकै होइ अनंदु ॥
जिह पउड़्हे प्रभ बाल गोबिंद ॥१॥
इहु जीउ राम नाम लिव लागै ॥
जरा मरनु छूटै भ्रमु भागै ॥१॥ रहाउ ॥
अबरन बरन सिउ मन ही प्रीति ॥
हउमै गावनि गावहि गीत ॥
अनहद सबद होत झुनकार ॥
जिह पउड़्हे प्रभ स्री गोपाल ॥२॥
खंडल मंडल मंडल मंडा ॥
त्रिअ असथान तीनि त्रिअ खंडा ॥
अगम अगोचरु रहिआ अभ अंत ॥
पारु न पावै को धरनीधर मंत ॥३॥
कदली पुहप धूप परगास ॥
रज पंकज महि लीओ निवास ॥
दुआदस दल अभ अंतरि मंत ॥
जह पउड़े स्री कमला कंत ॥४॥
अरध उरध मुखि लागो कासु ॥
सुंन मंडल महि करि परगासु ॥
ऊहां सूरज नाही चंद ॥
आदि निरंजनु करै अनंद ॥५॥
सो ब्रहमंडि पिंडि सो जानु ॥
मान सरोवरि करि इसनानु ॥
सोहं सो जा कउ है जाप ॥
जा कउ लिपत न होइ पुंन अरु पाप ॥६॥
अबरन बरन घाम नही छाम ॥
अवर न पाईऐ गुर की साम ॥
टारी न टरै आवै न जाइ ॥
सुंन सहज महि रहिओ समाइ ॥७॥
मन मधे जानै जे कोइ ॥
जो बोलै सो आपै होइ ॥
जोति मंत्रि मनि असथिरु करै ॥
कहि कबीर सो प्रानी तरै ॥८॥१॥1162॥
146. कोटि सूर जा कै परगास
कोटि सूर जा कै परगास ॥
कोटि महादेव अरु कबिलास ॥
दुरगा कोटि जा कै मरदनु करै ॥
ब्रहमा कोटि बेद उचरै ॥१॥
जउ जाचउ तउ केवल राम ॥
आन देव सिउ नाही काम ॥१॥ रहाउ ॥
कोटि चंद्रमे करहि चराक ॥
सुर तेतीसउ जेवहि पाक ॥
नव ग्रह कोटि ठाढे दरबार ॥
धरम कोटि जा कै प्रतिहार ॥२॥
पवन कोटि चउबारे फिरहि ॥
बासक कोटि सेज बिसथरहि ॥
समुंद कोटि जा के पानीहार ॥
रोमावलि कोटि अठारह भार ॥३॥
कोटि कमेर भरहि भंडार ॥
कोटिक लखिमी करै सीगार ॥
कोटिक पाप पुंन बहु हिरहि ॥
इंद्र कोटि जा के सेवा करहि ॥४॥
छपन कोटि जा कै प्रतिहार ॥
नगरी नगरी खिअत अपार ॥
लट छूटी वरतै बिकराल ॥
कोटि कला खेलै गोपाल ॥५॥
कोटि जग जा कै दरबार ॥
गंध्रब कोटि करहि जैकार ॥
बिदिआ कोटि सभै गुन कहै ॥
तऊ पारब्रहम का अंतु न लहै ॥६॥
बावन कोटि जा कै रोमावली ॥
रावन सैना जह ते छली ॥
सहस कोटि बहु कहत पुरान ॥
दुरजोधन का मथिआ मानु ॥७॥
कंद्रप कोटि जा कै लवै न धरहि ॥
अंतर अंतरि मनसा हरहि ॥
कहि कबीर सुनि सारिगपान ॥
देहि अभै पदु मांगउ दान ॥८॥२॥१८॥२०॥1162॥
147. जोइ खसमु है जाइआ
जोइ खसमु है जाइआ ॥
पूति बापु खेलाइआ ॥
बिनु स्रवणा खीरु पिलाइआ ॥१॥
देखहु लोगा कलि को भाउ ॥
सुति मुकलाई अपनी माउ ॥१॥ रहाउ ॥
पगा बिनु हुरीआ मारता ॥
बदनै बिनु खिर खिर हासता ॥
निद्रा बिनु नरु पै सोवै ॥
बिनु बासन खीरु बिलोवै ॥२॥
बिनु असथन गऊ लवेरी ॥
पैडे बिनु बाट घनेरी ॥
बिनु सतिगुर बाट न पाई ॥
कहु कबीर समझाई ॥३॥३॥1194॥
148. इसु तन मन मधे मदन चोर
इसु तन मन मधे मदन चोर ॥
जिनि गिआन रतनु हिरि लीन मोर ॥
मै अनाथु प्रभ कहउ काहि ॥
को को न बिगूतो मै को आहि ॥१॥
माधउ दारुन दुखु सहिओ न जाइ ॥
मेरो चपल बुधि सिउ कहा बसाइ ॥१॥ रहाउ ॥
सनक सनंदन सिव सुकादि ॥
नाभि कमल जाने ब्रहमादि ॥
कबि जन जोगी जटाधारि ॥
सभ आपन अउसर चले सारि ॥२॥
तू अथाहु मोहि थाह नाहि ॥
प्रभ दीना नाथ दुखु कहउ काहि ॥
मोरो जनम मरन दुखु आथि धीर ॥
सुख सागर गुन रउ कबीर ॥३॥५॥1194॥
149. नाइकु एकु बनजारे पाच
नाइकु एकु बनजारे पाच ॥
बरध पचीसक संगु काच ॥
नउ बहीआं दस गोनि आहि ॥
कसनि बहतरि लागी ताहि ॥१॥
मोहि ऐसे बनज सिउ नहीन काजु ॥
जिह घटै मूलु नित बढै बिआजु ॥ रहाउ ॥
सात सूत मिलि बनजु कीन ॥
करम भावनी संग लीन ॥
तीनि जगाती करत रारि ॥
चलो बनजारा हाथ झारि ॥२॥
पूंजी हिरानी बनजु टूट ॥
दह दिस टांडो गइओ फूटि ॥
कहि कबीर मन सरसी काज ॥
सहज समानो त भरम भाज ॥३॥६॥1194॥
150. सुरह की जैसी तेरी चाल
सुरह की जैसी तेरी चाल ॥
तेरी पूंछट ऊपरि झमक बाल ॥१॥
इस घर महि है सु तू ढूंढि खाहि ॥
अउर किस ही के तू मति ही जाहि ॥१॥ रहाउ ॥
चाकी चाटहि चूनु खाहि ॥
चाकी का चीथरा कहां लै जाहि ॥२॥
छीके पर तेरी बहुतु डीठि ॥
मतु लकरी सोटा तेरी परै पीठि ॥३॥
कहि कबीर भोग भले कीन ॥
मति कोऊ मारै ईंट ढेम ॥४॥१॥1196॥
(नोट=ये सभी पद/शब्द गुरू ग्रंथ साहब में शामिल हैं)
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Hindi Kavita
हिंदी कविता
Dohe Bhagat Kabir Ji
दोहे भक्त कबीर जी
अ
अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥
आ
आया था किस काम को, तू सोया चादर तान ।
सुरत सम्भाल ए गाफिला, अपना आप पहचान ॥
आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥
ऊ
ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय ।
नीचा हो सो भर पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥
ऐ
ऐसी वाणी बोलीए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होय ॥
क
कबिरा माला मनहि की, और संसारी भेख ।
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥
कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ॥
कबीरा जपनी काठ की, क्या दिखलावे लोय ।
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥
कबीरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥
कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।
टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥
कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ॥
कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय ।
एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥
कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥
काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया वैद ईश बस, मर्म न काहू पाय ॥
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि करे तन छार ।
साधु वचन जल रूप है, बरसे अमृत धार ॥
क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांहि ।
साँस-सांस सुमरिन करो और यत्न कुछ नांहि ॥
ग
गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच ।
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥
छ
छिन ही चढ़े छिन उतरे, सो तो प्रेम न होय ।
अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥
ज
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा जो डाल दे, दया करे सब कोय ॥
जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय ।
प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय ॥
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।
नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावे सोय ॥
जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥
जब ही नाम हिरदे धरा, भया पाप का नाश ।
मानो चिंगारी आग की, परी पुरानी घास ॥
जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश ।
मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास ॥
जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम ।
माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥
जहाँ आपा तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटें, चारों दीर्घ रोग ॥
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥
जा कारण जग ढूंढिया, सो तो घट ही माहिं ।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥
जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय ।
सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान ॥
जो तोको कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।
तोको फूल के फूल है, वाको है त्रिशूल ॥
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें है, जाग सके तो जाग ॥
त
तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय ।
कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय ॥
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥
तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँयन तर होय ।
कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय ॥
तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार ।
सत्गुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार ॥
तेरा साँई तुझमें है, ज्यों पहुपन में बास ।
कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढ़ूँढ़त घास ॥
द
दया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय ।
सांई के सब जीव हैं, कीरी कुंजर दोय ॥
दस द्वारे का पिंजरा, ता में पंछी कौन ।
रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥
दान दिए धन ना घटे, नदी न घटे नीर ।
अपनी आँखों देख लो, यों कह गए कबीर ॥
दिल का महरम ना मिला, जो मिला सो गर्जी ।
कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥
दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥
दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय ।
बिना जीभ की हाय से, लोह भस्म हो जाय ॥
दुर्लभ मानुष जन्म है, होय न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार ॥
ध
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥
न
नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥
प
पतिवृता मैली भली, काली कुचल कुरूप ।
पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-परजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥
फ
फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।
कहे कबीर सेवक नहीं, चाहै चौगुना दाम ॥
फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त ।
जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥
ब
बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार ।
मानुष से देवता किया करत न लागी बार ॥
बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥
बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥
बाहर क्या दिखलाईए, अन्तर जपिए राम ।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥
बैद मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार ।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥
भ
भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय ।
कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥
म
माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोहि ।
इक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोहि ॥
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भगतां के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥
मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष ।
जो कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ॥
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ॥
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन से मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥
मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार ।
तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥
र
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल है, कौड़ी बदले जाय ॥
ल
लागी लगन छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय ।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥
श
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥
स
सब ते लघुताई भली, लघुता ते सब होय ।
जैसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥
साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ।
सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥
सुख में सुमरिन ना किया, दु:ख में किया याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥
सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह ।
शब्द बिना साधु नहीं, द्रव्य बिना नहीं शाह ॥
सुमरित सुरत जगाय कर, मुख से कछु न बोल ।
बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥
सुमरिन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
कहै कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥
सोया साधु जगाइए, करे नाम का जाप ।
यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥
संत ही ते सत बांटई, रोटी में ते टूक ।
कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥
ह
हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट ।
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥
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Hindi Kavita
हिंदी कविता
Salok Bhagat Kabir Ji in Hindi
सलोक/श्लोक भक्त कबीर जी
सलोक भगत कबीर जीउ के
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
कबीर मेरी सिमरनी रसना ऊपरि रामु ॥
आदि जुगादी सगल भगत ता को सुखु बिस्रामु ॥१॥
कबीर मेरी जाति कउ सभु को हसनेहारु ॥
बलिहारी इस जाति कउ जिह जपिओ सिरजनहारु ॥२॥
कबीर डगमग किआ करहि कहा डुलावहि जीउ ॥
सरब सूख को नाइको राम नाम रसु पीउ ॥३॥
कबीर कंचन के कुंडल बने ऊपरि लाल जड़ाउ ॥
दीसहि दाधे कान जिउ जिन्ह मनि नाही नाउ ॥४॥
कबीर ऐसा एकु आधु जो जीवत मिरतकु होइ ॥
निरभै होइ कै गुन रवै जत पेखउ तत सोइ ॥५॥
कबीर जा दिन हउ मूआ पाछै भइआ अनंदु ॥
मोहि मिलिओ प्रभु आपना संगी भजहि गोबिंदु ॥६॥
कबीर सभ ते हम बुरे हम तजि भलो सभु कोइ ॥
जिनि ऐसा करि बूझिआ मीतु हमारा सोइ ॥७॥
कबीर आई मुझहि पहि अनिक करे करि भेस ॥
हम राखे गुर आपने उनि कीनो आदेसु ॥८॥
कबीर सोई मारीऐ जिह मूऐ सुखु होइ ॥
भलो भलो सभु को कहै बुरो न मानै कोइ ॥९॥
कबीर राती होवहि कारीआ कारे ऊभे जंत ॥
लै फाहे उठि धावते सि जानि मारे भगवंत ॥१०॥
कबीर चंदन का बिरवा भला बेड़्हिओ ढाक पलास ॥
ओइ भी चंदनु होइ रहे बसे जु चंदन पासि ॥११॥
कबीर बांसु बडाई बूडिआ इउ मत डूबहु कोइ ॥
चंदन कै निकटे बसै बांसु सुगंधु न होइ ॥१२॥
कबीर दीनु गवाइआ दुनी सिउ दुनी न चाली साथि ॥
पाइ कुहाड़ा मारिआ गाफलि अपुनै हाथि ॥१३॥
कबीर जह जह हउ फिरिओ कउतक ठाओ ठाइ ॥
इक राम सनेही बाहरा ऊजरु मेरै भांइ ॥१४॥
कबीर संतन की झुंगीआ भली भठि कुसती गाउ ॥
आगि लगउ तिह धउलहर जिह नाही हरि को नाउ ॥१५॥
कबीर संत मूए किआ रोईऐ जो अपुने ग्रिहि जाइ ॥
रोवहु साकत बापुरे जु हाटै हाट बिकाइ ॥१६॥
कबीर साकतु ऐसा है जैसी लसन की खानि ॥
कोने बैठे खाईऐ परगट होइ निदानि ॥१७॥
कबीर माइआ डोलनी पवनु झकोलनहारु ॥
संतहु माखनु खाइआ छाछि पीऐ संसारु ॥१८॥
कबीर माइआ डोलनी पवनु वहै हिव धार ॥
जिनि बिलोइआ तिनि खाइआ अवर बिलोवनहार ॥१९॥
कबीर माइआ चोरटी मुसि मुसि लावै हाटि ॥
एकु कबीरा ना मुसै जिनि कीनी बारह बाट ॥२०॥
कबीर सूखु न एंह जुगि करहि जु बहुतै मीत ॥
जो चितु राखहि एक सिउ ते सुखु पावहि नीत ॥२१॥
कबीर जिसु मरने ते जगु डरै मेरे मनि आनंदु ॥
मरने ही ते पाईऐ पूरनु परमानंदु ॥२२॥
राम पदारथु पाइ कै कबीरा गांठि न खोल्ह ॥
नही पटणु नही पारखू नही गाहकु नही मोलु ॥२३॥
कबीर ता सिउ प्रीति करि जा को ठाकुरु रामु ॥
पंडित राजे भूपती आवहि कउने काम ॥२४॥
कबीर प्रीति इक सिउ कीए आन दुबिधा जाइ ॥
भावै लांबे केस करु भावै घररि मुडाइ ॥२५॥
कबीर जगु काजल की कोठरी अंध परे तिस माहि ॥
हउ बलिहारी तिन कउ पैसि जु नीकसि जाहि ॥२६॥
कबीर इहु तनु जाइगा सकहु त लेहु बहोरि ॥
नांगे पावहु ते गए जिन के लाख करोरि ॥२७॥
कबीर इहु तनु जाइगा कवनै मारगि लाइ ॥
कै संगति करि साध की कै हरि के गुन गाइ ॥२८॥
कबीर मरता मरता जगु मूआ मरि भी न जानिआ कोइ ॥
ऐसे मरने जो मरै बहुरि न मरना होइ ॥२९॥
कबीर मानस जनमु दुल्मभु है होइ न बारै बार ॥
जिउ बन फल पाके भुइ गिरहि बहुरि न लागहि डार ॥३०॥
कबीरा तुही कबीरु तू तेरो नाउ कबीरु ॥
राम रतनु तब पाईऐ जउ पहिले तजहि सरीरु ॥३१॥
कबीर झंखु न झंखीऐ तुमरो कहिओ न होइ ॥
करम करीम जु करि रहे मेटि न साकै कोइ ॥३२॥
कबीर कसउटी राम की झूठा टिकै न कोइ ॥
राम कसउटी सो सहै जो मरि जीवा होइ ॥३३॥
कबीर ऊजल पहिरहि कापरे पान सुपारी खाहि ॥
एकस हरि के नाम बिनु बाधे जम पुरि जांहि ॥३४॥
कबीर बेड़ा जरजरा फूटे छेंक हजार ॥
हरूए हरूए तिरि गए डूबे जिन सिर भार ॥३५॥
कबीर हाड जरे जिउ लाकरी केस जरे जिउ घासु ॥
इहु जगु जरता देखि कै भइओ कबीरु उदासु ॥३६॥
कबीर गरबु न कीजीऐ चाम लपेटे हाड ॥
हैवर ऊपरि छत्र तर ते फुनि धरनी गाड ॥३७॥
कबीर गरबु न कीजीऐ ऊचा देखि अवासु ॥
आजु काल्हि भुइ लेटणा ऊपरि जामै घासु ॥३८॥
कबीर गरबु न कीजीऐ रंकु न हसीऐ कोइ ॥
अजहु सु नाउ समुंद्र महि किआ जानउ किआ होइ ॥३९॥
कबीर गरबु न कीजीऐ देही देखि सुरंग ॥
आजु काल्हि तजि जाहुगे जिउ कांचुरी भुयंग ॥४०॥
कबीर लूटना है त लूटि लै राम नाम है लूटि ॥
फिरि पाछै पछुताहुगे प्रान जाहिंगे छूटि ॥४१॥
कबीर ऐसा कोई न जनमिओ अपनै घरि लावै आगि ॥
पांचउ लरिका जारि कै रहै राम लिव लागि ॥४२॥
को है लरिका बेचई लरिकी बेचै कोइ ॥
साझा करै कबीर सिउ हरि संगि बनजु करेइ ॥४३॥
कबीर इह चेतावनी मत सहसा रहि जाइ ॥
पाछै भोग जु भोगवे तिन को गुड़ु लै खाहि ॥४४॥
कबीर मै जानिओ पड़िबो भलो पड़िबे सिउ भल जोगु ॥
भगति न छाडउ राम की भावै निंदउ लोगु ॥४५॥
कबीर लोगु कि निंदै बपुड़ा जिह मनि नाही गिआनु ॥
राम कबीरा रवि रहे अवर तजे सभ काम ॥४६॥
कबीर परदेसी कै घाघरै चहु दिसि लागी आगि ॥
खिंथा जलि कोइला भई तागे आंच न लाग ॥४७॥
कबीर खिंथा जलि कोइला भई खापरु फूट मफूट ॥
जोगी बपुड़ा खेलिओ आसनि रही बिभूति ॥४८॥
कबीर थोरै जलि माछुली झीवरि मेलिओ जालु ॥
इह टोघनै न छूटसहि फिरि करि समुंदु सम्हालि ॥४९॥
कबीर समुंदु न छोडीऐ जउ अति खारो होइ ॥
पोखरि पोखरि ढूढते भलो न कहिहै कोइ ॥५०॥
कबीर निगुसांएं बहि गए थांघी नाही कोइ ॥
दीन गरीबी आपुनी करते होइ सु होइ ॥५१॥
कबीर बैसनउ की कूकरि भली साकत की बुरी माइ ॥
ओह नित सुनै हरि नाम जसु उह पाप बिसाहन जाइ ॥५२॥
कबीर हरना दूबला इहु हरीआरा तालु ॥
लाख अहेरी एकु जीउ केता बंचउ कालु ॥५३॥
कबीर गंगा तीर जु घरु करहि पीवहि निरमल नीरु ॥
बिनु हरि भगति न मुकति होइ इउ कहि रमे कबीर ॥५४॥
कबीर मनु निरमलु भइआ जैसा गंगा नीरु ॥
पाछै लागो हरि फिरै कहत कबीर कबीर ॥५५॥
कबीर हरदी पीअरी चूंनां ऊजल भाइ ॥
राम सनेही तउ मिलै दोनउ बरन गवाइ ॥५६॥
कबीर हरदी पीरतनु हरै चून चिहनु न रहाइ ॥
बलिहारी इह प्रीति कउ जिह जाति बरनु कुलु जाइ ॥५७॥
कबीर मुकति दुआरा संकुरा राई दसएं भाइ ॥
मनु तउ मैगलु होइ रहिओ निकसो किउ कै जाइ ॥५८॥
कबीर ऐसा सतिगुरु जे मिलै तुठा करे पसाउ ॥
मुकति दुआरा मोकला सहजे आवउ जाउ ॥५९॥
कबीर ना मोहि छानि न छापरी ना मोहि घरु नही गाउ ॥
मत हरि पूछै कउनु है मेरे जाति न नाउ ॥६०॥
कबीर मुहि मरने का चाउ है मरउ त हरि कै दुआर ॥
मत हरि पूछै कउनु है परा हमारै बार ॥६१॥
कबीर ना हम कीआ न करहिगे ना करि सकै सरीरु ॥
किआ जानउ किछु हरि कीआ भइओ कबीरु कबीरु ॥६२॥
कबीर सुपनै हू बरड़ाइ कै जिह मुखि निकसै रामु ॥
ता के पग की पानही मेरे तन को चामु ॥६३॥
कबीर माटी के हम पूतरे मानसु राखिओ नाउ ॥
चारि दिवस के पाहुने बड बड रूंधहि ठाउ ॥६४॥
कबीर महिदी करि घालिआ आपु पीसाइ पीसाइ ॥
तै सह बात न पूछीऐ कबहु न लाई पाइ ॥६५॥
कबीर जिह दरि आवत जातिअहु हटकै नाही कोइ ॥
सो दरु कैसे छोडीऐ जो दरु ऐसा होइ ॥६६॥
कबीर डूबा था पै उबरिओ गुन की लहरि झबकि ॥
जब देखिओ बेड़ा जरजरा तब उतरि परिओ हउ फरकि ॥६७॥
कबीर पापी भगति न भावई हरि पूजा न सुहाइ ॥
माखी चंदनु परहरै जह बिगंध तह जाइ ॥६८॥
कबीर बैदु मूआ रोगी मूआ मूआ सभु संसारु ॥
एकु कबीरा ना मूआ जिह नाही रोवनहारु ॥६९॥
कबीर रामु न धिआइओ मोटी लागी खोरि ॥
काइआ हांडी काठ की ना ओह चर्है बहोरि ॥७०॥
कबीर ऐसी होइ परी मन को भावतु कीनु ॥
मरने ते किआ डरपना जब हाथि सिधउरा लीन ॥७१॥
कबीर रस को गांडो चूसीऐ गुन कउ मरीऐ रोइ ॥
अवगुनीआरे मानसै भलो न कहिहै कोइ ॥७२॥
कबीर गागरि जल भरी आजु काल्हि जैहै फूटि ॥
गुरु जु न चेतहि आपनो अध माझि लीजहिगे लूटि ॥७३॥
कबीर कूकरु राम को मुतीआ मेरो नाउ ॥
गले हमारे जेवरी जह खिंचै तह जाउ ॥७४॥
कबीर जपनी काठ की किआ दिखलावहि लोइ ॥
हिरदै रामु न चेतही इह जपनी किआ होइ ॥७५॥
कबीर बिरहु भुयंगमु मनि बसै मंतु न मानै कोइ ॥
राम बिओगी ना जीऐ जीऐ त बउरा होइ ॥७६॥
कबीर पारस चंदनै तिन्ह है एक सुगंध ॥
तिह मिलि तेऊ ऊतम भए लोह काठ निरगंध ॥७७॥
कबीर जम का ठेंगा बुरा है ओहु नही सहिआ जाइ ॥
एकु जु साधू मोहि मिलिओ तिन्हि लीआ अंचलि लाइ ॥७८॥
कबीर बैदु कहै हउ ही भला दारू मेरै वसि ॥
इह तउ बसतु गुपाल की जब भावै लेइ खसि ॥७९॥
कबीर नउबति आपनी दिन दस लेहु बजाइ ॥
नदी नाव संजोग जिउ बहुरि न मिलहै आइ ॥८०॥
कबीर सात समुंदहि मसु करउ कलम करउ बनराइ ॥
बसुधा कागदु जउ करउ हरि जसु लिखनु न जाइ ॥८१॥
कबीर जाति जुलाहा किआ करै हिरदै बसे गुपाल ॥
कबीर रमईआ कंठि मिलु चूकहि सरब जंजाल ॥८२॥
कबीर ऐसा को नही मंदरु देइ जराइ ॥
पांचउ लरिके मारि कै रहै राम लिउ लाइ ॥८३॥
कबीर ऐसा को नही इहु तनु देवै फूकि ॥
अंधा लोगु न जानई रहिओ कबीरा कूकि ॥८४॥
कबीर सती पुकारै चिह चड़ी सुनु हो बीर मसान ॥
लोगु सबाइआ चलि गइओ हम तुम कामु निदान ॥८५॥
कबीर मनु पंखी भइओ उडि उडि दह दिस जाइ ॥
जो जैसी संगति मिलै सो तैसो फलु खाइ ॥८६॥
कबीर जा कउ खोजते पाइओ सोई ठउरु ॥
सोई फिरि कै तू भइआ जा कउ कहता अउरु ॥८७॥
कबीर मारी मरउ कुसंग की केले निकटि जु बेरि ॥
उह झूलै उह चीरीऐ साकत संगु न हेरि ॥८८॥
कबीर भार पराई सिरि चरै चलिओ चाहै बाट ॥
अपने भारहि ना डरै आगै अउघट घाट ॥८९॥
कबीर बन की दाधी लाकरी ठाढी करै पुकार ॥
मति बसि परउ लुहार के जारै दूजी बार ॥९०॥
कबीर एक मरंते दुइ मूए दोइ मरंतह चारि ॥
चारि मरंतह छह मूए चारि पुरख दुइ नारि ॥९१॥
कबीर देखि देखि जगु ढूंढिआ कहूं न पाइआ ठउरु ॥
जिनि हरि का नामु न चेतिओ कहा भुलाने अउर ॥९२॥
कबीर संगति करीऐ साध की अंति करै निरबाहु ॥
साकत संगु न कीजीऐ जा ते होइ बिनाहु ॥९३॥
कबीर जग महि चेतिओ जानि कै जग महि रहिओ समाइ ॥
जिन हरि का नामु न चेतिओ बादहि जनमें आइ ॥९४॥
कबीर आसा करीऐ राम की अवरै आस निरास ॥
नरकि परहि ते मानई जो हरि नाम उदास ॥९५॥
कबीर सिख साखा बहुते कीए केसो कीओ न मीतु ॥
चाले थे हरि मिलन कउ बीचै अटकिओ चीतु ॥९६॥
कबीर कारनु बपुरा किआ करै जउ रामु न करै सहाइ ॥
जिह जिह डाली पगु धरउ सोई मुरि मुरि जाइ ॥९७॥
कबीर अवरह कउ उपदेसते मुख मै परि है रेतु ॥
रासि बिरानी राखते खाया घर का खेतु ॥९८॥
कबीर साधू की संगति रहउ जउ की भूसी खाउ ॥
होनहारु सो होइहै साकत संगि न जाउ ॥९९॥
कबीर संगति साध की दिन दिन दूना हेतु ॥
साकत कारी कांबरी धोए होइ न सेतु ॥१००॥
कबीर मनु मूंडिआ नही केस मुंडाए कांइ ॥
जो किछु कीआ सो मन कीआ मूंडा मूंडु अजांइ ॥१०१॥
कबीर रामु न छोडीऐ तनु धनु जाइ त जाउ ॥
चरन कमल चितु बेधिआ रामहि नामि समाउ ॥१०२॥
कबीर जो हम जंतु बजावते टूटि गईं सभ तार ॥
जंतु बिचारा किआ करै चले बजावनहार ॥१०३॥
कबीर माइ मूंडउ तिह गुरू की जा ते भरमु न जाइ ॥
आप डुबे चहु बेद महि चेले दीए बहाइ ॥१०४॥
कबीर जेते पाप कीए राखे तलै दुराइ ॥
परगट भए निदान सभ जब पूछे धरम राइ ॥१०५॥
कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै पालिओ बहुतु कुट्मबु ॥
धंधा करता रहि गइआ भाई रहिआ न बंधु ॥१०६॥
कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै राति जगावन जाइ ॥
सरपनि होइ कै अउतरै जाए अपुने खाइ ॥१०७॥
कबीर हरि का सिमरनु छाडि कै अहोई राखै नारि ॥
गदही होइ कै अउतरै भारु सहै मन चारि ॥१०८॥
कबीर चतुराई अति घनी हरि जपि हिरदै माहि ॥
सूरी ऊपरि खेलना गिरै त ठाहर नाहि ॥१०९॥
कबीर सोई मुखु धंनि है जा मुखि कहीऐ रामु ॥
देही किस की बापुरी पवित्रु होइगो ग्रामु ॥११०॥
कबीर सोई कुल भली जा कुल हरि को दासु ॥
जिह कुल दासु न ऊपजै सो कुल ढाकु पलासु ॥१११॥
कबीर है गइ बाहन सघन घन लाख धजा फहराहि ॥
इआ सुख ते भिख्या भली जउ हरि सिमरत दिन जाहि ॥११२॥
कबीर सभु जगु हउ फिरिओ मांदलु कंध चढाइ ॥
कोई काहू को नही सभ देखी ठोकि बजाइ ॥११३॥
मारगि मोती बीथरे अंधा निकसिओ आइ ॥
जोति बिना जगदीस की जगतु उलंघे जाइ ॥११४॥
बूडा बंसु कबीर का उपजिओ पूतु कमालु ॥
हरि का सिमरनु छाडि कै घरि ले आया मालु ॥११५॥
कबीर साधू कउ मिलने जाईऐ साथि न लीजै कोइ ॥
पाछै पाउ न दीजीऐ आगै होइ सु होइ ॥११६॥
कबीर जगु बाधिओ जिह जेवरी तिह मत बंधहु कबीर ॥
जैहहि आटा लोन जिउ सोन समानि सरीरु ॥११७॥
कबीर हंसु उडिओ तनु गाडिओ सोझाई सैनाह ॥
अजहू जीउ न छोडई रंकाई नैनाह ॥११८॥
कबीर नैन निहारउ तुझ कउ स्रवन सुनउ तुअ नाउ ॥
बैन उचरउ तुअ नाम जी चरन कमल रिद ठाउ ॥११९॥
कबीर सुरग नरक ते मै रहिओ सतिगुर के परसादि ॥
चरन कमल की मउज महि रहउ अंति अरु आदि ॥१२०॥
कबीर चरन कमल की मउज को कहि कैसे उनमान ॥
कहिबे कउ सोभा नही देखा ही परवानु ॥१२१॥
कबीर देखि कै किह कहउ कहे न को पतीआइ ॥
हरि जैसा तैसा उही रहउ हरखि गुन गाइ ॥१२२॥
कबीर चुगै चितारै भी चुगै चुगि चुगि चितारे ॥
जैसे बचरहि कूंज मन माइआ ममता रे ॥१२३॥
कबीर अम्बर घनहरु छाइआ बरखि भरे सर ताल ॥
चात्रिक जिउ तरसत रहै तिन को कउनु हवालु ॥१२४॥
कबीर चकई जउ निसि बीछुरै आइ मिलै परभाति ॥
जो नर बिछुरे राम सिउ ना दिन मिले न राति ॥१२५॥
कबीर रैनाइर बिछोरिआ रहु रे संख मझूरि ॥
देवल देवल धाहड़ी देसहि उगवत सूर ॥१२६॥
कबीर सूता किआ करहि जागु रोइ भै दुख ॥
जा का बासा गोर महि सो किउ सोवै सुख ॥१२७॥
कबीर सूता किआ करहि उठि कि न जपहि मुरारि ॥
इक दिन सोवनु होइगो लांबे गोड पसारि ॥१२८॥
कबीर सूता किआ करहि बैठा रहु अरु जागु ॥
जा के संग ते बीछुरा ता ही के संगि लागु ॥१२९॥
कबीर संत की गैल न छोडीऐ मारगि लागा जाउ ॥
पेखत ही पुंनीत होइ भेटत जपीऐ नाउ ॥१३०॥
कबीर साकत संगु न कीजीऐ दूरहि जाईऐ भागि ॥
बासनु कारो परसीऐ तउ कछु लागै दागु ॥१३१॥
कबीरा रामु न चेतिओ जरा पहूंचिओ आइ ॥
लागी मंदिर दुआर ते अब किआ काढिआ जाइ ॥१३२॥
कबीर कारनु सो भइओ जो कीनो करतारि ॥
तिसु बिनु दूसरु को नही एकै सिरजनहारु ॥१३३॥
कबीर फल लागे फलनि पाकनि लागे आंब ॥
जाइ पहूचहि खसम कउ जउ बीचि न खाही कांब ॥१३४॥
कबीर ठाकुरु पूजहि मोलि ले मनहठि तीरथ जाहि ॥
देखा देखी स्वांगु धरि भूले भटका खाहि ॥१३५॥
कबीर पाहनु परमेसुरु कीआ पूजै सभु संसारु ॥
इस भरवासे जो रहे बूडे काली धार ॥१३६॥
कबीर कागद की ओबरी मसु के करम कपाट ॥
पाहन बोरी पिरथमी पंडित पाड़ी बाट ॥१३७॥
कबीर कालि करंता अबहि करु अब करता सुइ ताल ॥
पाछै कछू न होइगा जउ सिर परि आवै कालु ॥१३८॥
कबीर ऐसा जंतु इकु देखिआ जैसी धोई लाख ॥
दीसै चंचलु बहु गुना मति हीना नापाक ॥१३९॥
कबीर मेरी बुधि कउ जमु न करै तिसकार ॥
जिनि इहु जमूआ सिरजिआ सु जपिआ परविदगार ॥१४०॥
कबीरु कसतूरी भइआ भवर भए सभ दास ॥
जिउ जिउ भगति कबीर की तिउ तिउ राम निवास ॥१४१॥
कबीर गहगचि परिओ कुट्मब कै कांठै रहि गइओ रामु ॥
आइ परे धरम राइ के बीचहि धूमा धाम ॥१४२॥
कबीर साकत ते सूकर भला राखै आछा गाउ ॥
उहु साकतु बपुरा मरि गइआ कोइ न लैहै नाउ ॥१४३॥
कबीर कउडी कउडी जोरि कै जोरे लाख करोरि ॥
चलती बार न कछु मिलिओ लई लंगोटी तोरि ॥१४४॥
कबीर बैसनो हूआ त किआ भइआ माला मेलीं चारि ॥
बाहरि कंचनु बारहा भीतरि भरी भंगार ॥१४५॥
कबीर रोड़ा होइ रहु बाट का तजि मन का अभिमानु ॥
ऐसा कोई दासु होइ ताहि मिलै भगवानु ॥१४६॥
कबीर रोड़ा हूआ त किआ भइआ पंथी कउ दुखु देइ ॥
ऐसा तेरा दासु है जिउ धरनी महि खेह ॥१४७॥
कबीर खेह हूई तउ किआ भइआ जउ उडि लागै अंग ॥
हरि जनु ऐसा चाहीऐ जिउ पानी सरबंग ॥१४८॥
कबीर पानी हूआ त किआ भइआ सीरा ताता होइ ॥
हरि जनु ऐसा चाहीऐ जैसा हरि ही होइ ॥१४९॥
ऊच भवन कनकामनी सिखरि धजा फहराइ ॥
ता ते भली मधूकरी संतसंगि गुन गाइ ॥१५०॥
कबीर पाटन ते ऊजरु भला राम भगत जिह ठाइ ॥
राम सनेही बाहरा जम पुरु मेरे भांइ ॥१५१॥
कबीर गंग जमुन के अंतरे सहज सुंन के घाट ॥
तहा कबीरै मटु कीआ खोजत मुनि जन बाट ॥१५२॥
कबीर जैसी उपजी पेड ते जउ तैसी निबहै ओड़ि ॥
हीरा किस का बापुरा पुजहि न रतन करोड़ि ॥१५३॥
कबीरा एकु अच्मभउ देखिओ हीरा हाट बिकाइ ॥
बनजनहारे बाहरा कउडी बदलै जाइ ॥१५४॥
कबीरा जहा गिआनु तह धरमु है जहा झूठु तह पापु ॥
जहा लोभु तह कालु है जहा खिमा तह आपि ॥१५५॥
कबीर माइआ तजी त किआ भइआ जउ मानु तजिआ नही जाइ ॥
मान मुनी मुनिवर गले मानु सभै कउ खाइ ॥१५६॥
कबीर साचा सतिगुरु मै मिलिआ सबदु जु बाहिआ एकु ॥
लागत ही भुइ मिलि गइआ परिआ कलेजे छेकु ॥१५७॥
कबीर साचा सतिगुरु किआ करै जउ सिखा महि चूक ॥
अंधे एक न लागई जिउ बांसु बजाईऐ फूक ॥१५८॥
कबीर है गै बाहन सघन घन छत्रपती की नारि ॥
तासु पटंतर ना पुजै हरि जन की पनिहारि ॥१५९॥
कबीर न्रिप नारी किउ निंदीऐ किउ हरि चेरी कउ मानु ॥
ओह मांग सवारै बिखै कउ ओह सिमरै हरि नामु ॥१६०॥
कबीर थूनी पाई थिति भई सतिगुर बंधी धीर ॥
कबीर हीरा बनजिआ मान सरोवर तीर ॥१६१॥
कबीर हरि हीरा जन जउहरी ले कै मांडै हाट ॥
जब ही पाईअहि पारखू तब हीरन की साट ॥१६२॥
कबीर काम परे हरि सिमरीऐ ऐसा सिमरहु नित ॥
अमरा पुर बासा करहु हरि गइआ बहोरै बित ॥१६३॥
कबीर सेवा कउ दुइ भले एकु संतु इकु रामु ॥
रामु जु दाता मुकति को संतु जपावै नामु ॥१६४॥
कबीर जिह मारगि पंडित गए पाछै परी बहीर ॥
इक अवघट घाटी राम की तिह चड़ि रहिओ कबीर ॥१६५॥
कबीर दुनीआ के दोखे मूआ चालत कुल की कानि ॥
तब कुलु किस का लाजसी जब ले धरहि मसानि ॥१६६॥
कबीर डूबहिगो रे बापुरे बहु लोगन की कानि ॥
पारोसी के जो हूआ तू अपने भी जानु ॥१६७॥
कबीर भली मधूकरी नाना बिधि को नाजु ॥
दावा काहू को नही बडा देसु बड राजु ॥१६८॥
कबीर दावै दाझनु होतु है निरदावै रहै निसंक ॥
जो जनु निरदावै रहै सो गनै इंद्र सो रंक ॥१६९॥
कबीर पालि समुहा सरवरु भरा पी न सकै कोई नीरु ॥
भाग बडे तै पाइओ तूं भरि भरि पीउ कबीर ॥१७०॥
कबीर परभाते तारे खिसहि तिउ इहु खिसै सरीरु ॥
ए दुइ अखर ना खिसहि सो गहि रहिओ कबीरु ॥१७१॥
कबीर कोठी काठ की दह दिसि लागी आगि ॥
पंडित पंडित जलि मूए मूरख उबरे भागि ॥१७२॥
कबीर संसा दूरि करु कागद देह बिहाइ ॥
बावन अखर सोधि कै हरि चरनी चितु लाइ ॥१७३॥
कबीर संतु न छाडै संतई जउ कोटिक मिलहि असंत ॥
मलिआगरु भुयंगम बेढिओ त सीतलता न तजंत ॥१७४॥
कबीर मनु सीतलु भइआ पाइआ ब्रहम गिआनु ॥
जिनि जुआला जगु जारिआ सु जन के उदक समानि ॥१७५॥
कबीर सारी सिरजनहार की जानै नाही कोइ ॥
कै जानै आपन धनी कै दासु दीवानी होइ ॥१७६॥
कबीर भली भई जो भउ परिआ दिसा गईं सभ भूलि ॥
ओरा गरि पानी भइआ जाइ मिलिओ ढलि कूलि ॥१७७॥
कबीरा धूरि सकेलि कै पुरीआ बांधी देह ॥
दिवस चारि को पेखना अंति खेह की खेह ॥१७८॥
कबीर सूरज चांद कै उदै भई सभ देह ॥
गुर गोबिंद के बिनु मिले पलटि भई सभ खेह ॥१७९॥
जह अनभउ तह भै नही जह भउ तह हरि नाहि ॥
कहिओ कबीर बिचारि कै संत सुनहु मन माहि ॥१८०॥
कबीर जिनहु किछू जानिआ नही तिन सुख नीद बिहाइ ॥
हमहु जु बूझा बूझना पूरी परी बलाइ ॥१८१॥
कबीर मारे बहुतु पुकारिआ पीर पुकारै अउर ॥
लागी चोट मरम की रहिओ कबीरा ठउर ॥१८२॥
कबीर चोट सुहेली सेल की लागत लेइ उसास ॥
चोट सहारै सबद की तासु गुरू मै दास ॥१८३॥
कबीर मुलां मुनारे किआ चढहि सांई न बहरा होइ ॥
जा कारनि तूं बांग देहि दिल ही भीतरि जोइ ॥१८४॥
सेख सबूरी बाहरा किआ हज काबे जाइ ॥
कबीर जा की दिल साबति नही ता कउ कहां खुदाइ ॥१८५॥
कबीर अलह की करि बंदगी जिह सिमरत दुखु जाइ ॥
दिल महि सांई परगटै बुझै बलंती नांइ ॥१८६॥
कबीर जोरी कीए जुलमु है कहता नाउ हलालु ॥
दफतरि लेखा मांगीऐ तब होइगो कउनु हवालु ॥१८७॥
कबीर खूबु खाना खीचरी जा महि अम्रितु लोनु ॥
हेरा रोटी कारने गला कटावै कउनु ॥१८८॥
कबीर गुरु लागा तब जानीऐ मिटै मोहु तन ताप ॥
हरख सोग दाझै नही तब हरि आपहि आपि ॥१८९॥
कबीर राम कहन महि भेदु है ता महि एकु बिचारु ॥
सोई रामु सभै कहहि सोई कउतकहार ॥१९०॥
कबीर रामै राम कहु कहिबे माहि बिबेक ॥
एकु अनेकहि मिलि गइआ एक समाना एक ॥१९१॥
कबीर जा घर साध न सेवीअहि हरि की सेवा नाहि ॥
ते घर मरहट सारखे भूत बसहि तिन माहि ॥१९२॥
कबीर गूंगा हूआ बावरा बहरा हूआ कान ॥
पावहु ते पिंगुल भइआ मारिआ सतिगुर बान ॥१९३॥
कबीर सतिगुर सूरमे बाहिआ बानु जु एकु ॥
लागत ही भुइ गिरि परिआ परा करेजे छेकु ॥१९४॥
कबीर निरमल बूंद अकास की परि गई भूमि बिकार ॥
बिनु संगति इउ मांनई होइ गई भठ छार ॥१९५॥
कबीर निरमल बूंद अकास की लीनी भूमि मिलाइ ॥
अनिक सिआने पचि गए ना निरवारी जाइ ॥१९६॥
कबीर हज काबे हउ जाइ था आगै मिलिआ खुदाइ ॥
सांई मुझ सिउ लरि परिआ तुझै किन्हि फुरमाई गाइ ॥१९७॥
कबीर हज काबै होइ होइ गइआ केती बार कबीर ॥
सांई मुझ महि किआ खता मुखहु न बोलै पीर ॥१९८॥
कबीर जीअ जु मारहि जोरु करि कहते हहि जु हलालु ॥
दफतरु दई जब काढि है होइगा कउनु हवालु ॥१९९॥
कबीर जोरु कीआ सो जुलमु है लेइ जबाबु खुदाइ ॥
दफतरि लेखा नीकसै मार मुहै मुहि खाइ ॥२००॥
कबीर लेखा देना सुहेला जउ दिल सूची होइ ॥
उसु साचे दीबान महि पला न पकरै कोइ ॥२०१॥
कबीर धरती अरु आकास महि दुइ तूं बरी अबध ॥
खट दरसन संसे परे अरु चउरासीह सिध ॥२०२॥
कबीर मेरा मुझ महि किछु नही जो किछु है सो तेरा ॥
तेरा तुझ कउ सउपते किआ लागै मेरा ॥२०३॥
कबीर तूं तूं करता तू हूआ मुझ महि रहा न हूं ॥
जब आपा पर का मिटि गइआ जत देखउ तत तू ॥२०४॥
कबीर बिकारह चितवते झूठे करते आस ॥
मनोरथु कोइ न पूरिओ चाले ऊठि निरास ॥२०५॥
कबीर हरि का सिमरनु जो करै सो सुखीआ संसारि ॥
इत उत कतहि न डोलई जिस राखै सिरजनहार ॥२०६॥
कबीर घाणी पीड़ते सतिगुर लीए छडाइ ॥
परा पूरबली भावनी परगटु होई आइ ॥२०७॥
कबीर टालै टोलै दिनु गइआ बिआजु बढंतउ जाइ ॥
ना हरि भजिओ न खतु फटिओ कालु पहूंचो आइ ॥२०८॥
महला ५ ॥
कबीर कूकरु भउकना करंग पिछै उठि धाइ ॥
करमी सतिगुरु पाइआ जिनि हउ लीआ छडाइ ॥२०९॥
महला ५ ॥
कबीर धरती साध की तसकर बैसहि गाहि ॥
धरती भारि न बिआपई उन कउ लाहू लाहि ॥२१०॥
महला ५ ॥
कबीर चावल कारने तुख कउ मुहली लाइ ॥
संगि कुसंगी बैसते तब पूछै धरम राइ ॥२११॥
नामा माइआ मोहिआ कहै तिलोचनु मीत ॥
काहे छीपहु छाइलै राम न लावहु चीतु ॥२१२॥
नामा कहै तिलोचना मुख ते रामु सम्हालि ॥
हाथ पाउ करि कामु सभु चीतु निरंजन नालि ॥२१३॥
महला ५ ॥
कबीरा हमरा को नही हम किस हू के नाहि ॥
जिनि इहु रचनु रचाइआ तिस ही माहि समाहि ॥२१४॥
कबीर कीचड़ि आटा गिरि परिआ किछू न आइओ हाथ ॥
पीसत पीसत चाबिआ सोई निबहिआ साथ ॥२१५॥
कबीर मनु जानै सभ बात जानत ही अउगनु करै ॥
काहे की कुसलात हाथि दीपु कूए परै ॥२१६॥
कबीर लागी प्रीति सुजान सिउ बरजै लोगु अजानु ॥
ता सिउ टूटी किउ बनै जा के जीअ परान ॥२१७॥
कबीर कोठे मंडप हेतु करि काहे मरहु सवारि ॥
कारजु साढे तीनि हथ घनी त पउने चारि ॥२१८॥
कबीर जो मै चितवउ ना करै किआ मेरे चितवे होइ ॥
अपना चितविआ हरि करै जो मेरे चिति न होइ ॥२१९॥
मः ३ ॥
चिंता भि आपि कराइसी अचिंतु भि आपे देइ ॥
नानक सो सालाहीऐ जि सभना सार करेइ ॥२२०॥
मः ५ ॥
कबीर रामु न चेतिओ फिरिआ लालच माहि ॥
पाप करंता मरि गइआ अउध पुनी खिन माहि ॥२२१॥
कबीर काइआ काची कारवी केवल काची धातु ॥
साबतु रखहि त राम भजु नाहि त बिनठी बात ॥२२२॥
कबीर केसो केसो कूकीऐ न सोईऐ असार ॥
राति दिवस के कूकने कबहू के सुनै पुकार ॥२२३॥
कबीर काइआ कजली बनु भइआ मनु कुंचरु मय मंतु ॥
अंकसु ग्यानु रतनु है खेवटु बिरला संतु ॥२२४॥
कबीर राम रतनु मुखु कोथरी पारख आगै खोलि ॥
कोई आइ मिलैगो गाहकी लेगो महगे मोलि ॥२२५॥
कबीर राम नामु जानिओ नही पालिओ कटकु कुट्मबु ॥
धंधे ही महि मरि गइओ बाहरि भई न ब्मब ॥२२६॥
कबीर आखी केरे माटुके पलु पलु गई बिहाइ ॥
मनु जंजालु न छोडई जम दीआ दमामा आइ ॥२२७॥
कबीर तरवर रूपी रामु है फल रूपी बैरागु ॥
छाइआ रूपी साधु है जिनि तजिआ बादु बिबादु ॥२२८॥
कबीर ऐसा बीजु बोइ बारह मास फलंत ॥
सीतल छाइआ गहिर फल पंखी केल करंत ॥२२९॥
कबीर दाता तरवरु दया फलु उपकारी जीवंत ॥
पंखी चले दिसावरी बिरखा सुफल फलंत ॥२३०॥
कबीर साधू संगु परापती लिखिआ होइ लिलाट ॥
मुकति पदारथु पाईऐ ठाक न अवघट घाट ॥२३१॥
कबीर एक घड़ी आधी घरी आधी हूं ते आध ॥
भगतन सेती गोसटे जो कीने सो लाभ ॥२३२॥
कबीर भांग माछुली सुरा पानि जो जो प्रानी खांहि ॥
तीरथ बरत नेम कीए ते सभै रसातलि जांहि ॥२३३॥
नीचे लोइन करि रहउ ले साजन घट माहि ॥
सभ रस खेलउ पीअ सउ किसी लखावउ नाहि ॥२३४॥
आठ जाम चउसठि घरी तुअ निरखत रहै जीउ ॥
नीचे लोइन किउ करउ सभ घट देखउ पीउ ॥२३५॥
सुनु सखी पीअ महि जीउ बसै जीअ महि बसै कि पीउ ॥
जीउ पीउ बूझउ नही घट महि जीउ कि पीउ ॥२३६॥
कबीर बामनु गुरू है जगत का भगतन का गुरु नाहि ॥
अरझि उरझि कै पचि मूआ चारउ बेदहु माहि ॥२३७॥
हरि है खांडु रेतु महि बिखरी हाथी चुनी न जाइ ॥
कहि कबीर गुरि भली बुझाई कीटी होइ कै खाइ ॥२३८॥
कबीर जउ तुहि साध पिरम की सीसु काटि करि गोइ ॥
खेलत खेलत हाल करि जो किछु होइ त होइ ॥२३९॥
कबीर जउ तुहि साध पिरम की पाके सेती खेलु ॥
काची सरसउं पेलि कै ना खलि भई न तेलु ॥२४०॥
ढूंढत डोलहि अंध गति अरु चीनत नाही संत ॥
कहि नामा किउ पाईऐ बिनु भगतहु भगवंतु ॥२४१॥
हरि सो हीरा छाडि कै करहि आन की आस ॥
ते नर दोजक जाहिगे सति भाखै रविदास ॥२४२॥
कबीर जउ ग्रिहु करहि त धरमु करु नाही त करु बैरागु ॥
बैरागी बंधनु करै ता को बडो अभागु ॥२४३॥
सलोक कबीर ॥
गगन दमामा बाजिओ परिओ नीसानै घाउ ॥
खेतु जु मांडिओ सूरमा अब जूझन को दाउ ॥१॥
सूरा सो पहिचानीऐ जु लरै दीन के हेत ॥
पुरजा पुरजा कटि मरै कबहू न छाडै खेतु ॥२॥२॥
(नोट=ये सभी सलोक/श्लोक गुरू ग्रंथ साहब में शामिल हैं)
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Hindi Kavita
हिंदी कविता
Pad Sant Kabir Ji
पद भक्त कबीर जी
अकथ कहाँणी प्रेम की, कछु कही न जाई,
गूँगे केरी सरकरा, बैठे मुसुकाई॥टेक॥
भोमि बिनाँ अरु बीज बिन, तरवर एक भाई।
अनँत फल प्रकासिया, गुर दीया बताई।
कम थिर बैसि बिछारिया, रामहि ल्यौ लाई।
झूठी अनभै बिस्तरी सब थोथी बाई॥
कहै कबीर सकति कछु नाही, गुरु भया सहाई॥
आँवण जाँणी मिटि गई, मन मनहि समाई॥
(राग रामकली)
अब मैं जाँणिबौ रे केवल राइ की कहाँणी।
मझां जोति राम प्रकासै, गुर गमि बाँणी॥टेक॥
तरवर एक अनंत मूरति, सुरताँ लेहू पिछाँणीं।
साखा पेड़ फूल फल नाँहीं, ताकि अंमृत बाँणीं॥
पुहुप बास भवरा एक राता, बरा ले उर धरिया।
सोलह मंझै पवन झकोरैं, आकासे फल फलिया॥
सहज समाधि बिरष यह सीचा, धरती जरु हर सोब्या।
कहै कबीर तास मैं चेला, जिनि यहु तरुवर पेष्या॥
(राग रामकली)
अब मैं राम सकल सिधि पाई, आन कहूँ तौ राम दुहाई॥टेक॥
इहि विधि बसि सबै रस दीठा, राम नाम सा और न मीठा।
और रस ह्नै कफगाता, हरिरस अधिक अधिक सुखराता॥
दूजा बणज नहीं कछु वाषर, राम नाम दोऊ तत आषर।
कहै कबीर हरिस भोगी, ताकौं मिल्या निरंजन जोगी॥
(राग गौड़ी)
अब मोहि ले चलि नणद के बीर, अपने देसा।
इन पंचनि मिलि लूटी हूँ, कुसंग आहि बदेसा॥टेक॥
गंग तीर मोरी खेती बारी, जमुन तीर खरिहानाँ।
सातौं बिरही मेरे निपजैं, पंचूँ मोर किसानाँ॥
कहै कबीर यह अकथ कथा है, कहताँ कही न जाई।
सहज भाइ जिहिं ऊपजै, ते रमि रहै समाई॥
(राग गौड़ी)
अब हम सकल कुसल करि माँनाँ, स्वाँति भई तब गोब्यंद जाँनाँ॥ टेक ॥
तन मैं होती कोटि उपाधि, भई सुख सहज समाधि॥
जम थैं उलटि भये हैं राम, दुःख सुख किया विश्राँम॥
बैरी उलटि भये हैं मीता साषत उलटि सजन भये चीता॥
आपा जानि उलटि ले आप, तौ नहीं ब्यापै तीन्यूँ ताप॥
अब मन उलटि सनातन हूवा, तब हम जाँनाँ जीवन मूवा॥
कहै कबीर सुख सहज समाऊँ, आप न डरौं न और डराऊँ॥
(राग गौड़ी)
अवधू ग्यान लहरि धुनि मीडि रे।
सबद अतीत अनाहद राता, इहि विधि त्रिष्णाँ षाँड़ी॥टेक॥
बन कै संसै समंद पर कीया मंछा बसै पहाड़ी।
सुई पीवै ब्राँह्मण मतवाला, फल लागा बिन बाड़ी॥
षाड बुणैं कोली मैं बैठी, मैं खूँटा मैं गाढ़ी।
ताँणे वाणे पड़ी अनँवासी, सूत कहै बुणि गाढ़॥
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, अगम ग्यान पद माँही।
गुरु प्रसाद सुई कै नांकै, हस्ती आवै जाँही॥
(राग गौड़ी)
अवधू जागत नींद न कीजै।
काल न खाइ कलप नहीं ब्यापै देही जुरा न छीजै॥टेक॥
उलटी गंग समुद्रहि सोखै ससिहर सूर गरासै।
नव ग्रिह मारि रोगिया बैठे, जल में ब्यंब प्रकासै॥
डाल गह्या थैं मूल न सूझै मूल गह्याँ फल पावा।
बंबई उलटि शरप कौं लागी, धरणि महा रस खावा॥
बैठ गुफा मैं सब जग देख्या, बाहरि कछू न सूझै।
उलटैं धनकि पारधी मार्यौ यहु अचिरज कोई बूझै॥
औंधा घड़ा न जल में डूबे, सूधा सूभर भरिया।
जाकौं यहु जुग घिण करि चालैं, ता पसादि निस्तरिया॥
अंबर बरसै धरती भीजै, बूझै जाँणौं सब कोई।
धरती बरसै अंबर भीजै, बूझै बिरला कोई॥
गाँवणहारा कदे न गावै, अणबोल्या नित गावै।
नटवर पेषि पेषनाँ पेषै, अनहद बेन बजावै॥
कहणीं रहणीं निज तत जाँणैं यहु सब अकथ कहाणीं।
धरती उलटि अकासहिं ग्रसै, यहु पुरिसाँ की बाँणी॥
बाझ पिय लैं अमृत सोख्या, नदी नीर भरि राष्या।
कहै कबीर ते बिरला जोगी, धरणि महारस चाष्या॥
(राग रामकली)
अवधू सो जोगी गुर मेरा, जौ या पद का करै नबेरा॥टेक॥
तरवर एक पेड़ बिन ठाढ़ा, बिन फूलाँ फल लागा।
साखा पत्रा कछू नहीं वाकै अष्ट गगन मुख बागा॥
पैर बिन निरति कराँ बिन बाजै, जिभ्या हीणाँ गावै।
गायणहारे के रूप न रेषा, सतगुर होई लखावै॥
पषी का षोज मीन का मारग, कहै कबीर बिचारी।
अपरंपार पार परसोतम, वा मूरति बलिहारी॥
(राग रामकली)
अंतर गति अनि अनि बाँणी।
गगन गुपत मधुकर मधु पीवत, सुगति सेस सिव जाँणीं॥टेक॥
त्रिगुण त्रिविध तलपत तिमरातन, तंती तत मिलानीं।
भाग भरम भाइन भए भारी, बिधि बिरचि सुषि जाँणीं॥
बरन पवन अबरन बिधि पावक, अनल अमर मरै पाँणीं।
रबि ससि सुभग रहे भरि सब घटि, सबद सुनि तिथि माँही॥
संकट सकति सकल सुख खोये, उदित मथित सब हारे।
कहैं कबीर अगम पुर पाटण, प्रगटि पुरातन जारे॥
(राग रामकली)
ए
एक अचंभा देखा रे भाई, ठाढ़ा सिंध चरावै गाई॥टेक॥
पहले पूत पीछे भइ माँई, चेला कै गुरु लागै पाई।
जल की मछली तरवर ब्याई, पकरि बिलाई मुरगै खाई॥
बैलहि डारि गूँनि घरि आई, कुत्ता कूँ लै गई बिलाई॥
तलिकर साषा ऊपरि करि मूल बहुत भाँति जड़ लगे फूल।
कहै कबीर या पद को बूझै, ताँकूँ तीन्यूँ त्रिभुवन सूझै॥
(राग गौड़ी)
ऐ
ऐसा रे अवधू की वाणी, ऊपरि कूवटा तलि भरि पाँणीं॥टेक॥
जब लग गगन जोति नहीं पलटै, अबिनासा सुँ चित नहीं विहुटै।
जब लग भँवर गुफा नहीं जानैं, तौ मेरा मन कैसै मानैं॥
जब लग त्रिकुटी संधि न जानैं, ससिहर कै घरि सूर न आनैं।
जब लग नाभि कवल नहीं सोधै, तौ हीरै हीरा कैसै बेधैं॥
सोलह कला संपूरण छाजा, अनहद कै घरि बाजैं बाजा॥
सुषमन कै घरि भया अनंदा, उलटि कबल भेटे गोब्यंदा।
मन पवन जब पर्या भया, क्यूँ नाले राँपी रस मइया।
कहै कबीर घटि लेहु बिचारी, औघट घाट सींचि ले क्यारी॥
(राग आसावरी)
ज
जगत गुर अनहद कींगरी बाजे, तहाँ दीरघ नाद ल्यौ लागे॥टेक॥
त्री अस्यान अंतर मृगछाला, गगन मंडल सींगी बाजे॥
तहुँआँ एक दुकाँन रच्यो हैं, निराकार ब्रत साजे॥
गगन ही माठी सींगी करि चुंगी, कनक कलस एक पावा।
तहुँवा चबे अमृत रस नीझर, रस ही मैं रस चुवावा॥
अब तौ एक अनूपम बात भई, पवन पियाला साजा।
तीनि भवन मैं एकै जोगी, कहौ कहाँ बसै राजा॥
बिनरे जानि परणऊँ परसोतम, कहि कबीर रँगि राता।
यहु दुनिया काँई भ्रमि भुलाँनी, मैं राम रसाइन माता॥
(राग रामकली)
जाइ पूछौ गोविंद पढ़िया पंडिता, तेराँ कौन गुरु कौन चेला।
अपणें रूप कौं आपहिं जाँणें, आपैं रहे अकेला॥टेक॥
बाँझ का पूत बाप बिना जाया, बिन पाऊँ तरबरि चढ़िया।
अस बिन पाषर गज बिन गुड़िया, बिन षडै संग्राम जुड़िया॥
बीज बिन अंकुर पेड़ बिन तरवर, बिन साषा तरवर फलिया।
रूप बिन नारी पुहुप बिन परमल, बिन नीरै सरवर भरिया॥
देव बिन देहुरा पत्रा बिन पूजा बिन पाँषाँ भवर बिलंबया।
सूरा होइ सु परम पद पावै, कीट पतंग होइ सब जरिया॥
दीपक बिन जोति जाति बिन दीपक, हद बिन अनाहद सबद बागा।
चेतनाँ होइ सु चेति लीज्यौं, कबीर हरि के अंगि लागा॥
(राग रामकली)
जोगिया तन कौ जंत्रा बजाइ, ज्यूँ तेरा आवागमन मिटाइ॥टेक॥
तत करि ताँति धर्म करि डाँड़ि, सत की सारि लगाइ।
मन करि निहचल आसँण निहचल, रसनाँ रस उपजाइ॥
चित करि बटवा तुचा मेषली, भसमै भसम चढ़ाइ।
तजि पाषंड पाँच करि निग्रह, खोजि परम पद राइ॥
हिरदै सींगी ग्याँन गुणि बाँधौ, खोजि निरंजन साँचा।
कहै कबीर निरंजन की गति, जुगति बिनाँ प्यंड काचा॥
(राग आसावरी)
द
दुलहनी गावहु मंगलचार,
हम घरि आए हो राजा राम भरतार॥टेक॥
तन रत करि मैं मन रत करिहूँ, पंचतत्त बराती।
राम देव मोरैं पाँहुनैं आये मैं जोबन मैं माती॥
सरीर सरोवर बेदी करिहूँ, ब्रह्मा वेद उचार।
रामदेव सँगि भाँवरी लैहूँ, धनि धनि भाग हमार॥
सुर तेतीसूँ कौतिग आये, मुनिवर सहस अठ्यासी।
कहै कबीर हँम ब्याहि चले हैं, पुरिष एक अबिनासी॥
(राग गौड़ी)
न
नर देही बहुरि न पाइये, ताथैं हरषि हरषि गुँण गाइये॥टेक॥
जब मन नहीं तजै बिकारा, तौ क्यूँ तरिये भौ पारा॥
जे मन छाड़ै कुटिलाई, तब आइ मिलै राम राई।
ज्यूँ जींमण त्यूँ मरणाँ, पछितावा काजु न करणाँ।
जाँणि मरै जे कोई, तो बहुरि न मरणाँ होई॥
गुर बचनाँ मंझि समावै, तब राम नाम ल्यौ लावै॥
जब राम नाम ल्यौ लागा, तब भ्रम गया भौ भागा॥
ससिहर सूर मिलावा, तब अनहद बेन बजावा॥
जब अनहद बाजा बाजै, तब साँई संगि बिराजै॥
होत संत जनन के संगी, मन राचि रह्यो हरि रंगी॥
धरो चरन कवल बिसवासा, ज्यूँ होइ निरभे पदबासा॥
यहु काचा खेल न होई, जन षरतर खेलै कोई॥
जब षरतर खेल मचावा, तब गगनमंडल मठ छावा॥
चित चंचल निहचल कीजै, तब राम रसाइन पीजै॥
जब राम रसाइन पीया, तब काल मिट्या जन जीया॥
ज्यूँ दास कबीरा गावै, ताथैं मन को मन समझावै॥
मन ही मन समझाया, तब सतगुर मिलि सचु पाया॥
(राग रामकली)
नरहरि सहजै ही जिनि जाना।
गत फल फूल तत तर पलव, अंकूर बीज नसाँनाँ॥टेक॥
प्रकट प्रकास ग्यान गुरगमि थैं, ब्रह्म अगनि प्रजारी।
ससि हरि सूर दूर दूरंतर, लागी जोग जुग तारी॥
उलटे पवन चक्र षट बेधा, मेर डंड सरपूरा।
गगन गरजि मन सुंनि समाना, बाजे अनहद तूरा॥
सुमति सरीर कबीर बिचारी, त्रिकुटी संगम स्वामी।
पद आनंद काल थैं छूटै, सुख मैं सुरति समाँनी॥
(राग गौड़ी)
प
पंडित होइ सु पदहि बिचारै, मूरिष नाँहिन बूझै।
बिन हाथनि पाँइन बिन काँननि, बिन लोचन जग सूझै॥टेक॥
बिन मुख खाइ चरन बिनु चालै, बिन जिभ्या गुण गावै।
आछै रहै ठौर नहीं छाड़ै, दह दिसिही फिरि आवै॥
बिनहीं तालाँ ताल बजावै, बिन मंदल षट ताला।
बिनहीं सबद अनाहद बाजै, तहाँ निरतत है गोपाला॥
बिनाँ चोलनै बिनाँ कंचुकी, बिनही संग संग होई।
दास कबीर औसर भल देख्या, जाँनैगा जस कोई॥
(राग रामकली)
म
मन का भ्रम मन ही थैं भागा, सहज रूप हरि खेलण लागा॥टेक॥
मैं तैं तैं ए द्वै नाहीं, आपै अकल सकल घट माँहीं।
जब थैं इनमन उनमन जाँनाँ, तब रूप न रेष तहाँ ले बाँनाँ॥
तन मन मन तन एक समाँनाँ, इन अनभै माहै मनमाँना॥
आतमलीन अषंडित रामाँ, कहै कबीर हरि माँहि समाँनाँ॥
(राग आसावरी)
मन रे मन ही उलटि समाँना।
गुर प्रसादि अकलि भई तोकौं नहीं तर था बेगाँना॥टेक॥
नेड़ै थे दूरि दूर थैं नियरा, जिनि जैसा करि जाना।
औ लौ ठीका चढ्या बलीडै, जिनि पीया तिनि माना॥
उलटे पवन चक्र षट बेधा, सुन सुरति लै लागि।
अमर न मरै मरै नहीं जीवै, ताहि खोजि बैरागी॥
अनभै कथा कवन सी कहिये, है कोई चतुर बिबेकी।
कहै कबीर गुर दिया पलीता, सौ झल बिरलै देखी॥
(राग गौड़ी)
र
राजा राम कवन रंगै, जैसैं परिमल पुहुप संगैं॥टेक॥
पंच तत ले कीन्ह बँधाँन, चौरासी लष जीव समाँन।
बेगर बेगर राखि ले भाव, तामैं कीन्ह आपको ठाँव॥
जैसे पावक भंजन का बसेष, घट उनमाँन कीया प्रवेस॥
कह्यो चाहूँ कछु कह्या न जाइ, जल जीव ह्नै जल नहीं बिगराइ॥
सकल आतमाँ बरतै जे, छल बल कौं सब चान्हि बसे॥
चीनियत चीनियत ता चीन्हिलै से, तिहि चीन्हिअत धूँका करके॥
आपा पर सब एक समान, तब हम पावा पद निरबाँण॥
कहै कबीर मन्य भया संतोष, मिले भगवंत गया दुख दोष॥
(राग रामकली)
राम गुन बेलड़ी रे, अवधू गोरषनाथि जाँणीं।
नाति सरूप न छाया जाके, बिरध करैं बिन पाँणी॥टेक॥
बेलड़िया द्वे अणीं पहूँती गगन पहूँती सैली।
सहज बेलि जल फूलण लागी, डाली कूपल मेल्ही॥
मन कुंजर जाइ बाड़ा बिलब्या, सतगुर बाही बेली।
पंच सखी मिसि पवन पयप्या, बाड़ी पाणी मेल्ही॥
काटत बेली कूपले मेल्हीं, सींचताड़ी कुमिलाँणों।
कहै कबीर ते बिरला जोगी, सहज निरंतर जाँणीं॥
(राग रामकली)
राम बिन जन्म मरन भयौ भारी।
साधिक सिध सूर अरु सुरपति भ्रमत भ्रमत गए हारी॥टेक॥
व्यंद भाव म्रिग तत जंत्राक, सकल सुख सुखकारी।
श्रवन सुनि रवि ससि सिव सिव, पलक पुरिष पल नारी॥
अंतर गगन होत अंतर धुँनि बिन सासनि है सोई।
घोरत सबद सुमंगल सब घटि, ब्यंदत ब्यदै कोई॥
पाणीं पवन अवनि नभ पावक, तिहि सँग सदा बसेरा।
कहै कबीर मन मन करि बेध्या, बहुरि न कीया फेरा॥
(राग रामकली)
रे मन बैठि कितै जिनि जासी, हिरदै सरोवर है अबिनासी॥टेक॥
काया मधे कोटि तीरथ, काया मधे कासी।
माया मधे कवलापति, काया मधे बैकुंठबासी॥
उलटि पवन षटचक्र निवासी, तीरथराज गंगतट बासी॥
गगन मंडल रबि ससि दोइ तारा, उलती कूची लागि किंवारा।
कहै कबीर भई उजियारा, पच मारि एक रह्यौ निनारा॥
(राग रामकली)
ल
लाधा है कछू लाधा है ताकि पारिष को न लहै।टेक॥
अबरन एक अकल अबिनासी, घटि घटि आप रहै॥
तोल न मोल माप कछु नाहीं, गिणँती ग्याँन न होई।
नाँ सो भारी नाँ सो हलका, ताकी पारिष लषै न कोई॥
जामैं हम सोई हम हा मैं, नीर मिले जल एक हूवा।
यों जाँणैं तो कोई न मरिहैं, बिन जाँणैं थै बहुत मूवा॥
दास कबीर प्रेम रस पाया, पीवणहार न पाऊँ।
बिधनाँ बचन पिछाँड़त नाहीं, कहु क्या काढ़ि दिखाऊँ॥
(राग रामकली)
स
सो जोगी जाकै मन मैं मुद्रा, रात दिवस न करई निद्रा॥टेक॥
मन मैं आँसण मन मैं रहणाँ, मन का जप तप मन सूँ कहणाँ॥
मन मैं षपरा मन मैं सींगी, अनहद बेन बजावै रंगी।
पंच परजारि भसम करि भूका, कहै कबीर सौ लहसै लंका॥
(राग आसावरी)
संतौ भाई आई ग्यान की आँधी रे।
भ्रम की टाटी सबै उडाँणी, माया रहै न बाँधी॥टेक॥
हिति चित की द्वै थूँनी गिराँनी, मोह बलिंडा तूटा।
त्रिस्नाँ छाँति परि घर ऊपरि, कुबधि का भाँडाँ फूटा॥
जोग जुगति करि संतौं बाँधी, निरचू चुवै न पाँणी॥
कूड़ कपट काया का निकस्या हरि की गति जब जाँणी॥
आँधी पीछै जो जल बूठा, प्रेम हरि जन भींनाँ।
कहै कबीर माँन के प्रगटे उदित भया तम षींनाँ॥
(राग गौड़ी)
ह
हिंडोलनाँ तहाँ झूलैं आतम राम।
प्रेम भगति हिंडोलना, सब संतन कौ विश्राम॥टेक॥
चंद सूर दोइ खंभवा, बंक नालि की डोरि।
झूलें पंच पियारियाँ, तहाँ झूलै जीय मोर॥
द्वादस गम के अंतरा, तहाँ अमृत कौ ग्रास।
जिनि यह अमृत चाषिया, सो ठाकुर हम दास॥
सहज सुँनि कौ नेहरौ गगन मंडल सिरिमौर।
दोऊ कुल हम आगरी, जो हम झूलै हिंडोल॥
अरध उरध की गंगा जमुना, मूल कवल कौ घाट।
षट चक्र की गागरी, त्रिवेणीं संगम बाट।
नाद ब्यंद की नावरी, राम नाम कनिहार।
कहै कबीर गुण गाइ ले, गुर गँमि उतरौ पार॥
(राग गौड़ी)
है कोइ जगत गुर ग्याँनी, उलटि बेद बूझै।
पाँणीं में अगनि जरैं, अँधरे कौ सूझै॥टेक॥
एकनि ददुरि खाये, पंच भवंगा।
गाइ नाहर खायौ, काटि काटि अंगा॥
बकरी बिधार खायौ, हरनि खायौ चीता।
कागिल गर फाँदियिा, बटेरै बाज जीता॥
मसै मँजार खायौ, स्यालि खायौ स्वाँनाँ।
आदि कौं आदेश करत, कहैं कबीर ग्याँनाँ॥
(राग रामकली)
है कोई संत सहज सुख उपजै, जाकौ जब तप देउ दलाली।
एक बूँद भरि देइ राम रस, ज्यूँ भरि देई कलाली॥टेक॥
काया कलाली लाँहनि करिहूँ, गुरु सबद गुड़ कीन्हाँ॥
काँम क्रोध मोह मद मंछर, काटि काटि कस दीन्हाँ॥
भवन चतुरदस भाटी पुरई, ब्रह्म अगनि परजारी।
मूँदे मदन सहज धुनि उपजी, सुखमन पीसनहारी॥
नीझर झरै अँमी रस निकसै, निहि मदिरावल छाका॥
कहैं कबीर यहु बास बिकट अनि, ग्याँन गुरु ले बाँका॥
(राग रामकली)
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Hindi Kavita
हिंदी कविता
Shabad Bhakt Kabir Ji in Hindi
शब्द भक्त कबीर जी
ं
1. जननी जानत सुतु बडा होतु है
जननी जानत सुतु बडा होतु है इतना कु न जानै जि दिन दिन अवध घटतु है ॥
मोर मोर करि अधिक लाडु धरि पेखत ही जमराउ हसै ॥१॥
ऐसा तैं जगु भरमि लाइआ ॥
कैसे बूझै जब मोहिआ है माइआ ॥१॥ रहाउ ॥
कहत कबीर छोडि बिखिआ रस इतु संगति निहचउ मरणा ॥
रमईआ जपहु प्राणी अनत जीवण बाणी इन बिधि भव सागरु तरणा ॥२॥
जां तिसु भावै ता लागै भाउ ॥
भरमु भुलावा विचहु जाइ ॥
उपजै सहजु गिआन मति जागै ॥
गुर प्रसादि अंतरि लिव लागै ॥३॥
इतु संगति नाही मरणा ॥
हुकमु पछाणि ता खसमै मिलणा ॥१॥ रहाउ दूजा ॥91॥
2. नगन फिरत जौ पाईऐ जोगु
नगन फिरत जौ पाईऐ जोगु ॥
बन का मिरगु मुकति सभु होगु ॥१॥
किआ नागे किआ बाधे चाम ॥
जब नही चीनसि आतम राम ॥१॥ रहाउ ॥
मूड मुंडाए जौ सिधि पाई ॥
मुकती भेड न गईआ काई ॥२॥
बिंदु राखि जौ तरीऐ भाई ॥
खुसरै किउ न परम गति पाई ॥३॥
कहु कबीर सुनहु नर भाई ॥
राम नाम बिनु किनि गति पाई ॥४॥४॥324॥
3. किआ जपु किआ तपु किआ ब्रत पूजा
किआ जपु किआ तपु किआ ब्रत पूजा ॥
जा कै रिदै भाउ है दूजा ॥१॥
रे जन मनु माधउ सिउ लाईऐ ॥
चतुराई न चतुरभुजु पाईऐ ॥ रहाउ ॥
परहरु लोभु अरु लोकाचारु ॥
परहरु कामु क्रोधु अहंकारु ॥२॥
करम करत बधे अहमेव ॥
मिलि पाथर की करही सेव ॥३॥
कहु कबीर भगति करि पाइआ ॥
भोले भाइ मिले रघुराइआ ॥४॥६॥324॥
4. गरभ वास महि कुलु नही जाती
गरभ वास महि कुलु नही जाती ॥
ब्रहम बिंदु ते सभ उतपाती ॥१॥
कहु रे पंडित बामन कब के होए ॥
बामन कहि कहि जनमु मत खोए ॥१॥ रहाउ ॥
जौ तूं ब्राहमणु ब्रहमणी जाइआ ॥
तउ आन बाट काहे नही आइआ ॥२॥
तुम कत ब्राहमण हम कत सूद ॥
हम कत लोहू तुम कत दूध ॥३॥
कहु कबीर जो ब्रहमु बीचारै ॥
सो ब्राहमणु कहीअतु है हमारै ॥४॥७॥324॥
5. अवर मूए किआ सोगु करीजै
अवर मूए किआ सोगु करीजै ॥
तउ कीजै जउ आपन जीजै ॥१॥
मै न मरउ मरिबो संसारा ॥
अब मोहि मिलिओ है जीआवनहारा ॥१॥ रहाउ ॥
इआ देही परमल महकंदा ॥
ता सुख बिसरे परमानंदा ॥२॥
कूअटा एकु पंच पनिहारी ॥
टूटी लाजु भरै मति हारी ॥३॥
कहु कबीर इक बुधि बीचारी ॥
ना ओहु कूअटा ना पनिहारी ॥४॥१२॥325॥
6. जिह कुलि पूतु न गिआन बीचारी
जिह कुलि पूतु न गिआन बीचारी ॥
बिधवा कस न भई महतारी ॥१॥
जिह नर राम भगति नहि साधी ॥
जनमत कस न मुओ अपराधी ॥१॥ रहाउ ॥
मुचु मुचु गरभ गए कीन बचिआ ॥
बुडभुज रूप जीवे जग मझिआ ॥२॥
कहु कबीर जैसे सुंदर सरूप ॥
नाम बिना जैसे कुबज कुरूप ॥३॥२५॥328॥
7. जो जन लेहि खसम का नाउ
जो जन लेहि खसम का नाउ ॥
तिन कै सद बलिहारै जाउ ॥१॥
सो निरमलु निरमल हरि गुन गावै ॥
सो भाई मेरै मनि भावै ॥१॥ रहाउ ॥
जिह घट रामु रहिआ भरपूरि ॥
तिन की पग पंकज हम धूरि ॥२॥
जाति जुलाहा मति का धीरु ॥
सहजि सहजि गुण रमै कबीरु ॥३॥२६॥328॥
8. ओइ जु दीसहि अम्बरि तारे
ओइ जु दीसहि अम्बरि तारे ॥
किनि ओइ चीते चीतनहारे ॥१॥
कहु रे पंडित अम्बरु का सिउ लागा ॥
बूझै बूझनहारु सभागा ॥१॥ रहाउ ॥
सूरज चंदु करहि उजीआरा ॥
सभ महि पसरिआ ब्रहम पसारा ॥२॥
कहु कबीर जानैगा सोइ ॥
हिरदै रामु मुखि रामै होइ ॥३॥२९॥329॥
9. बेद की पुत्री सिम्रिति भाई
बेद की पुत्री सिम्रिति भाई ॥
सांकल जेवरी लै है आई ॥१॥
आपन नगरु आप ते बाधिआ ॥
मोह कै फाधि काल सरु सांधिआ ॥१॥ रहाउ ॥
कटी न कटै तूटि नह जाई ॥
सा सापनि होइ जग कउ खाई ॥२॥
हम देखत जिनि सभु जगु लूटिआ ॥
कहु कबीर मै राम कहि छूटिआ ॥३॥३०॥329॥
10. देइ मुहार लगामु पहिरावउ
देइ मुहार लगामु पहिरावउ ॥
सगल त जीनु गगन दउरावउ ॥१॥
अपनै बीचारि असवारी कीजै ॥
सहज कै पावड़ै पगु धरि लीजै ॥१॥ रहाउ ॥
चलु रे बैकुंठ तुझहि ले तारउ ॥
हिचहि त प्रेम कै चाबुक मारउ ॥२॥
कहत कबीर भले असवारा ॥
बेद कतेब ते रहहि निरारा ॥३॥३१॥329॥
11. आपे पावकु आपे पवना
आपे पावकु आपे पवना ॥
जारै खसमु त राखै कवना ॥१॥
राम जपत तनु जरि की न जाइ ॥
राम नाम चितु रहिआ समाइ ॥१॥ रहाउ ॥
का को जरै काहि होइ हानि ॥
नट वट खेलै सारिगपानि ॥२॥
कहु कबीर अखर दुइ भाखि ॥
होइगा खसमु त लेइगा राखि ॥३॥३३॥329॥
12. जिह सिरि रचि रचि बाधत पाग
जिह सिरि रचि रचि बाधत पाग ॥
सो सिरु चुंच सवारहि काग ॥१॥
इसु तन धन को किआ गरबईआ ॥
राम नामु काहे न द्रिड़्हीआ ॥१॥ रहाउ ॥
कहत कबीर सुनहु मन मेरे ॥
इही हवाल होहिगे तेरे ॥२॥३५॥330॥
13. रे जीअ निलज लाज तोहि नाही
रे जीअ निलज लाज तोहि नाही ॥
हरि तजि कत काहू के जांही ॥१॥ रहाउ ॥
जा को ठाकुरु ऊचा होई ॥
सो जनु पर घर जात न सोही ॥१॥
सो साहिबु रहिआ भरपूरि ॥
सदा संगि नाही हरि दूरि ॥२॥
कवला चरन सरन है जा के ॥
कहु जन का नाही घर ता के ॥३॥
सभु कोऊ कहै जासु की बाता ॥
सो सम्रथु निज पति है दाता ॥४॥
कहै कबीरु पूरन जग सोई ॥
जा के हिरदै अवरु न होई ॥५॥३८॥330॥
14. कउनु को पूतु पिता को का को
कउनु को पूतु पिता को का को ॥
कउनु मरै को देइ संतापो ॥१॥
हरि ठग जग कउ ठगउरी लाई ॥
हरि के बिओग कैसे जीअउ मेरी माई ॥१॥ रहाउ ॥
कउन को पुरखु कउन की नारी ॥
इआ तत लेहु सरीर बिचारी ॥२॥
कहि कबीर ठग सिउ मनु मानिआ ॥
गई ठगउरी ठगु पहिचानिआ ॥३॥३९॥330॥
15. जलि है सूतकु थलि है सूतकु सूतक ओपति होई
जलि है सूतकु थलि है सूतकु सूतक ओपति होई ॥
जनमे सूतकु मूए फुनि सूतकु सूतक परज बिगोई ॥१॥
कहु रे पंडीआ कउन पवीता ॥
ऐसा गिआनु जपहु मेरे मीता ॥१॥ रहाउ ॥
नैनहु सूतकु बैनहु सूतकु सूतकु स्रवनी होई ॥
ऊठत बैठत सूतकु लागै सूतकु परै रसोई ॥२॥
फासन की बिधि सभु कोऊ जानै छूटन की इकु कोई ॥
कहि कबीर रामु रिदै बिचारै सूतकु तिनै न होई ॥३॥४१॥331॥
16. झगरा एकु निबेरहु राम
झगरा एकु निबेरहु राम ॥
जउ तुम अपने जन सौ कामु ॥१॥ रहाउ ॥
इहु मनु बडा कि जा सउ मनु मानिआ ॥
रामु बडा कै रामहि जानिआ ॥१॥
ब्रहमा बडा कि जासु उपाइआ ॥
बेदु बडा कि जहां ते आइआ ॥२॥
कहि कबीर हउ भइआ उदासु ॥
तीरथु बडा कि हरि का दासु ॥३॥४२॥331॥
17. देखौ भाई ग्यान की आई आंधी
देखौ भाई ग्यान की आई आंधी ॥
सभै उडानी भ्रम की टाटी रहै न माइआ बांधी ॥१॥ रहाउ ॥
दुचिते की दुइ थूनि गिरानी मोह बलेडा टूटा ॥
तिसना छानि परी धर ऊपरि दुरमति भांडा फूटा ॥१॥
आंधी पाछे जो जलु बरखै तिहि तेरा जनु भीनां ॥
कहि कबीर मनि भइआ प्रगासा उदै भानु जब चीना ॥२॥४३॥331॥
18. हरि जसु सुनहि न हरि गुन गावहि
हरि जसु सुनहि न हरि गुन गावहि ॥
बातन ही असमानु गिरावहि ॥१॥
ऐसे लोगन सिउ किआ कहीऐ ॥
जो प्रभ कीए भगति ते बाहज तिन ते सदा डराने रहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥
आपि न देहि चुरू भरि पानी ॥
तिह निंदहि जिह गंगा आनी ॥२॥
बैठत उठत कुटिलता चालहि ॥
आपु गए अउरन हू घालहि ॥३॥
छाडि कुचरचा आन न जानहि ॥
ब्रहमा हू को कहिओ न मानहि ॥४॥
आपु गए अउरन हू खोवहि ॥
आगि लगाइ मंदर मै सोवहि ॥५॥
अवरन हसत आप हहि कांने ॥
तिन कउ देखि कबीर लजाने ॥६॥१॥४४॥332॥
19. जीवत पितर न मानै कोऊ मूएं सिराध कराही
जीवत पितर न मानै कोऊ मूएं सिराध कराही ॥
पितर भी बपुरे कहु किउ पावहि कऊआ कूकर खाही ॥१॥
मो कउ कुसलु बतावहु कोई ॥
कुसलु कुसलु करते जगु बिनसै कुसलु भी कैसे होई ॥१॥ रहाउ ॥
माटी के करि देवी देवा तिसु आगै जीउ देही ॥
ऐसे पितर तुमारे कहीअहि आपन कहिआ न लेही ॥२॥
सरजीउ काटहि निरजीउ पूजहि अंत काल कउ भारी ॥
राम नाम की गति नही जानी भै डूबे संसारी ॥३॥
देवी देवा पूजहि डोलहि पारब्रहमु नही जाना ॥
कहत कबीर अकुलु नही चेतिआ बिखिआ सिउ लपटाना ॥४॥१॥४५॥332॥
20. राम जपउ जीअ ऐसे ऐसे
राम जपउ जीअ ऐसे ऐसे ॥
ध्रू प्रहिलाद जपिओ हरि जैसे ॥१॥
दीन दइआल भरोसे तेरे ॥
सभु परवारु चड़ाइआ बेड़े ॥१॥ रहाउ ॥
जा तिसु भावै ता हुकमु मनावै ॥
इस बेड़े कउ पारि लघावै ॥२॥
गुर परसादि ऐसी बुधि समानी ॥
चूकि गई फिरि आवन जानी ॥३॥
कहु कबीर भजु सारिगपानी ॥
उरवारि पारि सभ एको दानी ॥४॥२॥१०॥६१॥337॥
21. सुरग बासु न बाछीऐ डरीऐ न नरकि निवासु
सुरग बासु न बाछीऐ डरीऐ न नरकि निवासु ॥
होना है सो होई है मनहि न कीजै आस ॥१॥
रमईआ गुन गाईऐ ॥
जा ते पाईऐ परम निधानु ॥१॥ रहाउ ॥
किआ जपु किआ तपु संजमो किआ बरतु किआ इसनानु ॥
जब लगु जुगति न जानीऐ भाउ भगति भगवान ॥२॥
स्मपै देखि न हरखीऐ बिपति देखि न रोइ ॥
जिउ स्मपै तिउ बिपति है बिध ने रचिआ सो होइ ॥३॥
कहि कबीर अब जानिआ संतन रिदै मझारि ॥
सेवक सो सेवा भले जिह घट बसै मुरारि ॥४॥१॥१२॥६३॥337॥
22. रे मन तेरो कोइ नही खिंचि लेइ जिनि भारु
रे मन तेरो कोइ नही खिंचि लेइ जिनि भारु ॥
बिरख बसेरो पंखि को तैसो इहु संसारु ॥१॥
राम रसु पीआ रे ॥
जिह रस बिसरि गए रस अउर ॥१॥ रहाउ ॥
अउर मुए किआ रोईऐ जउ आपा थिरु न रहाइ ॥
जो उपजै सो बिनसि है दुखु करि रोवै बलाइ ॥२॥
जह की उपजी तह रची पीवत मरदन लाग ॥
कहि कबीर चिति चेतिआ राम सिमरि बैराग ॥३॥२॥१३॥६४॥337॥
23. मन रे छाडहु भरमु प्रगट होइ नाचहु इआ माइआ के डांडे
मन रे छाडहु भरमु प्रगट होइ नाचहु इआ माइआ के डांडे ॥
सूरु कि सनमुख रन ते डरपै सती कि सांचै भांडे ॥१॥
डगमग छाडि रे मन बउरा ॥
अब तउ जरे मरे सिधि पाईऐ लीनो हाथि संधउरा ॥१॥ रहाउ ॥
काम क्रोध माइआ के लीने इआ बिधि जगतु बिगूता ॥
कहि कबीर राजा राम न छोडउ सगल ऊच ते ऊचा ॥२॥२॥१७॥६८॥338॥
24. लख चउरासीह जीअ जोनि महि भ्रमत नंदु बहु थाको रे
लख चउरासीह जीअ जोनि महि भ्रमत नंदु बहु थाको रे ॥
भगति हेति अवतारु लीओ है भागु बडो बपुरा को रे ॥१॥
तुम्ह जु कहत हउ नंद को नंदनु नंद सु नंदनु का को रे ॥
धरनि अकासु दसो दिस नाही तब इहु नंदु कहा थो रे ॥१॥ रहाउ ॥
संकटि नही परै जोनि नही आवै नामु निरंजन जा को रे ॥
कबीर को सुआमी ऐसो ठाकुरु जा कै माई न बापो रे ॥२॥१९॥७०॥338॥
25. निंदउ निंदउ मो कउ लोगु निंदउ
निंदउ निंदउ मो कउ लोगु निंदउ ॥
निंदा जन कउ खरी पिआरी ॥
निंदा बापु निंदा महतारी ॥१॥ रहाउ ॥
निंदा होइ त बैकुंठि जाईऐ ॥
नामु पदारथु मनहि बसाईऐ ॥
रिदै सुध जउ निंदा होइ ॥
हमरे कपरे निंदकु धोइ ॥१॥
निंदा करै सु हमरा मीतु ॥
निंदक माहि हमारा चीतु ॥
निंदकु सो जो निंदा होरै ॥
हमरा जीवनु निंदकु लोरै ॥२॥
निंदा हमरी प्रेम पिआरु ॥
निंदा हमरा करै उधारु ॥
जन कबीर कउ निंदा सारु ॥
निंदकु डूबा हम उतरे पारि ॥३॥२०॥७१॥339॥
27. हिंदू तुरक कहा ते आए किनि एह राह चलाई
हिंदू तुरक कहा ते आए किनि एह राह चलाई ॥
दिल महि सोचि बिचारि कवादे भिसत दोजक किनि पाई ॥१॥
काजी तै कवन कतेब बखानी ॥
पड़्हत गुनत ऐसे सभ मारे किनहूं खबरि न जानी ॥१॥ रहाउ ॥
सकति सनेहु करि सुंनति करीऐ मै न बदउगा भाई ॥
जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा आपन ही कटि जाई ॥२॥
सुंनति कीए तुरकु जे होइगा अउरत का किआ करीऐ ॥
अरध सरीरी नारि न छोडै ता ते हिंदू ही रहीऐ ॥३॥
छाडि कतेब रामु भजु बउरे जुलम करत है भारी ॥
कबीरै पकरी टेक राम की तुरक रहे पचिहारी ॥४॥८॥477॥
28. जब लगु तेलु दीवे मुखि बाती तब सूझै सभु कोई ॥
जब लगु तेलु दीवे मुखि बाती तब सूझै सभु कोई ॥
तेल जले बाती ठहरानी सूंना मंदरु होई ॥१॥
रे बउरे तुहि घरी न राखै कोई ॥
तूं राम नामु जपि सोई ॥१॥ रहाउ ॥
का की मात पिता कहु का को कवन पुरख की जोई ॥
घट फूटे कोऊ बात न पूछै काढहु काढहु होई ॥२॥
देहुरी बैठी माता रोवै खटीआ ले गए भाई ॥
लट छिटकाए तिरीआ रोवै हंसु इकेला जाई ॥३॥
कहत कबीर सुनहु रे संतहु भै सागर कै ताई ॥
इसु बंदे सिरि जुलमु होत है जमु नही हटै गुसाई ॥४॥९॥478॥
29. सुतु अपराध करत है जेते
सुतु अपराध करत है जेते ॥
जननी चीति न राखसि तेते ॥१॥
रामईआ हउ बारिकु तेरा ॥
काहे न खंडसि अवगनु मेरा ॥१॥ रहाउ ॥
जे अति क्रोप करे करि धाइआ ॥
ता भी चीति न राखसि माइआ ॥२॥
चिंत भवनि मनु परिओ हमारा ॥
नाम बिना कैसे उतरसि पारा ॥३॥
देहि बिमल मति सदा सरीरा ॥
सहजि सहजि गुन रवै कबीरा ॥४॥३॥१२॥478॥
30. हज हमारी गोमती तीर
हज हमारी गोमती तीर ॥
जहा बसहि पीत्मबर पीर ॥१॥
वाहु वाहु किआ खूबु गावता है ॥
हरि का नामु मेरै मनि भावता है ॥१॥ रहाउ ॥
नारद सारद करहि खवासी ॥
पासि बैठी बीबी कवला दासी ॥२॥
कंठे माला जिहवा रामु ॥
सहंस नामु लै लै करउ सलामु ॥३॥
कहत कबीर राम गुन गावउ ॥
हिंदू तुरक दोऊ समझावउ ॥४॥४॥१३॥478॥
31. पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ
पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ ॥
जिसु पाहन कउ पाती तोरै सो पाहन निरजीउ ॥१॥
भूली मालनी है एउ ॥
सतिगुरु जागता है देउ ॥१॥ रहाउ ॥
ब्रहमु पाती बिसनु डारी फूल संकरदेउ ॥
तीनि देव प्रतखि तोरहि करहि किस की सेउ ॥२॥
पाखान गढि कै मूरति कीन्ही दे कै छाती पाउ ॥
जे एह मूरति साची है तउ गड़्हणहारे खाउ ॥३॥
भातु पहिति अरु लापसी करकरा कासारु ॥
भोगनहारे भोगिआ इसु मूरति के मुख छारु ॥४॥
मालिनि भूली जगु भुलाना हम भुलाने नाहि ॥
कहु कबीर हम राम राखे क्रिपा करि हरि राइ ॥५॥१॥१४॥479॥
32. बारह बरस बालपन बीते बीस बरस कछु तपु न कीओ
बारह बरस बालपन बीते बीस बरस कछु तपु न कीओ ॥
तीस बरस कछु देव न पूजा फिरि पछुताना बिरधि भइओ ॥१॥
मेरी मेरी करते जनमु गइओ ॥
साइरु सोखि भुजं बलइओ ॥१॥ रहाउ ॥
सूके सरवरि पालि बंधावै लूणै खेति हथ वारि करै ॥
आइओ चोरु तुरंतह ले गइओ मेरी राखत मुगधु फिरै ॥२॥
चरन सीसु कर क्मपन लागे नैनी नीरु असार बहै ॥
जिहवा बचनु सुधु नही निकसै तब रे धरम की आस करै ॥३॥
हरि जीउ क्रिपा करै लिव लावै लाहा हरि हरि नामु लीओ ॥
गुर परसादी हरि धनु पाइओ अंते चलदिआ नालि चलिओ ॥४॥
कहत कबीर सुनहु रे संतहु अनु धनु कछूऐ लै न गइओ ॥
आई तलब गोपाल राइ की माइआ मंदर छोडि चलिओ ॥५॥२॥१५॥479॥
33. काहू दीन्हे पाट पट्मबर काहू पलघ निवारा
काहू दीन्हे पाट पट्मबर काहू पलघ निवारा ॥
काहू गरी गोदरी नाही काहू खान परारा ॥१॥
अहिरख वादु न कीजै रे मन ॥
सुक्रितु करि करि लीजै रे मन ॥१॥ रहाउ ॥
कुम्हारै एक जु माटी गूंधी बहु बिधि बानी लाई ॥
काहू महि मोती मुकताहल काहू बिआधि लगाई ॥२॥
सूमहि धनु राखन कउ दीआ मुगधु कहै धनु मेरा ॥
जम का डंडु मूंड महि लागै खिन महि करै निबेरा ॥३॥
हरि जनु ऊतमु भगतु सदावै आगिआ मनि सुखु पाई ॥
जो तिसु भावै सति करि मानै भाणा मंनि वसाई ॥४॥
कहै कबीरु सुनहु रे संतहु मेरी मेरी झूठी ॥
चिरगट फारि चटारा लै गइओ तरी तागरी छूटी ॥५॥३॥१६॥479॥
34. हम मसकीन खुदाई बंदे तुम राजसु मनि भावै
हम मसकीन खुदाई बंदे तुम राजसु मनि भावै ॥
अलह अवलि दीन को साहिबु जोरु नही फुरमावै ॥१॥
काजी बोलिआ बनि नही आवै ॥१॥ रहाउ ॥
रोजा धरै निवाज गुजारै कलमा भिसति न होई ॥
सतरि काबा घट ही भीतरि जे करि जानै कोई ॥२॥
निवाज सोई जो निआउ बिचारै कलमा अकलहि जानै ॥
पाचहु मुसि मुसला बिछावै तब तउ दीनु पछानै ॥३॥
खसमु पछानि तरस करि जीअ महि मारि मणी करि फीकी ॥
आपु जनाइ अवर कउ जानै तब होइ भिसत सरीकी ॥४॥
माटी एक भेख धरि नाना ता महि ब्रहमु पछाना ॥
कहै कबीरा भिसत छोडि करि दोजक सिउ मनु माना ॥५॥४॥१७॥480॥
35. गगन नगरि इक बूंद न बरखै नादु कहा जु समाना
गगन नगरि इक बूंद न बरखै नादु कहा जु समाना ॥
पारब्रहम परमेसुर माधो परम हंसु ले सिधाना ॥१॥
बाबा बोलते ते कहा गए देही के संगि रहते ॥
सुरति माहि जो निरते करते कथा बारता कहते ॥१॥ रहाउ ॥
बजावनहारो कहा गइओ जिनि इहु मंदरु कीन्हा ॥
साखी सबदु सुरति नही उपजै खिंचि तेजु सभु लीन्हा ॥२॥
स्रवनन बिकल भए संगि तेरे इंद्री का बलु थाका ॥
चरन रहे कर ढरकि परे है मुखहु न निकसै बाता ॥३॥
थाके पंच दूत सभ तसकर आप आपणै भ्रमते ॥
थाका मनु कुंचर उरु थाका तेजु सूतु धरि रमते ॥४॥
मिरतक भए दसै बंद छूटे मित्र भाई सभ छोरे ॥
कहत कबीरा जो हरि धिआवै जीवत बंधन तोरे ॥५॥५॥१८॥480॥
36. सरपनी ते ऊपरि नही बलीआ
सरपनी ते ऊपरि नही बलीआ ॥
जिनि ब्रहमा बिसनु महादेउ छलीआ ॥१॥
मारु मारु स्रपनी निरमल जलि पैठी ॥
जिनि त्रिभवणु डसीअले गुर प्रसादि डीठी ॥१॥ रहाउ ॥
स्रपनी स्रपनी किआ कहहु भाई ॥
जिनि साचु पछानिआ तिनि स्रपनी खाई ॥२॥
स्रपनी ते आन छूछ नही अवरा ॥
स्रपनी जीती कहा करै जमरा ॥३॥
इह स्रपनी ता की कीती होई ॥
बलु अबलु किआ इस ते होई ॥४॥
इह बसती ता बसत सरीरा ॥
गुर प्रसादि सहजि तरे कबीरा ॥५॥६॥१९॥480॥
37. कहा सुआन कउ सिम्रिति सुनाए
कहा सुआन कउ सिम्रिति सुनाए ॥
कहा साकत पहि हरि गुन गाए ॥१॥
राम राम राम रमे रमि रहीऐ ॥
साकत सिउ भूलि नही कहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥
कऊआ कहा कपूर चराए ॥
कह बिसीअर कउ दूधु पीआए ॥२॥
सतसंगति मिलि बिबेक बुधि होई ॥
पारसु परसि लोहा कंचनु सोई ॥३॥
साकतु सुआनु सभु करे कराइआ ॥
जो धुरि लिखिआ सु करम कमाइआ ॥४॥
अम्रितु लै लै नीमु सिंचाई ॥
कहत कबीर उआ को सहजु न जाई ॥५॥७॥२०॥481॥
38. लंका सा कोटु समुंद सी खाई
लंका सा कोटु समुंद सी खाई ॥
तिह रावन घर खबरि न पाई ॥१॥
किआ मागउ किछु थिरु न रहाई ॥
देखत नैन चलिओ जगु जाई ॥१॥ रहाउ ॥
इकु लखु पूत सवा लखु नाती ॥
तिह रावन घर दीआ न बाती ॥२॥
चंदु सूरजु जा के तपत रसोई ॥
बैसंतरु जा के कपरे धोई ॥३॥
गुरमति रामै नामि बसाई ॥
असथिरु रहै न कतहूं जाई ॥४॥
कहत कबीर सुनहु रे लोई ॥
राम नाम बिनु मुकति न होई ॥५॥८॥२१॥481॥
39. हम घरि सूतु तनहि नित ताना कंठि जनेऊ तुमारे
हम घरि सूतु तनहि नित ताना कंठि जनेऊ तुमारे ॥
तुम्ह तउ बेद पड़हु गाइत्री गोबिंदु रिदै हमारे ॥१॥
मेरी जिहबा बिसनु नैन नाराइन हिरदै बसहि गोबिंदा ॥
जम दुआर जब पूछसि बवरे तब किआ कहसि मुकंदा ॥१॥ रहाउ ॥
हम गोरू तुम गुआर गुसाई जनम जनम रखवारे ॥
कबहूं न पारि उतारि चराइहु कैसे खसम हमारे ॥२॥
तूं बाम्हनु मै कासीक जुलहा बूझहु मोर गिआना ॥
तुम्ह तउ जाचे भूपति राजे हरि सउ मोर धिआना ॥३॥४॥२६॥482॥
40. रोजा धरै मनावै अलहु सुआदति जीअ संघारै
रोजा धरै मनावै अलहु सुआदति जीअ संघारै ॥
आपा देखि अवर नही देखै काहे कउ झख मारै ॥१॥
काजी साहिबु एकु तोही महि तेरा सोचि बिचारि न देखै ॥
खबरि न करहि दीन के बउरे ता ते जनमु अलेखै ॥१॥ रहाउ ॥
साचु कतेब बखानै अलहु नारि पुरखु नही कोई ॥
पढे गुने नाही कछु बउरे जउ दिल महि खबरि न होई ॥२॥
अलहु गैबु सगल घट भीतरि हिरदै लेहु बिचारी ॥
हिंदू तुरक दुहूं महि एकै कहै कबीर पुकारी ॥३॥७॥२९॥483॥
41. करवतु भला न करवट तेरी
करवतु भला न करवट तेरी ॥
लागु गले सुनु बिनती मेरी ॥१॥
हउ वारी मुखु फेरि पिआरे ॥
करवटु दे मो कउ काहे कउ मारे ॥१॥ रहाउ ॥
जउ तनु चीरहि अंगु न मोरउ ॥
पिंडु परै तउ प्रीति न तोरउ ॥२॥
हम तुम बीचु भइओ नही कोई ॥
तुमहि सु कंत नारि हम सोई ॥३॥
कहतु कबीरु सुनहु रे लोई ॥
अब तुमरी परतीति न होई ॥४॥२॥३५॥484॥
42. कोरी को काहू मरमु न जानां
कोरी को काहू मरमु न जानां ॥
सभु जगु आनि तनाइओ तानां ॥१॥ रहाउ ॥
जब तुम सुनि ले बेद पुरानां ॥
तब हम इतनकु पसरिओ तानां ॥१॥
धरनि अकास की करगह बनाई ॥
चंदु सूरजु दुइ साथ चलाई ॥२॥
पाई जोरि बात इक कीनी तह तांती मनु मानां ॥
जोलाहे घरु अपना चीन्हां घट ही रामु पछानां ॥३॥
कहतु कबीरु कारगह तोरी ॥
सूतै सूत मिलाए कोरी ॥४॥३॥३६॥484॥
43. अंतरि मैलु जे तीरथ नावै तिसु बैकुंठ न जानां
अंतरि मैलु जे तीरथ नावै तिसु बैकुंठ न जानां ॥
लोक पतीणे कछू न होवै नाही रामु अयाना ॥१॥
पूजहु रामु एकु ही देवा ॥
साचा नावणु गुर की सेवा ॥१॥ रहाउ ॥
जल कै मजनि जे गति होवै नित नित मेंडुक नावहि ॥
जैसे मेंडुक तैसे ओइ नर फिरि फिरि जोनी आवहि ॥२॥
मनहु कठोरु मरै बानारसि नरकु न बांचिआ जाई ॥
हरि का संतु मरै हाड़्मबै त सगली सैन तराई ॥३॥
दिनसु न रैनि बेदु नही सासत्र तहा बसै निरंकारा ॥
कहि कबीर नर तिसहि धिआवहु बावरिआ संसारा ॥४॥४॥३७॥484॥
44. चारि पाव दुइ सिंग गुंग मुख तब कैसे गुन गईहै
चारि पाव दुइ सिंग गुंग मुख तब कैसे गुन गईहै ॥
ऊठत बैठत ठेगा परिहै तब कत मूड लुकईहै ॥१॥
हरि बिनु बैल बिराने हुईहै ॥
फाटे नाकन टूटे काधन कोदउ को भुसु खईहै ॥१॥ रहाउ ॥
सारो दिनु डोलत बन महीआ अजहु न पेट अघईहै ॥
जन भगतन को कहो न मानो कीओ अपनो पईहै ॥२॥
दुख सुख करत महा भ्रमि बूडो अनिक जोनि भरमईहै ॥
रतन जनमु खोइओ प्रभु बिसरिओ इहु अउसरु कत पईहै ॥३॥
भ्रमत फिरत तेलक के कपि जिउ गति बिनु रैनि बिहईहै ॥
कहत कबीर राम नाम बिनु मूंड धुने पछुतईहै ॥४॥१॥524॥
45. मुसि मुसि रोवै कबीर की माई
मुसि मुसि रोवै कबीर की माई ॥
ए बारिक कैसे जीवहि रघुराई ॥१॥
तनना बुनना सभु तजिओ है कबीर ॥
हरि का नामु लिखि लीओ सरीर ॥१॥ रहाउ ॥
जब लगु तागा बाहउ बेही ॥
तब लगु बिसरै रामु सनेही ॥२॥
ओछी मति मेरी जाति जुलाहा ॥
हरि का नामु लहिओ मै लाहा ॥३॥
कहत कबीर सुनहु मेरी माई ॥
हमरा इन का दाता एकु रघुराई ॥४॥२॥524॥
46. बुत पूजि पूजि हिंदू मूए तुरक मूए सिरु नाई
बुत पूजि पूजि हिंदू मूए तुरक मूए सिरु नाई ॥
ओइ ले जारे ओइ ले गाडे तेरी गति दुहू न पाई ॥१॥
मन रे संसारु अंध गहेरा ॥
चहु दिस पसरिओ है जम जेवरा ॥१॥ रहाउ ॥
कबित पड़े पड़ि कबिता मूए कपड़ केदारै जाई ॥
जटा धारि धारि जोगी मूए तेरी गति इनहि न पाई ॥२॥
दरबु संचि संचि राजे मूए गडि ले कंचन भारी ॥
बेद पड़े पड़ि पंडित मूए रूपु देखि देखि नारी ॥३॥
राम नाम बिनु सभै बिगूते देखहु निरखि सरीरा ॥
हरि के नाम बिनु किनि गति पाई कहि उपदेसु कबीरा ॥४॥१॥654॥
47. जब जरीऐ तब होइ भसम तनु रहै किरम दल खाई
जब जरीऐ तब होइ भसम तनु रहै किरम दल खाई ॥
काची गागरि नीरु परतु है इआ तन की इहै बडाई ॥१॥
काहे भईआ फिरतौ फूलिआ फूलिआ ॥
जब दस मास उरध मुख रहता सो दिनु कैसे भूलिआ ॥१॥ रहाउ ॥
जिउ मधु माखी तिउ सठोरि रसु जोरि जोरि धनु कीआ ॥
मरती बार लेहु लेहु करीऐ भूतु रहन किउ दीआ ॥२॥
देहुरी लउ बरी नारि संगि भई आगै सजन सुहेला ॥
मरघट लउ सभु लोगु कुट्मबु भइओ आगै हंसु अकेला ॥३॥
कहतु कबीर सुनहु रे प्रानी परे काल ग्रस कूआ ॥
झूठी माइआ आपु बंधाइआ जिउ नलनी भ्रमि सूआ ॥४॥२॥654॥
48. बेद पुरान सभै मत सुनि कै करी करम की आसा
बेद पुरान सभै मत सुनि कै करी करम की आसा ॥
काल ग्रसत सभ लोग सिआने उठि पंडित पै चले निरासा ॥१॥
मन रे सरिओ न एकै काजा ॥
भजिओ न रघुपति राजा ॥१॥ रहाउ ॥
बन खंड जाइ जोगु तपु कीनो कंद मूलु चुनि खाइआ ॥
नादी बेदी सबदी मोनी जम के पटै लिखाइआ ॥२॥
भगति नारदी रिदै न आई काछि कूछि तनु दीना ॥
राग रागनी डि्मभ होइ बैठा उनि हरि पहि किआ लीना ॥३॥
परिओ कालु सभै जग ऊपर माहि लिखे भ्रम गिआनी ॥
कहु कबीर जन भए खालसे प्रेम भगति जिह जानी ॥४॥३॥654॥
49. दुइ दुइ लोचन पेखा
दुइ दुइ लोचन पेखा ॥
हउ हरि बिनु अउरु न देखा ॥
नैन रहे रंगु लाई ॥
अब बे गल कहनु न जाई ॥१॥
हमरा भरमु गइआ भउ भागा ॥
जब राम नाम चितु लागा ॥१॥ रहाउ ॥
बाजीगर डंक बजाई ॥
सभ खलक तमासे आई ॥
बाजीगर स्वांगु सकेला ॥
अपने रंग रवै अकेला ॥२॥
कथनी कहि भरमु न जाई ॥
सभ कथि कथि रही लुकाई ॥
जा कउ गुरमुखि आपि बुझाई ॥
ता के हिरदै रहिआ समाई ॥३॥
गुर किंचत किरपा कीनी ॥
सभु तनु मनु देह हरि लीनी ॥
कहि कबीर रंगि राता ॥
मिलिओ जगजीवन दाता ॥४॥४॥655॥
50. जा के निगम दूध के ठाटा
जा के निगम दूध के ठाटा ॥
समुंदु बिलोवन कउ माटा ॥
ता की होहु बिलोवनहारी ॥
किउ मेटै गो छाछि तुहारी ॥१॥
चेरी तू रामु न करसि भतारा ॥
जगजीवन प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ ॥
तेरे गलहि तउकु पग बेरी ॥
तू घर घर रमईऐ फेरी ॥
तू अजहु न चेतसि चेरी ॥
तू जमि बपुरी है हेरी ॥२॥
प्रभ करन करावनहारी ॥
किआ चेरी हाथ बिचारी ॥
सोई सोई जागी ॥
जितु लाई तितु लागी ॥३॥
चेरी तै सुमति कहां ते पाई ॥
जा ते भ्रम की लीक मिटाई ॥
सु रसु कबीरै जानिआ ॥
मेरो गुर प्रसादि मनु मानिआ ॥४॥५॥655॥
51. जिह बाझु न जीआ जाई
जिह बाझु न जीआ जाई ॥
जउ मिलै त घाल अघाई ॥
सद जीवनु भलो कहांही ॥
मूए बिनु जीवनु नाही ॥१॥
अब किआ कथीऐ गिआनु बीचारा ॥
निज निरखत गत बिउहारा ॥१॥ रहाउ ॥
घसि कुंकम चंदनु गारिआ ॥
बिनु नैनहु जगतु निहारिआ ॥
पूति पिता इकु जाइआ ॥
बिनु ठाहर नगरु बसाइआ ॥२॥
जाचक जन दाता पाइआ ॥
सो दीआ न जाई खाइआ ॥
छोडिआ जाइ न मूका ॥
अउरन पहि जाना चूका ॥३॥
जो जीवन मरना जानै ॥
सो पंच सैल सुख मानै ॥
कबीरै सो धनु पाइआ ॥
हरि भेटत आपु मिटाइआ ॥४॥६॥655॥
52. किआ पड़ीऐ किआ गुनीऐ
किआ पड़ीऐ किआ गुनीऐ ॥
किआ बेद पुरानां सुनीऐ ॥
पड़े सुने किआ होई ॥
जउ सहज न मिलिओ सोई ॥१॥
हरि का नामु न जपसि गवारा ॥
किआ सोचहि बारं बारा ॥१॥ रहाउ ॥
अंधिआरे दीपकु चहीऐ ॥ इक बसतु अगोचर लहीऐ ॥
बसतु अगोचर पाई ॥
घटि दीपकु रहिआ समाई ॥२॥
कहि कबीर अब जानिआ ॥
जब जानिआ तउ मनु मानिआ ॥
मन माने लोगु न पतीजै ॥
न पतीजै तउ किआ कीजै ॥३॥७॥655॥
53. ह्रिदै कपटु मुख गिआनी
ह्रिदै कपटु मुख गिआनी ॥
झूठे कहा बिलोवसि पानी ॥१॥
कांइआ मांजसि कउन गुनां ॥
जउ घट भीतरि है मलनां ॥१॥ रहाउ ॥
लउकी अठसठि तीरथ न्हाई ॥
कउरापनु तऊ न जाई ॥२॥
कहि कबीर बीचारी ॥
भव सागरु तारि मुरारी ॥३॥८॥656॥
54. बहु परपंच करि पर धनु लिआवै
बहु परपंच करि पर धनु लिआवै ॥
सुत दारा पहि आनि लुटावै ॥१॥
मन मेरे भूले कपटु न कीजै ॥
अंति निबेरा तेरे जीअ पहि लीजै ॥१॥ रहाउ ॥
छिनु छिनु तनु छीजै जरा जनावै ॥
तब तेरी ओक कोई पानीओ न पावै ॥२॥
कहतु कबीरु कोई नही तेरा ॥
हिरदै रामु की न जपहि सवेरा ॥३॥९॥656॥
55. संतहु मन पवनै सुखु बनिआ
संतहु मन पवनै सुखु बनिआ ॥
किछु जोगु परापति गनिआ ॥ रहाउ ॥
गुरि दिखलाई मोरी ॥
जितु मिरग पड़त है चोरी ॥
मूंदि लीए दरवाजे ॥
बाजीअले अनहद बाजे ॥१॥
कु्मभ कमलु जलि भरिआ ॥
जलु मेटिआ ऊभा करिआ ॥
कहु कबीर जन जानिआ ॥
जउ जानिआ तउ मनु मानिआ ॥२॥१०॥656॥
56. भूखे भगति न कीजै
भूखे भगति न कीजै ॥
यह माला अपनी लीजै ॥
हउ मांगउ संतन रेना ॥
मै नाही किसी का देना ॥१॥
माधो कैसी बनै तुम संगे ॥
आपि न देहु त लेवउ मंगे ॥ रहाउ ॥
दुइ सेर मांगउ चूना ॥
पाउ घीउ संगि लूना ॥
अध सेरु मांगउ दाले ॥
मो कउ दोनउ वखत जिवाले ॥२॥
खाट मांगउ चउपाई ॥
सिरहाना अवर तुलाई ॥
ऊपर कउ मांगउ खींधा ॥
तेरी भगति करै जनु थींधा ॥३॥
मै नाही कीता लबो ॥
इकु नाउ तेरा मै फबो ॥
कहि कबीर मनु मानिआ ॥
मनु मानिआ तउ हरि जानिआ ॥४॥११॥656॥
57. सनक सनंद महेस समानां
सनक सनंद महेस समानां ॥
सेखनागि तेरो मरमु न जानां ॥१॥
संतसंगति रामु रिदै बसाई ॥१॥ रहाउ ॥
हनूमान सरि गरुड़ समानां ॥
सुरपति नरपति नही गुन जानां ॥२॥
चारि बेद अरु सिम्रिति पुरानां ॥
कमलापति कवला नही जानां ॥३॥
कहि कबीर सो भरमै नाही ॥
पग लगि राम रहै सरनांही ॥४॥१॥691॥
58. दिन ते पहर पहर ते घरीआं आव घटै तनु छीजै
दिन ते पहर पहर ते घरीआं आव घटै तनु छीजै ॥
कालु अहेरी फिरै बधिक जिउ कहहु कवन बिधि कीजै ॥१॥
सो दिनु आवन लागा ॥
मात पिता भाई सुत बनिता कहहु कोऊ है का का ॥१॥ रहाउ ॥
जब लगु जोति काइआ महि बरतै आपा पसू न बूझै ॥
लालच करै जीवन पद कारन लोचन कछू न सूझै ॥२॥
कहत कबीर सुनहु रे प्रानी छोडहु मन के भरमा ॥
केवल नामु जपहु रे प्रानी परहु एक की सरनां ॥३॥२॥692॥
59. जो जनु भाउ भगति कछु जानै ता कउ अचरजु काहो
जो जनु भाउ भगति कछु जानै ता कउ अचरजु काहो ॥
जिउ जलु जल महि पैसि न निकसै तिउ ढुरि मिलिओ जुलाहो ॥१॥
हरि के लोगा मै तउ मति का भोरा ॥
जउ तनु कासी तजहि कबीरा रमईऐ कहा निहोरा ॥१॥ रहाउ ॥
कहतु कबीरु सुनहु रे लोई भरमि न भूलहु कोई ॥
किआ कासी किआ ऊखरु मगहरु रामु रिदै जउ होई ॥२॥३॥692॥
60. इंद्र लोक सिव लोकहि जैबो
इंद्र लोक सिव लोकहि जैबो ॥
ओछे तप करि बाहुरि ऐबो ॥१॥
किआ मांगउ किछु थिरु नाही ॥
राम नाम रखु मन माही ॥१॥ रहाउ ॥
सोभा राज बिभै बडिआई ॥
अंति न काहू संग सहाई ॥२॥
पुत्र कलत्र लछमी माइआ ॥
इन ते कहु कवनै सुखु पाइआ ॥३॥
कहत कबीर अवर नही कामा ॥
हमरै मन धन राम को नामा ॥४॥४॥692॥
61. राम सिमरि राम सिमरि राम सिमरि भाई
राम सिमरि राम सिमरि राम सिमरि भाई ॥
राम नाम सिमरन बिनु बूडते अधिकाई ॥१॥ रहाउ ॥
बनिता सुत देह ग्रेह स्मपति सुखदाई ॥
इन्ह मै कछु नाहि तेरो काल अवध आई ॥१॥
अजामल गज गनिका पतित करम कीने ॥
तेऊ उतरि पारि परे राम नाम लीने ॥२॥
सूकर कूकर जोनि भ्रमे तऊ लाज न आई ॥
राम नाम छाडि अम्रित काहे बिखु खाई ॥३॥
तजि भरम करम बिधि निखेध राम नामु लेही ॥
गुर प्रसादि जन कबीर रामु करि सनेही ॥४॥५॥692॥
62. बेद कतेब इफतरा भाई दिल का फिकरु न जाइ
बेद कतेब इफतरा भाई दिल का फिकरु न जाइ ॥
टुकु दमु करारी जउ करहु हाजिर हजूरि खुदाइ ॥१॥
बंदे खोजु दिल हर रोज ना फिरु परेसानी माहि ॥
इह जु दुनीआ सिहरु मेला दसतगीरी नाहि ॥१॥ रहाउ ॥
दरोगु पड़ि पड़ि खुसी होइ बेखबर बादु बकाहि ॥
हकु सचु खालकु खलक मिआने सिआम मूरति नाहि ॥२॥
असमान िम्याने लहंग दरीआ गुसल करदन बूद ॥
करि फकरु दाइम लाइ चसमे जह तहा मउजूदु ॥३॥
अलाह पाकं पाक है सक करउ जे दूसर होइ ॥
कबीर करमु करीम का उहु करै जानै सोइ ॥४॥१॥727॥
63. अमलु सिरानो लेखा देना
अमलु सिरानो लेखा देना ॥
आए कठिन दूत जम लेना ॥
किआ तै खटिआ कहा गवाइआ ॥
चलहु सिताब दीबानि बुलाइआ ॥१॥
चलु दरहालु दीवानि बुलाइआ ॥
हरि फुरमानु दरगह का आइआ ॥१॥ रहाउ ॥
करउ अरदासि गाव किछु बाकी ॥
लेउ निबेरि आजु की राती ॥
किछु भी खरचु तुम्हारा सारउ ॥
सुबह निवाज सराइ गुजारउ ॥२॥
साधसंगि जा कउ हरि रंगु लागा ॥
धनु धनु सो जनु पुरखु सभागा ॥
ईत ऊत जन सदा सुहेले ॥
जनमु पदारथु जीति अमोले ॥३॥
जागतु सोइआ जनमु गवाइआ ॥
मालु धनु जोरिआ भइआ पराइआ ॥
कहु कबीर तेई नर भूले ॥
खसमु बिसारि माटी संगि रूले ॥४॥३॥792॥
64. थाके नैन स्रवन सुनि थाके थाकी सुंदरि काइआ
थाके नैन स्रवन सुनि थाके थाकी सुंदरि काइआ ॥
जरा हाक दी सभ मति थाकी एक न थाकसि माइआ ॥१॥
बावरे तै गिआन बीचारु न पाइआ ॥
बिरथा जनमु गवाइआ ॥१॥ रहाउ ॥
तब लगु प्रानी तिसै सरेवहु जब लगु घट महि सासा ॥
जे घटु जाइ त भाउ न जासी हरि के चरन निवासा ॥२॥
जिस कउ सबदु बसावै अंतरि चूकै तिसहि पिआसा ॥
हुकमै बूझै चउपड़ि खेलै मनु जिणि ढाले पासा ॥३॥
जो जन जानि भजहि अबिगत कउ तिन का कछू न नासा ॥
कहु कबीर ते जन कबहु न हारहि ढालि जु जानहि पासा ॥४॥४॥793॥
65. ऐसो इहु संसारु पेखना रहनु न कोऊ पईहै रे
ऐसो इहु संसारु पेखना रहनु न कोऊ पईहै रे ॥
सूधे सूधे रेगि चलहु तुम नतर कुधका दिवईहै रे ॥१॥ रहाउ ॥
बारे बूढे तरुने भईआ सभहू जमु लै जईहै रे ॥
मानसु बपुरा मूसा कीनो मीचु बिलईआ खईहै रे ॥१॥
धनवंता अरु निरधन मनई ता की कछू न कानी रे ॥
राजा परजा सम करि मारै ऐसो कालु बडानी रे ॥२॥
हरि के सेवक जो हरि भाए तिन्ह की कथा निरारी रे ॥
आवहि न जाहि न कबहू मरते पारब्रहम संगारी रे ॥३॥
पुत्र कलत्र लछिमी माइआ इहै तजहु जीअ जानी रे ॥
कहत कबीरु सुनहु रे संतहु मिलिहै सारिगपानी रे ॥४॥१॥855॥
66. बिदिआ न परउ बादु नही जानउ
बिदिआ न परउ बादु नही जानउ ॥
हरि गुन कथत सुनत बउरानो ॥१॥
मेरे बाबा मै बउरा सभ खलक सैआनी मै बउरा ॥
मै बिगरिओ बिगरै मति अउरा ॥१॥ रहाउ ॥
आपि न बउरा राम कीओ बउरा ॥
सतिगुरु जारि गइओ भ्रमु मोरा ॥२॥
मै बिगरे अपनी मति खोई ॥
मेरे भरमि भूलउ मति कोई ॥३॥
सो बउरा जो आपु न पछानै ॥
आपु पछानै त एकै जानै ॥४॥
अबहि न माता सु कबहु न माता ॥
कहि कबीर रामै रंगि राता ॥५॥२॥855॥
67. ग्रिहु तजि बन खंड जाईऐ चुनि खाईऐ कंदा
ग्रिहु तजि बन खंड जाईऐ चुनि खाईऐ कंदा ॥
अजहु बिकार न छोडई पापी मनु मंदा ॥१॥
किउ छूटउ कैसे तरउ भवजल निधि भारी ॥
राखु राखु मेरे बीठुला जनु सरनि तुम्हारी ॥१॥ रहाउ ॥
बिखै बिखै की बासना तजीअ नह जाई ॥
अनिक जतन करि राखीऐ फिरि फिरि लपटाई ॥२॥
जरा जीवन जोबनु गइआ किछु कीआ न नीका ॥
इहु जीअरा निरमोलको कउडी लगि मीका ॥३॥
कहु कबीर मेरे माधवा तू सरब बिआपी ॥
तुम समसरि नाही दइआलु मोहि समसरि पापी ॥४॥३॥855॥
68. नित उठि कोरी गागरि आनै लीपत जीउ गइओ
नित उठि कोरी गागरि आनै लीपत जीउ गइओ ॥
ताना बाना कछू न सूझै हरि हरि रसि लपटिओ ॥१॥
हमारे कुल कउने रामु कहिओ ॥
जब की माला लई निपूते तब ते सुखु न भइओ ॥१॥ रहाउ ॥
सुनहु जिठानी सुनहु दिरानी अचरजु एकु भइओ ॥
सात सूत इनि मुडींए खोए इहु मुडीआ किउ न मुइओ ॥२॥
सरब सुखा का एकु हरि सुआमी सो गुरि नामु दइओ ॥
संत प्रहलाद की पैज जिनि राखी हरनाखसु नख बिदरिओ ॥३॥
घर के देव पितर की छोडी गुर को सबदु लइओ ॥
कहत कबीरु सगल पाप खंडनु संतह लै उधरिओ ॥४॥४॥856॥
69. संतु मिलै किछु सुनीऐ कहीऐ
संतु मिलै किछु सुनीऐ कहीऐ ॥
मिलै असंतु मसटि करि रहीऐ ॥१॥
बाबा बोलना किआ कहीऐ ॥
जैसे राम नाम रवि रहीऐ ॥१॥ रहाउ ॥
संतन सिउ बोले उपकारी ॥
मूरख सिउ बोले झख मारी ॥२॥
बोलत बोलत बढहि बिकारा ॥
बिनु बोले किआ करहि बीचारा ॥३॥
कहु कबीर छूछा घटु बोलै ॥
भरिआ होइ सु कबहु न डोलै ॥४॥१॥870॥
70. नरू मरै नरु कामि न आवै
नरू मरै नरु कामि न आवै ॥
पसू मरै दस काज सवारै ॥१॥
अपने करम की गति मै किआ जानउ ॥
मै किआ जानउ बाबा रे ॥१॥ रहाउ ॥
हाड जले जैसे लकरी का तूला ॥
केस जले जैसे घास का पूला ॥२॥
कहु कबीर तब ही नरु जागै ॥
जम का डंडु मूंड महि लागै ॥३॥२॥870॥
71. भुजा बांधि भिला करि डारिओ
भुजा बांधि भिला करि डारिओ ॥
हसती क्रोपि मूंड महि मारिओ ॥
हसति भागि कै चीसा मारै ॥
इआ मूरति कै हउ बलिहारै ॥१॥
आहि मेरे ठाकुर तुमरा जोरु ॥
काजी बकिबो हसती तोरु ॥१॥ रहाउ ॥
रे महावत तुझु डारउ काटि ॥
इसहि तुरावहु घालहु साटि ॥
हसति न तोरै धरै धिआनु ॥
वा कै रिदै बसै भगवानु ॥२॥
किआ अपराधु संत है कीन्हा ॥
बांधि पोट कुंचर कउ दीन्हा ॥
कुंचरु पोट लै लै नमसकारै ॥
बूझी नही काजी अंधिआरै ॥३॥
तीनि बार पतीआ भरि लीना ॥
मन कठोरु अजहू न पतीना ॥
कहि कबीर हमरा गोबिंदु ॥
चउथे पद महि जन की जिंदु ॥४॥१॥४॥870॥
72. ना इहु मानसु ना इहु देउ
ना इहु मानसु ना इहु देउ ॥
ना इहु जती कहावै सेउ ॥
ना इहु जोगी ना अवधूता ॥
ना इसु माइ न काहू पूता ॥१॥
इआ मंदर महि कौन बसाई ॥
ता का अंतु न कोऊ पाई ॥१॥ रहाउ ॥
ना इहु गिरही ना ओदासी ॥
ना इहु राज न भीख मंगासी ॥
ना इसु पिंडु न रकतू राती ॥
ना इहु ब्रहमनु ना इहु खाती ॥२॥
ना इहु तपा कहावै सेखु ॥
ना इहु जीवै न मरता देखु ॥
इसु मरते कउ जे कोऊ रोवै ॥
जो रोवै सोई पति खोवै ॥३॥
गुर प्रसादि मै डगरो पाइआ ॥
जीवन मरनु दोऊ मिटवाइआ ॥
कहु कबीर इहु राम की अंसु ॥
जस कागद पर मिटै न मंसु ॥४॥२॥५॥871॥
73. तूटे तागे निखुटी पानि
तूटे तागे निखुटी पानि ॥
दुआर ऊपरि झिलकावहि कान ॥
कूच बिचारे फूए फाल ॥
इआ मुंडीआ सिरि चढिबो काल ॥१॥
इहु मुंडीआ सगलो द्रबु खोई ॥
आवत जात नाक सर होई ॥१॥ रहाउ ॥
तुरी नारि की छोडी बाता ॥
राम नाम वा का मनु राता ॥
लरिकी लरिकन खैबो नाहि ॥
मुंडीआ अनदिनु धापे जाहि ॥२॥
इक दुइ मंदरि इक दुइ बाट ॥
हम कउ साथरु उन कउ खाट ॥
मूड पलोसि कमर बधि पोथी ॥
हम कउ चाबनु उन कउ रोटी ॥३॥
मुंडीआ मुंडीआ हूए एक ॥
ए मुंडीआ बूडत की टेक ॥
सुनि अंधली लोई बेपीरि ॥
इन्ह मुंडीअन भजि सरनि कबीर ॥४॥३॥६॥871॥
74. धंनु गुपाल धंनु गुरदेव
धंनु गुपाल धंनु गुरदेव ॥
धंनु अनादि भूखे कवलु टहकेव ॥
धनु ओइ संत जिन ऐसी जानी ॥
तिन कउ मिलिबो सारिंगपानी ॥१॥
आदि पुरख ते होइ अनादि ॥
जपीऐ नामु अंन कै सादि ॥१॥ रहाउ ॥
जपीऐ नामु जपीऐ अंनु ॥
अम्भै कै संगि नीका वंनु ॥
अंनै बाहरि जो नर होवहि ॥
तीनि भवन महि अपनी खोवहि ॥२॥
छोडहि अंनु करहि पाखंड ॥
ना सोहागनि ना ओहि रंड ॥
जग महि बकते दूधाधारी ॥
गुपती खावहि वटिका सारी ॥३॥
अंनै बिना न होइ सुकालु ॥
तजिऐ अंनि न मिलै गुपालु ॥
कहु कबीर हम ऐसे जानिआ ॥
धंनु अनादि ठाकुर मनु मानिआ ॥४॥८॥११॥873॥
75. जिह मुख बेदु गाइत्री निकसै सो किउ ब्रहमनु बिसरु करै
जिह मुख बेदु गाइत्री निकसै सो किउ ब्रहमनु बिसरु करै ॥
जा कै पाइ जगतु सभु लागै सो किउ पंडितु हरि न कहै ॥१॥
काहे मेरे बाम्हन हरि न कहहि ॥
रामु न बोलहि पाडे दोजकु भरहि ॥१॥ रहाउ ॥
आपन ऊच नीच घरि भोजनु हठे करम करि उदरु भरहि ॥
चउदस अमावस रचि रचि मांगहि कर दीपकु लै कूपि परहि ॥२॥
तूं ब्रहमनु मै कासीक जुलहा मुहि तोहि बराबरी कैसे कै बनहि ॥
हमरे राम नाम कहि उबरे बेद भरोसे पांडे डूबि मरहि ॥३॥५॥970॥
76. मुंद्रा मोनि दइआ करि झोली पत्र का करहु बीचारु रे
मुंद्रा मोनि दइआ करि झोली पत्र का करहु बीचारु रे ॥
खिंथा इहु तनु सीअउ अपना नामु करउ आधारु रे ॥१॥
ऐसा जोगु कमावहु जोगी ॥
जप तप संजमु गुरमुखि भोगी ॥१॥ रहाउ ॥
बुधि बिभूति चढावउ अपुनी सिंगी सुरति मिलाई ॥
करि बैरागु फिरउ तनि नगरी मन की किंगुरी बजाई ॥२॥
पंच ततु लै हिरदै राखहु रहै निरालम ताड़ी ॥
कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु धरमु दइआ करि बाड़ी ॥३॥७॥970॥
77. पडीआ कवन कुमति तुम लागे
पडीआ कवन कुमति तुम लागे ॥
बूडहुगे परवार सकल सिउ रामु न जपहु अभागे ॥१॥ रहाउ ॥
बेद पुरान पड़े का किआ गुनु खर चंदन जस भारा ॥
राम नाम की गति नही जानी कैसे उतरसि पारा ॥१॥
जीअ बधहु सु धरमु करि थापहु अधरमु कहहु कत भाई ॥
आपस कउ मुनिवर करि थापहु का कउ कहहु कसाई ॥२॥
मन के अंधे आपि न बूझहु काहि बुझावहु भाई ॥
माइआ कारन बिदिआ बेचहु जनमु अबिरथा जाई ॥३॥
नारद बचन बिआसु कहत है सुक कउ पूछहु जाई ॥
कहि कबीर रामै रमि छूटहु नाहि त बूडे भाई ॥४॥१॥1102॥
78. बनहि बसे किउ पाईऐ जउ लउ मनहु न तजहि बिकार
बनहि बसे किउ पाईऐ जउ लउ मनहु न तजहि बिकार ॥
जिह घरु बनु समसरि कीआ ते पूरे संसार ॥१॥
सार सुखु पाईऐ रामा ॥
रंगि रवहु आतमै राम ॥१॥ रहाउ ॥
जटा भसम लेपन कीआ कहा गुफा महि बासु ॥
मनु जीते जगु जीतिआ जां ते बिखिआ ते होइ उदासु ॥२॥
अंजनु देइ सभै कोई टुकु चाहन माहि बिडानु ॥
गिआन अंजनु जिह पाइआ ते लोइन परवानु ॥३॥
कहि कबीर अब जानिआ गुरि गिआनु दीआ समझाइ ॥
अंतरगति हरि भेटिआ अब मेरा मनु कतहू न जाइ ॥४॥२॥1103॥
79. उदक समुंद सलल की साखिआ नदी तरंग समावहिगे
उदक समुंद सलल की साखिआ नदी तरंग समावहिगे ॥
सुंनहि सुंनु मिलिआ समदरसी पवन रूप होइ जावहिगे ॥१॥
बहुरि हम काहे आवहिगे ॥
आवन जाना हुकमु तिसै का हुकमै बुझि समावहिगे ॥१॥ रहाउ ॥
जब चूकै पंच धातु की रचना ऐसे भरमु चुकावहिगे ॥
दरसनु छोडि भए समदरसी एको नामु धिआवहिगे ॥२॥
जित हम लाए तित ही लागे तैसे करम कमावहिगे ॥
हरि जी क्रिपा करे जउ अपनी तौ गुर के सबदि समावहिगे ॥३॥
जीवत मरहु मरहु फुनि जीवहु पुनरपि जनमु न होई ॥
कहु कबीर जो नामि समाने सुंन रहिआ लिव सोई ॥४॥४॥1103॥
80. जिनि गड़ कोट कीए कंचन के छोडि गइआ सो रावनु
जिनि गड़ कोट कीए कंचन के छोडि गइआ सो रावनु ॥१॥
काहे कीजतु है मनि भावनु ॥
जब जमु आइ केस ते पकरै तह हरि को नामु छडावन ॥१॥ रहाउ ॥
कालु अकालु खसम का कीन्हा इहु परपंचु बधावनु ॥
कहि कबीर ते अंते मुकते जिन्ह हिरदै राम रसाइनु ॥२॥६॥1104॥
81. देही गावा जीउ धर महतउ बसहि पंच किरसाना
देही गावा जीउ धर महतउ बसहि पंच किरसाना ॥
नैनू नकटू स्रवनू रसपति इंद्री कहिआ न माना ॥१॥
बाबा अब न बसउ इह गाउ ॥
घरी घरी का लेखा मागै काइथु चेतू नाउ ॥१॥ रहाउ ॥
धरम राइ जब लेखा मागै बाकी निकसी भारी ॥
पंच क्रिसानवा भागि गए लै बाधिओ जीउ दरबारी ॥२॥
कहै कबीरु सुनहु रे संतहु खेत ही करहु निबेरा ॥
अब की बार बखसि बंदे कउ बहुरि न भउजलि फेरा ॥३॥७॥1104॥
82. राजन कउनु तुमारै आवै
राजन कउनु तुमारै आवै ॥
ऐसो भाउ बिदर को देखिओ ओहु गरीबु मोहि भावै ॥१॥ रहाउ ॥
हसती देखि भरम ते भूला स्री भगवानु न जानिआ ॥
तुमरो दूधु बिदर को पान्हो अम्रितु करि मै मानिआ ॥१॥
खीर समानि सागु मै पाइआ गुन गावत रैनि बिहानी ॥
कबीर को ठाकुरु अनद बिनोदी जाति न काहू की मानी ॥२॥९॥1105॥
83. दीनु बिसारिओ रे दिवाने दीनु बिसारिओ रे
दीनु बिसारिओ रे दिवाने दीनु बिसारिओ रे ॥
पेटु भरिओ पसूआ जिउ सोइओ मनुखु जनमु है हारिओ ॥१॥ रहाउ ॥
साधसंगति कबहू नही कीनी रचिओ धंधै झूठ ॥
सुआन सूकर बाइस जिवै भटकतु चालिओ ऊठि ॥१॥
आपस कउ दीरघु करि जानै अउरन कउ लग मात ॥
मनसा बाचा करमना मै देखे दोजक जात ॥२॥
कामी क्रोधी चातुरी बाजीगर बेकाम ॥
निंदा करते जनमु सिरानो कबहू न सिमरिओ रामु ॥३॥
कहि कबीर चेतै नही मूरखु मुगधु गवारु ॥
रामु नामु जानिओ नही कैसे उतरसि पारि ॥४॥१॥1105॥
84. उसतति निंदा दोऊ बिबरजित तजहु मानु अभिमाना
उसतति निंदा दोऊ बिबरजित तजहु मानु अभिमाना ॥
लोहा कंचनु सम करि जानहि ते मूरति भगवाना ॥१॥
तेरा जनु एकु आधु कोई ॥
कामु क्रोधु लोभु मोहु बिबरजित हरि पदु चीन्है सोई ॥१॥ रहाउ ॥
रज गुण तम गुण सत गुण कहीऐ इह तेरी सभ माइआ ॥
चउथे पद कउ जो नरु चीन्है तिन्ह ही परम पदु पाइआ ॥२॥
तीरथ बरत नेम सुचि संजम सदा रहै निहकामा ॥
त्रिसना अरु माइआ भ्रमु चूका चितवत आतम रामा ॥३॥
जिह मंदरि दीपकु परगासिआ अंधकारु तह नासा ॥
निरभउ पूरि रहे भ्रमु भागा कहि कबीर जन दासा ॥४॥१॥1123॥
85. काम क्रोध त्रिसना के लीने गति नही एकै जानी
काम क्रोध त्रिसना के लीने गति नही एकै जानी ॥
फूटी आखै कछू न सूझै बूडि मूए बिनु पानी ॥१॥
चलत कत टेढे टेढे टेढे ॥
असति चरम बिसटा के मूंदे दुरगंध ही के बेढे ॥१॥ रहाउ ॥
राम न जपहु कवन भ्रम भूले तुम ते कालु न दूरे ॥
अनिक जतन करि इहु तनु राखहु रहै अवसथा पूरे ॥२॥
आपन कीआ कछू न होवै किआ को करै परानी ॥
जा तिसु भावै सतिगुरु भेटै एको नामु बखानी ॥३॥
बलूआ के घरूआ महि बसते फुलवत देह अइआने ॥
कहु कबीर जिह रामु न चेतिओ बूडे बहुतु सिआने ॥४॥४॥1123॥
86. टेढी पाग टेढे चले लागे बीरे खान
टेढी पाग टेढे चले लागे बीरे खान ॥
भाउ भगति सिउ काजु न कछूऐ मेरो कामु दीवान ॥१॥
रामु बिसारिओ है अभिमानि ॥
कनिक कामनी महा सुंदरी पेखि पेखि सचु मानि ॥१॥ रहाउ ॥
लालच झूठ बिकार महा मद इह बिधि अउध बिहानि ॥
कहि कबीर अंत की बेर आइ लागो कालु निदानि ॥२॥५॥1124॥
87. चारि दिन अपनी नउबति चले बजाइ
चारि दिन अपनी नउबति चले बजाइ ॥
इतनकु खटीआ गठीआ मटीआ संगि न कछु लै जाइ ॥१॥ रहाउ ॥
दिहरी बैठी मिहरी रोवै दुआरै लउ संगि माइ ॥
मरहट लगि सभु लोगु कुट्मबु मिलि हंसु इकेला जाइ ॥१॥
वै सुत वै बित वै पुर पाटन बहुरि न देखै आइ ॥
कहतु कबीरु रामु की न सिमरहु जनमु अकारथु जाइ ॥२॥६॥1124॥
88. नांगे आवनु नांगे जाना
नांगे आवनु नांगे जाना ॥
कोइ न रहिहै राजा राना ॥१॥
रामु राजा नउ निधि मेरै ॥
स्मपै हेतु कलतु धनु तेरै ॥१॥ रहाउ ॥
आवत संग न जात संगाती ॥
कहा भइओ दरि बांधे हाथी ॥२॥
लंका गढु सोने का भइआ ॥
मूरखु रावनु किआ ले गइआ ॥३॥
कहि कबीर किछु गुनु बीचारि ॥
चले जुआरी दुइ हथ झारि ॥४॥२॥1157॥
89. मैला ब्रहमा मैला इंदु
मैला ब्रहमा मैला इंदु ॥
रवि मैला मैला है चंदु ॥१॥
मैला मलता इहु संसारु ॥
इकु हरि निरमलु जा का अंतु न पारु ॥१॥ रहाउ॥
मैले ब्रहमंडाइ कै ईस ॥
मैले निसि बासुर दिन तीस ॥२॥
मैला मोती मैला हीरु ॥
मैला पउनु पावकु अरु नीरु ॥३॥
मैले सिव संकरा महेस ॥
मैले सिध साधिक अरु भेख ॥४॥
मैले जोगी जंगम जटा सहेति ॥
मैली काइआ हंस समेति ॥५॥
कहि कबीर ते जन परवान ॥
निरमल ते जो रामहि जान ॥६॥३॥1158॥
90. मनु करि मका किबला करि देही
मनु करि मका किबला करि देही ॥
बोलनहारु परम गुरु एही ॥१॥
कहु रे मुलां बांग निवाज ॥
एक मसीति दसै दरवाज ॥१॥ रहाउ ॥
मिसिमिलि तामसु भरमु कदूरी ॥
भाखि ले पंचै होइ सबूरी ॥२॥
हिंदू तुरक का साहिबु एक ॥
कह करै मुलां कह करै सेख ॥३॥
कहि कबीर हउ भइआ दिवाना ॥
मुसि मुसि मनूआ सहजि समाना ॥४॥४॥1158॥
91. गंगा कै संगि सलिता बिगरी
गंगा कै संगि सलिता बिगरी ॥
सो सलिता गंगा होइ निबरी ॥१॥
बिगरिओ कबीरा राम दुहाई ॥
साचु भइओ अन कतहि न जाई ॥१॥ रहाउ ॥
चंदन कै संगि तरवरु बिगरिओ ॥
सो तरवरु चंदनु होइ निबरिओ ॥२॥
पारस कै संगि तांबा बिगरिओ ॥
सो तांबा कंचनु होइ निबरिओ ॥३॥
संतन संगि कबीरा बिगरिओ ॥
सो कबीरु रामै होइ निबरिओ ॥४॥५॥1158॥
92. माथे तिलकु हथि माला बानां
माथे तिलकु हथि माला बानां ॥
लोगन रामु खिलउना जानां ॥१॥
जउ हउ बउरा तउ राम तोरा ॥
लोगु मरमु कह जानै मोरा ॥१॥ रहाउ ॥
तोरउ न पाती पूजउ न देवा ॥
राम भगति बिनु निहफल सेवा ॥२॥
सतिगुरु पूजउ सदा सदा मनावउ ॥
ऐसी सेव दरगह सुखु पावउ ॥३॥
लोगु कहै कबीरु बउराना ॥
कबीर का मरमु राम पहिचानां ॥४॥६॥1158॥
93. उलटि जाति कुल दोऊ बिसारी
उलटि जाति कुल दोऊ बिसारी ॥
सुंन सहज महि बुनत हमारी ॥१॥
हमरा झगरा रहा न कोऊ ॥
पंडित मुलां छाडे दोऊ ॥१॥ रहाउ ॥
बुनि बुनि आप आपु पहिरावउ ॥
जह नही आपु तहा होइ गावउ ॥२॥
पंडित मुलां जो लिखि दीआ ॥
छाडि चले हम कछू न लीआ ॥३॥
रिदै इखलासु निरखि ले मीरा ॥
आपु खोजि खोजि मिले कबीरा ॥४॥७॥1158॥
94. निरधन आदरु कोई न देइ
निरधन आदरु कोई न देइ ॥
लाख जतन करै ओहु चिति न धरेइ ॥१॥ रहाउ ॥
जउ निरधनु सरधन कै जाइ ॥
आगे बैठा पीठि फिराइ ॥१॥
जउ सरधनु निरधन कै जाइ ॥
दीआ आदरु लीआ बुलाइ ॥२॥
निरधनु सरधनु दोनउ भाई ॥
प्रभ की कला न मेटी जाई ॥३॥
कहि कबीर निरधनु है सोई ॥
जा के हिरदै नामु न होई ॥४॥८॥1159॥
95. सो मुलां जो मन सिउ लरै
सो मुलां जो मन सिउ लरै ॥
गुर उपदेसि काल सिउ जुरै ॥
काल पुरख का मरदै मानु ॥
तिसु मुला कउ सदा सलामु ॥१॥
है हजूरि कत दूरि बतावहु ॥
दुंदर बाधहु सुंदर पावहु ॥१॥ रहाउ ॥
काजी सो जु काइआ बीचारै ॥
काइआ की अगनि ब्रहमु परजारै ॥
सुपनै बिंदु न देई झरना ॥
तिसु काजी कउ जरा न मरना ॥२॥
सो सुरतानु जु दुइ सर तानै ॥
बाहरि जाता भीतरि आनै ॥
गगन मंडल महि लसकरु करै ॥
सो सुरतानु छत्रु सिरि धरै ॥३॥
जोगी गोरखु गोरखु करै ॥
हिंदू राम नामु उचरै ॥
मुसलमान का एकु खुदाइ ॥
कबीर का सुआमी रहिआ समाइ ॥४॥३॥११॥1159॥
96. जब लगु मेरी मेरी करै
जब लगु मेरी मेरी करै ॥
तब लगु काजु एकु नही सरै ॥
जब मेरी मेरी मिटि जाइ ॥
तब प्रभ काजु सवारहि आइ ॥१॥
ऐसा गिआनु बिचारु मना ॥
हरि की न सिमरहु दुख भंजना ॥१॥ रहाउ ॥
जब लगु सिंघु रहै बन माहि ॥
तब लगु बनु फूलै ही नाहि ॥
जब ही सिआरु सिंघ कउ खाइ ॥
फूलि रही सगली बनराइ ॥२॥
जीतो बूडै हारो तिरै ॥
गुर परसादी पारि उतरै ॥
दासु कबीरु कहै समझाइ ॥
केवल राम रहहु लिव लाइ ॥३॥६॥१४॥1160॥
97. सभु कोई चलन कहत है ऊहां
सभु कोई चलन कहत है ऊहां ॥
ना जानउ बैकुंठु है कहां ॥१॥ रहाउ ॥
आप आप का मरमु न जानां ॥
बातन ही बैकुंठु बखानां ॥१॥
जब लगु मन बैकुंठ की आस ॥
तब लगु नाही चरन निवास ॥२॥
खाई कोटु न परल पगारा ॥
ना जानउ बैकुंठ दुआरा ॥३॥
कहि कमीर अब कहीऐ काहि ॥
साधसंगति बैकुंठै आहि ॥४॥८॥१६॥1161॥
98. गंग गुसाइनि गहिर ग्मभीर
गंग गुसाइनि गहिर ग्मभीर ॥
जंजीर बांधि करि खरे कबीर ॥१॥
मनु न डिगै तनु काहे कउ डराइ ॥
चरन कमल चितु रहिओ समाइ ॥ रहाउ ॥
गंगा की लहरि मेरी टुटी जंजीर ॥
म्रिगछाला पर बैठे कबीर ॥२॥
कहि क्मबीर कोऊ संग न साथ ॥
जल थल राखन है रघुनाथ ॥३॥१०॥१८॥1162॥
99. मउली धरती मउलिआ अकासु
मउली धरती मउलिआ अकासु ॥
घटि घटि मउलिआ आतम प्रगासु ॥१॥
राजा रामु मउलिआ अनत भाइ ॥
जह देखउ तह रहिआ समाइ ॥१॥ रहाउ ॥
दुतीआ मउले चारि बेद ॥
सिम्रिति मउली सिउ कतेब ॥२॥
संकरु मउलिओ जोग धिआन ॥
कबीर को सुआमी सभ समान ॥३॥१॥1193॥
100. पंडित जन माते पड़्हि पुरान
पंडित जन माते पड़्हि पुरान ॥
जोगी माते जोग धिआन ॥
संनिआसी माते अहमेव ॥
तपसी माते तप कै भेव ॥१॥
सभ मद माते कोऊ न जाग ॥
संग ही चोर घरु मुसन लाग ॥१॥ रहाउ ॥
जागै सुकदेउ अरु अकूरु ॥
हणवंतु जागै धरि लंकूरु ॥
संकरु जागै चरन सेव ॥
कलि जागे नामा जैदेव ॥२॥
जागत सोवत बहु प्रकार ॥
गुरमुखि जागै सोई सारु ॥
इसु देही के अधिक काम ॥
कहि कबीर भजि राम नाम ॥३॥२॥1193॥
101. प्रहलाद पठाए पड़न साल
प्रहलाद पठाए पड़न साल ॥
संगि सखा बहु लीए बाल ॥
मो कउ कहा पड़्हावसि आल जाल ॥
मेरी पटीआ लिखि देहु स्री गोपाल ॥१॥
नही छोडउ रे बाबा राम नाम ॥
मेरो अउर पड़्हन सिउ नही कामु ॥१॥ रहाउ ॥
संडै मरकै कहिओ जाइ ॥
प्रहलाद बुलाए बेगि धाइ ॥
तू राम कहन की छोडु बानि ॥
तुझु तुरतु छडाऊ मेरो कहिओ मानि ॥२॥
मो कउ कहा सतावहु बार बार ॥
प्रभि जल थल गिरि कीए पहार ॥
इकु रामु न छोडउ गुरहि गारि ॥
मो कउ घालि जारि भावै मारि डारि ॥३॥
काढि खड़गु कोपिओ रिसाइ ॥
तुझ राखनहारो मोहि बताइ ॥
प्रभ थ्मभ ते निकसे कै बिसथार ॥
हरनाखसु छेदिओ नख बिदार ॥४॥
ओइ परम पुरख देवाधि देव ॥
भगति हेति नरसिंघ भेव ॥
कहि कबीर को लखै न पार ॥
प्रहलाद उधारे अनिक बार ॥५॥४॥1194॥
102. माता जूठी पिता भी जूठा जूठे ही फल लागे
माता जूठी पिता भी जूठा जूठे ही फल लागे ॥
आवहि जूठे जाहि भी जूठे जूठे मरहि अभागे ॥१॥
कहु पंडित सूचा कवनु ठाउ ॥
जहां बैसि हउ भोजनु खाउ ॥१॥ रहाउ ॥
जिहबा जूठी बोलत जूठा करन नेत्र सभि जूठे ॥
इंद्री की जूठि उतरसि नाही ब्रहम अगनि के लूठे ॥२॥
अगनि भी जूठी पानी जूठा जूठी बैसि पकाइआ ॥
जूठी करछी परोसन लागा जूठे ही बैठि खाइआ ॥३॥
गोबरु जूठा चउका जूठा जूठी दीनी कारा ॥
कहि कबीर तेई नर सूचे साची परी बिचारा ॥४॥१॥७॥1195॥
103. कहा नर गरबसि थोरी बात
कहा नर गरबसि थोरी बात ॥
मन दस नाजु टका चारि गांठी ऐंडौ टेढौ जातु ॥१॥ रहाउ ॥
बहुतु प्रतापु गांउ सउ पाए दुइ लख टका बरात ॥
दिवस चारि की करहु साहिबी जैसे बन हर पात ॥१॥
ना कोऊ लै आइओ इहु धनु ना कोऊ लै जातु ॥
रावन हूं ते अधिक छत्रपति खिन महि गए बिलात ॥२॥
हरि के संत सदा थिरु पूजहु जो हरि नामु जपात ॥
जिन कउ क्रिपा करत है गोबिदु ते सतसंगि मिलात ॥३॥
मात पिता बनिता सुत स्मपति अंति न चलत संगात ॥
कहत कबीरु राम भजु बउरे जनमु अकारथ जात ॥४॥१॥1251॥
104. राजास्रम मिति नही जानी तेरी
राजास्रम मिति नही जानी तेरी ॥
तेरे संतन की हउ चेरी ॥१॥ रहाउ ॥
हसतो जाइ सु रोवतु आवै रोवतु जाइ सु हसै ॥
बसतो होइ होइ सो ऊजरु ऊजरु होइ सु बसै ॥१॥
जल ते थल करि थल ते कूआ कूप ते मेरु करावै ॥
धरती ते आकासि चढावै चढे अकासि गिरावै ॥२॥
भेखारी ते राजु करावै राजा ते भेखारी ॥
खल मूरख ते पंडितु करिबो पंडित ते मुगधारी ॥३॥
नारी ते जो पुरखु करावै पुरखन ते जो नारी ॥
कहु कबीर साधू को प्रीतमु तिसु मूरति बलिहारी ॥४॥२॥1252॥
105. हरि बिनु कउनु सहाई मन का
हरि बिनु कउनु सहाई मन का ॥
मात पिता भाई सुत बनिता हितु लागो सभ फन का ॥१॥ रहाउ ॥
आगे कउ किछु तुलहा बांधहु किआ भरवासा धन का ॥
कहा बिसासा इस भांडे का इतनकु लागै ठनका ॥१॥
सगल धरम पुंन फल पावहु धूरि बांछहु सभ जन का ॥
कहै कबीरु सुनहु रे संतहु इहु मनु उडन पंखेरू बन का ॥२॥१॥९॥1253॥
106. अलहु एकु मसीति बसतु है अवरु मुलखु किसु केरा
अलहु एकु मसीति बसतु है अवरु मुलखु किसु केरा ॥
हिंदू मूरति नाम निवासी दुह महि ततु न हेरा ॥१॥
अलह राम जीवउ तेरे नाई ॥
तू करि मिहरामति साई ॥१॥ रहाउ ॥
दखन देसि हरी का बासा पछिमि अलह मुकामा ॥
दिल महि खोजि दिलै दिलि खोजहु एही ठउर मुकामा ॥२॥
ब्रहमन गिआस करहि चउबीसा काजी मह रमजाना ॥
गिआरह मास पास कै राखे एकै माहि निधाना ॥३॥
कहा उडीसे मजनु कीआ किआ मसीति सिरु नांएं ॥
दिल महि कपटु निवाज गुजारै किआ हज काबै जांएं ॥४॥
एते अउरत मरदा साजे ए सभ रूप तुम्हारे ॥
कबीरु पूंगरा राम अलह का सभ गुर पीर हमारे ॥५॥
कहतु कबीरु सुनहु नर नरवै परहु एक की सरना ॥
केवल नामु जपहु रे प्रानी तब ही निहचै तरना ॥६॥२॥1349॥
107. अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे
अवलि अलह नूरु उपाइआ कुदरति के सभ बंदे ॥
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे ॥१॥
लोगा भरमि न भूलहु भाई ॥
खालिकु खलक खलक महि खालिकु पूरि रहिओ स्रब ठांई ॥१॥ रहाउ ॥
माटी एक अनेक भांति करि साजी साजनहारै ॥
ना कछु पोच माटी के भांडे ना कछु पोच कु्मभारै ॥२॥
सभ महि सचा एको सोई तिस का कीआ सभु कछु होई ॥
हुकमु पछानै सु एको जानै बंदा कहीऐ सोई ॥३॥
अलहु अलखु न जाई लखिआ गुरि गुड़ु दीना मीठा ॥
कहि कबीर मेरी संका नासी सरब निरंजनु डीठा ॥४॥३॥1349॥
108. बेद कतेब कहहु मत झूठे झूठा जो न बिचारै
बेद कतेब कहहु मत झूठे झूठा जो न बिचारै ॥
जउ सभ महि एकु खुदाइ कहत हउ तउ किउ मुरगी मारै ॥१॥
मुलां कहहु निआउ खुदाई ॥
तेरे मन का भरमु न जाई ॥१॥ रहाउ ॥
पकरि जीउ आनिआ देह बिनासी माटी कउ बिसमिलि कीआ ॥
जोति सरूप अनाहत लागी कहु हलालु किआ कीआ ॥२॥
किआ उजू पाकु कीआ मुहु धोइआ किआ मसीति सिरु लाइआ ॥
जउ दिल महि कपटु निवाज गुजारहु किआ हज काबै जाइआ ॥३॥
तूं नापाकु पाकु नही सूझिआ तिस का मरमु न जानिआ ॥
कहि कबीर भिसति ते चूका दोजक सिउ मनु मानिआ ॥४॥४॥1350॥
109. सुंन संधिआ तेरी देव देवाकर अधपति आदि समाई
सुंन संधिआ तेरी देव देवाकर अधपति आदि समाई ॥
सिध समाधि अंतु नही पाइआ लागि रहे सरनाई ॥१॥
लेहु आरती हो पुरख निरंजन सतिगुर पूजहु भाई ॥
ठाढा ब्रहमा निगम बीचारै अलखु न लखिआ जाई ॥१॥ रहाउ ॥
ततु तेलु नामु कीआ बाती दीपकु देह उज्यारा ॥
जोति लाइ जगदीस जगाइआ बूझै बूझनहारा ॥२॥
पंचे सबद अनाहद बाजे संगे सारिंगपानी ॥
कबीर दास तेरी आरती कीनी निरंकार निरबानी ॥३॥५॥1350॥
110. कोऊ हरि समानि नही राजा ॥
कोऊ हरि समानि नही राजा ॥
ए भूपति सभ दिवस चारि के झूठे करत दिवाजा ॥१॥ रहाउ ॥
तेरो जनु होइ सोइ कत डोलै तीनि भवन पर छाजा ॥
हाथु पसारि सकै को जन कउ बोलि सकै न अंदाजा ॥१॥
चेति अचेत मूड़ मन मेरे बाजे अनहद बाजा ॥
कहि कबीर संसा भ्रमु चूको ध्रू प्रहिलाद निवाजा ॥२॥५॥856॥
111. राखि लेहु हम ते बिगरी
राखि लेहु हम ते बिगरी ॥
सीलु धरमु जपु भगति न कीनी हउ अभिमान टेढ पगरी ॥१॥ रहाउ ॥
अमर जानि संची इह काइआ इह मिथिआ काची गगरी ॥
जिनहि निवाजि साजि हम कीए तिसहि बिसारि अवर लगरी ॥१॥
संधिक तोहि साध नही कहीअउ सरनि परे तुमरी पगरी ॥
कहि कबीर इह बिनती सुनीअहु मत घालहु जम की खबरी ॥२॥६॥856॥
112. दरमादे ठाढे दरबारि
दरमादे ठाढे दरबारि ॥
तुझ बिनु सुरति करै को मेरी दरसनु दीजै खोल्हि किवार ॥१॥ रहाउ ॥
तुम धन धनी उदार तिआगी स्रवनन्ह सुनीअतु सुजसु तुम्हार ॥
मागउ काहि रंक सभ देखउ तुम्ह ही ते मेरो निसतारु ॥१॥
जैदेउ नामा बिप सुदामा तिन कउ क्रिपा भई है अपार ॥
कहि कबीर तुम सम्रथ दाते चारि पदारथ देत न बार ॥२॥७॥856॥
113. डंडा मुंद्रा खिंथा आधारी
डंडा मुंद्रा खिंथा आधारी ॥
भ्रम कै भाइ भवै भेखधारी ॥१॥
आसनु पवन दूरि करि बवरे ॥
छोडि कपटु नित हरि भजु बवरे ॥१॥ रहाउ ॥
जिह तू जाचहि सो त्रिभवन भोगी ॥
कहि कबीर केसौ जगि जोगी ॥२॥८॥856॥
114. इन्हि माइआ जगदीस गुसाई तुम्हरे चरन बिसारे
इन्हि माइआ जगदीस गुसाई तुम्हरे चरन बिसारे ॥
किंचत प्रीति न उपजै जन कउ जन कहा करहि बेचारे ॥१॥ रहाउ ॥
ध्रिगु तनु ध्रिगु धनु ध्रिगु इह माइआ ध्रिगु ध्रिगु मति बुधि फंनी ॥
इस माइआ कउ द्रिड़ु करि राखहु बांधे आप बचंनी ॥१॥
किआ खेती किआ लेवा देई परपंच झूठु गुमाना ॥
कहि कबीर ते अंति बिगूते आइआ कालु निदाना ॥२॥९॥857॥
115. सरीर सरोवर भीतरे आछै कमल अनूप
सरीर सरोवर भीतरे आछै कमल अनूप ॥
परम जोति पुरखोतमो जा कै रेख न रूप ॥१॥
रे मन हरि भजु भ्रमु तजहु जगजीवन राम ॥१॥ रहाउ ॥
आवत कछू न दीसई नह दीसै जात ॥
जह उपजै बिनसै तही जैसे पुरिवन पात ॥२॥
मिथिआ करि माइआ तजी सुख सहज बीचारि ॥
कहि कबीर सेवा करहु मन मंझि मुरारि ॥३॥१०॥857॥
116. जनम मरन का भ्रमु गइआ गोबिद लिव लागी
जनम मरन का भ्रमु गइआ गोबिद लिव लागी ॥
जीवत सुंनि समानिआ गुर साखी जागी ॥१॥ रहाउ ॥
कासी ते धुनि ऊपजै धुनि कासी जाई ॥
कासी फूटी पंडिता धुनि कहां समाई ॥१॥
त्रिकुटी संधि मै पेखिआ घट हू घट जागी ॥
ऐसी बुधि समाचरी घट माहि तिआगी ॥२॥
आपु आप ते जानिआ तेज तेजु समाना ॥
कहु कबीर अब जानिआ गोबिद मनु माना ॥३॥११॥857॥
117. चरन कमल जा कै रिदै बसहि सो जनु किउ डोलै देव
चरन कमल जा कै रिदै बसहि सो जनु किउ डोलै देव ॥
मानौ सभ सुख नउ निधि ता कै सहजि सहजि जसु बोलै देव ॥ रहाउ ॥
तब इह मति जउ सभ महि पेखै कुटिल गांठि जब खोलै देव ॥
बारं बार माइआ ते अटकै लै नरजा मनु तोलै देव ॥१॥
जह उहु जाइ तही सुखु पावै माइआ तासु न झोलै देव ॥
कहि कबीर मेरा मनु मानिआ राम प्रीति कीओ लै देव ॥२॥१२॥857॥
118. आकासि गगनु पातालि गगनु है चहु दिसि गगनु रहाइले
आकासि गगनु पातालि गगनु है चहु दिसि गगनु रहाइले ॥
आनद मूलु सदा पुरखोतमु घटु बिनसै गगनु न जाइले ॥१॥
मोहि बैरागु भइओ ॥
इहु जीउ आइ कहा गइओ ॥१॥ रहाउ ॥
पंच ततु मिलि काइआ कीन्ही ततु कहा ते कीनु रे ॥
करम बध तुम जीउ कहत हौ करमहि किनि जीउ दीनु रे ॥२॥
हरि महि तनु है तन महि हरि है सरब निरंतरि सोइ रे ॥
कहि कबीर राम नामु न छोडउ सहजे होइ सु होइ रे ॥३॥३॥870॥
119. खसमु मरै तउ नारि न रोवै
खसमु मरै तउ नारि न रोवै ॥
उसु रखवारा अउरो होवै ॥
रखवारे का होइ बिनास ॥
आगै नरकु ईहा भोग बिलास ॥१॥
एक सुहागनि जगत पिआरी ॥
सगले जीअ जंत की नारी ॥१॥ रहाउ ॥
सोहागनि गलि सोहै हारु ॥
संत कउ बिखु बिगसै संसारु ॥
करि सीगारु बहै पखिआरी ॥
संत की ठिठकी फिरै बिचारी ॥२॥
संत भागि ओह पाछै परै ॥
गुर परसादी मारहु डरै ॥
साकत की ओह पिंड पराइणि ॥
हम कउ द्रिसटि परै त्रखि डाइणि ॥३॥
हम तिस का बहु जानिआ भेउ ॥
जब हूए क्रिपाल मिले गुरदेउ ॥
कहु कबीर अब बाहरि परी ॥
संसारै कै अंचलि लरी ॥४॥४॥७॥871॥
120. ग्रिहि सोभा जा कै रे नाहि
ग्रिहि सोभा जा कै रे नाहि ॥
आवत पहीआ खूधे जाहि ॥
वा कै अंतरि नही संतोखु ॥
बिनु सोहागनि लागै दोखु ॥१॥
धनु सोहागनि महा पवीत ॥
तपे तपीसर डोलै चीत ॥१॥ रहाउ ॥
सोहागनि किरपन की पूती ॥
सेवक तजि जगत सिउ सूती ॥
साधू कै ठाढी दरबारि ॥
सरनि तेरी मो कउ निसतारि ॥२॥
सोहागनि है अति सुंदरी ॥
पग नेवर छनक छनहरी ॥
जउ लगु प्रान तऊ लगु संगे ॥
नाहि त चली बेगि उठि नंगे ॥३॥
सोहागनि भवन त्रै लीआ ॥
दस अठ पुराण तीरथ रस कीआ ॥
ब्रहमा बिसनु महेसर बेधे ॥
बडे भूपति राजे है छेधे ॥४॥
सोहागनि उरवारि न पारि ॥
पांच नारद कै संगि बिधवारि ॥
पांच नारद के मिटवे फूटे ॥
कहु कबीर गुर किरपा छूटे ॥५॥५॥८॥872॥
121. जैसे मंदर महि बलहर ना ठाहरै
जैसे मंदर महि बलहर ना ठाहरै ॥
नाम बिना कैसे पारि उतरै ॥
कु्मभ बिना जलु ना टीकावै ॥
साधू बिनु ऐसे अबगतु जावै ॥१॥
जारउ तिसै जु रामु न चेतै ॥
तन मन रमत रहै महि खेतै ॥१॥ रहाउ ॥
जैसे हलहर बिना जिमी नही बोईऐ ॥
सूत बिना कैसे मणी परोईऐ ॥
घुंडी बिनु किआ गंठि चड़्हाईऐ ॥
साधू बिनु तैसे अबगतु जाईऐ ॥२॥
जैसे मात पिता बिनु बालु न होई ॥
बि्मब बिना कैसे कपरे धोई ॥
घोर बिना कैसे असवार ॥
साधू बिनु नाही दरवार ॥३॥
जैसे बाजे बिनु नही लीजै फेरी ॥
खसमि दुहागनि तजि अउहेरी ॥
कहै कबीरु एकै करि करना ॥
गुरमुखि होइ बहुरि नही मरना ॥४॥६॥९॥872॥
122. कूटनु सोइ जु मन कउ कूटै
कूटनु सोइ जु मन कउ कूटै ॥
मन कूटै तउ जम ते छूटै ॥
कुटि कुटि मनु कसवटी लावै ॥
सो कूटनु मुकति बहु पावै ॥१॥
कूटनु किसै कहहु संसार ॥
सगल बोलन के माहि बीचार ॥१॥ रहाउ ॥
नाचनु सोइ जु मन सिउ नाचै ॥
झूठि न पतीऐ परचै साचै ॥
इसु मन आगे पूरै ताल ॥
इसु नाचन के मन रखवाल ॥२॥
बजारी सो जु बजारहि सोधै ॥
पांच पलीतह कउ परबोधै ॥
नउ नाइक की भगति पछानै ॥
सो बाजारी हम गुर माने ॥३॥
तसकरु सोइ जि ताति न करै ॥
इंद्री कै जतनि नामु उचरै ॥
कहु कबीर हम ऐसे लखन ॥
धंनु गुरदेव अति रूप बिचखन ॥४॥७॥१०॥872॥
123. काइआ कलालनि लाहनि मेलउ गुर का सबदु गुड़ु कीनु रे
काइआ कलालनि लाहनि मेलउ गुर का सबदु गुड़ु कीनु रे ॥
त्रिसना कामु क्रोधु मद मतसर काटि काटि कसु दीनु रे ॥१॥
कोई है रे संतु सहज सुख अंतरि जा कउ जपु तपु देउ दलाली रे ॥
एक बूंद भरि तनु मनु देवउ जो मदु देइ कलाली रे ॥१॥ रहाउ ॥
भवन चतुर दस भाठी कीन्ही ब्रहम अगनि तनि जारी रे ॥
मुद्रा मदक सहज धुनि लागी सुखमन पोचनहारी रे ॥२॥
तीरथ बरत नेम सुचि संजम रवि ससि गहनै देउ रे ॥
सुरति पिआल सुधा रसु अम्रितु एहु महा रसु पेउ रे ॥३॥
निझर धार चुऐ अति निरमल इह रस मनूआ रातो रे ॥
कहि कबीर सगले मद छूछे इहै महा रसु साचो रे ॥४॥१॥968॥
124. गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि महूआ भउ भाठी मन धारा
गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि महूआ भउ भाठी मन धारा ॥
सुखमन नारी सहज समानी पीवै पीवनहारा ॥१॥
अउधू मेरा मनु मतवारा ॥
उनमद चढा मदन रसु चाखिआ त्रिभवन भइआ उजिआरा ॥१॥ रहाउ ॥
दुइ पुर जोरि रसाई भाठी पीउ महा रसु भारी ॥
कामु क्रोधु दुइ कीए जलेता छूटि गई संसारी ॥२॥
प्रगट प्रगास गिआन गुर गमित सतिगुर ते सुधि पाई ॥
दासु कबीरु तासु मद माता उचकि न कबहू जाई ॥३॥२॥968॥
125. तूं मेरो मेरु परबतु सुआमी ओट गही मै तेरी
तूं मेरो मेरु परबतु सुआमी ओट गही मै तेरी ॥
ना तुम डोलहु ना हम गिरते रखि लीनी हरि मेरी ॥१॥
अब तब जब कब तुही तुही ॥
हम तुअ परसादि सुखी सद ही ॥१॥ रहाउ ॥
तोरे भरोसे मगहर बसिओ मेरे तन की तपति बुझाई ॥
पहिले दरसनु मगहर पाइओ फुनि कासी बसे आई ॥२॥
जैसा मगहरु तैसी कासी हम एकै करि जानी ॥
हम निरधन जिउ इहु धनु पाइआ मरते फूटि गुमानी ॥३॥
करै गुमानु चुभहि तिसु सूला को काढन कउ नाही ॥
अजै सु चोभ कउ बिलल बिलाते नरके घोर पचाही ॥४॥
कवनु नरकु किआ सुरगु बिचारा संतन दोऊ रादे ॥
हम काहू की काणि न कढते अपने गुर परसादे ॥५॥
अब तउ जाइ चढे सिंघासनि मिले है सारिंगपानी ॥
राम कबीरा एक भए है कोइ न सकै पछानी ॥६॥३॥969॥
126. संता मानउ दूता डानउ इह कुटवारी मेरी
संता मानउ दूता डानउ इह कुटवारी मेरी ॥
दिवस रैनि तेरे पाउ पलोसउ केस चवर करि फेरी ॥१॥
हम कूकर तेरे दरबारि ॥
भउकहि आगै बदनु पसारि ॥१॥ रहाउ ॥
पूरब जनम हम तुम्हरे सेवक अब तउ मिटिआ न जाई ॥
तेरे दुआरै धुनि सहज की माथै मेरे दगाई ॥२॥
दागे होहि सु रन महि जूझहि बिनु दागे भगि जाई ॥
साधू होइ सु भगति पछानै हरि लए खजानै पाई ॥३॥
कोठरे महि कोठरी परम कोठी बीचारि ॥
गुरि दीनी बसतु कबीर कउ लेवहु बसतु सम्हारि ॥४॥
कबीरि दीई संसार कउ लीनी जिसु मसतकि भागु ॥
अम्रित रसु जिनि पाइआ थिरु ता का सोहागु ॥५॥४॥969॥
127. तरवरु एकु अनंत डार साखा पुहप पत्र रस भरीआ
तरवरु एकु अनंत डार साखा पुहप पत्र रस भरीआ ॥
इह अम्रित की बाड़ी है रे तिनि हरि पूरै करीआ ॥१॥
जानी जानी रे राजा राम की कहानी ॥
अंतरि जोति राम परगासा गुरमुखि बिरलै जानी ॥१॥ रहाउ ॥
भवरु एकु पुहप रस बीधा बारह ले उर धरिआ ॥
सोरह मधे पवनु झकोरिआ आकासे फरु फरिआ ॥२॥
सहज सुंनि इकु बिरवा उपजिआ धरती जलहरु सोखिआ ॥
कहि कबीर हउ ता का सेवकु जिनि इहु बिरवा देखिआ ॥३॥६॥970॥
128. कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ
कवन काज सिरजे जग भीतरि जनमि कवन फलु पाइआ ॥
भव निधि तरन तारन चिंतामनि इक निमख न इहु मनु लाइआ ॥१॥
गोबिंद हम ऐसे अपराधी ॥
जिनि प्रभि जीउ पिंडु था दीआ तिस की भाउ भगति नही साधी ॥१॥ रहाउ ॥
पर धन पर तन पर ती निंदा पर अपबादु न छूटै ॥
आवा गवनु होतु है फुनि फुनि इहु परसंगु न तूटै ॥२॥
जिह घरि कथा होत हरि संतन इक निमख न कीन्हो मै फेरा ॥
ल्मपट चोर दूत मतवारे तिन संगि सदा बसेरा ॥३॥
काम क्रोध माइआ मद मतसर ए स्मपै मो माही ॥
दइआ धरमु अरु गुर की सेवा ए सुपनंतरि नाही ॥४॥
दीन दइआल क्रिपाल दमोदर भगति बछल भै हारी ॥
कहत कबीर भीर जन राखहु हरि सेवा करउ तुम्हारी ॥५॥८॥970॥
129. जिह सिमरनि होइ मुकति दुआरु
जिह सिमरनि होइ मुकति दुआरु ॥
जाहि बैकुंठि नही संसारि ॥
निरभउ कै घरि बजावहि तूर ॥
अनहद बजहि सदा भरपूर ॥१॥
ऐसा सिमरनु करि मन माहि ॥
बिनु सिमरन मुकति कत नाहि ॥१॥ रहाउ ॥
जिह सिमरनि नाही ननकारु ॥
मुकति करै उतरै बहु भारु ॥
नमसकारु करि हिरदै माहि ॥
फिरि फिरि तेरा आवनु नाहि ॥२॥
जिह सिमरनि करहि तू केल ॥
दीपकु बांधि धरिओ बिनु तेल ॥
सो दीपकु अमरकु संसारि ॥
काम क्रोध बिखु काढीले मारि ॥३॥
जिह सिमरनि तेरी गति होइ ॥
सो सिमरनु रखु कंठि परोइ ॥
सो सिमरनु करि नही राखु उतारि ॥
गुर परसादी उतरहि पारि ॥४॥
जिह सिमरनि नाही तुहि कानि ॥
मंदरि सोवहि पट्मबर तानि ॥
सेज सुखाली बिगसै जीउ ॥
सो सिमरनु तू अनदिनु पीउ ॥५॥
जिह सिमरनि तेरी जाइ बलाइ ॥
जिह सिमरनि तुझु पोहै न माइ ॥
सिमरि सिमरि हरि हरि मनि गाईऐ ॥
इहु सिमरनु सतिगुर ते पाईऐ ॥६॥
सदा सदा सिमरि दिनु राति ॥
ऊठत बैठत सासि गिरासि ॥
जागु सोइ सिमरन रस भोग ॥
हरि सिमरनु पाईऐ संजोग ॥७॥
जिह सिमरनि नाही तुझु भार ॥
सो सिमरनु राम नाम अधारु ॥
कहि कबीर जा का नही अंतु ॥
तिस के आगे तंतु न मंतु ॥८॥९॥871॥
130. बंधचि बंधनु पाइआ
बंधचि बंधनु पाइआ ॥
मुकतै गुरि अनलु बुझाइआ ॥
जब नख सिख इहु मनु चीन्हा ॥
तब अंतरि मजनु कीन्हा ॥१॥
पवनपति उनमनि रहनु खरा ॥
नही मिरतु न जनमु जरा ॥१॥ रहाउ ॥
उलटी ले सकति सहारं ॥
पैसीले गगन मझारं ॥
बेधीअले चक्र भुअंगा ॥
भेटीअले राइ निसंगा ॥२॥
चूकीअले मोह मइआसा ॥
ससि कीनो सूर गिरासा ॥
जब कु्मभकु भरिपुरि लीणा ॥
तह बाजे अनहद बीणा ॥३॥
बकतै बकि सबदु सुनाइआ ॥
सुनतै सुनि मंनि बसाइआ ॥
करि करता उतरसि पारं ॥
कहै कबीरा सारं ॥४॥१॥१०॥971॥
131. चंदु सूरजु दुइ जोति सरूपु
चंदु सूरजु दुइ जोति सरूपु ॥
जोती अंतरि ब्रहमु अनूपु ॥१॥
करु रे गिआनी ब्रहम बीचारु ॥
जोती अंतरि धरिआ पसारु ॥१॥ रहाउ ॥
हीरा देखि हीरे करउ आदेसु ॥
कहै कबीरु निरंजन अलेखु ॥२॥२॥११॥972॥
132. दुनीआ हुसीआर बेदार जागत मुसीअत हउ रे भाई
दुनीआ हुसीआर बेदार जागत मुसीअत हउ रे भाई ॥
निगम हुसीआर पहरूआ देखत जमु ले जाई ॥१॥ रहाउ ॥
नंीबु भइओ आंबु आंबु भइओ नंीबा केला पाका झारि ॥
नालीएर फलु सेबरि पाका मूरख मुगध गवार ॥१॥
हरि भइओ खांडु रेतु महि बिखरिओ हसतीं चुनिओ न जाई ॥
कहि कमीर कुल जाति पांति तजि चीटी होइ चुनि खाई ॥२॥३॥१२॥972॥
133. रिधि सिधि जा कउ फुरी तब काहू सिउ किआ काज
रिधि सिधि जा कउ फुरी तब काहू सिउ किआ काज ॥
तेरे कहने की गति किआ कहउ मै बोलत ही बड लाज ॥१॥
रामु जिह पाइआ राम ॥
ते भवहि न बारै बार ॥१॥ रहाउ ॥
झूठा जगु डहकै घना दिन दुइ बरतन की आस ॥
राम उदकु जिह जन पीआ तिहि बहुरि न भई पिआस ॥२॥
गुर प्रसादि जिह बूझिआ आसा ते भइआ निरासु ॥
सभु सचु नदरी आइआ जउ आतम भइआ उदासु ॥३॥
राम नाम रसु चाखिआ हरि नामा हर तारि ॥
कहु कबीर कंचनु भइआ भ्रमु गइआ समुद्रै पारि ॥४॥३॥1103॥
134. जउ तुम्ह मो कउ दूरि करत हउ तउ तुम मुकति बतावहु
जउ तुम्ह मो कउ दूरि करत हउ तउ तुम मुकति बतावहु ॥
एक अनेक होइ रहिओ सगल महि अब कैसे भरमावहु ॥१॥
राम मो कउ तारि कहां लै जई है ॥
सोधउ मुकति कहा देउ कैसी करि प्रसादु मोहि पाई है ॥१॥ रहाउ ॥
तारन तरनु तबै लगु कहीऐ जब लगु ततु न जानिआ ॥
अब तउ बिमल भए घट ही महि कहि कबीर मनु मानिआ ॥२॥५॥1104॥
135. अनभउ किनै न देखिआ बैरागीअड़े
अनभउ किनै न देखिआ बैरागीअड़े ॥
बिनु भै अनभउ होइ वणाह्मबै ॥१॥
सहु हदूरि देखै तां भउ पवै बैरागीअड़े ॥
हुकमै बूझै त निरभउ होइ वणाह्मबै ॥२॥
हरि पाखंडु न कीजई बैरागीअड़े ॥
पाखंडि रता सभु लोकु वणाह्मबै ॥३॥
त्रिसना पासु न छोडई बैरागीअड़े ॥
ममता जालिआ पिंडु वणाह्मबै ॥४॥
चिंता जालि तनु जालिआ बैरागीअड़े ॥
जे मनु मिरतकु होइ वणाह्मबै ॥५॥
सतिगुर बिनु बैरागु न होवई बैरागीअड़े ॥
जे लोचै सभु कोइ वणाह्मबै ॥६॥
करमु होवै सतिगुरु मिलै बैरागीअड़े ॥
सहजे पावै सोइ वणाह्मबै ॥७॥
कहु कबीर इक बेनती बैरागीअड़े ॥
मो कउ भउजलु पारि उतारि वणाह्मबै ॥८॥१॥८॥1104॥
136. रामु सिमरु पछुताहिगा मन
रामु सिमरु पछुताहिगा मन ॥
पापी जीअरा लोभु करतु है आजु कालि उठि जाहिगा ॥१॥ रहाउ ॥
लालच लागे जनमु गवाइआ माइआ भरम भुलाहिगा ॥
धन जोबन का गरबु न कीजै कागद जिउ गलि जाहिगा ॥१॥
जउ जमु आइ केस गहि पटकै ता दिन किछु न बसाहिगा ॥
सिमरनु भजनु दइआ नही कीनी तउ मुखि चोटा खाहिगा ॥२॥
धरम राइ जब लेखा मागै किआ मुखु लै कै जाहिगा ॥
कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु साधसंगति तरि जांहिगा ॥३॥१॥1106॥
137. किनही बनजिआ कांसी तांबा किनही लउग सुपारी
किनही बनजिआ कांसी तांबा किनही लउग सुपारी ॥
संतहु बनजिआ नामु गोबिद का ऐसी खेप हमारी ॥१॥
हरि के नाम के बिआपारी ॥
हीरा हाथि चड़िआ निरमोलकु छूटि गई संसारी ॥१॥ रहाउ ॥
साचे लाए तउ सच लागे साचे के बिउहारी ॥
साची बसतु के भार चलाए पहुचे जाइ भंडारी ॥२॥
आपहि रतन जवाहर मानिक आपै है पासारी ॥
आपै दह दिस आप चलावै निहचलु है बिआपारी ॥३॥
मनु करि बैलु सुरति करि पैडा गिआन गोनि भरि डारी ॥
कहतु कबीरु सुनहु रे संतहु निबही खेप हमारी ॥४॥२॥1123॥
138. री कलवारि गवारि मूढ मति उलटो पवनु फिरावउ
री कलवारि गवारि मूढ मति उलटो पवनु फिरावउ ॥
मनु मतवार मेर सर भाठी अम्रित धार चुआवउ ॥१॥
बोलहु भईआ राम की दुहाई ॥
पीवहु संत सदा मति दुरलभ सहजे पिआस बुझाई ॥१॥ रहाउ ॥
भै बिचि भाउ भाइ कोऊ बूझहि हरि रसु पावै भाई ॥
जेते घट अम्रितु सभ ही महि भावै तिसहि पीआई ॥२॥
नगरी एकै नउ दरवाजे धावतु बरजि रहाई ॥
त्रिकुटी छूटै दसवा दरु खूल्है ता मनु खीवा भाई ॥३॥
अभै पद पूरि ताप तह नासे कहि कबीर बीचारी ॥
उबट चलंते इहु मदु पाइआ जैसे खोंद खुमारी ॥४॥३॥1123॥
139. इहु धनु मेरे हरि को नाउ
इहु धनु मेरे हरि को नाउ ॥
गांठि न बाधउ बेचि न खाउ ॥१॥ रहाउ ॥
नाउ मेरे खेती नाउ मेरे बारी ॥
भगति करउ जनु सरनि तुम्हारी ॥१॥
नाउ मेरे माइआ नाउ मेरे पूंजी ॥
तुमहि छोडि जानउ नही दूजी ॥२॥
नाउ मेरे बंधिप नाउ मेरे भाई ॥
नाउ मेरे संगि अंति होइ सखाई ॥३॥
माइआ महि जिसु रखै उदासु ॥
कहि कबीर हउ ता को दासु ॥४॥१॥1157॥
140. गुर सेवा ते भगति कमाई
गुर सेवा ते भगति कमाई ॥
तब इह मानस देही पाई ॥
इस देही कउ सिमरहि देव ॥
सो देही भजु हरि की सेव ॥१॥
भजहु गोबिंद भूलि मत जाहु ॥
मानस जनम का एही लाहु ॥१॥ रहाउ ॥
जब लगु जरा रोगु नही आइआ ॥
जब लगु कालि ग्रसी नही काइआ ॥
जब लगु बिकल भई नही बानी ॥
भजि लेहि रे मन सारिगपानी ॥२॥
अब न भजसि भजसि कब भाई ॥
आवै अंतु न भजिआ जाई ॥
जो किछु करहि सोई अब सारु ॥
फिरि पछुताहु न पावहु पारु ॥३॥
सो सेवकु जो लाइआ सेव ॥
तिन ही पाए निरंजन देव ॥
गुर मिलि ता के खुल्हे कपाट ॥
बहुरि न आवै जोनी बाट ॥४॥
इही तेरा अउसरु इह तेरी बार ॥
घट भीतरि तू देखु बिचारि ॥
कहत कबीरु जीति कै हारि ॥
बहु बिधि कहिओ पुकारि पुकारि ॥५॥१॥९॥1159॥
141. सिव की पुरी बसै बुधि सारु
सिव की पुरी बसै बुधि सारु ॥
तह तुम्ह मिलि कै करहु बिचारु ॥
ईत ऊत की सोझी परै ॥
कउनु करम मेरा करि करि मरै ॥१॥
निज पद ऊपरि लागो धिआनु ॥
राजा राम नामु मोरा ब्रहम गिआनु ॥१॥ रहाउ ॥
मूल दुआरै बंधिआ बंधु ॥
रवि ऊपरि गहि राखिआ चंदु ॥
पछम दुआरै सूरजु तपै ॥
मेर डंड सिर ऊपरि बसै ॥२॥
पसचम दुआरे की सिल ओड़ ॥
तिह सिल ऊपरि खिड़की अउर ॥
खिड़की ऊपरि दसवा दुआरु ॥
कहि कबीर ता का अंतु न पारु ॥३॥२॥१०॥1159॥
142. जल महि मीन माइआ के बेधे
जल महि मीन माइआ के बेधे ॥
दीपक पतंग माइआ के छेदे ॥
काम माइआ कुंचर कउ बिआपै ॥
भुइअंगम भ्रिंग माइआ महि खापे ॥१॥
माइआ ऐसी मोहनी भाई ॥
जेते जीअ तेते डहकाई ॥१॥ रहाउ ॥
पंखी म्रिग माइआ महि राते ॥
साकर माखी अधिक संतापे ॥
तुरे उसट माइआ महि भेला ॥
सिध चउरासीह माइआ महि खेला ॥२॥
छिअ जती माइआ के बंदा ॥
नवै नाथ सूरज अरु चंदा ॥
तपे रखीसर माइआ महि सूता ॥
माइआ महि कालु अरु पंच दूता ॥३॥
सुआन सिआल माइआ महि राता ॥
बंतर चीते अरु सिंघाता ॥
मांजार गाडर अरु लूबरा ॥
बिरख मूल माइआ महि परा ॥४॥
माइआ अंतरि भीने देव ॥
सागर इंद्रा अरु धरतेव ॥
कहि कबीर जिसु उदरु तिसु माइआ ॥
तब छूटे जब साधू पाइआ ॥५॥५॥१३॥1160॥
143. सतरि सैइ सलार है जा के
सतरि सैइ सलार है जा के ॥
सवा लाखु पैकाबर ता के ॥
सेख जु कहीअहि कोटि अठासी ॥
छपन कोटि जा के खेल खासी ॥१॥
मो गरीब की को गुजरावै ॥
मजलसि दूरि महलु को पावै ॥१॥ रहाउ ॥
तेतीस करोड़ी है खेल खाना ॥
चउरासी लख फिरै दिवानां ॥
बाबा आदम कउ किछु नदरि दिखाई ॥
उनि भी भिसति घनेरी पाई ॥२॥
दिल खलहलु जा कै जरद रू बानी ॥
छोडि कतेब करै सैतानी ॥
दुनीआ दोसु रोसु है लोई ॥
अपना कीआ पावै सोई ॥३॥
तुम दाते हम सदा भिखारी ॥
देउ जबाबु होइ बजगारी ॥
दासु कबीरु तेरी पनह समानां ॥
भिसतु नजीकि राखु रहमाना ॥४॥७॥१५॥1161॥
144. किउ लीजै गढु बंका भाई
किउ लीजै गढु बंका भाई ॥
दोवर कोट अरु तेवर खाई ॥१॥ रहाउ ॥
पांच पचीस मोह मद मतसर आडी परबल माइआ ॥
जन गरीब को जोरु न पहुचै कहा करउ रघुराइआ ॥१॥
कामु किवारी दुखु सुखु दरवानी पापु पुंनु दरवाजा ॥
क्रोधु प्रधानु महा बड दुंदर तह मनु मावासी राजा ॥२॥
स्वाद सनाह टोपु ममता को कुबुधि कमान चढाई ॥
तिसना तीर रहे घट भीतरि इउ गढु लीओ न जाई ॥३॥
प्रेम पलीता सुरति हवाई गोला गिआनु चलाइआ ॥
ब्रहम अगनि सहजे परजाली एकहि चोट सिझाइआ ॥४॥
सतु संतोखु लै लरने लागा तोरे दुइ दरवाजा ॥
साधसंगति अरु गुर की क्रिपा ते पकरिओ गढ को राजा ॥५॥
भगवत भीरि सकति सिमरन की कटी काल भै फासी ॥
दासु कमीरु चड़्हिओ गड़्ह ऊपरि राजु लीओ अबिनासी ॥६॥९॥१७॥1161॥
145. अगम द्रुगम गड़ि रचिओ बास
अगम द्रुगम गड़ि रचिओ बास ॥
जा महि जोति करे परगास ॥
बिजुली चमकै होइ अनंदु ॥
जिह पउड़्हे प्रभ बाल गोबिंद ॥१॥
इहु जीउ राम नाम लिव लागै ॥
जरा मरनु छूटै भ्रमु भागै ॥१॥ रहाउ ॥
अबरन बरन सिउ मन ही प्रीति ॥
हउमै गावनि गावहि गीत ॥
अनहद सबद होत झुनकार ॥
जिह पउड़्हे प्रभ स्री गोपाल ॥२॥
खंडल मंडल मंडल मंडा ॥
त्रिअ असथान तीनि त्रिअ खंडा ॥
अगम अगोचरु रहिआ अभ अंत ॥
पारु न पावै को धरनीधर मंत ॥३॥
कदली पुहप धूप परगास ॥
रज पंकज महि लीओ निवास ॥
दुआदस दल अभ अंतरि मंत ॥
जह पउड़े स्री कमला कंत ॥४॥
अरध उरध मुखि लागो कासु ॥
सुंन मंडल महि करि परगासु ॥
ऊहां सूरज नाही चंद ॥
आदि निरंजनु करै अनंद ॥५॥
सो ब्रहमंडि पिंडि सो जानु ॥
मान सरोवरि करि इसनानु ॥
सोहं सो जा कउ है जाप ॥
जा कउ लिपत न होइ पुंन अरु पाप ॥६॥
अबरन बरन घाम नही छाम ॥
अवर न पाईऐ गुर की साम ॥
टारी न टरै आवै न जाइ ॥
सुंन सहज महि रहिओ समाइ ॥७॥
मन मधे जानै जे कोइ ॥
जो बोलै सो आपै होइ ॥
जोति मंत्रि मनि असथिरु करै ॥
कहि कबीर सो प्रानी तरै ॥८॥१॥1162॥
146. कोटि सूर जा कै परगास
कोटि सूर जा कै परगास ॥
कोटि महादेव अरु कबिलास ॥
दुरगा कोटि जा कै मरदनु करै ॥
ब्रहमा कोटि बेद उचरै ॥१॥
जउ जाचउ तउ केवल राम ॥
आन देव सिउ नाही काम ॥१॥ रहाउ ॥
कोटि चंद्रमे करहि चराक ॥
सुर तेतीसउ जेवहि पाक ॥
नव ग्रह कोटि ठाढे दरबार ॥
धरम कोटि जा कै प्रतिहार ॥२॥
पवन कोटि चउबारे फिरहि ॥
बासक कोटि सेज बिसथरहि ॥
समुंद कोटि जा के पानीहार ॥
रोमावलि कोटि अठारह भार ॥३॥
कोटि कमेर भरहि भंडार ॥
कोटिक लखिमी करै सीगार ॥
कोटिक पाप पुंन बहु हिरहि ॥
इंद्र कोटि जा के सेवा करहि ॥४॥
छपन कोटि जा कै प्रतिहार ॥
नगरी नगरी खिअत अपार ॥
लट छूटी वरतै बिकराल ॥
कोटि कला खेलै गोपाल ॥५॥
कोटि जग जा कै दरबार ॥
गंध्रब कोटि करहि जैकार ॥
बिदिआ कोटि सभै गुन कहै ॥
तऊ पारब्रहम का अंतु न लहै ॥६॥
बावन कोटि जा कै रोमावली ॥
रावन सैना जह ते छली ॥
सहस कोटि बहु कहत पुरान ॥
दुरजोधन का मथिआ मानु ॥७॥
कंद्रप कोटि जा कै लवै न धरहि ॥
अंतर अंतरि मनसा हरहि ॥
कहि कबीर सुनि सारिगपान ॥
देहि अभै पदु मांगउ दान ॥८॥२॥१८॥२०॥1162॥
147. जोइ खसमु है जाइआ
जोइ खसमु है जाइआ ॥
पूति बापु खेलाइआ ॥
बिनु स्रवणा खीरु पिलाइआ ॥१॥
देखहु लोगा कलि को भाउ ॥
सुति मुकलाई अपनी माउ ॥१॥ रहाउ ॥
पगा बिनु हुरीआ मारता ॥
बदनै बिनु खिर खिर हासता ॥
निद्रा बिनु नरु पै सोवै ॥
बिनु बासन खीरु बिलोवै ॥२॥
बिनु असथन गऊ लवेरी ॥
पैडे बिनु बाट घनेरी ॥
बिनु सतिगुर बाट न पाई ॥
कहु कबीर समझाई ॥३॥३॥1194॥
148. इसु तन मन मधे मदन चोर
इसु तन मन मधे मदन चोर ॥
जिनि गिआन रतनु हिरि लीन मोर ॥
मै अनाथु प्रभ कहउ काहि ॥
को को न बिगूतो मै को आहि ॥१॥
माधउ दारुन दुखु सहिओ न जाइ ॥
मेरो चपल बुधि सिउ कहा बसाइ ॥१॥ रहाउ ॥
सनक सनंदन सिव सुकादि ॥
नाभि कमल जाने ब्रहमादि ॥
कबि जन जोगी जटाधारि ॥
सभ आपन अउसर चले सारि ॥२॥
तू अथाहु मोहि थाह नाहि ॥
प्रभ दीना नाथ दुखु कहउ काहि ॥
मोरो जनम मरन दुखु आथि धीर ॥
सुख सागर गुन रउ कबीर ॥३॥५॥1194॥
149. नाइकु एकु बनजारे पाच
नाइकु एकु बनजारे पाच ॥
बरध पचीसक संगु काच ॥
नउ बहीआं दस गोनि आहि ॥
कसनि बहतरि लागी ताहि ॥१॥
मोहि ऐसे बनज सिउ नहीन काजु ॥
जिह घटै मूलु नित बढै बिआजु ॥ रहाउ ॥
सात सूत मिलि बनजु कीन ॥
करम भावनी संग लीन ॥
तीनि जगाती करत रारि ॥
चलो बनजारा हाथ झारि ॥२॥
पूंजी हिरानी बनजु टूट ॥
दह दिस टांडो गइओ फूटि ॥
कहि कबीर मन सरसी काज ॥
सहज समानो त भरम भाज ॥३॥६॥1194॥
150. सुरह की जैसी तेरी चाल
सुरह की जैसी तेरी चाल ॥
तेरी पूंछट ऊपरि झमक बाल ॥१॥
इस घर महि है सु तू ढूंढि खाहि ॥
अउर किस ही के तू मति ही जाहि ॥१॥ रहाउ ॥
चाकी चाटहि चूनु खाहि ॥
चाकी का चीथरा कहां लै जाहि ॥२॥
छीके पर तेरी बहुतु डीठि ॥
मतु लकरी सोटा तेरी परै पीठि ॥३॥
कहि कबीर भोग भले कीन ॥
मति कोऊ मारै ईंट ढेम ॥४॥१॥1196॥
(नोट=ये सभी पद/शब्द गुरू ग्रंथ साहब में शामिल हैं)
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